ज्योति चावला
5 अक्टूबर 1979 को दिल्ली में जन्म। युवा पीढ़ी में कहानी और
कविता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण नाम। कविताएं सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं
में नियमित और प्रमुखता से प्रकाशित। कविताओं का पंजाबी, मराठी और उड़िया में अनुवाद। कई पत्रिकाओं में कविताओं की
विशेष रूप से प्रस्तुति। अभी तक पांच कहानियां प्रगतिशील वसुधा, रचना समय और नया ज्ञानोदय में प्रकाशित। कहानी ‘अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होती’ का पंजाबी, मराठी और अंग्रेजी में अनुवाद। पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस से
पुस्तक ‘श्रेष्ठ हिन्दी कहानियां’(1990-2000)
का सम्पादन। पहला कविता संग्रह ‘मां का जवान चेहरा’ शीघ्र प्रकाश्य।
आज की कविता में जिन कुछ कवियों ने अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई है
उसमें ज्योति चावला का नाम प्रमुख है. ज्योति की कविताओं में बिलकुल अलग और
अपने ढंग का स्त्री विमर्श दिखाई पड़ता है जो उन्हें औरों से अलग करता है.. उनके पास एक सुस्पष्ट कथ्य है जो उनकी कहानियों के साथ-साथ कविताओं
में भी दिखाई पड़ता है. ज्योति के यहाँ स्त्री एक प्रेमिका और पत्नी के
अलावा वह ममतामयी माँ है जो औरों की खुशी के लिए अपना सब कुछ लुटा देती
हैं. जो अपनी बेटी के लिए वैसा ही बचपन चाहती है जिसे कि उसने स्वयं
निश्चिंत और बेख़ौफ़ जिया था.
तो प्रस्तुत है ज्योति की कुछ ऐसी ही अंदाज की कविताएँ.
वह औरत
वह औरत अपनी लाल
साड़ी के आंचल में
बटोर कर ले जा
रही है कई फूल सफेद
ऐसे जैसे बटोर कर
ले जा रही हो
आसमान से अनगिनत
तारे
इन तारों से रौशन
करेगी सबसे पहले
वह अपने घर का
मंदिर
हाथों की ओट दे
रख देगी एक तारा
मंदिर के छोटे से
दीप में
फिर इन तारों से
जलाएगी
रात भर से उदास
पड़ा अपना चूल्हा
उसके आंचल में
बटोरे यही तारे
उजास भर देंगे
फिर पूरे आंगन में
इस तरह, वह औरत आज फिर
एक नई सुबह को
जन्म देगी।
समझदारों की दुनिया में मांएं मूर्ख होती हैं
मेरा भाई और कभी-कभी मेरी बहनें भी
बड़ी सरलता से कह
देते हैं
मेरी मां को
मूर्ख और
अपनी समझदारी पर
इतराने लगते हैं
वे कहते हैं नहीं
है ज़रा सी भी
समझदारी हमारी
मां को
किसी को भी बिना
जाने दे देती है
अपनी बेहद प्रिय
चीज़
कभी शॉल, कभी साड़ी और कभी-कभी
रुपये पैसे तक
देते हुए भूल
जाती है वह कि
कितने जतन से
जुटाया था उसने यह सब
और पल भर में
देकर हो गई
फिर से खाली हाथ
अभी पिछले ही
दिनों मां ने दे दी
भाई की एक बढ़िया
कमीज़
किसी राह चलते
भिखारी को
जो घूम रहा है
उसी तरह निर्वस्त्र
भरे बाज़ार में
बहनें बिसूरती हैं कि
पिता के जाने के
बाद जिस साड़ी को
मां उनकी दी हुई
अंतिम भेंट मान
सहेजे रहीं इतने
बरसों तक
वह साड़ी भी दे दी
मां ने
सुबह-शाम आकर घर
बुहारने वाली को
मां सच में मूर्ख है, सीधी है
तभी तो लुटा देती
है वह भी
जो चीज़ उसे बेहद
प्रिय है
मां मूर्ख है तभी
तों पिता के जाने पर
लुटा दिए जीवन के
वे स्वर्णिम वर्ष
हम चार भाई-बहनों
के लिए
कहते हैं जो
प्रिय होते है स्त्री को सबसे अधिक
पिता जब गए
मां अपने यौवन के
चरम पर थीं
कहा पड़ोसियों ने
कि
नहीं ठहरेगी यह
अब
उड़ जाएगी किसी
सफेद पंख वाले कबूतर के साथ
निकलते लोग
दरवाज़े से तो
झांकते थे घर के
भीतर तक, लेकिन
दरवाज़े पर ही टंगा
दिख जाता
मां की लाज शरम
का परदा
दिन बीतते गए और
मां लुटाती गई
जीवन के सब सुख,
अपना यौवन
अपना रंग अपनी
खुशबू
हम बच्चों के लिए
मां होती ही हैं मूर्ख जो
लुटा देती हैं
अपने सब सुख
औरों की खुशी के
लिए
मांएं लुटाती हैं
तो चलती है सृष्टि
इन समझदारों की
दुनिया में
जहां कुछ भी करने
से पहले
विचारा जाता है
बार-बार
पृथ्वी को अपनी
धुरी पर बनाए रखने के लिए
मां का मूर्ख
होना जरूरी है।
मेरा चांद से शायद कोई पुराना रिश्ता है
चांद का इतना
इंतज़ार तो कभी नहीं रहा मुझे
जितना है इन
दिनों
चांद का कर रही
हूं इंतज़ार बड़ी बेसब्री से
चांद से ज्यों
गहरा हो गया है मेरा रिश्ता
मेरी बेटी,
जिसकी ज़बान से फूटने लगे हैं बोल
वह चांद को चंदा
मामा पुकारती है
यूं तो मैंने ही दिखाया उसे चांद
और रिश्ता जोड़
दिया उसका उस दूर देश के वासी से
मैंने ही सिखाया
उसे कि देखो बेटू
ये चंदा मामा हैं
तुम्हारे
रोज़ आएंगे मिलने
तुम्हें ऐसे ही और
रूठोगी तुम तो
हंसाएंगे तुम्हें गुदगुदाकर
वह रूठती है और अपनी तुतलाती ज़बान में
मीठे पूए मांगती
है चंदा मामा से
जैसे मांगे होंगे
मैंने और आपने बचपन में
इसी चंदा मामा से
शाम होते ही पकड़
कर मेरी उंगली ले चलती है मुझे बाहर
और इशारा करती है
अपने प्यारे चंदा मामा की ओर
दौड़ती हुई एक छोर
से दूसरे छोर
मुट्ठी में कैद
कर लेना चाहती है इस चांद को
जो कभी समाया ही
नहीं किसी की मुट्ठी में भी
उस प्रेमी की मुट्ठी में भी नहीं जिसने
दावा किया था कि
मेरी इक मुस्कान पर
वही मुट्ठी में
भर लाएगा चांद-तारे और
मैं उसकी इस बात
पर मुस्कुरा देती थी
मैं पूछती थी
उससे कि कहो
अब कहां हैं
तुम्हारे चांद और तारे और
वह इशारा कर देता
मेरे चेहरे की ओर
कि देखो यही है
मेरा चांद और ये दो आंखें
रात के अंधेरे
में चमचमाते दो तारे
सच कहती हूं जब
वह कहता था मुझे चांद
तब भी नहीं रहता
था मुझे इंतज़ार उस चांद का
कि देखूं कभी
दोनों के रूप की तुलना कर
और खुद को
ज़्यादा खूबसूरत पा
रीझ सकूं मैं खुद
पर ही
अपने प्रेमी की
इन तुलनाओं को ही सच मान
मैं चहक उठती थी
और
उसके आकाश से
जीवन का इकलौता चांद
बन जाना चाहती थी
चांद की दूरी ने
चांद के उजास ने
कभी नहीं रिझाया
मुझे इतना
जितना रिझाता है
वह मुझे इन दिनों
पिछले कुछ दिनों से चांद गायब है आसमान से
और मैं अपनी
बिटिया को तारे दिखा बहला रही हूं
पिछले दिनों ही
पता चला कि चांद
रहता है ओझल कई
दिनों तक
कि धीरे-धीरे
घटता उसका आकार
पूरी तरह छिप
जाता है आसमान की चादर में
पिछले दिनों ही
उसकी कमी बेहद खली
पिछले दिनों ही
जाना कि वह ज़रूरत है मेरी
आज कई दिनों तक
तारे दिखा बहलाती बेटी को
फिर दिखला पाई
हूं चांद
कि देखो बेटू आज
फिर आया है चंदा मामा तुमसे मिलने
कि नहीं मिलने पर
तुमसे देखो तो कैसा दुबला गया है
और मेरी बेटी उसे
एक टक देखती और मुस्कुरा देती है
और सच कहूं आपसे
यकीन करेंगे
जिस दिन से लौटा
है चांद वापस अपने घर
मेरी बेटी की
मुस्कान देख हर रोज़ और बढ़ता जा रहा है।
तुम्हारी आंखें हमें सुकून देती हैं इरोम
हमारे समय में जब मनुष्य में बचे रहने की
संभावना हाशिये
पर हैं, तब
तुम लड़ रही हो
मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने की लड़ाई
तुम लड़ रही हो उन
अधिकारों के लिए
जो छीजते जा रहे
हैं धीरे-धीरे हमारी मुट्ठी से
और हम कठपुतलियों
में तब्दील होते जा रहे हैं
कठपुतलियों के
अधिकार नहीं होते इरोम
यह जानती हो तुम
और इसीलिए बेचैन भी
मनुष्य के
कठपुतली में तब्दील होते जाने से
इरोम तुम लड़ रही
हो हाशिये की लड़ाई
जबकि समाज ने तय
किया है
तुम्हारे लिए भी
एक अदद हाशिया
हाशिया, जहां तुम कभी स्त्री हो जाती हो और
कभी मेरी ज़मीन के
उस हिस्से की वासी, जो
खुली आंखों से
नहीं दिखता धुरी और
धुरी पर बसने
वालों को
या कि यह कि वे
देखना नहीं चाहते उन सुदूर हाशियों को
इरोम, तुम पुकारती हो धुरी को, केंद्र को
लेकिन कहीं एक
छोर से आती तुम्हारी आवाज़
नहीं पंहुच पाती
कि
टकरा जाती है वह
दीवारों से जो
शायद फौलाद से
बनी हैं
और लौट जाती है
वापस तुम तक
इरोम तुम शायद नहीं जानती
कि इन फौलादी
दीवारों के पीछे चल रहा है एक षड्यंत्र
षड्यंत्र मनुष्य
को मनुष्य न रहने देने का
कि तय किए जा रहे
हैं नियम और कायदे
तैयार हो रहे हैं
मसौदे
जल्द से जल्द
मनुष्य को तब्दील कर देने के
पूरी तरह महज़
कठपुतलियों में
रौंदा जा रहा है इरोम बची खुची मानवता को
और तैयार किए जा
रहे हैं प्यादे शतरंज के
जानती हो तुम
इरोम प्यादों के अधिकार नहीं होते
वे तो होते हैं
यंत्रचालित, चलती-फिरती
मशीनों से
इस घोर अमानवीय समय में तुम
लड़ रही हो लड़ाई
मानवता की
लड़ाई अपने अधिकारों
की
लड़ाई अपनों के
अधिकारों की
जो चाहते हैं एक
नज़र उन अतिछोरों की ओर
जहां की आवाज़
नहीं पंहुच पाती धुरी तक
इरोम, तुम नहीं ठूंस पाती उंगलियां अपने कानों में
कि उन बेबस
लड़कियों की आवाज़ें तुम्हारे कानों को चीरती हैं
घसीट कर ले जायी
जातीं वे लड़कियां ज्यों पुकारती हैं तुम्हें ही
कि रौंदा जाएगा
अब उन्हें जूतों की नोंक तले
तुम नहीं बंद कर पाती अपनी आंखें
कि उन काले और
खौफनाक बूटों के नीचे मसलती गर्दन
तुम्हें बंद आखों
से भी दिखाई देती है
तुम रात के
सन्नाटों में डर जाती हो
बंदूक की उस
निरंकुश आवाज़ से
जिसने अभी-अभी
भेदा है सीना न जाने कितने मासूमों का
इरोम, तुम्हें अभी
लम्बी लड़ाई लड़नी होगी
रहना होगा भूखा,
रहना होगा प्यासा
न जाने और कितने
दिनों तक
न जाने कितने
दिनों तक तुम्हारे कान तरसेंगे
उन आवाज़ों के लिए
जो केंद्र से उठती हैं
न जाने कितने
दिनों तक तरसेंगीं तुम्हारी आंखें
जो अमन और शांति
देखना चाहती हैं
न जाने कितने
दिनों तक तरसोगी तुम
अपने सपनों के
साकार होने की इच्छा में
इरोम जब हम घिरे हैं साज़िशों के इस समय में
जहां चारों ओर
रचे जा रहे हैं षड्यंत्र
जहां चारों ओर
बुने जा रहे हैं चक्रव्यूह
तुम्हारी
निर्द्वंद्व, निश्छल आंखें
हमें सुकून देती हैं।
उसके सपने कहीं बेरंग तो नहीं
जब भी उन बीते
दिनों को याद करने बैठती हूं
तो याद आती है दो
छतों के बीच की
मुंडेर पर बैठी
वह बच्ची
चिलचिलाती धूप
में सारा काम निपटा
मां जब सो जाती
थी हम बच्चों को समेट
वह बच्ची चुपके
से उठती थी और
उस उनींदे कमरे
से बाहर आ जाया करती थी
रसोई से दबे पैर
चुरा लाती थी वह
अपनी कटोरी में
मूंगफली के दाने और
छत की मुंडेर पर
निश्चिंत उन्हें खाती थी
चंचल था उस बच्ची
का बड़ा भाई भी
वैसा ही जैसी
चंचंल थी वह छोटी शैतान बच्ची
भाई के पैरों की
आहट पा वह
चुट से दुबक जाती
थी उस मुंडेर के पीछे
जिसके ठीक पीछे
घर था उसकी प्यारी काकी का
काकी चिलचिलाती धूप में छत पर
खेलती बच्ची को
देख प्यारी झिड़की देती थी
और अपनी गोद में
उठा कमरे में ले जाती थी
थक कर सोई मां
ऐसा नहीं था कि नहीं जानती थी कुछ
वह जानती थी अपने
बच्चों की हर चंचलता
हर शरारत की भनक
उसे बंद आंखों से भी हो जाया करती थी
लेकिन निश्चिंत
थी मां छत से सटे उस घर के कारण
हम बच्चों को मिल
कर शैतान बनाया था हमारे मोहल्ले ने
कितनी बार मां ने मारा तो रोती हुई गिरी थी मैं
सीधा बड़ी दादी की
गोद में
बड़ी दादी सबके
लिए बड़ी दादी ही थी
मोहल्ले के सब
बच्चों के लिए पनाह थी उनकी गोद
जाने कितनी बार
सो गए हम उनकी गोद में
और वे अपने पोपले
मुंह से कहती रही अबूझ सी कहानियां
पंहुचाया गया बाद
में हमें हमारे घर
और हम रात भर बड़ी
दादी के कल्पना लोक में खोए रहे
जहां न जाने
कितनी परियां आती थीं सतरंगी कपड़े पहने
जिनके पंख थे रंग
बिरंगे
हमने कई बार सैर
की थी उन रंगीले पंखों पर
दादी कहती थीं वे
वही बूढ़ी अम्मा हैं जो
चांद में बैठी
चरखा कातती रहती है और
हम बच्चे बड़ी
दादी की शक्ल उस चांद की बूढ़ी अम्मा से
मिलाने की कोशिश
करने लगते थे
एक चाची भी थी हमारे
मोहल्ले में
जिनकी रसोई हमें
हर रोज़ पुकारती थी
मां के बनाए खाने
में कमी निकाल हम बच्चे
दौड़ पड़ते थे चाची
के घर की ओर
चाची की हांडी
में कभी सब्ज़ी कम नहीं हुई हम बच्चों के लिए
और आज जब मैं एक बच्ची की मां हूं
तो मुझे वे बीते
दिन बेहद याद आते हैं
मेरी बच्ची के
हिस्से में न तो घर की छत आई
न ही कोई मुंडेर
जिसके पीछे काकी रहती थी
बड़ी दादी भी कोई
नहीं उसके लिए कि
जिसकी गोद में जा
कर वह जी भर कर सके मेरी शिकायत
उसके सपनों में न
चांद आता है और
न दादी का वह
कल्पना लोक
जिसमें रंगीन
परियां उसे गोद में झुलाएं
उसकी पसंद नापसंद,
उसकी सुरक्षा का
हर ख्याल रखना
होता है मुझे ही कि
वे काकी, चाची और बूढ़ी अम्मा
नसीब नही मेरी
बच्ची को
मेरी बेटी मन
बहलाने को देखती है
रंगीन एल सी डी
पर रंग बिरंगे कार्टून
और मन भर जाने पर
वहीं थक कर सो जाती है
मैं नहीं जानती
कि उसके सपनों की दुनिया कैसी है
कि क्या परियां
या चांद की बूढ़ी अम्मा आते हैं वहां
या उसके सपनों
में भी भरे हैं कार्टून और रंगीन टी.वी.
के वे बेहुदा
चरित्र
डर है मुझे कि
उसके सपने कहीं बेरंग न हों
मैं चाहती हूं अपनी बेटी के लिए भी वैसा ही बचपन
जैसा पाया है
मैंने निश्चिंत और बेखौफ
मेरी बेटी भी है
शैतान उतनी ही, पर
शैतान बनाया है
उसे उसके अकेलेपन ने
यह बदलते समय की
कैसी आहट है कि
बिना किसी आहट के
छीज गया हमसे न जाने कितना कुछ
और हम बेबस देखते
रहे।
चवन्नी के बंद हो
जाने पर
मुट्ठी भर चवन्नियों की वह खनक
आज भी मेरे कानों
में गूंजती है
हफ्ते भर की जेब
खर्च वे सात चवन्नियां
मेरे नन्हें
हाथों में कैद थीं
वे सात चवन्नियां
मानो जादू का कोई चिराग
हो गईं थीं उस
दिन
उन सात चवन्नियों
से खरीदा जा सकता था कुछ भी
यूं भी उन दिनों
चाह की भी अपनी एक सीमा थी
एक आइस्क्रीम,
चूरन की गोलियां, लेमनचूस या
बिस्किट का एक
छोटा पैकेट
यही सब हुआ करती
थीं हमारी इच्छाएं
शायद चिराग के
जिन्न के सामने आ जाने पर भी
हमारी मांगें
सिर्फ यहीं तक समाईं थीं
चवन्नी और मेरे बचपन का आपस में एक गहरा रिश्ता है
पिता रोज ऑफिस
जाने से पहले थमाया करते थे
मां के हाथ चार
चवन्नियां, जो
उनके जाते ही हम
चारों भाई-बीन मां से झपट लेते थे
पिता के एक रुपये
को
चार चवन्नियों
में बदल देते मां के जादू को भी
हम बच्चों ने कई
बार देखा है
अपनी अपनी जेब खर्ची जेब में डाल
हम ऐसे रवाना
होते थे स्कूल के लिए
ज्यों हमने अपनी
जेब में पूरी पृथ्वी को
थोड़ा छोटा कर के
रख लिया है
स्कूल में खाने
की घंटी से पहले
जेब में रखी वह
चवन्नी हमें बेचैन किए रहती
मुझे रोज मिलने वाली वह चवन्नी
छोटी थी मेरे
दोस्तों की अठन्नी और एक रुपये से
उनकी अठन्नी और
एक रुपये में समाता था
मुझसे दुगुना और
चौगुना, लेकिन
फिर भी मायूसी
नहीं हुई कभी
दो दिन और चार
दिन में मेरी चवन्नी भी
अठन्नी और एक
रुपये में तब्दील हो जाती थी
चवन्नी को एक
रुपया बनाया
हम चारों
भाई-बहनों ने मिल कर
बांट कर ले लिया
एक रुपये का सारा सुख
चवन्नी ने दिया
मुझे बहुत कुछ बहुत कुछ
एक बार और छोटी हुई थी यह चवन्नी
मां के पीछे छिप
उनकी चुन्नी का किनारा थामे
डरी-सहमी आंखों
और कांपती आवाज में
पिता से जेब खर्च
चवन्नी से अठन्नी में
तब्दील करने को
कहा था
और मां की शह मिल
जाने पर
चवन्नी उस दिन
छोटी साबित हो गई थी
सच कहूं चवन्नी
के छोटे हो जाने ने
उस दिन रोमांचित
ही अधिक किया था
आज चवन्नी के बंद हो जाने की खबर से
टूट गया है भीतर
बहुत कुछ
ऐसे जैसे एक साथ
बहुत सी चवन्नियां
झनझना कर नीचे
गिर गई हों
अब सृष्टि के
अंतिम मनुष्य के लिए भी
उसका कोई मोल
नहीं
अब मेरे बचपन की
यादों का कोई किनारा
अधूरा ही रह
जाएगा
मुट्ठी भर
चवन्नियों की खनक में अब
न सांसें होगीं,
न जीवन होगा
मेरे बचपन का
अहम् हिस्सा मुझसे विदा ले रहा है
और मैं अवाक्
हूं।
सम्पर्कः-
स्कूल ऑफ
ट्रांसलेशन स्टडीज एण्ड ट्रेनिंग
15 सी, न्यू एकेडमिक बिल्डिंग
इग्नू, मैदानगढ़ी, नई दिल्ली-68
e-mail: jtchawla@gmail.com
भावों के किस वर्क को उठाऊं ... माँ,इरोम,चवन्नी....सबमें देवदार सा अस्तित्व है. जन्मदिन की शुभकामनायें -
जवाब देंहटाएंऐसा त्याग केवल और केवल एक माँ ही कर सकती है !
जवाब देंहटाएंफिर भी मूर्ख ही है माँ !
Bahut achhi kavitayen hai.suman shekhar
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत कृतियाँ....
जवाब देंहटाएंलाजवाब...
आभार
अनु
waha ji bahut sundar
जवाब देंहटाएं