चन्द्रभूषण का आलेख 'दो समयों में फंसे भरथरी : मध्य काल पर केंद्रित एक और उपन्यास पर चर्चा'

 




भारतीय लोक और शास्त्र में एक चर्चित नाम महाकवि भरथरी का है। लेकिन उनके समय के बारे में सुनिश्चित तरीके से कुछ भी कह पाना कठिन है। भरथरी का वास्तविक नाम  भर्तृहरि था। ये परमार वंश से सम्बन्धित थे और उज्जयिनी के प्रतापी शासक विक्रमादित्य के बड़े भाई थे। भर्तृहरि और रानी पिंगला की कथा कई संस्करणों में अपनी अपनी तरह से कही और सुनी जाती रही है। इस कथा की लोकप्रियता क्या अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि भारत में शायद ही कोई इलाका है, जहां के लोग गुरु गोरखनाथ और राजा भरथरी की कहानी से परिचित न हों। प्राचीन भारतीय साहित्य और इतिहास के साथ कालक्रम की एक बड़ी समस्या रही है। चन्द्रभूषण हमारे समय के महत्त्वपूर्ण शोधकार हैं। हमारे समय के महत्वपूर्ण कहानीकार महेश कटारे का एक उपन्यास आया है ‘भर्तृहरि : काया के वन में’। इस उपन्यास को पढ़ते हुए चन्द्रभूषण भरथरी के कालक्रम की इस चुनौती को स्वीकार करते हैं और अपने एक आलेख में वे लिखते हैं 'भरथरी के समय से जुड़ी स्पष्टता बीसवीं सदी की ही उपलब्धि है। पीछे अगर उन्हें गोरख का समकालीन और आयु में संंभवतः थोड़ा छोटा माना जाता था तो इसकी वजह यही थी कि दोनों के समय को जानने का का कोई तरीका ही नहीं था। गोरख नाथ को ले कर कुछ धुंधलका आज भी बना हुआ है, लेकिन धुंध का दायरा बमुश्किल सौ-पचास वर्षों का ही है, भरथरी की तरह पांच-छह सौ वर्षों का नहीं।' आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं 'दो समयों में फंसे भरथरी : मध्य काल पर केंद्रित एक और उपन्यास पर चर्चा'।


'दो समयों में फंसे भरथरी : मध्य काल पर केंद्रित एक और उपन्यास पर चर्चा'


चन्द्रभूषण


जन्म-मृत्यु जैसी जरूरी जानकारियां न तो हम अब तक गुरु गोरख नाथ के बारे में जुटा पाए हैं, न राजा भरथरी के। गाथाओं में भरथरी गोरख के शिष्य कहलाते हैं। जोगियों के गायन में बहुत प्रिय चरित्र की तरह आने वाले राजा गोपी चंद की मां मयनावती (मैनामती) इन्हीं भरथरी की बहन बताई जाती हैं। लेकिन किस्सों वाले भरथरी के साथ एक मुश्किल यह है कि वे संस्कृत के बहुत बड़े कवि भी हैं और उनके ग्रंथ छूते ही किस्सों का रंग उड़ने लगता है। 


तह में जाने पर देश के आधे से ज्यादा भूगोल में और समाज के सभी स्तरों तक लोकप्रिय इन दोनों चरित्रों के बारे में जो पता चल सका है, उसके मुताबिक भरथरी (भर्तृहरि) का समय गोरख से पांच-छह सौ साल पहले का है। यानी परंपरा चाहे जो भी कहे, भरथरी को गोरख का चेला दो ही सूरतों में साबित किया जा सकता है। एक तब, जब ईसा की पहली सहस्राब्दी के मध्य में और दूसरी की शुरुआत में भरथरी नाम के दो अति प्रसिद्ध व्यक्ति हुए हों, और दूसरी तब, जब लोकप्रिय गाथाओं में इतिहास के कार्य-कारण संबंधों की परवाह करना हम बिल्कुल बंद ही कर दें।





अभी के दौर के एक बड़े कहानीकार महेश कटारे का उपन्यास ‘भर्तृहरि : काया के वन में’ नायक को देश-काल में पसरे बौद्धिक की तरह देखता है और भर्तृहरि-गोरख को ले कर मौजूद किस्सों में निहित इतिहास के विरोधाभास को साफ छोड़ देता है। 2012 में ‘कामिनी काय कांतारे’ नाम से आई इस किताब के पहले संस्करण की भूमिका में कटारे ने असल भरथरी के फेरे में पड़ने के बजाय अपना भर्तृहरि खोजने की बात कही है और ऐसा ही किया भी है। 


रही बात भरथरी के गोरख का चेला होने की तो किस्सों में आई इस गुत्थी का समाधान लेखक ने अपनी किताब के लगभग आधे हिस्से में गोरख का कोई जिक्र ही न करते हुए किया है। नाथपंथी दंतकथाओं में सुनाई पड़ने वाले चमत्कार हमें किताब की शुरुआत से ही दिखाई देते हैं लेकिन गोरख का नाम पहली बार पृष्ठ 132 पर आता है- ‘‘अलख-अलख-अलख! गोरख-गोरख-गोरख!’ वैखानस एक चिंघाड़ के साथ उठ खड़े हुए और जोर-जोर से श्रृंगी फूंकने लगे। इस तकनीक से वे गोरख को वैराग्य की एक विशिष्ट शैव परंपरा के कहीं बीच में अवस्थित करते हैं।





भरथरी और गोरख का समय


आगे बढ़ने से पहले एक बात साफ कर लें कि भरथरी के समय से जुड़ी स्पष्टता बीसवीं सदी की ही उपलब्धि है। पीछे अगर उन्हें गोरख का समकालीन और आयु में संंभवतः थोड़ा छोटा माना जाता था तो इसकी वजह यही थी कि दोनों के समय को जानने का का कोई तरीका ही नहीं था। गोरखनाथ को ले कर कुछ धुंधलका आज भी बना हुआ है, लेकिन धुंध का दायरा बमुश्किल सौ-पचास वर्षों का ही है, भरथरी की तरह पांच-छह सौ वर्षों का नहीं। 


धुंध की इस यांत्रिकी को समझने के लिए हम कुछेक हालिया खोजों पर एक नजर डालते हैं। प्रमाणवादी बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग की ग्रंथ-सूची विशाल है लेकिन हम उन्हें उनके मूल रूप में नहीं, तिब्बती से अंग्रेजी या जर्मन में किए गए अनुवाद के जरिये, या जहां-तहां संस्कृत में की गई पुनर्प्राप्ति के जरिये ही पढ़ सकते हैं। जापानी मूल के प्रसिद्ध भाषा-दार्शनिक (लिंग्विस्टिक फिलॉस्फर) मसाकी हटोरी ने तिब्बती पाठ के कुछ जरूरी अंशों को संस्कृत में पुनर्प्राप्त करने संबंधी जर्मन विद्वानों के प्रयास का उपयोग करते हुए 1968 में एक अद्भुत काम किया। 


बाकायदा हिस्से उद्धृत करके उन्होंने बताया कि दिङ्नाग ने अपने प्रमुख ग्रंथ ‘प्रमाणसमुच्चय’ में भर्तृहरि की किताब ‘वाक्पदीय’ के श्लोक उद्धृत किए हैं। इससे भर्तृहरि के समय को लेकर उन्होंने एक बड़ा निष्कर्ष निकाला। दिङ्नाग की मृत्यु 530 से 540 ई. के बीच होना सिद्ध है, यानी भर्तृहरि का जीवन भरसक 540 ई. से पहले ही बीत चुका होगा, और दोनों का समय एक ही रहा हो तो भी उनकी ऊपरी रेखा सन 540 से बहुत आगे नहीं खिंच सकती।


ध्यान रहे, दिङ्नाग के लिए भर्तृहरि एक प्रतिपक्षी लेखक हैं। उनके नाम और ग्रंथ का उल्लेख न करते हुए उनके उद्धरण सिर्फ इसलिए दिए गए हैं ताकि उन्हें सामने रखकर उनमें आई शब्द और अर्थ संबंधी प्रस्थापनाओं का खंडन किया जा सके। ऐसे जो चार श्लोक शब्दशः पहचाने जा सके हैं, वे हैं- वाक्पदीय कांड 1 का 18वां, 44वां और 123वां तथा कांड 2 का 31वां। ऐसा ही कांड 1 के पहले, 106वें और 140वें श्लोक के साथ भी किया गया है लेकिन उन्हें उद्धृत करने के बजाय उनका भावार्थ बताते हुए। भाषाशास्त्र में भर्तृहरि अपने ‘स्फोट सिद्धांत’ के लिए जाने जाते हैं, यानी ‘शब्द अपना अर्थ लिए हुए आते हैं, वाक्य में अर्थ संपूर्ण होता है’। दिङ्नाग का मानना है कि शब्दों के अर्थ संदर्भ के अनुसार, तुलना के जरिये स्पष्ट होते हैं। बुद्ध की प्रस्थापना- ‘भाषा व्यवहार की उपज है’ का विस्तार।   


दूसरी तरफ, लिखित रूप में गोरख का पहला जिक्र चटगांव (बांग्लादेश) के एक शिलालेख में मिलता है, जिसका लेखन-समय सन 1091 ई. दर्ज है। इसके पहले कहीं उनका कोई हवाला नहीं मिलता। शिलालेख लिखवाने वाले राजा का पूज्य होने में समय जरूर लगा होगा, लेकिन इस योगी का वक्त बहुत पीछे भी नहीं खींचा जा सकता। गोरख को एक आम इंसान की तरह ही देखना हो तो हम मान सकते हैं कि उनके योगी बनने का समय 1030 के आसपास का ही होगा, जब भारत में महमूद गजनवी की फौजों का आना-जाना लगा हुआ था। उनकी उक्तियों में हिंदू और मुसलमान का एक-सा जिक्र, दोनों उभरती पहचानों से बराबर की बहस भी कुछ ऐसा ही संकेत देती है- 


हिंदू ध्यावे देहुरा, मुसलमान मसीत। 

जोगी ध्यावे परम पद, जहं देहुरा न मसीत।।






अलग-अलग तरह के द्वंद्व


भरथरी और गोरख, दोनों किस्सों के धनी हैं। भारत में शायद ही कोई इलाका हो, जहां के लोग गुरु गोरखनाथ और राजा भरथरी के बारे में न जानते हों। दोनों का लिखा और कहा हुआ हुआ लंबे अर्से से लोगों की जुबान पर है तो लोगों ने भी इनके बारे में काफी कुछ कह रखा है। ऐसे में, तथ्यों की चिंता किए बिना भी कोई इनपर अलग-अलग या दोनों को मिला कर उपन्यास लिखने का मन बना सकता है। कुछ लिखे जा चुके हैं, कुछ आगे भी लिखे जाएंगे। उन रचनाओं को इतिहास की तरह पढ़ने की जरूरत नहीं है। हां, लेखक अच्छा हुआ तो अपनी कल्पनाशक्ति से उनके माहौल में जाने की कोशिश करेगा और पढ़ने वालों को इसमें अपना ही कोई अलग आयाम खुलता दिखेगा। 


भर्तृहरि पर लौटते हैं। एक राजा, कवि और वैयाकरण। इंद्रियों के अनुभव में लिपटा हुआ, साथ में वैराग्य साधने का प्रयास भी करता हुआ। महेश कटारे ने अपनी भूमिका में ह्वेनसांग के एक पीढ़ी बाद भारत आए चीनी यात्री ईत्सिंग (यीछिंग) को उद्धृत किया है- ‘भरथरी सात बार योगी बना और सात बार गृहस्थी में आया।’ संभव है, ईसा की सातवीं सदी में वाकई इस चरित्र को ले कर ऐसी चर्चा रही हो। लेकिन बार-बार भागने वाला राजा राज क्या चलाएगा? 


‘भर्तृहरि : काया के वन में’ भरथरी के जीवन में ज्यादा नहीं, कुल चार औरतों के लिए जगह बनाता है। एक उनकी रानी। एक दासी जिसे रानी ने ही वक्त जरूरत राजा के साथ सो जाने की इजाजत दे रखी है और जो उपन्यास के बीच में उनकी एकमात्र संतान को जन्म देती है। एक जंगल में रहने वाले उनके प्रजावर्ग की लड़की। और एक प्रसिद्ध वेश्या जिसके संक्षिप्त सान्निध्य के लिए राजाओं और सेठों की कतारें लगी रहती हैं। भरथरी का राज्य छोड़ कर भागना भी यहां कुल दो बार ही होता है। गोरख नाथ कहानी के अंत में सिर्फ दर्शन देने आते हैं लेकिन उनका एक चेला ‘रिलीफ मटीरियल’ की तरह किताब में दिखता रहता है और माहौल बनाने में बड़ी मदद करता है।





पुख्ता कहानी फिर से सुनाना


आगे हम कहानी में थोड़ा भीतर भी जाएंगे, लेकिन पहले ही बता दूं कि लेखक ने भर्तृहरि की पड़ताल ‘संसार के भीतर रहें या बाहर’ वाले द्वंद्व में फंसे व्यक्ति की तरह नहीं की है। उनकी बेचैनी किसी लेखक, कलाकार या चिंतक जैसी लगती है। पहली बार उनके घर से निकलने का मुख्य कारण अपनी पत्नी की बेवफाई है- वही किस्सा कि किसी योगी से मिला अमरफल राजा ने अपनी रानी को दिया, रानी ने अपने प्रेमी को, प्रेमी ने वेश्या को और वेश्या ने वापस राजा को। किताब की तेज शुरुआत के लिए महेश कटारे इस किस्से को पृष्ठभूमि में रख कर राज्य और रिश्तों को निराधार मानते हुए एक बरसाती अंधेरी रात में घोड़े पर भागे चले जा रहे राजा पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं।


जिन भी लोगों को राह चलते जोगियों का सारंगी पर गाया हुआ राजा भरथरी का गीत जीवन में कभी सुनने को मिला है, वे अच्छी तरह जानते होंगे कि इस किस्से के नोडल पॉइंट पथरीली जमीन पर लोहे के खूंटों की तरह सदियों से ठुंके हुए हैं। ढांचागत कल्पना की कोई गुंजाइश इस किस्से में नहीं है। कहानी का अंत राजा भरथरी द्वारा अपने महल में लौट कर रानी पिंगला को माता कह कर उनसे भिक्षा मांगने में होता है। यही अंत राजा गोपी चंद के किस्से का भी होता है- कुछ साल गुरु के पीछे भटक लेने के बाद महल जाना, पत्नी (रानी) पाटन को मां कह कर भिक्षा मांगना। 


शिवप्रसाद सिंह अपने उपन्यास ‘नीला चांद’ में राजा भरथरी को उस समय प्रवेश दिलाते हैं, जब उन्हें वैराग्य लिए, संन्यासी हुए लंबा वक्त गुजर चुका है। वहां वे भरथरी को राजा भोज का वारिस दिखाते हैं। रानी पिंगला की दुष्चरित्रता के किस्से को उनका नायक कीर्तिसिंह चंदेल विरोधी राजाओं- भीमदेव चालुक्य (के. एम. मुंशी के उपन्यास ‘जय सोमनाथ’ का नायक) और लक्ष्मीकर्ण कलचुरी- का षड्यंत्र बताता है और भरथरी की लानत-मलामत करता है। एक स्थापित कहानी में बाहर से की गई इस गैरजरूरी छेड़छाड़ से इसका कोई अलग अर्थ नहीं खुलता।


रही बात महेश कटारे के उपन्यास की तो इसके दृश्य जगह-जगह बांधते हैं लेकिन कथ्य में मौजूद बुनियादी दुविधा किनारे के किस्सों पर किताब की निर्भरता कुछ ज्यादा ही बढ़ा देती है। नई स्त्रियों का जीवन में आना जिस पुरुष के लिए इतना सहज हो, वह अपनी पत्नी का संबंध किसी अन्य पुरुष से होने की सूचना मिलते ही बिना उससे कुछ पूछे सर्वस्व त्याग पर उतारू हो जाए, यह बात बहुत अटपटी लगती है। थोड़ा समय इधर-उधर बिता कर वह लौटता है और उपन्यास के पचास पन्ने पार होते ही दोबारा निकल लेता है। इस बार पूरी तरह जोगी बन जाने के लिए! अबकी बार तो उसके पास बेवफाई जैसी दलील भी नहीं है। लगता है, कोई नई किताब लिखने के लिए घर छोड़ रहा है!





लोकेशन की समस्या


समस्या इस चरित्र की लोकेशन में लगती है। ‘नीति शतक’, ‘श्रृंगार शतक’ और ‘वैराग्य शतक’ जैसी अंतर्दृष्टिपूर्ण किताबें लिखने वाला रचनाशील व्यावहारिक चिंतक, ‘वाक्पदीय’ लिखने वाला भाषाशास्त्री अपने निजी जीवन में लिप्तता और निर्लिप्तता के बीच झूलता रह सकता है। ‘काम’ उसके लिए एक दार्शनिक समस्या हो सकता है। स्त्री-पुरुष संबंध के मामले में अपने से थोड़ा पहले हुए कालिदास जैसे कवियों वाला भरोसा वह खुद में नहीं पाता, लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि उसके समय में पुरुष पर स्त्री पर निर्भरता भी पहले जैसी नहीं रह गई है। 


रिश्तों का यह अलग मिजाज, जो विष्णु प्रभाकर जैसे आधुनिक रचनाकार को भी चारित्रिक अधोगति का चरम बिंदु लगता है, कवि भर्तृहरि के युग की विशिष्टता है जो ‘बृहत्कथा’ (फिलहाल ‘कथासरित्सागर’ के रूप में मौजूद इसकी बहुत बाद की कहन) और ‘कादंबरी’ जैसे उस दौर में लिखे गए ग्रंथों में भी नजर आती है। लेकिन पीछे बुद्ध और आगे  गोरख की तरह जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाना भी भर्तृहरि के एजेंडे पर रहा हो, ऐसा कोई सुराग उनकी रचनाओं से नहीं मिलता। तात्पर्य यह कि पत्नी को मां कहकर भिक्षा मांगने वाले योगी भरथरी को कवि (शायद राजा भी) भर्तृहरि के साथ जोड़ कर देखने से इस चरित्र में लिखाई के लिहाज से एक बुनियादी असंगति पैदा हो जाती है।


महेश कटारे को कुछ हद तक इस समस्या का अंदाजा है, लिहाजा वे किनारे की कहानियों के जरिये पाठक को इंगेज किए रहते हैं। ऐसी कहानियां कई सारी हैं लेकिन इनमें सबसे ज्यादा देर तक घात-प्रतिघात उन चरित्रों के ही चलते हैं, जो राजधानी अवंति के कुछ प्रतिष्ठित नागरिकों और वहां से ठीक-ठाक दूरी पर स्थित एक चिकित्सा-आश्रम के अधिवासियों के बीच चलते हैं। वर्तमान समय से हजार-डेढ़ हजार साल पहले के महानगरीय जीवन का यह झरोखा दर्शन मशहूर फ्रांसीसी कॉमिक श्रृंखला ‘एस्ट्रिक्स एंड ओबेलिक्स’ की याद दिलाता है। पुराने समाज के दोहरे रिश्तों पर पढ़ते हुए आप कथावस्तु और लेखन, दोनों में मौजूद व्यंजना पर मुस्कराते रह सकें, लेखक की शक्ति का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है। जादू-मंतर का चित्रण भी बांधने वाला है लेकिन जोड़ी हुई चीज लगता है। 


एक अंतिम बात किताब की भाषा पर कहना जरूरी है। रचना की भाषा वही होनी चाहिए जो आपको उसकी दुनिया में तो ले जाए, लेकिन आपकी अपनी दुनिया से इतनी दूर भी न चली जाए कि पढ़ते हुए हर वाक्य में अटकना पड़े। महेश कटारे की भाषा काफी कुछ यह संतुलन साध ले जाती है। हालांकि जंगलों में रहने वाले लोग भालू को भल्लुक, चीते को चित्तक, नदी या झील को पयस्विनी कहें, इसका क्या औचित्य हो सकता है? कोई कहेगा, भर्तृहरि पर लि9खी किताब की भाषा उनकी अपनी संस्कृत के करीब ही होनी चाहिए। लेकिन किताब आधी गुजर जाने पर जब माहौल सिद्धों-नाथों वाला हो जाता हैई तब? वह दौर तो संस्कृत से दूर जाने का है। लेकिन किताब चाहे यह हो, या शिव प्रसाद सिंह का ‘नीला चांद’, या हजारी प्रसाद द्विवेदी का ‘चारु चंद्रलेख’, हर जगह पुराने का मतलब संस्कृत ही दिखता है!



चन्द्रभूषण


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