सुनील गंगोपाध्याय
बांग्ला के
सुप्रसिद्ध कवि और कथाकार सुनील गंगोपाध्याय का विगत २३ अक्टूबर को निधन हो गया.
उनकी स्मृति को याद करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी अंतिम लिखी-प्रकाशित
कविता ‘बकुल गंध सरीखा.’ जो मूल रूप से बांग्ला में छपी है. इस कविता का हमारे लिए
हिन्दी अनुवाद किया है युवा कवि निशांत ने. कविता के साथ निशांत की एक टिप्पणी भी
प्रस्तुत है.
बकुल गंध सरीखा
(बकुल पीले
रंग का सुगन्धित फूल है, जो बंधुत्व का प्रतीक है )
सुनील गंगोपाध्याय
खडा हूँ मैं पर्वत शिखर पर
अकेले वृक्ष की तरह
सभी दूर खड़े हैं
यह गोधूली, मेघ, उदास
सूर्यास्त.
मैं जानता हूँ- कोई मुझे
नहीं बुलाएगा.
पृथ्वी की सारी हवा जूठन की
तरह मुझे महसूस होती है.
इस दृश्य के सारे देवता
असहाय हो खड़े हैं.
बस स्टाप पर मैं अकेला खड़ा
हूँ
जैसे पर्वत शिखर हो
दिवंगत दोस्तों का चेहरा
बीच-बीच में बहुत याद आता
है
जैसे मैं कभी वादा नहीं
निभा पाया हूँ उनका.
ढेर सारी किश्तें उधार की
नहीं चुका पाया हूँ उनका
'हम लोग पृथ्वी की सारी
देनदारियां चुका आये हैं भाई’ उन्होंने कहा
‘यहाँ तक कि प्रेमिका के पुनर्विवाह
की सानंद सम्मति तक’
तुम आज अकेले क्यों हो?
तुम्हारी प्रेयसी आज
प्रतीक्षा में खडी़ है, जाओ!
मैं, इस कुबेला में
चहरे पर गोधूली लगा कर
उस प्रेयसी के पास जाऊँगा
ठन्डे हाथों का पसीना
भौंहों पर, ललाट पर, होंठो
पर लगाकर मैं
उसे कितना पहचान पाऊँगा
या फिर शरीर से लज्जा खोल
कर
सीने के अन्दर घृणा भर
लूंगा
ना, अब दूर से सब
जैसे करूण आलस की तरह लगता
है
बकुल गंध सरीखा... ...!
(अनुवाद- निशांत)
कवि अपने शिखर पर अकेला होता है.
निशांत
जहां तक मुझे लगता है ये
सुनील दा की अंतिम लिखित-प्रकाशित कविता है. वैसे लगता है तार्किक नहीं होगा फिर
भी इस साल ‘संवाद प्रतिदिन’ जो बांग्ला भाषा का एक अखबार है, उसका पूजा वार्षिकांक
देर से आया है. उसमें सुनील दा की यह कविता शंख घोष के बाद दूसरे नंबर पर प्रकाशित
हुई है.
पहले तो यह कि बकुल फूल
बंधुत्व का प्रतीक है और ‘बकुल गंध सरीखा’ इस कविता का शीर्षक है. तो हम मान कर
चलें कि कवि बंधुत्व के गंध को ज्यादा महत्त्व देता है फूल की तुलना में.
कविता शुरू होती है ‘खडा हूँ मैं पर्वत शिखर पर अकेले वृक्ष की तरह’.
यह ‘पर्वत शिखर’ और ‘अकेला वृक्ष’ कवि की ऊँचाई और उसका अकेलापन है. याद आते हैं
आचार्य रामचंद्र शुक्ल – ‘ज्यों-ज्यों सभ्यता के नए नए आवरण बदलते जायेंगे त्यों
त्यों... ...!’ यह वही कवि है जिनका पहला प्यार कविता है, लेकिन उसे ढेर सारे
पुरस्कार गद्य के लिए मिलते हैं. यह कवि क्या अपने सांध्य समय की बेला को पहचान
गया था? इस कविता में ऐसे कई वर्णन हैं जो मृत्यु की पूर्व सूचना देते हैं. कविता
के शुरूआत और अंतिम पंक्तियों को देखें. साफ़-साफ़ लगता है कि कवि स्वयं को एक दूसरे
व्यक्ति की निगाह से देखता है. दूसरी पंक्ति में कवि कहता है-
सभी दूर खड़े हैं
यह गोधूली, मेघ, उदास
सूर्यास्त.
मैं जानता हूँ- कोई मुझे
नहीं बुलाएगा.
यह जानना बहुत महत्वपूर्ण
हो गया है कि कोई उसे नहीं बुलाएगा, क्यों? क्यों नहीं बुलाएगा. और उसे अब अपने
दिवंगत दोस्तों के चहरे क्यों याद आने लगे हैं? क्यों यह हवा जो इस संसार की
प्राणवायु है, उसे जूठन लगने लगी है. क्या उसे अपने सूर्यास्त का आभास हो चुका था?
या एक उम्र के बाद व्यक्ति मृत्यु की बात करने लगता है जबकि सामाजिक और मानसिक रूप
से उनकी जीवन्तता और जीवटता को हम लगातार देख पा रहे थे. इसी समय उनके सारे
दोस्तों के चेहरे उनके सामने आते हैं और वे याद दिलाते हैं कि उन्होंने अपने सारे
वादे पूरे कर दिए हैं. कवि को एक बार फिर पछतावा होता है कि आज भी उनकी प्रेयसी उनकी
प्रतीक्षा कर रही है. आज भी एक प्रेम कहीं प्रतीक्षारत है. कवि कैसे उसके पास
जाएगा. वह लज्जित है क्योंकि वह अपना वादा नहीं निभा पाया है. यह पूरी कविता दूर
से देखे हुए एक दृश्य की तरह है. अर्थात स्मृति के सहारे पुरानी चीजों को याद करना
एक क्षणिक सुख तो देता है, एक पीले फूल की महक की तरह, जो दोस्ती का प्रतीक है.
लेकिन कवि को सब कुहरे में ढका ढका सा दिखता है. कुहरे में कांपता हुआ एक पीला फूल.
इस कविता का दूसरा
पैराग्राफ पूरी कविता का निचोड़ हमारे सामने प्रस्तुत करता है. कवि कहता है-
बस स्टाप पर मैं अकेला खड़ा
हूँ
जैसे पर्वत शिखर हो
सुनील दा अकेले खड़े हैं. एक कवि अपने शिखर पर अकेला होता है. एक वृक्ष की तरह या बस स्टाप पर खड़े एक यात्री की तरह.
निशांत प्रेम-और बेरोजगारी के कवि के रूप में काफी लोकप्रिय
हुए थे। सत्ताईस साल की उम्र में कविता
पर उन्हें प्रतिष्ठित भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार
प्राप्त हो चुका है। उनकी कविता की एक किताब 'जवान होते हुए लड़के का कुबुलनामा' भारतीय
ज्ञानपीठ से पिछले साल छप कर आयी है। निशांत की लंबी कविताओं का एक संग्रह जी हां, लिख रहा हूं बिलकुल अभी-अभी राजकमल प्रकाशन से छप कर आया है. आजकल जे. एन. यू. से केदार नाथ सिंह के निर्देशन में शोध कार्य कर रहे हैं.
संपर्क-
मोबाईल- 09868099983
मेरी ओर से भावभीनी श्रद्धांजलि!
जवाब देंहटाएंनिशांत की टीप और अनुवाद दोनों बेहतरीन हैं. एक महत्वपूर्ण कवि को योग्य श्रद्धांजलि
जवाब देंहटाएंएक पंक्ति में शायद 'निभा' छूट गया है.
जवाब देंहटाएंमैं शायद कभी वादा नहीं 'निभा' पाया उनका.
सुनील गंगोपाध्याय के नहीं रहने का समाचार हिंदी पट्टी में जिस तरह से तसलीमा वाले विवाद के साथ आया , उससे ऐसा लगा , मानो अपने जीवन में उन्होंने सिर्फ यही किया हो | इतने बहुआयामी और महत्वपूर्ण साहित्यकार का हमारे बीच से जाना एक बड़ी क्षति है | निशांत जी ने उनकी इस कविता का बेहतरीन अनुवाद भी किया है , और उस पर उनकी टिप्पड़ी भी सराहनीय है ...| शुक्रिया निशांत आपका , इस महत्वपूर्ण रचनाकार की स्मृति को 'पहली बार' के जरिये दर्ज कराने के लिए |
जवाब देंहटाएंजी अशोक जी, ठीक वही शब्द छूटा था जिसे आपने बताया था. आभार
जवाब देंहटाएंसंतोष
प्रिय संतोष जी,
जवाब देंहटाएंधन्यवाद,
कविता की पंक्ति 'जैसे पर्वत शिखर हो..'
के बाद एक गैप दें, अर्थात इसके बाद नया पैरा शुरू होगा.
साथ ही मेरी टीप में
सामाजिक और मानसिक रूप से 'उनकी' (उनके की जगह) जीवटता और जीवन्तता....
और
आज भी उनकी प्रेयसी 'उनकी'(उसकी की जगह) प्रतीक्षा कर रही है..
ये दोनों सुधार कर दीजिए.
आपका
निशांत