भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का बलिया भाषण 'भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है?'
उत्तर प्रदेश के बलिया में प्रति वर्ष ददरी मेले का आयोजन किया जाता है। कार्तिक पूर्णिमा से शुरू होने वाला यह मेला एक महीने तक चलता रहता है। यह भारत का दूसरा बड़ा पशु मेला भी माना जाता है। इस मेले की पौराणिक, धार्मिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रही है। मत्स्य पुराण और पद्म पुराण में इस मेले का जिक्र मिलता है। चीनी यात्री फाह्यान के यात्रा विवरण में इस मेले का उल्लेख प्राप्त होता है। सन 1739 से ले कर 1764 ई. तक काशी नरेश बलवंत सिंह ने इस मेले को अपना संरक्षण प्रदान किया। 1798 में बलिया को जब गाजीपुर जिले से जोड़ दिया गया तब इसका प्रबन्धन बलिया के परगनाधिकारी द्वारा किया जाने लगा। सन 1879 में बलिया जब एक स्वतन्त्र जिला बना दिया गया तब से इस मेले का आयोजन जिला प्रशासन और नगरपालिका के मार्फत हो रहा है। सांस्कृतिक साहित्यिक गतिविधियों का आयोजन इस मेले को अन्य से अलग बना देता है। 1884 में बलिया के ददरी मेले में 'भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है' इस विषय पर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने एक अत्यन्त सारगर्भित भाषण दिया था। यह भाषण उनकी प्रगतिशील सोच का परिचायक भी है। इसमें उन्होने लोगों से कुरीतियों और अंधविश्वासों को त्याग कर अच्छी-से-अच्छी शिक्षा प्राप्त करने, उद्योग-धंधों को विकसित करने, सहयोग एवं एकता पर बल देने तथा सभी क्षेत्रों में आत्मनिर्भर होने का आह्वान किया था। ददरी जैसे धार्मिक और लोक मेले के साहित्यिक मंच से भारतेंदु का यह उद्बोधन अगर देखा जाए तो आधुनिक भारतीय सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक चिंतन का प्रस्थान-बिंदु है। अपने भाषण में भारतेन्दु कहते हैं - "हम नहीं समझते कि इनको लाज भी क्यों नहीं आती कि उस समय में जबकि इनके पुरखों के पास कोई भी सामान नहीं था तब उन लोगों ने जंगल में पत्ते और मिट्टी की कुटियों में बैठ करके बाँस की नालियों से जो ताराग्रह आदि बेध करके उनकी गति लिखी है वह ऐसी ठीक है कि सोलह लाख रुपये के लागत की विलायत में जो दूरबीन बनी है उनसे उन ग्रहों को बेध करने में भी वही गति ठीक आती है और जब आज इस काल में हम लोगों को अंगरेजी विद्या के और जनता की उन्नति से लाखों पुस्तकें और हजारों यंत्र तैयार हैं तब हम लोग निरी चुंगी के कतवार फेंकने की गाड़ी बन रहे हैं। यह समय ऐसा है कि उन्नति की मानो घुड़दौड़ हो रही है। अमेरिकन अंगरेज फरासीस आदि तुरकी ताजी सब सरपट्ट दौड़े जाते हैं। सबके जी में यही है कि पाला हमी पहले छू लें। उस समय हिन्दू काठियावाड़ी खाली खड़े-खड़े टाप से मिट्टी खोदते हैं। इनको औरों को जाने दीजिए जापानी टट्टुओं को हाँफते हुए दौड़ते देख करके भी लाज नहीं आती। यह समय ऐसा है कि जो पीछे रह जायेगा फिर कोटि उपाय किये भी आगे न बढ़ सकेगा। इस लूट में इस बरसात में भी जिसके सिर पर कम्बख्ती का छाता और आँखों में मूर्खता की पट्टी बँधी रहे उन पर ईश्वर का कोप ही कहना चाहिए।" विचारों की स्पष्टता और उसे विनोदप्रियता के साथ किस तरह प्रस्तुत किया जा सकता है, इसका यह निबन्ध बेजोड़ उदाहरण है। देखिए, किस तरह भारत की चिंता इस निबन्ध में भारतेंदु व्यक्त करते हैं, "बहुत लोग यह कहैंगे कि हमको पेट के धंधे के मारे छुट्टी ही नहीं रहती बाबा, हम क्या उन्नति करैं? तुम्हरा पेट भरा है तुमको दून की सूझती है। यह कहना उनकी बहुत भूल है। इंगलैंड का पेट भी कभी यों ही खाली था। उसने एक हाथ से पेट भरा, दूसरे हाथ से उन्नति की राह के कांटों को साफ किया।" वास्तव में उनका यह लेख 'भारत दुर्दशा' नामक उनके नाटक का एक तरह से वैचारिक विस्तार है। भारत दुर्दशा में वे कहते हैं, "रोअहुं सब मिलिकै आवहुं भारत भाई।/ हा, हा! भारत दुर्दशा देखी न जाई॥" भारतेन्दु अच्छी तरह समझ चुके थे कि 'अंग्रेजी शासन भारतीयों के लाभ के लिए है' यह अंग्रेजों का पूर्णतः खोखला दावा और दुष्प्रचार था। भारतेन्दु का सबसे महत्वपूर्ण कार्य यह है कि उन्होने हिन्दी साहित्य को, और उसके साथ समाज को साम्राज्य-विरोधी दिशा में बढ़ने की प्रेरणा दी। 1870 में जब 'कविवचनसुधा' में उन्होने लॉर्ड मेयो को लक्ष्य कर के 'लेवी प्राण लेवी' नामक लेख लिखा तब से हिन्दी साहित्य में एक नयी साम्राज्य-विरोधी चेतना का प्रसार आरम्भ हुआ। 6 जुलाई 1874 को कविवचनसुधा में उन्होंने लिखा कि जिस प्रकार अमेरिका उपनिवेशित हो कर स्वतन्त्र हुआ उसी प्रकार भारत भी स्वतन्त्रता लाभ कर सकता है। उन्होने तदीय समाज की स्थापना की जिसके सदस्य स्वदेशी वस्तुओं के व्यवहार और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की प्रतिज्ञा करते थे। भारतेन्दु ने विलायती कपड़ों के बहिष्कार की अपील करते हुए स्वदेशी का जो प्रतिज्ञा पत्र 23 मार्च, 1874 के 'कविवचनसुधा' में प्रकाशित किया, वह समूचे हिंदी समाज का प्रतिज्ञा पत्र बन गया। इसमें कहा गया था, "हम लोग सर्वान्तर्यामी, सब स्थल में वर्तमान, सर्वद्रष्टा और नित्य सत्य परमेश्वर को साक्षी दे कर यह नियम मानते हैं और लिखते हैं कि हम लोग आज के दिन से कोई विलायती कपड़ा न पहिरेंगे और जो कपड़ा कि पहिले से मोल ले चुके हैं और आज की मिती तक हमारे पास हैं उनको तो उनके जीर्ण हो जाने तक काम में लावेंगे पर नवीन मोल ले कर किसी भाँति का भी विलायती कपड़ा न पहिरेंगे, हिंदुस्तान का ही बना कपड़ा पहिरेंगे। हम आशा रखते हैं कि इसको बहुत ही क्या प्रायः सब लोग स्वीकार करेंगे और अपना नाम इस श्रेणी में होने के लिए श्रीयुत बाबू हरिश्चंद्र को अपनी मनीषा प्रकाशित करेंगे और सब देश हितैषी इस उपाय के बाद में अवश्य उद्योग करेंगे।" इस तरह सबसे पहले भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने ही साहित्य में जन भावनाओं और आकांक्षाओं को स्वर दिया था। पहली बार साहित्य में 'जन' का समावेश भारतेन्दु ने ही किया। उनके पहले काव्य में रीतिकालीन प्रवृत्तियों का ही बोलबाला था। साहित्य पतनशील सामन्ती संस्कृति का पोषक बन गया था, पर भारतेन्दु ने साहित्य को जनता की गरीबी, पराधीनता, विदेशी शासकों के अमानवीय शोषण के चित्रण और उसके विरोध का माध्यम बना दिया। अपने नाटकों, कवित्त, मुकरियों और प्रहसनों के माध्यम से उन्होंने अंग्रेजी राज पर कटाक्ष और प्रहार किए, जिसके चलते उन्हें अंग्रेजों का कोपभाजन भी बनना पड़ा। भारतेन्दु का बलिया भाषण कई मायनों में आज भी प्रासंगिक है। अंग्रेजों से तो हमें आजादी मिल गई लेकिन अंधविश्वासों से हम आज तक आजाद नहीं हो पाए हैं। छुआछूत और जातिवाद आज भी हमारी राह में अवरोध बने हुए हैं। इनसे मुक्त हो कर ही हम विकसित राष्ट्र बनने के स्वप्न को साकार कर पाएंगे। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का प्रख्यात बलिया भाषण 'भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है?'
'भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है?'
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
आज बड़े आनंद का दिन है कि छोटे से नगर बलिया में हम इतने मनुष्यों को एक बड़े उत्साह से एक स्थान पर देखते हैं। इस अभागे आलसी देश में जो कुछ हो जाए वही बहुत है। बनारस ऐसे-ऐसे बड़े नगरों में जब कुछ नहीं होता तो हम यह न कहेंगे कि बलिया में जो कुछ हमने देखा वह बहुत ही प्रशंसा के योग्य है। इस उत्साह का मूल कारण जो हमने खोजा तो प्रगट हो गया कि इस देश के भाग्य से आजकल यहाँ सारा समाज ही एकत्र है। राबर्ट साहब बहादुर ऐसे कलेक्टर जहाँ हो वहाँ क्यों न ऐसा समाज हो। जिस देश और काल में ईश्वर ने अकबर को उत्पन्न किया था उसी में अबुल फजल, बीरबल, टोडरमल को भी उत्पन्न किया। यहाँ राबर्ट साहब अकबर हैं तो मुंशी चतुर्भुज सहाय, मुंशी बिहारी लाल साहब आदि अबुल फजल और टोडरमल हैं। हमारे हिंदुस्तानी लोग तो रेल की गाड़ी है। यद्यपि फर्स्ट क्लास, सैकेंड क्लास आदि गाड़ी बहुत अच्छी-अच्छी और बड़े-बड़े महसूल की इस ट्रेन में लगी है पर बिना इंजिन सब नहीं चल सकती वैसी ही हिंदुस्तानी लोगों को कोई चलाने वाला हो तो ये क्या नहीं कर सकते। इनसे इतना कह दीजिए 'का चुप साधि रहा बलवाना' फिर देखिए हनुमान जी को अपना बल कैसा याद आता है। सो बल कौन याद दिलावे। हिंदुस्तानी राजे-महाराजे, नवाब, रईस या हाकिम। राजे-महाराजों को अपनी पूजा, भोजन, झूठी गप से छुट्टी नहीं। हाकिमों को कुछ तो सरकारी काम घेरे रहता है कुछ बाल-घुड़दौड़, थियेटर में समय लगा। कुछ समय बचा भी तो उनको क्या गरज है कि हम गरीब, गंदे, काले आदमियों से मिल कर अपना अनमोल समय खोवें। बस यही मसल रही -
"तुम्हें गैरों से कब फुरसत, हम अपने गम से कब खाली।
चलो बस हो चुका मिलना न हम खाली न तुम खाली॥"
तीन मेंढक एक के ऊपर एक बैठे थे। ऊपर वाले ने कहा, 'जौक शौक', बीच वाला बोला, 'गम सम', सब के नीचे वाला पुकारा, 'गए हम'। सो हिंदुस्तान की प्रजा की दशा यही है 'गए हम'। पहले भी जब आर्य लोग हिंदुस्तान में आ कर बसे थे राजा और ब्राह्मणों के जिम्मे यह काम था कि देश में नाना प्रकार की विद्या और नीति फैलावें और अब भी ये लोग चाहें तो हिंदुस्तान प्रतिदिन क्या प्रतिछिन बढ़े। पर इन्हीं लोगों को निकम्मेपन ने घेर रखा है। 'बोद्धारो मत्सरग्रस्ताः प्रभवः समर दूषिताः' हम नहीं समझते कि इनको लाज भी क्यों नहीं आती कि उस समय में जबकि इनके पुरुखों के पास कोई भी सामान नहीं था तब उन लोगों ने जंगल में पत्ते और मिट्टी की कुटियों में बैठ कर बाँस की नालियों से जो तारा, ग्रह आदि बेध कर के उनकी गति लिखी है वह ऐसी ठीक है कि सोलह लाख रुपए की लागत से विलायत में जो दूरबीन बनी है उनसे उन ग्रहों को वेध करने में भी ठीक वही गति आती है और अब आज इस काल में हम लोगों की अंग्रेजी विद्या के और जनता की उन्नति से लाखों पुस्तकें और हजारों यंत्र तैयार हैं, जब हम लोग निरी चुंगी की कतवार फेंकने की गाड़ी बन रहे हैं। यह समय ऐसा है कि उन्नति की मानो घुड़दौड़ हो रही है। अमेरिकन, अंग्रेज, फरांसीस आदि तुरकी-ताजी सब सरपट्ट दौड़े जाते हैं। सब के जी में यही है कि पाला हमी पहले छू लें। उस समय हिंदू काठियावाड़ी खाली खड़े-खड़े टाप से मिट्टी खोदते हैं। इनको, औरों को जाने दीजिए जापानी टट्टुओं को हाँफते हुए दौड़ते देख कर के भी लाज नहीं आती। यह समय ऐसा है कि जो पीछे रह जाएगा फिर कोटि उपाय किए भी आगे न बढ़ सकेगा। लूट की इस बरसात में भी जिस के सिर पर कम्बख्ती का छाता और आँखों में मूर्खता की पट्टी बँधी रहे उन पर ईश्वर का कोप ही कहना चाहिए।
मुझको मेरे मित्रों ने कहा था कि तुम इस विषय पर आज कुछ कहो कि हिंदुस्तान की कैसे उन्नति हो सकती है। भला इस विषय पर मैं और क्या कहूँ भागवत में एक श्लोक है
"नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारं
मयाऽनुकूलेन तपः स्वतेरितं पुमान भवाब्धि न तरेत स आत्महा।"
भगवान कहते हैं कि पहले तो मनुष्य जन्म ही दुर्लभ है सो मिला और उस पर गुरु की कृपा और उस पर मेरी अनुकूलता। इतना सामान पा कर भी मनुष्य इस संसार सागर के पार न जाए उसको आत्महत्यारा कहना चाहिए, वही दशा इस समय हिंदुस्तान की है। अंग्रेजों के राज्य में सब प्रकार का सामान पा कर, अवसर पा कर भी हम लोग जो इस समय उन्नति न करें तो हमारे केवल अभाग्य और परमेश्वर का कोप ही है। सास और अनुमोदन से एकांत रात में सूने रंग महल में जा कर भी बहुत दिनों से प्राण से प्यारे परदेसी पति से मिल कर छाती ठंडी करने की इच्छा भी उसका लाज से मुँह भी न देखे और बोले भी न तो उसका अभाग्य ही है। वह तो कल परदेस चला जाएगा। वैसे ही अंग्रेजों के राज्य में भी जो हम मेंढ़क, काठ के उल्लू, पिंजड़े के गंगाराम ही रहें तो फिर हमारी कमबख्त कमबख्ती फिर कमबख्ती ही है। बहुत लोग यह कहेंगे कि हमको पेट के धंधे के मारे छुट्टी ही नहीं रहती, बाबा, हम क्या उन्नति करें। तुम्हारा पेट भरा है तुम को दून की सूझती है। उसने एक हाथ से अपना पेट भरा दूसरे हाथ से उन्नति के काँटों को साफ किया। क्या इंग्लैंड में किसान, खेत वाले, गाड़ीवान, मजदूर, कोचवान आदि नहीं हैं? किसी देश में भी सभी पेट भरे हुए नहीं होते, किंतु वे लोग जहाँ खेत जोतते-बाते हैं वहीं उसके साथ यह भी सोचते हैं कि ऐसी कौन नई कल व मसाला बनावें जिससे इस खेत में आगे से दून अनाज उपजे। विलायत में गाड़ी के कोचवान भी अखबार पढ़ते हैं। जब मालिक उतर कर किसी दोस्त के यहाँ गया उसी समय कोचवान ने गद्दी के नीचे से अखबार निकाला। यहाँ उतनी देर कोचवान हुक्का पिएगा या गप्प करेगा। सो गप्प भी निकम्मी। वहाँ के लोग गप्प ही में देश के प्रबंध छाँटते हैं। सिद्धांत यह कि वहाँ के लोगों का यह सिद्धांत है कि एक छिन भी व्यर्थ न जाए। उसके बदले यहाँ के लोगों को जितना निकम्मापन हो उतना ही बड़ा अमीर समझा जाता है। आलस्य यहाँ इतनी बढ़ गई कि मलूक दास ने दोहा ही बना डाला -
"अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम।
दास मलूका कहि गए सबके दाता राम॥"
चारों ओर आँख उठा कर देखिए तो बिना काम करने वालों की ही चारों ओर बढ़ती है। रोजगार कहीं कुछ भी नहीं है अमीरों, मुसाहिबी, दल्लालों या अमीरों के नौजवान लड़कों को खराब करना या किसी की जमा मार लेना इनके सिवा बतलाइए और कौन रोजगार है जिससे कुछ रुपया मिले। चारों ओर दरिद्रता की आग लगी हुई है किसी ने बहुत ठीक कहा है कि दरिद्र कुटुंबी इस तरह अपनी इज्जत को बचाता फिरता है जैसे लाजवंती बहू फटें कपड़ों में अपने अंग को छिपाए जाती है। वही दशा हिंदुस्तान की है। मुर्दम-शुमारी का रिपोर्ट देखने से स्पष्ट होता है कि मनुष्य दिन-दिन यहाँ बढ़ते जाते हैं और रुपया दिन-दिन कमती होता जाता है। सो अब बिना ऐसा उपाय किए काम नहीं चलेगा कि रुपया भी बढ़े और वह रुपया बिना बुद्धि के न बढ़ेगा।
भाइयों, राजा-महाराजों का मुँह मत देखो। मत यह आशा रखो कि पंडित जी कथा में ऐसा उपाय बतलाएँगे कि देश का रुपया और बुद्धि बढ़े। तुम आप ही कमर कसो, आलस छोड़ो, कब तक अपने को जंगली, हूस, मूर्ख, बोदे, डरपोक पुकरवाओगे। दौड़ो इस घुड़दौड़ में, जो पीछे पड़े तो फिर कहीं ठिकाना नहीं है। 'फिर कब-कब राम जनकपुर एहै' अब की जो पीछे पड़े तो फिर रसातल ही पहुँचोगे। जब पृथ्वीराज को कैद कर के गोर ले गए तो शहाबुद्दीन के भाई गयासुद्दीन से किसी ने कहा कि वह शब्दबेधी बाण बहुत अच्छा मारता है। एक दिन सभा नियत हुई और सात लोहे के तावे बाण से फोड़ने को रखे गए। पृथ्वीराज को लोगों ने पहिले से ही अंधा कर दिया था। संकेत यह हुआ कि जब गयासुद्दीन 'हूँ करे तब वह तावे पर बाण मारे। चंद कवि भी उसके साथ कैदी था। यह सामान देख कर उसने यह दोहा पढ़ा-
"अब की चढ़ी कमान को जाने फिर कब चढ़े।
जिन चूके चहुआज इक्के मारय इक्क सर।"
उसका संकेत समझ कर जब गयासुद्दीन ने 'हूँ किया तो पृथ्वीराज ने उसी को बाण मार दिया। वही बात अब है। 'अब की चढ़ी' इस समय में सरकार का राज्य पा कर और उन्नति का इतना सामान पा कर भी तुम लोग अपने को न सुधारों तो तुम्हीं रहो और वह सुधारना भी ऐसा होना चाहिए कि सब बात में उन्नति हो। धर्म में, घर के काम में, बाहर के काम में, रोजगार में, शिष्टाचार में, चाल चलन में, शरीर में, बल में, समाज में, युवा में, वृद्ध में, स्त्री में, पुरुष में, अमीर में, गरीब में, भारतवर्ष की सब आस्था, सब जाति, सब देश में उन्नति करो। सब ऐसी बातों को छोड़ो जो तुम्हारे इस पथ के कंटक हों। चाहे तुम्हें लोग निकम्मा कहें या नंगा कहें, कृस्तान कहें या भ्रष्ट कहें तुम केवल अपने देश की दीन दशा को देखो और उनकी बात मत सुनो।
अपमान पुरस्कृत्य मानं कृत्वा तु पृष्ठतः।
स्वकार्य साधयेत धीमान कार्यध्वंसो हि मूर्खता।
जो लोग अपने को देश-हितैषी मानते हों वह अपने सुख को होम कर के, अपने धन और मान का बलिदान कर के कमर कस के उठो। देखा-देखी थोड़े दिन में सब हो जाएगा। अपनी खराबियों के मूल कारणों को खोजो। कोई धर्म की आड़ में, कोई सुख की आड़ में छिपे हैं। उन चोरों को वहाँ-वहाँ से पकड़ कर लाओ। उनको बाँध बाँध कर कैद करो। हम इससे बढ़ कर क्या कहें कि जैसे तुम्हारे घर में कोई पुरुष व्यभिचार करने आवे तो जिस क्रोध से उसको पकड़ कर मारोगे और जहाँ तक तुम्हारे में शक्ति होगी उसका सत्यानाश करोगे उसी तरह इस समय जो-जो बातें तुम्हारे उन्नति पथ की काँटा हों उनकी जड़ खोद कर फेंक दो। कुछ मत डरो। जब तक सौ, दो सौ मनुष्य बदनाम न होंगे, जात से बाहर न निकाले जाएँगे, दरिद्र न हो जाएँगे, कैद न होंगे वरंच जान से न मारे जाएँगे तब तक कोई देश न सुधरेगा।
अब यह प्रश्न होगा कि भई हम तो जानते ही नहीं कि उन्नति और सुधरना किस चिड़िया का नाम है। किस को अच्छा समझे। क्या लें क्या छोड़ें तो कुछ बातें जो इस शीघ्रता से मेरे ध्यान में आती हैं उनको मैं कहता हूँ सुनो -
सब सुन्नियों का मूल धर्म है। इससे सबसे पहले धर्म की ही उन्नति करनी उचित है। देखो अंग्रेजों की धर्म-नीति राज-नीति परस्पर मिली है। इससे उनकी दिन-दिन कैसी उन्नति हुई है। उनको जाने दो, अपने ही यहाँ देखो। तुम्हारे धर्म की आड़ में नाना प्रकार की नीति समाज गठन वैद्यक आदि भरे हुए हैं। दो-एक मिसाल सुनो। तुम्हारा बलिया के मेला का यहीं स्थान क्यों चुना गया है जिसमें जो लोग कभी आपस में नहीं मिलते। दस-दस, पाँच-पाँच कोस से ले लोग एक जगह एकत्र हो कर आपस में मिलें। एक दूसरे का दुःख-सुख जानें। गृहस्थी के काम की वह चीजें जो गाँव में नहीं मिलतीं यहाँ से ले जाएँ। एकादशी का व्रत क्यों रखा है? जिसमें महीने में दो-एक उपवास से शरीर शुद्ध हो जाए। गंगा जी नहाने जाते हैं तो पहले पानी सिर पर चढ़ा कर तब पैर पर डालने का विधान क्यों है? जिससे तलुए से गरमी सिर पर चढ़ कर विकार न उत्पन्न करे। दीवाली इसी हेतु है कि इसी बहाने साल भर में एक बार तो सफाई हो जाए। होली इसी हेतु है कि बसंत की बिगड़ी हवा स्थान-स्थान पर अग्नि जलने से स्वच्छ हो जाए। यही तिहवार ही तुम्हारी म्युनिसिपालिटी है। ऐसे ही सब पर्व, सब तीर्थ, व्रत आदि में कोई हीकमत है। उन लोगों ने धर्म-नीति और समाज-नीति को दूध पानी की भाँति मिला दिया है। खराबी जो बीच में हुई वह यह है कि उन लोगों ने ये धर्म क्यों मानने लिखे थे। इसका लोगों ने मतलब नहीं समझा और इन बातों को वास्तविक धर्म मान लिया। भाइयों, वास्तविक धर्म तो केवल परमेश्वर के चरण कमल का भजन है। ये सब तो समाज धर्म है। जो देश काल के अनुसार शोधे और बदले जा सकते हैं। दूसरी खराबी यह हुई कि उन्हीं महात्मा बुद्धिमान ऋषियों के वंश के लोगों ने अपने बाप-दादों का मतलब न समझ कर बहुत से नए-नए धर्म बना कर शास्त्रों में धर दिए बस सभी तिथि व्रत और सभी स्थान तीर्थ हो गए। सो इन बातों को अब एक बार आँख खोल कर देख और समझ लीजिए कि फलानी बात उन बुद्धिमान ऋषियों ने क्यों बनाई और उनमें देश और काल के अनुकूल और उपकारी हों उनका ग्रहण कीजिए। बहुत-सी बातें जो समाज विरुद्ध मानी जाती हैं किंतु धर्मशास्त्रों में जिनका विधान है उनको मत चलाइए। जैसा जहाज का सफर, विधवा विवाह आदि। लड़कों की छोटेपन ही में शादी कर के उनका बल, बीरज, आयुष्य सब मत घटाइए। आप उनके माँ-बाप हैं या शत्रु हैं। वीर्य उनके शरीर में पुष्ट होने दीजिए। नोन, तेल लकड़ी की फिक्र करने की बुद्धि सीख लेने दीजिए तब उनका पैर काठ में डालिए। कुलीन प्रथा, बहु विवाह आदि को दूर कीजिए। लड़कियों को भी पढ़ाइए किंतु इस चाल में नहीं जैसे आजकल पढ़ाई जाती है जिससे उपकार के बदले बुराई होती है ऐसी चाल से उनको शिक्षा दीजिए कि वह अपना देश और कुल-धर्म सीखें, पति की भक्ति करें और लड़कों को सहज में शिक्षा दें। वैष्णव, शास्त्र इत्यादि नाना प्रकार के लोग आपस में बैर छोड़ दें यह समय इन झगड़ों का नहीं। हिंदू, जैन, मुसलमान सब आपस में मिलिए जाति में कोई चाहे ऊँचा हो, चाहे नीचा हो सबका आदर कीजिए। जो जिस योग्य हो उसे वैसा मानिए, छोटी जाति के लोगों का तिरस्कार कर के उनका जी मत तोड़िए। सब लोग आपस में मिलिए। मुसलमान भाइयों को भी उचित है कि इस हिंदुस्तान में बस कर वे लोग हिंदुओं को नीचा समझना छोड़ दें। ठीक भाइयों की भाँति हिंदुओं से बरताव करें। ऐसी बात जो हिंदुओं का जी दुखाने वाली हो न करें। घर में आग लगे सब जिठानी, देवरानी को आपस का डाह छोड़ कर एक साथ वह आग बुझानी चाहिए। जो बात हिंदुओं का नहीं मयस्सर है वह धर्म के प्रभाव से मुसलमानों को सहज प्राप्त है। उनके जाति नहीं, खाने-पीने में चौका-चूल्हा नहीं, विलायत जाने में रोक-टोक नहीं, फिर भी बड़े ही सोच की बात है कि मुसलमानों ने अभी तक अपनी दशा कुछ नहीं सुधारी। एल अभी तक बहुतों को यही ज्ञात है कि दिल्ली, लखनऊ की बादशाहत कायम है। यारो, वे दिन गए। अब आलस, हठधरमी यह सब छोड़ो। चलो हिंदुओं के साथ तुम भी दौड़ो एक-एक-दो होंगे। पुरानी बातें दूर करो। मीर हसन और इंदरसभा पढ़ा कर छोटेपन ही से लड़कों का सत्यानाश मत करो। होश संभाला नहीं कि पढ़ी पारसी, चुस्त कपड़ा पहनना और गजल गुनगुनाए -
'शौक तिल्फी से मुझे गुल की जो दीदार का था।
न किया हमने गुलिस्ताँ का सबक याद कभी॥"
भला सोचो कि इस हालत में बड़े होने पर वे लड़के क्यों न बिगड़ेंगे। अपने लड़कों को ऐसी किताबें छूने भी मत दो। अच्छी से अच्छी उनको तालीम दो। पैंशन और वजीफे या नौकरी का भरोसा छोड़ो। लड़कों को रोजगार सिखलाओ। विलायत भेजो। छोटेपन से मेहनत करने की आदत दिलाओ। सौ-सौ महलों के लाड़-प्यार, दुनिया से बेखबर रहने की राह मत दिखलाओ।
भाई हिंदुओं, तुम भी मत-मतांतरों का आग्रह छोड़ो। आपस में प्रेम बढ़ाओ। इस महामंत्र का जप करो। जो हिंदुस्तान में रहे चाहे किसी जाति, किसी रंग का क्यों न हो वह हिंदू है। हिंदू की सहायता करो। बंगाली, मरट्ठा, पंजाबी, मदरासी, वैदिक, जैन, ब्राह्मणों, मुसलमानों सब एक का हाथ एक पकड़ो। कारीगरी जिससे तुम्हारे यहाँ बढ़े तुम्हारा रुपया तुम्हारे ही देश में रहे वह करो। देखा जैसे हजार धारा हो कर गंगा समुद्र में मिली है वैसे ही तुम्हारी लक्ष्मी हजार तरह से इंग्लैंड, फरांसीस, जर्मनी, अमेरिका को जाती है। दीआसलाई ऐसी तुच्छ वस्तु भी वहीं से आती है।
जरा अपने ही को देखो। तुम जिस मारकीन की धोती पहने हो वह अमेरिका की बनी है। जिस लकलाट का तुम्हारा अंगा है वह इंग्लैंड का है। फरांसीस की बनी कंघी से तुम सिर झारते हो और जर्मनी की बनी चरबी की बत्ती तुम्हारे सामने जल रही है। यह तो वही मसल हुई एक बेफिकरे मंगती का कपड़ा पहिन कर किसी महफिल में गए। कपड़े को पहिचान कर एक ने कहा अजी अंगा तो फलाने का हे, दूसरा बोला अजी टोपी भी फलाने की है तो उन्होंने हँस कर जवाब दिया कि घर की तो मूछें ही मूछें हैं। हाय अफसोस तुम ऐसे हो गए कि अपने निज की काम के वस्तु भी नहीं बना सकते। भइयों अब तो नींद से जागो। अपने देश की सब प्रकार से उन्नति करो। जिसमें तुम्हारी भलाई हो वैसी ही किताब पढ़ो। वैसे ही खेल खेलो। वैसा बातचीत करो। परदेसी वस्तु और परदेसी भाषा का भरोसा मत रखो। अपने में अपनी भाषा में उन्नति करो।


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