रामविलास शर्मा
प्रख्यात आलोचक रामविलास शर्मा का जन्मसदी वर्ष है यह २०१२. एक बेहतर आलोचक के अलावा रामविलास जी एक बेहतर कवि भी थे. रामविलास जी ने अपने आलोचकीय विवेक से न केवल निराला की काव्य प्रतिभा को एक निश्चित रूप-आधार प्रदान किया अपितु केदार नाथ अग्रवाल से समय समय पर होने वाले पत्राचार में कविता पर जो टिप्पणियाँ की वह उनकी कविता की गहरी समझ के साथ लगाव को भी स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करता है. इस पत्राचार को मित्र संवाद में देखा पढ़ा जा सकता है.
जन्म शताब्दी वर्ष पर हम 'पहली बार' पर प्रस्तुत कर रहे हैं रामविलास जी की कुछ की कविताएँ.
प्रश्नोत्तर
त्रस्त शत्रु हो किन्तु
क्रूरता दूर हो
साम्य समक्ष असीम विषमता
दूर हो.
कायरता हो दूर! दासता दूर
हो
दुखी सुखी हो सभी देश भरपूर
हो!
चिरंजीवी हो क्रान्ति, विजय
हो सत्य की!
चिरंजीवी ये भाव ह्रदय में
हों भरे
नश्वर नीच शरीर रहे न रहे!
गीत
मधु के दिन आये
जल थल नभ में फिर नव
राग रंग छाये!
रवि कर चुम्बन विह्वल
विकसित कलि के दृग दल
लाज तुहिन विन्दु कोरकों
में भर लाये
डोली वन में अधीर,
गंध भाव ले समीर
गूँज मधुर हर्षाकुल चंचरीक
धाये
विद्रोही
मैं विद्रोही, मैं चिर अधीर.
मैं शास्ति शान्ति का नाश,
त्रास मैं क्रान्ति रूप
मैं रणकामी, चिर सजग वीर!
मैं महाविश्व के महाकाश का
वक्ष तोड़,
मैं रवि शशि ग्रह उपग्रह
पीछे नक्षत्र छोड़,
मैं महर्लोक स्वर्लोक भेद
शतकोटि लोक,
पहुँचा आलोक के लोक, त्रस्त
प्रभु को शंकित सशोक
मैं वसुन्धरा का उर विदार
मैं चिर विस्मय निकला उसमें
से चमत्कार,
है अग्निशिखाओं का पहनाया
जिसे रूद्र ने कंठहार
मैं चिर गर्वोन्नत शीश, हेर
नतशीश जिसे,
मैं विद्रोही, मैं चिर अधीर
(१९३७ काजी नजरूल इस्लाम की
बांग्ला कविता के स्वतन्त्र रूपांतर का एक अंश)
चाँदनी
चांदी की झीनी चादर सी
फ़ैली है वन पर चांदनी
चांदी का जूठा पानी है
यह माह पूष की चांदनी
खेतों पर ओस भरा कुहरा
कुहरे पर भीगी चांदनी
आँखों में बादल से आंसू
हँसती है उन पर चाँदनी
*** ***
*** ***
लोहे की हथकड़ियों सा दुःख
सपनों सी झूठी चाँदनी
लोहे से दुःख को काटे क्या
सपनों सी मीठी चाँदनी
यह चाँद चुरा कर लाया है
सूरज से अपनी चाँदनी
सूरज निकला अब चाँद कहा?
छिप गयी लाज से चाँदनी
बैसवाड़ा
इस धरती पर जो अठवासे श्रम
करते हैं
उनके तन की पत्तों में अब
सूख गया है
रक्त रेत पर गिरी हुई जल की
बूंदों सा
जमींदार के जन हैं सब कोरी,
चमार
करते हैं जो नित ही बेगार
सीला भर है जिनकी पगार
ये छोटे-छोटे खेत और बाबा
आदम के हल-मांची
इन कच्चे कुओं, चूहों से
होती पुरहाई
धरती की छीना-झपटी से
जाते हैं परदेश कमाने पूत
किसी के
कानपुर में मजदूरी बेकारी
या फिर कलकत्ते में,
कपड़ों की फेरी करते हैं
धरती के मालिक हैं सब
ग़द्दार ग़दर के-
जमींदार ताल्लुकेदार
सुन्दर शरीर पर कुष्ठ रोग
से
अर्चना
यह कवि अपराजेय निराला
जिसको मिला गरल का प्याला
ढहा और तन टूट चुका है
पर जिसका माथा न झुका है
नीली नसें खींची हैं कैसी
मानचित्र में नदियों जैसी
शिथिल त्वचा ढल-ढल है छाती
लेकिन अभी संभाले थाती
और उठाये विजय पताका
यह कवि है अपनी जनता
का.
सदियों के सोये जाग उठे फिर तीस करोड़ किसान चले
जिसने मुँह की रोटी छीनी,
जनता को भूखों मारा है
लूटा सबको जब काल पडा वह
जनता का हत्यारा है
हम राज नहीं करने देंगे इन
मुफ्त मुनाफाखोरों को
जनता के घूसे के नीचे
कुचलेंगे इन सब चोरों को
आजादी का झंडा ले कर देखो
अब वीर किसान चले
*** ***
*** *** ***
सरकार और साहूकारों का हम
मिल कर तोड़ेंगे एका
जो जनता को भूखों मारे उनका
न चलेगा अब ठेका
यह जाल घरेलू झगड़ों का, जो
दुश्मन ने हम पर फेका
उसको अब जल्दी तोड़ेगा यह
मेल-मोहब्बत का एका
हिन्दू-मुस्लिम-क्रिस्तानों
के अधिकारों को हम मान चले.
१९४६ की रामायण
(पंडित राधेश्याम कथावाचक
के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए)
हम नेता धर्म निभायेंगे.
पृथ्वी का भार उठाएंगे
प्रण पूरा कर दिखलायेंगे
हम नेता धर्म निभायेंगे.
जा चुके जेल जब जाना था
गा चुके हमें जो गाना था
अब दूध मलाई खायेंगे
हम नेता धर्म निभायेंगे.
मंहगाई का है ध्यान नहीं
देना कुछ हमें लगान नहीं
गद्दों पर रात बितायेगे
हम नेता धर्म निभायेंगे.
तुम कितनी भी हड़ताल करो
सर पर चाहे आकाश धरो
काले कानून बनायेगे
हम नेता धर्म निभायेंगे.
नेता भी क्या कर सकता है
कितना नीचे गिर सकता है
हम दुनिया को दिखलायेंगे
हम नेता धर्म निभायेंगे.
सब ओर गरीबी छाई है
पेटों में पीठ समाई है
हम डेढ़ हजार कमाएंगे
हम नेता धर्म निभायेंगे.
झूला झूलैं जवाहर लाल
झूला झूलैं जवाहर लाल
सोने का पाटा, रेशम की
डोरी, फंदा पडा है ऊँची डार.
धरती छोड़ अब आसमान में,
झूलैं मेरी सरकार
हों, झूला झूलैं जवाहर लाल.
ताली दै दै हाथ मिलावें,
साथी सरमायेदार
इनके पिया परदेश बसत हैं,
डालर भेजें उधार
हो, झूला झूलैं जवाहर लाल
डालर की संसार यात्रा
एक अजूबा देश बसा है, नाम
भला अमरीका
बाहर से तो रंग रंगीला,
भीतर से है फीका
भीतर से है फीका यारों, गजब
करैं रजधानी
दुनिया भर की ठगी यहीं पर,
और यहीं बेईमानी
कह अगिया बैताल, यहाँ सोने
का डालर राजा
देश-देश को देख बिचारैं
जल्दी सबको खा जा.
वाह...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (14-10-2012) के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!
आभार रूपचंद्र जी.
जवाब देंहटाएंसुन्दर विश्लेषण...आभार
जवाब देंहटाएंसमय की नब्ज़ को पकड़ती कवितायें !
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