शिरोमणि महतो




जन्म : 29 जुलाई 1973
शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी) प्रथम वर्ष
सम्प्रति : अध्यापन एवं ‘‘महुआ’’ पत्रिका का सम्पादन
  
प्रकाशन : कथादेश,  हंस,  कादम्बिनी,  पाखी,  वागर्थ,  कथन,  समावर्तन, द पब्लिक एजेन्डा,  समकालीन भारतीय साहित्य, सर्वनाम, युद्धरत आम आदमी, ब्दयोग,  लमही,  पाठ, पांडुलिपि,  हमदलित,  कौशिकी, नव निकष,  दैनिक जागरण पुनर्नवाविशेषांक,  दैनिक हिन्दुस्तान, जनसत्ता विशेषांक, छपते-छपते विशेषांक,  राँची एक्सप्रेस,  प्रभात खबर एवं अन्य दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।

* उपेक्षिता (उपन्यास) 2000
* कभी अकेले नहीं (कविता संग्रह) 2007
* संकेत-3 (कविताओं पर केन्द्रित पत्रिका) 2009 प्रकाशित।
* करमजला (उपन्यास) अप्रकाशित।

सम्मान : कुछ संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
*जनकवि रामबली परवाना स्मृति सम्मान (2010), खगड़िया (बिहार)



कवि अपने समय का सजग चितेरा होता है. उसकी दृष्टि उन दुर्लभतम चीजों-बातों की ओर बार-बार जाती है जो कभी हमारी सभ्यता के निर्माण में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा चुकी होती है लेकिन समय की मार के चलते अब प्रायः उपेक्षित है. कवि अपनी रचना के माध्यम से हमारा उससे साक्षात्कार कराता है. आज जब नव उपनिवेशवाद अपने नए नवेले लुभावने स्वरुप में लोगों को भ्रमित कर लगातार अपने धृतराष्ट्रीय आगोश में लेता जा रहा है. बाजार हमें अपने आप को गिरवी रख कर अपने उत्पादों को खरीदने के लिए हर पल लुभा रहा है और हमारे सपनों तक में दखलंदाजी कर रहा है, नयी तकनीक व्यक्ति को और एकांत की और धकेलती जा रही है तब इस कवि की भूमिका और महत्वपूर्ण हो जाती है. शिरोमणि महतो हमारे समय के ऐसे ही कवि हैं जो शोरशराबे से दूर चुपचाप अपनी रचनाओं के माध्यम से सभ्यता संस्कृति को बचाए रखने के लिए संघर्षरत हैं. आप इनकी कविताओं में उस कोदो के भात से एक बार फिर रू-ब-रू हो सकते हैं जिसे धान ने अब लगभग बेदखल कर दिया है. तो आईए इन कविताओं की सुगंध से हम खुद सुवासित  होते हैं.




भात का भूगोल

पहले चावल को
बड़े यत्न से निरखा जाता
फिर धोया जाता स्वच्छ पानी में
तन-मन को धोने की तरह....

फिर सनसनाते हुए अधन में
पितरों को नमन करते हुए
डाला जाता है-चावल को
अधन का ताप बढ़ने लगता है
और चावल का रूप-गंध बदलने लगता है

लोहे को पिघलना पड़ता हे
औजारों में ढलने के लिए
सोना को गलना पड़ता है
जेवर बनने के लिए
और चावल को उबलना पड़ता है
भात बनने के लिए
मानो,
सृजन का प्रस्थान बिन्दु होता है-दुख !

लगभग पौन घंटा डबकने के बाद
एक भात को दबाकर परखा जाता है
और एक भात से पता चल जाता
पूरे भात का एक साथ होना
बड़े यत्न से पसाया जाता है मांड
फिर थोड़ी देर के लिए
आग में चढ़ाया जाता है भात को
ताकि लजबज न रहे

आग के कटिबंध से हो कर
गुजरता है -भात का भूगोल
तब जा के भरता है-
मानव का पेट-गोल-गोल!

छोटे शहर में प्यार

छोटे शहर में प्यार
पनपता है धीरे-धीरे
पलता है लुक-छुप कर
आँखों की ओट में
हृदय के तल में

छोटे शहर में
फैल जाती है-प्यार की गंध
इस छोर से उस छोर तक
धमधमा उठता है-
पूरा का पूरा-छोटा शहर

छोटे शहर का आकाश
बहुत नीचा होता
और धरती बहुत छोटी
जहाँ परिंदे पंख फैला कर
उड़ भी नहीं सकते

छोटे शहर में
प्रेमियों के मिलने के लिए
कोई गुप्त सुरक्षित जगह नहीं होती
न कोई सिनेमा घर होता
न बाग-बगीचे
और न ही किलाओं का खण्डहर
जहाँ दो-चार पल
जिया जा सके एक साथ
और सांसो की आँच से
सेंका जा सके प्यार को!

छोटे शहर में
प्रेमियों का मिलना कठिन होता है
वहाँ हर घर के कबूतर
हरेक घर की मुर्गियों को पहचानते हैं
दो प्रेमियों को मिलते देख कर
कोई मुर्गा भी शोर मचा सकता है!

छोटे शहर में दो प्रेमी
एक-दूसरे को देख कर
मुस्कुरा भी नहीं सकते
आँखों की मुस्कुराहट से
करना होता है-संवाद
और संवेदना का आदान-प्रदान!

छोटे शहर में प्यार
बहुत मुश्किल से पलता है
पूरा का पूरा छोटा शहर
बंधा होता है-
घरेलू रिश्तों की डोर से
जिसमें प्रेम के मनके गूँथे नहीं जाते !

छोटे शहर में
चोरी-छिन्नतई जायज है
गुंडई-लंगटई जायज है
यहाँ तक कि-मौज मस्ती के लिए
अवैध संबंध भी जायज है
किन्तु, प्यार करना पाप होता
एक जघन्य अपराध होता
प्रेम करने वालों को चरित्रहीन समझा जाता है

छोटे शहर में प्यार को
हवा में सूखना पड़ता है
धूप में जलना पड़ता है
आग निगलना पड़ता है
और खौलते हुए तेल में
उबलना पड़ता है
इसके बावजूद साबुत बचे तो
लांघनी पड़ती हैं-
और कई अलंघ्य दीवारें!

वैसे तो
छोटे शहर में
प्रेम से ज्यादा
पेट के सवाल लटके हुए होते
हवाओं में काँटों की तरह...
जो आत्मा को कौंचते रहते हैं
और कईयों बार
प्रेम-भ्रूनाणावस्था में ही नष्ट हो जाता है!

छोटे शहर में प्यार
अक्सर अपने पड़ाव तक
नहीं पहुँच पाता
उसे झेलना पड़ता है-
विरह...
या फिर-निर्वासन!

कर्म और भाग्य

जिसका भाग्य साथ होता
उसके साथ लागू होता-

न्यूटन का तृतीय गति-सिद्धांत
कर्म के बराबर मिलता-फल

 जिसका भाग्य मंद होता
उसके कर्म का भी फल मिलता
जैसे एक कड़ाही साग
सीझने के बाद बचता-एक कलछुल!

और जिसका भाग्य तेज होता
उसका कर्म-फल गई गुना अधिक होता
जैसे एक पैला चावल
खदक कर हो जाता-एक डेगची भात!

दुःख

 हरे-भरे पेड़ पर ही अक्सर होता है-बज्रपात
पूर्णिमा के पूरे चांद को ही लगता है-ग्रहण
ठीक बांध जब भर जाता है छपाछप
अगाध पानी में मछलियाँ तैरती है-निर्बात
तभी टूट जाती है-मेढ़
खेतों में लहलहा रही होती है फसलें
तभी आ जाती है-बाढ़
और दहा जाती है फसलों को

 और,
जब होना था राज्याभिषेक
तभी मिला-बनवास!
जीवन हुलस रहा होता है सुख से
तभी आ टूटता है-दुःखों का पहाड़
सुख की पीठ पर सवार होकर चलता है-दुःख!


कोदो भात
कोदो गोंदली मंहुआ
अब देखने को नहीं मिलते
उखड़ गई इन फसलों की खेती
जैसे हम उखड़ गये अपनी जड़ों से!

आज कोदो का भात दुर्लभ है
लेकिन कहावत अभी जिन्दा है-
हाम तो बाप पके कोदो नायं खाईल हियो
पहले कोदो चावल से भी ज्यादा भोज्य था
तभी तो बनी थी-यह कहावत

 धीरे-धीरे चावल भी छूटता जा रहा
और उसकी जगह लेता जा रहा
अब चौमीन-चाईनीज फूड....

 जैसे-जैसे कोदो से चावल
और चावल से चाईनीज फूड
वैसे-वैसे भारत से इंडिया
होता जा रहा अपना देश....!

प्रेम

प्रेम
हृदय के वृक्ष में
खिला हुआ-गूलर का फूल
कोई देख न पावे
और जो देखे
सो अमर हो जाये !

काम पर जाते हुए लोग

भोर होते ही
पौ फटने से पहले
दंगल के दंगल निकल पड़े
पक्षियों के रैला-सा

 काम पर जाते हुए लोग
जीवन का राग अलापते
कोई खोरठा गीत गुनगुनाते
साईकिल की घंटी टुनटुनाते
अपने दुःखों को चिढ़ाते हुए

 अभी हाथ-मुँह भी नहीं धोया
दिसा मैदानभी नहीं किया
केवल कंठ को भीगोया है-
एक लोटा बासी जल से

माथे पर बांधे हुए
पत्नी की साड़ी का टुकड़ा
जो दुआओ से पगा हुआ है
या कोई पुराना दुपट्टा
जिसमें बेटी की उम्र बंधी हुई है
जो उनके सिर को बचायेगा-
हवा-बसात लगने से
चोट-घाट लगने से!

काम पर जाते हुए लोग
काम में घुसे होते भीतर तक
काम से बाहर
कहीं जा नहीं सकते
काम उन्हें जकड़े हुए होता
बेड़ियों की तरह....

 काम पर जाते हुए लोग
सिर पर लिये हुए होते पहाड़
और पाँवों के नीचे दलदल
खूँदते हैं- कादो धरती का
इस छोर से उस छोर तक
फाँकते हैं मन के मन बालू
थार और सहारा का

 पसीने से उनका शरीर
तर-बतर हो जाता
गालों के गढ्ढों में
ठहरा हुआ पसीना
जिसमें झिलमिलाते-चाँद सितारे !
वे चुनौती देते-चंद्रयान को
जो उठा नहीं सकता-उनका दुःख !

 उनके घरों का छप्पर
उजड़ गया है-पिछली आँधी में
पिछली बरसात में
दरक गई दीवारें
लेकिन घनघोर आँधी-पानी में भी
उनके संबंधों में
कभी नहीं पड़ी दरार !

 काम पर जाते हुए लोग
कहीं भाग नहीं सकते
घर उनके साथ-साथ चलता
और उनके लोग होते
घर के अंदर !


 फागुन

फागुन की खिली-खिली धूप
आंगन में फटक रही सूप ।

महुवे से मादक हुई हवा
चूल्हे में गरम रहा तवा।

टेसू से दृश्य हुआ लाल
ज्यों गोरे गाल में गुलाल ।

उर्जा से भरा कोना-कोना
होठों से लगा मोद का दोना।

न जाने मन को क्या हुआ
गोरी ने साजन को छुआ।

संपर्क -
नावाडीह, बोकारो, झारखण्ड-829144
मोबाईल : 9931552982

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं