बुद्धिलाल पाल
पुनरूत्थान में पुनर्विकास की निरंतरता नहीं होती
(संदर्भ - विनोद शाही का लेख)
‘‘लौ‘‘ अंक 2 में विनोद शाही का आलेख ‘‘पुनरूत्थान और पुनर्विकास‘‘ तथा जीवन सिंह का आलेख ‘‘कविता में लोकधर्मी प्रतिमान‘‘ यह दोनो लेख जीवन की समग्र भाव भंगिमाओं में जीवन को बहुत
विस्तार देते हैं। पर यहाँ पर मैं विनोद शाही के लेख पर अपनी कुछ बातें कहना
चाहूंगा मुझे लगता है यहॉ पर वर्चस्ववादी संस्कृतियों के भीतर ही आत्मसातीकरण की
प्रक्रिया का वर्णन है यह हमारे परिवेश में यथार्थवादी भी है और परम्परा भी यही
रही है। पर वर्चस्ववादी संस्कृति की संड़ाध पर ही इसमें एक धारा जो बनती है
पुनरूत्थान की ओर आ कर इसमें सुधारवाद कर, इस वर्चस्ववादी संस्कृति को फिर से नया जीवन देती है। इसमें वे ही सुधारवाद
स्वीकार होते हैं जो समझौता या आवश्यकता में वर्चस्ववादी संस्कृति स्वीकृति देती
है। यहाँ पर रूपांतरण फिर से पुनरूत्थान सुधारवाद के रूप में होता है और मूल ढांचा
वही बना रहता है। यहाँ संवेदना की तरलता नदियों, कछारों की ओर न जा कर वर्चस्ववादी संस्कृति को जगह देती
पोषित और सुरक्षित करती दिखती है। मुझे यह भी लगता है सुधारवाद पुनरूत्थान सिर्फ
और सिर्फ समसामयिकता पर केन्द्रित होता है, जेनुइन होता है इसकी जरूरत आदिकाल से मानव समाज को बार बार
पड़़ी है और अपने युग की लाख त्रासदी अंतर्विरोधों के बीच इसकी उपोदयता हमेशा बराबर
बनी रही है। पर पुनर्विकास समसामयिकी के साथ सिर्फ और सिर्फ निरन्तरता पर केन्द्रित
होता है और तरलता से सघनता कठोरता की ओर जाते हुये वैज्ञानिक चैतना में तरलता के
रूप में रह कर निरन्तर परिमार्जित होते निरंतर और निरतंर में अंतिम लक्ष्य
मानवीयता का सही मायने में यथार्थवादी संसार होता है और उत्पादन में भी अपनी
आवश्यकता में आवश्यकता के साथ अतिरिक्त उत्पादन में उदात्त वितरण की कार्यप्रणाली
के साथ होता है और ऐहिक स्थिति में उद्दात्त सामूहिक भव्य उल्लास में होता है। यह
सही है कि यह अपनी जड़ों से कट कर नहीं हो सकता है पर यह पुनर्विकास की स्वभाविक निरन्तरता
में ही यह यहाँ पर स्वभाविक स्थिति में संभव हो सकता है। इसके अभाव में पुनर्विकास
अपनी जड़ो से कटा हुआ अनुत्पादक अविकासशील स्थिति में उर्जाविहीन होगा। हॉ इस
स्थिति में यहाँ पर विकास में गांधीवाद के अमूर्तन सूत्र काम आ सकते हैं। पर वह
देशज ओैर वैश्विक दोनों रूप में साथ साथ बराबर हो तभी, नहीं तो इसके अभाव में इसका विवेचन भी अंधराष्ट्रवाद की तरह
हो जायेगा।
इसी लेख में शाही जी कबीर की एवं तुलसी की सार्थकता उनके अन्तर्विरोधों
को युग के साथ दोनों को बराबर साथ रखते हैं पर जब इसी के साथ वे तुलसी के बारे में
इतना और जोड़़ देते हैं कि ‘‘सामाजिक
अन्तर्वस्तु में तुलसी बेहतर नजर आते है‘‘ इस तरह वे कबीर के बारे में कुछ नहीं जोड़ते इस कारण से इसमें तुलसी की एक अलग
ही तरीके से विशिष्ठ रूप से स्थापना हो जाती है अगर कबीर के बारे में भी अगर वे
ऐसा कुछ जोड़ देते कि ‘‘ विकास में कबीर
बेहतर नजर आते हैं ‘‘ इस तरह कुछ कह
देते तो तुलसी की इकहरी स्थापना नहीं हो पाती। वैसे भी यह दोनों संत परम्परा से है
संत परम्परा का प्रारंभिक लक्ष्य और अंतिम लक्ष्य सुधारवाद ही रहा है और वह भी मसीयाही।
संतवादी घेरों की अपनी जरूरतों में रहने के कारण यह अपने आपको और आगे नहीं ले जा
पाते हैं। और ऐसे में इनका अंतिम लक्ष्य पूर्ण विकासवादी न होकर सुधारवाद तक ही
सीमित रह जाता है।
इस लेख के अंतिम खंड में शाही जी का सबसे गंभीर सवाल है-‘‘किये गये मजाक का सही जवाब क्या होना चाहिये ?‘‘
प्रश्न के साथ उसका विवेचन और उसका चरम भी है।
पर उस पर एक प्रश्न यह भी तो है कि पुनरूत्थान से पुनर्विकास की प्रक्रिया कैसे
संभव हो सकती है? जबकि पुनरूत्थान
के लिये पुनर्पाठ में सुधारवाद की प्रक्रिया होती है और इसमें अंतिम लक्ष्य भी यही
होता है एक तरह से बिगड़े हुये को ठीक करना। पुनर्विकास के पुनर्पाठ में सुधारवाद
ही नहीं उसके आगे आमूलचूल परिवर्तन के विकासमूलक रूपांतरण की लगातार प्रक्रिया
होती है। इस तरह पुनरूत्थान में पुनर्विकास की लगातार कोई प्रक्रिया नहीं होती है
न ही ऐसा कोई लक्ष्य होता है इस कारण से मेरी समझ से तो यही लगता है पुनरूत्थान से
पुनर्विकास के प्रस्फुटन की कोई संभावना होती ही नहीं है, अगर मान भी लिया जाये तो बहुत ही क्षीण। इस रूप में
पुनरूत्थान पुनर्विकास दोनों अपने अपने मूल में अपने अपने उद्देश्य में अपनी अपनी
प्रक्रिया में पूर्णतः अलग अलग हैं और एक दूसरे से पूर्णतः भिन्न हैं। वैताल की
कहानी में मुझे कुछ इस तरह लगता है शव यानि त्रासद व्यक्ति वैताल यानि सुधारवाद।
जब तक सुधारवाद (वैताल) अपने लक्ष्य तक में उसकी अपनी प्रक्रिया में तब तक शव
वैताल के कंधों पर और जैसे ही सुधारवाद का काम पूरा हुआ उसकी प्रक्रिया समाप्त हुई
भूमिका समाप्त हुई फिर वही स्थिति त्राहि त्राहिमान और शव वैताल के कंधे से छूटा
और पेड़ पर उल्टा जा लटका समय की त्रासदी को भोगता हुआ हाशिये से बाहर हुये आदमी की
तरह लगातार प्रक्रिया...।
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बुद्धिलाल
पाल
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मो.
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पाल जी ने सही लिखा है।
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