रामचंद्र गुहा का आलेख 'गांधी बनाम लेनिन'

 

राम चन्द्र गुहा


महात्मा गांधी और लेनिन विश्व इतिहास के दो ऐसे व्यक्तित्व हैं जो अपने जीवन काल में ही किंवदंती बन गए थे। गांधी ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद से भारत को आजाद कराया जबकि लेनिन ने रूस को निरंकुश जारशाही से मुक्त कराया। दोनों महापुरुषों के रास्ते और साधन एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न थे लेकिन लक्ष्य एक था अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करना। दोनों के ऊपर समकालीन कवियों और लेखकों ने अपनी कलम चलाई और दोनों अपने यहां के लोक गीतों और लोक कथाओं के नायक जल्द ही बन गए। अप्रैल 1921 में श्रीपाद अमृत डांगे ने 60 पृष्ठों की एक पुस्तिका प्रकाशित की, जिसका शीर्षक था 'गांधी बनाम लेनिन'। चार वर्ष पश्चात, अमेरिकी मेथोडिस्ट पादरी हैरी वार्ड ने अप्रैल 1925 में 'द वर्ल्ड टुमारो' पत्रिका में 'लेनिन और गांधी' शीर्षक से एक विचारपूर्ण आलेख प्रकाशित किया। ऑस्ट्रियाई विचारक रेने फ्यूलोप-मिलर ने भी 1927 ई में इसी शीर्षक से मूल रूप से फ्रेंच भाषा में एक किताब लिखी। आज जब दुनिया भर में कट्टरवादी ताकतें अपने पांव पसारती जा रही हैं, लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं संकट में नजर आ रही हैं। इसी को आधार बना कर जाने-माने इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने एक महत्त्वपूर्ण आलेख लिखा है, जो अमर उजाला 28 दिसम्बर 2025 के अंक में प्रकाशित हुआ है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रामचंद्र गुहा का आलेख 'गांधी बनाम लेनिन'।


'गांधी बनाम लेनिन'


रामचंद्र गुहा



हाल ही में मैंने एक अत्यंत रोचक और विचारोत्तेजक किताब पढ़ी, जिसका शीर्षक था - 'लेनिन और गांधी'। इस पुस्तक के लेखक ऑस्ट्रियाई विचारक रेने फ्यूलोप-मिलर थे। यह किताब मूल रूप से फ्रेंच भाषा में लिखी गई थी, लेकिन मैंने इसका अंग्रेजी अनुवाद पढ़ा, जो वर्ष 1927 में प्रकाशित हुआ था। बीसवीं सदी के तीसरे दशक में गांधी और लेनिन की तुलना करते हुए पूरी किताब लिखा जाना पूरी तरह तार्किक था, क्योंकि उस समय ये दोनों व्यक्तित्व न केवल अपने-अपने देशों में बल्कि विश्व राजनीति में भी गहरी छाप छोड़ चुके थे।


गांधी और लेनिन समकालीन थे। उनके जन्म के बीच केवल छह महीने का अंतर था। दोनों ही मध्यमवर्गीय परिवारों से आए थे और दोनों ने अपने जीवन का उद्देश्य समाज के शोषित और वंचित वर्गों की मुक्ति को बनाया। अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करना उनके विचारों का केंद्र था। इसके बावजूद, दोनों के रास्ते और साधन एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न थे।



लेनिन की लेखनी तीखी, आक्रामक और संघर्षपूर्ण थी, जबकि गांधी अपने निजी और सार्वजनिक जीवन में शालीनता, संयम और सौम्यता को सर्वोपरि मानते थे। सबसे बड़ा अंतर यह था कि लेनिन ने हिंसा और शक्ति की सामाजिक परिवर्तन का आवश्यक साधन माना, जबकि गांधी जीवन भर अहिंसा और नैतिक संघर्ष के मार्ग पर अडिग रहे। मेरी जानकारी के अनुसार गांधी और लेनिन की पहली मुद्रित तुलना मुंबई के क्रांतिकारी विचारक श्रीपाद अमृत डांगे ने की थी। अप्रैल 1921 में डांगे ने 60 पृष्ठों की एक पुस्तिका प्रकाशित की, जिसका शीर्षक था 'गांधी बनाम लेनिन'। कम्युनिस्ट होने के कारण डांगे का वैचारिक झुकाव लेनिन की ओर अधिक था, लेकिन गांधी को निकट से देखने और समझने के कारण उनके भीतर एक भारतीय के प्रति सहानुभूति भी थी। डांगे का मानना था कि दोनों के विचारों को व्यवहार में पूरी तरह लागू करना असंभव है। उन्होंने लिखा कि गांधीवाद मानव स्वभाव की नैसर्गिक भलाई में अत्यधिक और अव्यावहारिक विश्वास करता है, जबकि बोल्शेविज्म मानवीय भावनाओं और नैतिक पक्ष की उपेक्षा करता है।


डांगे के चार वर्ष बाद, अमेरिकी मेथोडिस्ट पादरी हैरी वार्ड ने अप्रैल 1925 में 'द वर्ल्ड टुमारो' पत्रिका में 'लेनिन और गांधी' शीर्षक से एक लेख प्रकाशित किया। वार्ड ने यह रेखांकित किया कि दोनों नेताओं ने अपने मध्यमवर्गीय परिवेश से ऊपर उठ कर, सादे जीवन और आत्मसंयम के माध्यम से स्वयं को आम जनता से जोड़ा। इसके बाद उन्होंने दोनों के दर्शन के मूल अंतर पर ध्यान केंद्रित किया। वार्ड के शब्दों में, "लेनिन का दर्शन शक्ति का दर्शन है और उनका कार्यक्रम बल का कार्यक्रम है। गांधी का दर्शन प्रेम का दर्शन है और उनका कार्यक्रम अहिंसा का कार्यक्रम है। लेनिन मानता है कि उत्पीड़क की शक्ति को और अधिक शक्ति से पराजित किया जाएगा, जबकि गांधी कहते हैं कि उत्पीड़क को एक भिन्न प्रकार की नैतिक शक्ति से हराया जाएगा। हैरी वार्ड के अनुसार, लेनिन और गांधी अपने युग के दो सबसे प्रभावशाली व्यक्ति थे। उन्होंने लिखा कि मानवता का भविष्य उन विचारों के संघर्ष पर निर्भर करता है, जिनका प्रतिनिधित्व लेनिन और गांधी करते हैं। समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े लोगों को बेहतर जीवन की ओर उठना ही होगा। प्रश्न यह है कि यह उत्थान धीरे-धीरे सहयोग और साझेदारी के माध्यम से होगा या फिर हिंसक शक्ति संघर्ष के जरिये, जो अंततः सभ्यता के मूल तत्वों को ही नष्ट कर देगा।


गांधी


ऐसा प्रतीत होता है कि 1927 में अपनी पुस्तक प्रकाशित करते समय रेने फ्यूलोप-मिलर को यह जानकारी नहीं थी कि डांगे और वार्ड उनसे पहले इसी विषय पर लिख चुके थे। फिर भी, उन्होंने भी यही तर्क दिया कि गांधी और लेनिन दोनों ने अपने सशक्त व्यक्तित्व और अडिग विश्वासों के बल पर न केवल अपने-अपने देशों को, बल्कि इतिहास की दिशा को भी बदल दिया। दोनों ही ऐसे नेता थे जो अपने पुराने साथियों के छूट जाने के बाद भी अकेले संघर्ष करने के लिए तैयार थे। उन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों के बीच रचनात्मक एकता स्थापित करने का प्रयास किया लेनिन ने रूस में किसानों और मजदूरों के बीच तथा गांधी ने भारत में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच।


हालांकि कई मायनों में फ्यूलोप-मिलर का विश्लेषण उनके पूर्ववर्तियों जैसा ही था, लेकिन लेनिन और गांधी की राजनीतिक पद्धतियों के बीच नैतिक दूरी को ले कर वे कहीं अधिक स्पष्ट और कठोर थे। उन्होंने लिखा कि घृणा ही लेनिन का तत्व थी और राजनीतिक विरोधियों से निपटने का उनका एकमात्र तरीका उन्हें कुचल देना था। फ्यूलोप-मिलर के अनुसार, यह तथ्य कि वर्गहीन और शोषण-मुक्त समाज की कामना करने वाला व्यक्ति अपने लक्ष्य को पाने के लिए केवल हिंसा को ही साधन मानता था. उसके जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी थी। इसके विपरीत, गांधी का अहिंसा के सार्वभौमिक सत्य में अटूट विश्वास था। फ्यूलोप-मिलर लिखते हैं कि गांधी ने यह निश्चय किया था कि वे व्यक्तिगत और राजनीतिक शत्रुओं के विरुद्ध हर परिस्थिति में केवल प्रेम और नैतिक शक्ति के माध्यम से संघर्ष करेंगे। उन्होंने गांधी की क्रांति को इतिहास में अनोखा बताया। सद्गुण और अहिंसा की ऐसी क्रांति, जिसका नेतृत्व एक ऐसा व्यक्ति कर रहा था, जिसका आदर्श वाक्य था "अपने शत्रुओं से प्रेम करो।"


1926 में हैरी वार्ड का लेख प्रकाशित होने के एक वर्ष बाद, लेकिन फ्यूलोप-मिलर की पुस्तक के आने से पहले, फिलिप स्प्रैट नामक एक युवा ब्रिटिश कम्युनिस्ट भारत आया। उसका उद्देश्य भारत में क्रांति को भड़काना था। वह लेखक नहीं, बल्कि एक सक्रिय कार्यकर्ता था और उसने लेनिन का मार्ग चुना था। कुछ वर्षों तक वह भारतीय उपमहाद्वीप में घूमता रहा, क्रांतिकारियों से संपर्क करता रहा और अंततः 1929 में मेरठ षड्यंत्र मामले में गिरफ्तार कर लिया गया। 


लेनिन


लगभग एक दशक की जेल यात्रा के दौरान फिलिप स्प्रैट ने भारतीय इतिहास और दर्शन का गहन अध्ययन किया। इन अनुभवों ने उसे गांधी को एक नए दृष्टिकोण से देखने के लिए प्रेरित किया। रिहा होने के बाद वह सेवाग्राम गया और गांधी जी से मिला। बाद में उसने 'गांधीवाद : एक विश्लेषण' नामक पुस्तक लिखी, जिसमें उसने लेनिन और गांधी के विचारों के बीच सामंजस्य खोजने का प्रयास किया।


स्प्रैट का निष्कर्ष था कि लेनिन की विधियां प्रभावी प्रतीत हो सकती हैं, लेकिन गांधी की विधियां कहीं अधिक मानवीय हैं। जेल में गया हुआ कट्टर मार्क्सवादी बाहर निकलते-निकलते एक प्रश्नाकुल और चिंतनशील विचारक बन चुका था। लोकतंत्र के पक्ष में उसके तर्क आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। फिलिप स्प्रेट ने प्रसंगवश लेनिन की एक 'त्रुटि' की ओर भी इशारा किया, यह कि लेनिन ने बुर्जुआ लोकतंत्र को पूरी तरह छल मान लिया था, जिसे केवल क्रांतिकारी उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन जिसमें अपने आप में कोई मूल्य नहीं है।


फिलिप स्प्रैट द्वारा लोकतंत्र के पक्ष में दिए गए इन 'दो समर्थन पूर्ण जयघोषों' के अस्सी वर्ष बाद, आज दुनिया भर में लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं संकट में हैं। ट्रंप के अमेरिका में, ऑर्बान के हंगरी में, नेतन्याहू के इस्ताइल में, एर्दोआन के तुर्किये में और (कम नहीं) मोदी के भारत में, दक्षिणपंथी सत्तावादी शासक सार्वजनिक संस्थाओं की स्वायत्तता को कमजोर करने और सत्ता में मौजूद दल के पक्ष में परिस्थितियां बनाने के लिए निरंतर प्रयासरत हैं।

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