सुप्रिया पाठक का आलेख “नायाब नामवर : शास्त्र के कौतुक से कौतुक के शास्त्र तक”

 

हमारा समाज आमतौर पर ऐसा समाज है जहां परंपरागत रूप से कविता या कहानी को ही प्राथमिकता प्रदान किया जाता है। आलोचना को गम्भीरता से देखे जाने की परम्परा प्रायः नदारद मिलती है। नामवर सिंह ने आलोचना की एक ऐसी पद्धति विकसित की जिसमें एक कौतुक होता था। सामाजिक मान्यताओं, प्रतिबद्धताओं और विचारों के माध्यम से ही वे ऐसी सटीक बातें कह देते जिसके सम्मोहन से बच पाना कठिन होता था। शास्त्र की दृष्टि से भी देखा जाए तो वे बहुपठित थे। संस्कृत के ग्रन्थ हों या फिर पाश्चात्य दार्शनिक परम्परा के ग्रन्थ, लोक का ज्ञान हो या फिर मार्क्सवाद सब पर उनकी गहरी पकड़ थी। यह उनकी बहुपठनीयता ही थी, जो उन्हें सर्वस्वीकार्य बनाती थी। सुप्रिया पाठक ने स्त्री विमर्श के हवाले से नामवर जी की आलोचना को समझने की कोशिश की है। सुप्रिया बिना कोई तल्खी दिखाए तार्किक तरीके से अपनी बात रख देती है जो पाठक को अपने में आबद्ध कर लेती है। 



“नायाब नामवर: शास्त्र के कौतुक से कौतुक के शास्त्र तक”


सुप्रिया पाठक 


समीक्षा की समीक्षा या आलोचना की आलोचना एक कठिन काम है। यह काम और कठिन हो जाता है जब समीक्षा या आलोचना के घेरे में उपस्थित आलोचक नामवर सिंह जैसा कोई व्यक्ति हो। एक ऐसा व्यक्ति जिसने साहित्यिक आलोचना के समानान्तर रचना और समाज के बीच एक संवाद-सेतु का निर्माण कर आलोचना शब्द को एक नई अर्थवत्ता प्रदान की है। यह कठिन काम दुविधापूर्ण भी हो जाता है जब उसे अंजाम देने वाला व्यक्ति कोई नौसिखुआ हो। इस कठिनाई और दुविधा के बीच नामवर जी की रचनाओं एवं दृष्टि पर बोलते हुए समाज विज्ञान की विद्यार्थी होने के नाते मेरे मन में भी कुछ धारणाएँ हैं। इस कश्मकश के बीच नामवर जी की एक पंक्ति मेरे भीतर कौंधती हैं जो वे 'कविता के नए प्रतिमान' के दूसरे संस्करण की भूमिका में अंटोनियो ग्राम्शी को उद्धृत करते हुए लिखते है : “युद्ध क्षेत्र में दुश्मन के सबसे कमजोर मोर्चे पर हमला कर के जीत हासिल कर लेना भले ही सफल रणनीति हो, पर बौद्धिक क्षेत्र में सबसे मजबूत और मुश्किल मोर्चे की विजय ही असली विजय है।  नामवर जी लिखते हैं - ‘रस ग्रहण के कार्य में हर पाठक अकेला है और अपनी नियति का पथ उसे अकेले ही तय करना है’ इन पंक्तियों ने जैसे मुझमें अपनी पाठकीय दृष्टि को आप सबसे साझा करने का अपार साहस भर दिया है। 

प्रो. नामवर सिंह हिन्दी का चेहरा हैं। उनमें हिन्दी समाज, साहित्य-परम्परा और सर्जना की संवेदना रूपायित होती है। वे न सीमित अर्थों में साहित्यकार हैं और न आलोचक। वे हिन्दी में मानवतावादी, लोकतांत्रिक और समाजवादी विचारों की व्यापक स्वीकृति के लिए सतत संघर्षशील प्रगतिशील आन्दोलन के अग्रणी विचारक हैं। स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज और राजनीति की जनपक्षधर शक्तियों को उन्होंने अपनी वैचारिकता, आलोचकीय प्रतिभा और लोकसंवेदी-तर्कप्रवण वक्तृता से निरन्तर मजबूत किया है। वे देश में समतावादी समाज का सपना सँजोए रखने वाली  सामाजिक शक्तियों के पक्ष में सामंतवादी-पुनरुत्थानवादी शक्तियों और पूँजीवादी शक्तियों से निरन्तर मुठभेड़ जारी रखने वाले वैचारिक योद्धा हैं। उन्होंने जहाँ एक ओर धर्म, लोक, परम्परा और संस्कृति के मानवीय मूल्यों पर जोर देने वाली विरासत की सटीक व्याख्या की है, वहीं इनको उपकरण बनाकर सामाजिक भेदों को स्वीकृत कराने वाले बौद्धिक प्रयत्नों के खिलाफ हमलावर तेवर भी अपनाए हैं। उन्होंने परम्परा और आधुनिकता के मूल्यांकन की प्रगतिशील परम्परा को आगे बढ़ाया है।  उनकी यही विशेषता स्त्री प्रश्नों के संदर्भ में कैसे आकार ग्रहण करती है, यह जानना न सिर्फ दिलचस्प है बल्कि स्त्री प्रश्नों को लेकर नामवर जी की दृष्टि का अभी सम्यक मूल्यांकन किया जाना शेष है। नामवर जी साहित्य के इतने विशाल वृक्ष की तरह हैं जिनके ज्ञान और आलोचकीय दृष्टि का मूल्यांकन यदि हर विचारधारा के लोग अलग-अलग भी करें तब भी बहुत कुछ छूट जाता है जिसे न छू पाने का मलाल उनके हर पाठक के मन में बना रह जाता है। यह ठीक वैसा ही है जैसे मैं पहाड़ को छूने निकला, पहाड़ को छू कर नहीं निकला। यह पंक्तियाँ कहने से मेरा आशय कत्तई उन्हें ईश्वर तुल्य बनाना नहीं है और न ही उनके द्वारा प्रदान की गई अंतर्दृष्टि को आँख मूँद कर स्वीकार कर लेना है। बल्कि मेरा प्रयास एक समाज वैज्ञानिक के रूप में किसी व्यक्ति की चिंतन प्रक्रिया के विकास को समझना एवं उसमें समय-समय पर आए वैचारिक परिवर्तनों का आलोचनात्मक विश्लेषण करना है। विशेषकर, स्त्री प्रश्नों के प्रति (1955-2010) उनकी दृष्टि को समझना इस आलेख का उद्देश्य है। 


लेखक के रूप में नामवर जी की पहली पहचान एक कवि के रूप में ही बनी थी।  सन् 1940 से 45 के बीच उन्होंने जम कर कविताएं लिखीं और उन कविताओं का एक संग्रह ‘नीम के फूल’ नाम से प्रकाशन के लिए तैयार भी हुआ, लेकिन किसी कारणवश प्रकाशित नहीं हो सका।  इसी दौरान उन्होंने कुछ ललित निबन्ध और आलोचनात्मक लेख लिखने शुरू किये और उस काम में वे इतने रम गये कि जैसे और कुछ करने की फुरसत ही नहीं रह गई। सन् 1951 में उनकी जो पहली किताब प्रकाशित हुई वह थी ‘बक़लम खुद’, जिसमें उनके 17 निबंध संकलित हैं. उसके बाद सन् 1952 से 1957 के बीच उनकी ‘छायावाद’, ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां’, ‘पृथ्वीराज रासो की भाषा’, ‘इतिहास और आलोचना’ आदि कई किताबें प्रकाशित हो कर सामने आईं । ये सभी कृतियां उस जमाने में और बाद के सालों में हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में सर्वाधिक चर्चित कृतियां मानी गईं। इसी क्रम में सातवें, आठवें और नौवें दशक में ‘कहानी नयी कहानी’, ‘कविता के नये प्रतिमान’, ‘दूसरी परम्परा की खोज’ और ‘वाद विवाद संवाद’ जैसी कृतियों के माध्यम से उन्होंने समकालीन साहित्य में ऐसी बहस का सूत्रपात किया, जिसकी अनुगूंज साहित्यिक हलकों में दूर तक सुनी गई।


नामवर जी से मेरा परिचय बचपन में अपने पिता जी की आलमारी में सजी उनकी पुस्तकों के माध्यम से हुआ जिनमें कहानी नई कहानी (1965), छायावाद (1955), कविता के नए प्रतिमान (1968), दूसरी परंपरा की खोज (1982) जैसी उनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ सुशोभित थीं। तब मैं सिर्फ उनके नाम और पिता जी के माध्यम से उनके द्वारा साहित्य में किए गए महत्वपूर्ण अवदान से अल्पबुद्धि के रूप में परिचित थी। उनसे मेरा पहला औपचारिक परिचय साहित्य की विद्यार्थी के रूप में नहीं बल्कि हिन्दी विश्वविद्यालय की एक शिक्षिका और स्त्री विमर्श की एक अध्येता के रूप में 2009 में तब हुआ जब वो हमारे विश्वविद्यालय के कुलाधिपति के रूप में वर्धा आए। ठेठ गवईं वेशभूषा में धोती और लंबा कुर्ता पहने, पैरों में चमड़े का जूता पहने जब वो सभागार में दाखिल हुए तो उनके साथ एक हुजूम चलता हुआ अंदर दाखिल हुआ जो उनकी लोकप्रियता बयान कर रहा था। बहुत स्थिर ढंग से उन्होंने ‘छायावाद’ पर बोलना प्रारम्भ किया। एक-एक शब्द पर ज़ोर दे कर अपनी बात कहते हुए वे श्रोताओं के मनो मस्तिष्क पर गजब का सम्मोहन पैदा कर रहे थे। उनकी गूढ सैद्धान्तिक बातें तो बहुत पल्ले नहीं पड़ी पर इतना अवश्य हुआ कि उन्हें दुबारा सुनने की और सुन कर कुछ ग्रहण करने की अभिलाषा पैदा हो गई। वर्धा उनका लगातार आना-जाना लगा रहता था, इस कारण उनसे मुलाक़ात के संयोग बार-बार बनते थे । एक बार मेरे एक मित्र की सलाह पर नामवर जी की स्त्रीवादी दृष्टि पर उनका साक्षात्कार लेने की योजना बनी। उनके द्वारा तय समय पर हम अपनी तरफ से पूरी तैयारी के साथ  साक्षात्कार लेने उस गेस्ट हाउस पहुंचे, जहाँ उन्हें ठहराया गया था। उस समय मेरी उम्र भी 23-24 के आस पास रही होगी। इतने बड़े लेखक, चिंतक और आलोचक का साक्षात्कार लेने का उत्साह अपने चरम पर था। उन्होंने हमें बहुत स्नेह से बैठाया। इधर-उधर की बातें हुईं और फिर वे मुख्य मुद्दे पर आए। मुझसे पूछा कि 'हाँ, भाई पूछिए क्या पूछना है?' मैंने डरते-डरते उनसे प्रश्न किया कि सर आप साहित्य जगत के इतने बड़े अध्येता हैं, 'साहित्य की नई प्रवृतियों पर आपका लेखन और चिंतन अत्यंत महत्वपूर्ण है, आपको आलोचना का शिखर पुरुष माना जाता है ( हालांकि मुझे इस उपमा से बहुत आपत्ति थी, क्योंकि यह उपमा साहित्य की दुनिया में विद्यमान पितृसत्तात्मक विचारों का नमूना थी) ऐसे में आप साहित्य में उभरते नए विमर्शों यथा दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श को किस रूप में देखते हैं?' उन्होंने थोड़ी देर तक एक गंभीर मुद्रा बनाए रखी और फिर मुझसे प्रति प्रश्न किया ‘क्या है ये तुम्हारा स्त्री विमर्श? स्त्री विमर्श कुछ नहीं है, बस थोड़ा दिखाओ और थोड़ा छुपाओ है। इस तरह के विमर्श साहित्य एवं समाज में गहरी फांक पैदा करते हैं । स्त्री जीवन के संबंध में लिखना और स्त्रीवादी दृष्टि के साथ लिखना दो अलग-अलग बातें हैं। स्त्री पर लिखिए, खूब लिखिए पर विमर्श मत रचने लगिए। समझीं मेरी बात को? मैं स्तब्ध बस उन्हें देखती रह गई। अपने अंदर कुछ टूटता हुआ महसूस हुआ, छले जाने का भाव प्रबल होता गया और उनसे आगे बातचीत करने की सारी ऊर्जा यकायक समाप्त हो गई। हालांकि, इसके बाद वो देर तक उन  लेखिकाओं के लेखन के गुण-दोषों की चर्चा करते रहे, उनकी उपलब्धियां बताते रहे जिन्हें वे बेहतर रचनाकार मानते थे। परंतु जैसे मैंने उसके आगे कुछ सुना ही न हो। खैर, जैसे-तैसे वह बातचीत समाप्त हुई और एकदम बेमन से हम लोग विदा लेकर उठ खड़े हुए। दरवाजे तक जाते-जाते उन्होंने पीछे से आवाज दी : जैसा और जो मैंने बोला है, ठीक वैसा ही लिख मत देना। अपने विवेक का परिचय देना। उनका वह साक्षात्कार पन्नों में ही रह गया, मैं उसे कहीं प्रकाशित करने के लिए भेजने का मन ही नहीं बना पाई। क्योंकि जो उन्होंने कहा था, वो उनके अनुसार मुझे लिखना नहीं था और जिस तरह मैं लिखना चाहती थी, उसकी उन्होंने इजाजत नहीं दी थी। उसके बाद उनसे कई बार मुलाक़ात हुई। वो हर बार मुझसे पूछते कि उसे कहीं भेजा कि नहीं प्रकाशित होने के लिए तो मैं कोई न कोई बहाना बना देती या उनके सामने जाने से बचती थी। 


धीरे-धीरे उनका वर्धा आना कम होता गया और उनसे मुलाक़ात भी बंद हो गई। पर मन के किसी कोने में उनके कहे वे शब्द आज भी गूँजते हैं और थोड़ी देर के लिए मन में कड़वाहट आ जाती है उनके विचारों के प्रति कि जो व्यक्ति अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक कविता के नए प्रतिमान (1968) में इस बात को बार-बार दोहरा रहा हो कि ‘छायावादी संस्कारों में पले जो आलोचक अनुभूति को स्थायी भाव का पर्याय समझते हैं, वे बदली हुई परिस्थिति में भी कवि से केवल उन स्थायी भावों के अनुरूप अधिक से अधिक नए वस्तुविधान और रूपविधान की ही अपेक्षा रखते हैं। उनका ख्याल है कि नए वस्तुविधान के बावजूद स्थायी भावों की सार्वजनीनता के कारण काव्यागत भावों के साधारणीकरण में कोई कठिनाई न होगी। अपनी इस धारणा के अनुसार ही वे नई कविता के नए बिंबों में चिरपरिचित स्थायी भाव ढूँढने का प्रयास भी करते हैं और ‘जिन ढूंढा तीन पाइयाँ’ के ढंग पर प्रायः वे अपना अभीष्ट पा भी जाते हैं। क्योंकि सच पूछिए तो ‘खोजने’ की समस्या भी नहीं है। किन्तु, कभी कभी नए बिंबों में चिरपरिचित स्थायी भाव नहीं भी मिलते, तब वे अपने काव्य सिद्धान्त को दोष देने की जगह नई कविता को ही दोषी मान बैठते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि कवि-कर्म शास्त्र निरूपित कुछ गिने चुने स्थायी या संचारी भावों को उद्धरित करना नहीं, बल्कि नई वास्तविकताओं से उत्पन्न होने वाली वृत्तियों को उजागर करना है वही साहित्य की विशद ज्ञान परंपरा में भाव और तार्किकता के स्तर पर पैदा होने वाले नए स्वरों को स्वीकार करने और उन्हें तरजीह देने के स्थान पर उसे एकांगी और विखंडनवादी प्रयास के रूप में देखते हैं। 


समाज विज्ञान की परिधि में स्त्रीवाद उभरती हुई अंतरानुशासनिक ज्ञान परंपरा है जो ज्ञानात्मक विधाओं के पार जाती है। यह अनुभवजन्य ज्ञान (empirical knowledge) को ज्ञान परंपरा का एक महत्वपूर्ण अंग मानता है। स्त्रीवादी ज्ञान परंपरा इस बात में विश्वास करती है कि उंगली से परख कर चावल के पक जाने की समझ और रोटी को गोल बेलने के लिए किसी शास्त्रीय ज्ञान की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह रोजमर्रे की जिंदगी में घटित होने वाली ज्ञान प्रक्रियाएँ हैं, जो सदियों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक लोक गीतों, मुहावरों, नसीहतों के रूप में हम तक पहुँचती रही हैं। सैंड्रा हार्डिंग इसे ‘स्टैंड प्वाइंट थ्योरी’ के रूप में समाज में प्रत्येक व्यक्ति के ज्ञान की वैधता को स्पष्टता से पाठकों के सामने लाईं। इतिहास में स्त्रियों दलितों, अल्पसंख्यक समुदायों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाईं पर सभी की इतिहास के लेखों में उपस्थिति नगण्य थी। इतिहासकार ई. एच. कार की मानें तो इतिहास सिर्फ समाज के ऊपरी पायदान पर बैठे लोगों का लिखा जाता है, अभिवंचित तबके का नहीं। 


अस्मिता का विमर्श दरअसल आत्म या स्व के बोध का विमर्श है। अभाव से भाव पैदा होता है जिसकी परिणति स्व की प्राप्ति के प्रयत्नों के रूप में होती है और आंदोलनों का स्वरूप ग्रहण करती है। बचपन में सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से संस्कारित होता ‘स्त्रीत्व’ एवं ‘पुरुषत्व’ के भाव से भरा हुआ मन अपने मनमाफिक से ‘वंचित’ हो जाने की टीस को आजीवन अपने अंतःस्थल में छुपाए अपनी अस्मिता का गुपचुप संधान करता है । यह भाव ही समाज में लैंगिक जड़ताओं एवं पूर्वाग्रहों के खांचे को तोड़कर ट्रांसजेंडर पहचानों को भी स्वीकार्यता दिलाने की लड़ाई लड़ता है। अस्मिता का यह आंदोलन स्व से परे जाता है और अपना इतिहास रचता है। 


पूर्व नामवर (1955-1980)

यह कहानी फ़्लैशबैक से समझी जा सकती है कि लेखक और आलोचक के रुप में जो नामवर सिंह अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक 'छायावाद' में पृष्ठ सैंतालीस से ले कर सत्तर तक स्त्री केंद्रित विमर्श स्थापित करते हुए स्त्री-पुरुष संबंधों में आए परिवर्तन को उस दौर में हुए समाज सुधार आंदोलनों के परिपेक्ष्य में काव्य की शैली, भाषा, शिल्प और क्राफ्ट को बदलते हुए न सिर्फ देख रहे हैँ बल्कि उसे न्यायसंगत भी बता रहे हैं। वे छायावाद में स्त्रियों के प्रति आई संवेदनशीलता का भरपूर स्वागत यह कह कर करते हैं कि: प्रकृति की भाँति ही छायावादी कविता में नारी की भी प्रधानता दिखाई पड़ती है यहाँ तक कि छायावाद के विरोधी बहुत दिनों तक छायावाद को स्त्रैण काव्य कहते रहे। छायावाद के पूर्ववर्ती काव्य में नारी-संबंधी रचनाएँ न हों ऐसा तो नहीं है, किंतु वे रचनाएँ पुरुष-प्रधानता की ही द्योतक हैं। द्विवेदी युग की कविता में नारी के प्रति दया का भाव तो है, पर यथोचित सम्मान का भाव नहीं है। उस युग में निःसंदेह विधवाओं को ले कर अनेक कविताएँ लिखी गईं लेकिन उन कविताओं में विधवा को खाना कपड़ा दिलाने का ही आग्रह अधिक है, और इसीलिए विधवा-विवाह को आवश्यक ठहराया गया  है। द्विवेदी युग का यह काव्य एक प्रकार से अनाथालय प्रतीत होता है, जिसमें नारी को आश्रय देने के साथ ही बंदिनी भी बना दिया गया और इस तरह वह अपने सहज जीवन से विच्छिन्न कर दी गई। आर्यसमाज की कट्टर शुद्धिवादी (प्यूरिटन) नैतिकता ने द्विवेदी-युग के संपूर्ण काव्य को नीरसता और वर्जना से भर दिया।  संभवतः इसी प्रभाव के कारण आरंभ की स्वछंदतावादी कविताओं में नारी की तुलना में प्रकृति को ही अपनाने योग्य कहा गया है। रामनरेश त्रिपाठी का 'पथिक' प्रकृति के लिए अपनी पत्नी को छोड़ देता है और 1918 में पंत भी इसी प्रकार सोचते हैं :

            

छोड़ द्रुमों की मृदु छाया तोड़ प्रकृति से भी माया  

बाले, तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन?


नामवर जी के अनुसार, जो प्रकृति आरंभ में नारी विरोधी प्रतीत होती थी, वही नारी की आवश्यकता अनुभव कराने वाली तथा कारण बन गई। इस पर यह भी कहा जा सकता है कि द्विवेदी-युगीन आर्यसमाजी नैतिकता की प्रतिक्रिया का पहला सोपान प्रकृति-प्रेम था, जिसने नारी-प्रेम के लिए पृष्ठभूमि तैयार की। कविता में नारी-संबंधी दृष्टिकोण में हुए परिवर्तन को नामवर आकस्मिक घटना नहीं मानते हैं। 


बल्कि इसकी पृष्ठभूमि में वे उन्नीसवीं सदी में हुए विभिन्न स्त्री मुद्दों के सुधार आंदोलनों की पड़ताल करते हैं, जो बीसवीं सदी के प्रारम्भ में बहुत जोर पकड़ती गई। 19वीं सदी में बदली हुई औपनिवेशिक आर्थिक संरचना के कारण यहाँ के सामाजिक संबंधों में भी व्यापक परिवर्तन हुआ। नए-नए सामाजिक वर्गों की उत्पत्ति हुई। पश्चिम के भारतविद् (Indologist) एवं भारत में पश्चिम से प्रभावित भारतीय विद्वानों ने जाति विभेद, छुआछूत, धार्मिक रूढ़िवादिता, दहेज और सती प्रथा, विधवाओं की स्थिति, बेमेल विवाह, स्त्री शिक्षा जैसे विषयों पर गहन लेखन कार्य किया। भारतविदों के लिए ये सामाजिक कुप्रथाएँ भारत की विकृत छवि प्रस्तुत करने में केंद्र बिंदु बनीं। भारत की सामाजिक विषमताओं एवं स्त्री-पुरुष संबंधों की आलोचनापरक व्याख्या के पीछे दरअसल उनका उद्देश्य भारतीयों को मनोवैज्ञानिक तौर पर पराजित कर उन पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करना था। उनकी व्याख्या में भारत एक ऐसा भूभाग था जहाँ घिनौने सामाजिक रीति-रिवाज थे। भारत की सामाजिक बुराईयां घृणात्मक व्यंग के साथ प्रस्तुत की जाती थीं और भारतीयों में गहरे शर्म और निकृष्टता की भावना पैदा करती थीं। उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय प्रेस के प्रारंभ होने के बाद स्त्री प्रश्नों को सामाजिक बहस के रूप में प्रमुखता मिलने लगी। पश्चिम के वर्चस्व के फलस्वरूप बंगाल में जो संभ्रांत वर्ग उभर रहा था, उसे समाज में सुधार की आवश्यकता महसूस हो रही थी। उन्होंने जाति प्रथा, बहु-विवाह, पर्दा प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह, जबरन वैधव्य को समाप्त करने एवं स्त्रियों की स्थिति में सुधार करने का प्रयास किया। यह ब्रिटिश हुकूमत के समक्ष स्वयं को बेहतर स्थिति में प्रस्तुत करने का भी प्रयास था। उस दौर में उच्च जाति की संभ्रांत हिन्दू स्त्रियों की स्थिति में सुधार हेतु कई वैधानिक प्रयास किए गए। नई शिक्षा के द्वारा लड़कियों को नई दुनिया का ज्ञान हुआ और उनमें नए विचारों का अभ्युदय हुआ। इससे लड़‌कियों में स्त्री स्वतंत्रता का भाव पैदा हुआ। नई पीढ़ी की देखा-देखी पुरानी पीढ़ी की महिलाओं में भी अनजाने ही नवजागरण के प्रति आकर्षण दिखाई पड़ने लगा। स्त्रियाँ अपनी अस्मिता के प्रति सजग होने लगीं। सामाजिक जीवन में आ रहे इन बदलावों का असर उस दौर के साहित्य पर भी पड़ना था, सो पड़ा । औपनिवेशिक काल में स्त्री विषयक विभिन्न मुद्दों पर सार्वजनिक जीवन में बहुत बहस मुबाहिसे हो रहे थे। राष्ट्र निर्माण में स्त्रियों की भूमिका के संबंध में गांधी जी के विचारों को उस समय अत्यंत क्रान्तिकारी माना गया। हालांकि, वे स्वयं लिंग आधारित भूमिकाओं के पक्षधर थे, लेकिन वे सती प्रथा, पर्दा प्रथा, देवदासी परंपरा, दहेज जैसी कुप्रथाओं के प्रखर आलोचक भी थे, जिनके कारण समाज में स्त्रियों की स्थिति का अवमूल्यन हो रहा था। यह जानना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि गांधी जी भारतीय स्त्री प्रश्नों को किस रूप में देख रहे थे और राष्ट्रीय आंदोलन में उन्होंने स्त्रियों की बड़ी संख्या में सहभागिता को कैसे सुनिश्चित किया? राष्ट्र किस प्रकार परिवार की परंपरागत परिभाषा के इत्तर बड़े परिवार में तब्दील हो रहा था, जिसकी राजनीतिक गतिविधियों में स्त्रियों की गतिशीलता एवं सहभागिता को गैर राजनीतिक माना जा रहा था। 


गांधी जी को इस बात का अहसास था कि राष्ट्रवादी एजेंडे के तहत निर्मित की जा रही ‘नई स्त्री’ की परिभाषा को नए सिरे से व्याख्यायित कर उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को तलाशा जा सकता था और घरों में बंद स्त्रियों को बाहर लाया जा सकता था। नामवर जी इस परिवर्तन को अपनी पुस्तक 'छायावाद' में समाज सुधार आंदोलनों के कारण स्त्री-पुरुष संबंधों में आए परिवर्तन को साहित्य में रेखांकित करते हुए लिखते हैं कि वैसे ज्ञान तो अपने-आप में ही मुक्ति का कारण है, किंतु नई शिक्षा ने इससे भी बड़ा काम यह किया कि पढ़-लिख कर लड़कियाँ जीवन के व्यापक कार्य-क्षेत्र में आई। विद्यालयों में एक ओर यदि वे लड़कों के संपर्क में आईं तो विद्यालयों से निकल कर अध्यापन, डॉक्टरी, वकालत वगैरह का पेशा अपना कर उन्होंने व्यापक समाज के साथ संपर्क स्थापित किया। पुरुष और स्त्री के सहयोग से समाज का सदियों पुराना जीर्ण-शीर्ण परदा फट गया; दुराव कुछ कम हुआ और आपस में एक ऊँचे स्तर की समझ-बूझ का भाव पैदा हुआ। मुक्त नारी में पुरुष को अभिनव सौंदर्य का दर्शन हुआ, नारी के मुक्त मन में पुरुष को स्पृहणीय भाव-संपदा का परिचय मिला और इस तरह नारी की मुक्ति में उसे अपनी मुक्ति का द्वार दिखाई पड़ा। पुरुष और स्त्री के बीच का पुराना तनाव कुछ कम हुआ और पारस्परिक विचार-विनिमय के आधार पर उच्चतर सहभाव विकसित होने लगा। मिलने-जुलने से ही मेल-जोल होता है, गलतफहमी दूर होती है, परिचय बढ़ता है और फिर उस बीच यथोचित रागात्मक संबंध का उदय होता है। 


नामवर जी का यह मानना था कि इस परिवर्तन के कारण नारी के प्रति पहले जो दया का भाव था, वह बदल गया। इस युग में नारी ने पुरुष की दया के स्थान पर अपने अधिकारों की माँग की। इस अधिकार भावना ने नारी-पुरुष के बीच कहीं समानता का भाव पैदा किया और कहीं स्पर्धा का भाव और कहीं उसकी शक्ति-स्वीकार का भाव। कुल मिला कर भिखारिणी अब मानसिक रूप मे स्वामिनी बनी। विधवा विवाह के संबंध में वे छायावादी कवियों की व्यापक एवं व्यावहारिक दृष्टि की चर्चा करते हुए लिखते हैं कि सन् 1920 के बाद वाले युग में विचारकों ने विधवा-समस्या को नारी-स्वाधीनता के व्यापक परिदृश्य में रख कर देखा। इस तरह देखने से अकेले विधवा अथवा विधवा-विवाह की समस्या ही खत्म हो गई। यही वजह है कि छायावाद-युग के कवियों ने विधवा पर कविताएँ नहीं लिखीं। उन्होंने सवाल को नए सिरे से उठाया। उन्होंने अनुभव किया कि मूल प्रश्न नारी-स्वाधीनता का है। प्रश्न विवाह का नहीं, प्रेम का है; बंधन का नहीं, मुक्ति का है। यदि विवाह में बंधन है तो चाहे वह विधवा-विवाह हो अथवा कुमारी का दोनों का आग्रह व्यर्थ है।  


समाज सुधार आंदोलनों के अतिरिक्त अनुभूति के स्तर पर छायावादी साहित्य में पहली बार स्त्री और पुरुष के बीच वैयक्तिक स्वच्छंद प्रेम का अभ्युदय हुआ। यह स्वच्छंद प्रेम व्यक्ति-स्वांतत्र्य का ही अनिवार्य परिणाम तथा उसका आवश्यक अंग था। इसके फलस्वरूप पहली बार छायावादी कविता में नारी को प्रेयसी का ऊँचा आसन प्राप्त हुआ। 'प्रेयसि,' 'प्रिये,' 'प्रियतमे' और 'सखि,' 'सजनी' जैसे संबोधन जिस मात्रा में छायावादी कविता में व्यक्त किए गए, पहले शायद ही किए गए हों। इस प्रवृति को रेखांकित कराते हुए नामवर जी लिखते हैं कि 'सखी' और 'सजनी' शब्दों की बहुलता को देख कर कुछ लोगों ने विनोद में छायावाद को सजनी संप्रदाय नाम दे दिया, जैसे यह मध्ययुगीन सखी-संप्रदाय का पुनरुत्थान ही हो। रीतिकाल में स्त्री-सुधार का कोई आंदोलन नहीं हुआ, इसलिए उन रूढ़ियों के विरुद्ध नवीन प्रतिक्रिया शुरू हो गई थी, इसलिए ये कवि अपने ऊपर एक प्रकार का नैतिक अंकुश अनुभव करते थे। छायावाद-युग तक आते-आते नवीन प्रतिक्रिया काफी स्पष्ट हो गई और पुरानी  रूढ़ियाँ जर्जर होने लगीं इसलिए स्त्री-पुरुष के संबंधों में भी नवीन नैतिकता की प्रतिष्ठा होने लगी। 


अपनी इस पुस्तक में नामवर दो युगों की तुलना करते हुए लिखते हैं कि मध्य युग में स्त्री को वह स्वतंत्रता प्राप्त न थी। पुरुष के लिए नारी प्रेम की वस्तु-मात्र थी पुरुष के लिए बंदी जीवन ने नारी वास्तविक नारीत्व को कुंठित कर दिया था। इस तरह नारी का वह सामर्थ्य नहीं था, जो खुल कर अपने को व्यक्त कर सके। उसको रीतिकाल में बंदी बना कर पुरुष ने अपने ही आनंद की सीमा छोटी कर ली। राम-सीता के प्रथम मिलन को दो कवियों तुलसीदास तथा निराला की अभिव्यक्तियों के माध्यम से इस प्रकार समझाते हैं। 


याद आया उपवन,

विदेह का, प्रथम स्नेह का लतांतराल मिलन,

नयनों का नयनों से गोपन-प्रिय संभाषण, 

पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान-पतन, 

काँपते हुए किसलय, झरते पराग समुदय, 

गाते खग नव जीवन-परिचय, तरु मलय-वलय, 

ज्योतिः प्रपात स्वर्गीय, ज्ञात छवि प्रथम स्वीय, 

जानकी-नयन-कमनीय प्रथम कंपन तुरीयः हुई

   

इसी प्रसंग का वर्णन तुलसी दास ने भी किया है, परंतु निराला के इस चित्रण में जो मानसिक उथल-पुथल तथा प्रेम के जिस विश्वव्यापी प्रभाव की अभिव्यक्ति है, वह तुलसीदास की सीधी-सादी अभिव्यंजना में कहाँ! तुलसी की सीता को जब सखियाँ लता-ओट से श्यामल गौर किशोर को लखती हैं, तो वे एकटक रघुपति की शोभा देखती ही रह जाती हैं और फिर थोड़ी देर के बाद


लोचन मग रामहि उर आनी।

दीन्हें पलक-कपाट सयानी।। 


लेकिन निराला के यहाँ तो "नयनों का नयनों से गोपन-प्रिय-संभाषण" हो जाता है। नयनों का यह गोपन-संभाषण और फिर पलकों का उत्थान-पतन! प्रेम कीइस दशा में निराला के राम को संपूर्ण प्रक्ति प्रेमोन्मत्त दिखाई पड़ती है-किसलय काँप रहे हैं, फूलों से पराग अर रहे हैं, खग नए जीवन के परिचय का गीत गा रहे हैं और तरु मलय पवन से वलयित हो उठे हैं। लगता है कि स्वर्गीय ज्योति का प्रपात झर रहा है! प्रणयानुभूति की यह भावाकुल अलौकिकता तथा व्यापकता तुलसी के उस वर्णन में कहाँ! वहाँ तो सीता को देश-दुनिया की खबर ही नहीं। वह महाकवि की उस सीधी अभिव्यक्ति की गहनता का उद्घाटन है! परंतु एक ही साथ यह पहले की अपेक्षा अधिक इरोटिक भी है जो स्त्री-पुरुष के मिलन को अधिक ऐंद्रिक भाव से प्रस्तुत करता है। 


भारत में यही वह समय है, जब गांधी के कारण बड़ी संख्या में महिलाएं स्वतन्त्रता आंदोलन से जुड़ रही थीं। गांधी ने इस बात पर बहुत बल दिया कि आत्म-बलिदान एवं आत्म-त्याग की भावना स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा कई गुना अधिक थी इसलिए अहिंसक आंदोलन का नेतृत्व स्त्रियां बेहतर ढंग से कर सकती थीं। वे यह मानते थे कि यदि हमारा भविष्य अहिंसा एवं सत्याग्रह है तो वह स्त्रियों के हाथ में है। गांधी जी में समाज के पिछड़े एवं शोषित समूहों के न्याय के प्रति विशेष आग्रह था। फरवरी, 1925 के 'यंग इंडिया' में उन्होंने लिखा : स्त्रियों को दोयम दृष्टि से देखना एवं उन्हें कमजोर समझना गलत है। यदि शक्ति का तात्पर्य नैतिक साहस से है तो स्त्रियां पुरुषों से श्रेष्ठ हैं। क्या उनमें परिस्थितियों को समझने की क्षमता अधिक नहीं है? क्या वे कम बलिदानी हैं? क्या उनमें साहस की कमी है? उसके बिना पुरुष का कोई अस्तित्व नहीं। मेरा मानना है कि स्त्रियां निर्विवाद रूप से नेतृत्वकर्ता होती हैं। यदि अहिंसा का मूल्य समाज एवं मानव मात्र के भविष्य के आवश्यक है तो हमारा भविष्य स्त्रियों के हाथ में है क्योंकि वे अपने जीवन में अहिंसा को चरितार्थ करती हैं। उनमें कष्ट को सहन करने की असीमित क्षमता होती है। वे सत्याग्रह आंदोलन की प्रणेता बनेंगी। वस्तुतः छायावाद के काल में गांधी के प्रभाव में आधुनिक भारतीय नारी ने अपनी शक्ति का ऐसा परिचय दिया कि पुरुष के लिए वह रहस्यमयी शक्ति प्रतीत होने लगी। नामवर लिखते हैं कि आधनिक नारी ने पुरुष की संस्कारबद्ध वासना को ऐसा धक्का दिया कि उसकी आँखों में बसी हुई प्राचीन नारी-प्रतिमा चूर-चूर हो गई और उसके स्थान पर एक दिव्य रमणी मूर्ति प्रतिष्ठित हो गई। निराला के तुलसीदास का कामातुर रूप देखकर रत्नावली में ऐसी ही आधुनिक नारी जाग उठी :


जागी जोगिनी अरूप-लग्न

वह खड़ी शीर्ण प्रिय-भाव-मग्न निरुपमिता। 


और अपने इस विराट रूप में जब रत्नावली ने तुलसीदास को धिक्कारा, तो कवि की आँखों में नारी का और ही रूप सजीव हो उठा :

                     

देखा, शारदा नील-वसना

हैं सम्मुख स्वयं सृष्टि रशना, जीवन-समीर शुचि-निःश्वसना, वरदात्री। 


स्पष्ट ही यह अनुभूति आधुनिक तुलसीदास की है, प्राचीन की नहीं। नारी को स्वयं शारदा के रूप में देखना मध्ययुगीन कवि के लिए असंभव था। अब तक कवि ने नारी की जिस वासना-मूर्ति की धारणा बना रखी थी, वह नारी के लिए ही नहीं बल्कि स्वयं पुरुष के लिए भी बंधन थी। परंतु नारी के उन्मुक्त विराट रूप के प्रतिष्ठित होते ही नारी के साथ-साथ पुरुष भी मुक्त हो गया और इस तरह दोनों की मुक्ति से जीवन का नवीन संगीत फूट पड़ा। मुक्त होते ही नारी पुरुष के हृदय की मुक्ति-रागिनी बन कर बह निकली।  नामवर स्त्री पुरुष सम्बन्धों में प्रेयसी और पत्नी का भेद बताते हुए कहते हैं कि छायावादी कविता में नारी के पत्नी-रूप का सर्वथा अभाव है। छायावादी कवि के लिए पत्नी सदैव 'भावी' ही रही, वह वर्तमान न हो सकी। वस्तुत: छायावाद के स्वच्छंद प्रेम का आलंबन 'प्रेयसी' ही रही और आजीवन वह 'प्रेयसी' ही बनी रही, पत्नी के रूप में उसे प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त न हो सका। नामवर के अनुसार कुल मिला कर छायावाद में नारी के प्रेयसी-रूप की ही प्रधानता दिखाई पड़ती है; माँ, बहिन और कन्या के रूप दबे ही रह गए। निराला जैसे हर जगह अपवाद हैं, वैसे यहाँ भी। 'सरोज-स्मृति' कविता में उन्होंने अपनी कन्या 'सरोज' का चित्रण 'सरोज-स्मृति' में प्रेम के जिस वत्सल भाव की अभिव्यंजना हुई है, वह छायावाद में ही नहीं, बल्कि संपूर्ण काव्य के इतिहास महत्त्वपूर्ण स्थान का अधिकारी है। सभी सामाजिक रूपों को न अपनाते हए भी छायावादी कवि ने एक ही क्षेत्र में नारी, यदि इस अपवाद को अपवाद ही मान लें तो भी छायावादी कविता में नारी के जो महत्त्व प्राप्त है, वह पहले की अपेक्षा कहीं अधिक गौरवशाली है। नारी के सभी रूपों को न अपनाते हुए भी छायावादी कवि ने एक ही क्षेत्र में नारी को जो महिमा प्रदान की, वह स्तुत्य है। श्रद्धामयी, करुणामयी, कल्याणी कलामयी तथा प्रेममयी जीवन-सहचरी नारी का चित्रण कर के छायावादी कवियों ने समाज और साहित्य को अभिनव जीवन-रस से सींच दिया। कवि के शब्दों में,


      अकेली सुंदरता कल्याणि 

      सकल ऐश्वर्यों की सन्धान। 

      देवि! माँ! सहचरि! प्राण! 


यहाँ स्त्री के संबंध में नामवर जी का निष्कर्ष थोड़ा असमंजस पैदा करता है कि एक तरफ वे कहते हैं कि ‘प्रेयसी’ कभी पत्नी नहीं बन सकी दूसरी तरफ उसी प्रस्थापना में वे स्त्री को ‘जीवन- सहचरी’ कह कर संबोधित करते हैं। इसके साथ,  वे ही छायावाद के किसी भी एक कवि की वो एक रचना का उदाहरण प्रस्तुत नहीं करते जिसमें स्त्री-पुरुष संबंधों के इत्तर स्त्री की अपनी इयत्ता का निर्माण होता हुआ दिखता हो। महादेवी वर्मा की रचना 'शृंखला की कड़ियां' 1942 में प्रकाशित हुई जिसमें उन्होंने पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों की स्थिति एवं नियति के संबंध में महत्वपूर्ण स्थापनाएं दीं। महादेवी वर्मा की लेखनी में मीरा के विद्रोह की स्पष्ट अभिव्यक्ति के साथ-साथ एक नए युग की आहट भी दिखाई देती है जिसमें महादेवी आह्वान करती है: 


चिर सजग आँखें उनींदी, आज कैसा व्यस्त बाना! 

जाग तुझको दूर जाना! 


महादेवी वर्मा की कविताओं में स्वतःस्फूर्त व्यक्त चेतना का मूल्यांकन अपेक्षित रूप से कम हुआ जिसका परिणाम यह रहा कि पाठक ‘यह विरह की रात का कैसा सबेरा है’ जैसी प्रखर राजनीतिक चेतना से लैस पंक्तियों से अधिकांशतः दूर ही रहे। भारतीय संदर्भों में महादेवी स्त्रीवाद के द्वितीय लहर की प्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखिका सिमोन द बावुवार के 'द सेकेंड सेक्स' के विचारों से भी अधिक तीखे तेवर से स्त्री-मुक्ति के प्रश्न को सिर्फ ‘शरीर की मुक्ति’ तक सीमित नहीं करतीं बल्कि स्त्री-मुक्ति को मानवता की मुक्ति के साथ जोड़ कर देखती हैं जो राजनीतिक, आर्थिक एवं सांकृतिक व्यवस्थाओं में आमूलचूल परिवर्तन से ही संभव है। वो वर्जीनिया वुल्फ़ की तरह भारतीय स्त्रियों के लिए भी स्वतंत्र चिंतन मनन हेतु ‘अपना कमरा’ मांगती हैं। महादेवी के स्त्री संबंधी चिंतन में आधुनिक स्त्री की चेतना के साथ परंपरागत स्त्री की चेतना का अंतर्द्वंद्व है। महादेवी इस असंभव स्वप्न की संभावना के दरवाजे पर दस्तक देती हैं। पितृसत्ता की बज़्र किवाड़ जो थपथपाने से नहीं खुलने वाली, उसे धक्के से गिरा देने की युक्तिसंगत चुनौती को स्वीकार करती हैं। वे स्त्री को अपनी स्वाधीनता को अर्जित करने के लिए नए सिरे से स्वयं का संधान करने की सलाह देती हैं। वह स्वाधीनता का नया मार्ग चुनती हैं। महादेवी के इतने महत्वपूर्ण योगदान के बावजूद जब साहित्यिक परंपरा में स्थान निर्धारण का प्रश्न उभरता है, सर्वप्रथम जयशंकर प्रसाद और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की बारी आती है। नामवर जी महादेवी की इस रचना को तरजीह नहीं देते। उन्होंने जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ को छायावाद की श्रेष्ठ रचना के रूप में स्थापित किया। 


इसी पुस्तक में नामवर जी ‘परंपरा और प्रगति’ नामक अध्याय में छायावाद के महत्वपूर्ण कवियों के रूप में निराला, पंत, प्रसाद और महादेवी की रचना प्रक्रिया की गहरी पड़ताल करते हैं एवं उन पर रवीन्द्र नाथ टैगोर, शैली और वड्सवर्थ के प्रभाव को स्वीकार करते हुए भी इस बात पर ज़ोर देते हैं कि छायावाद के कवियों की मानसिक पृष्ठभूमि विदेशी प्रभाव को द्विवेदी युग की अपेक्षा अधिक सरलता से स्वीकार करने योग्य थी क्योंकि प्रगतिशीलता और सामाजिक वातावरण इस नए मनोभाव का स्वागत कर रहा था। वे छायावाद के सभी कवियों के अवदान की चर्चा करते हैं परंतु निराला, पंत और प्रसाद की अपेक्षा महादेवी की रचनाओं पर कम बात करते हैं। उनके उद्धरणों का कम प्रयोग करते हैं। नामवर सिंह भारतेन्दु और उनके युग के अन्य लेखकों की व्याख्या कर उन्हें आधुनिक युग का निर्माता मानने में संकोच नहीं करते पर महादेवी के लेखन की स्त्री संबंधी चिंता को राष्ट्रवाद और छायावाद के दायरे में क़ैद करते हैं। वे महादेवी वर्मा को स्त्रीवादी चिंतक नहीं मानते हैं न ही उनकी दृष्टि में वे किसी विशेष स्त्री परंपरा की प्रणेता हैं। 


उनके बारे में वे यह मानते हैं कि महादेवी की प्रसिद्धि और इतिहास में उनकी अवस्थिति का आधार ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ पुस्तक नहीं है। उनका मानना है कि यदि उन्होंने केवल ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ पुस्तक ही लिखी होती; 'नीहार, रश्मि', 'नीरजा', 'सांध्यगीत', 'दीपशिखा', 'अग्निरेखा', 'सप्तवर्णा' जैसे ग्रंथ न लिखे होते, 'स्मृति की रेखाएँ', 'अतीत के चलचित्र' न लिखी होती तो हिन्दी साहित्य के इतिहास में अथवा भारतीय साहित्य के इतिहास में उनका स्थान क्या होता, कितना होता? पाद टिप्पणी के रूप में होता या अनुक्रम में कहीं होता या पूरा का पूरा अध्याय होता। महादेवी को केवल स्त्री के रूप में निःशेष करना क्या ठीक है? सिर्फ इसलिए कि उन्होंने प्रयाग महिला विद्यापीठ की स्थापना की और इसलिए कि उन्होंने महिला शिक्षा में काम किया। हालांकि बाद में, रामस्वरूप चतुर्वेदी ने अपनी पुस्तक 'हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास' (1986) में महादेवी वर्मा के साहित्यिक योगदान एवं महत्व को साहित्य की एक धारा के रूप में रेखांकित किया। उन्होंने महादेवी वर्मा के निबंधों को अलोचना के रूप में प्रासंगिक मानते हुए कहा कि उनके निबंध अधिकतर साहित्य या सामाजिक समस्याओं के प्रश्नों से सम्बद्ध प्रधानतः विवेचनपरक हैं जो अपने युग के काव्य की आधारभूमि खोजना चाहते हैं। वे सत्य को काव्य का साध्य और सौंदर्य को उसका साधन मानती हैं। कला सत्य को ज्ञान नहीं, बल्कि अनुभूति के माध्यम से खोजती है। विश्वनाथ त्रिपाठी की पुस्तक 'हिंदी आलोचना' (1992) में उन्होंने महादेवी वर्मा के वैचारिक अवदान को स्वीकार किया।


नामवर सिंह ने साहित्येतिहास की पुनर्व्याख्या के संदर्भ में सही ही कहा है ‘नवीन व्याख्याओं का उपयोग भर इतिहास नहीं है, इतिहास स्वयं में एक नयी व्याख्या है।’ इतिहास की समस्या से सम्बद्ध है रचना की आलोचना, उसके मूल्यांकन की समस्या, क्योंकि रचना के अभाव में इतिहास का लेखन असम्भव है। लेकिन ऐसी पूरी परम्परा जिसकी उपेक्षा कर दी गयी हो उसके बारे में रामचंद्र शुक्ल, नामवर सिंह या रामविलास शर्मा जैसे आलोचक मौन हैं।'  छायावाद के ‘परंपरा और प्रगति’ अध्याय में निराला, पंत, जयशंकर प्रसाद जैसे रचनाकारों की महत्वपूर्ण कृतियों की चर्चा करते हुए और उसका महत्व प्रतिपादित करते हुए वे महादेवी के संबंध में सिर्फ एक उड़ती हुई टिप्पणी करते हैं कि : महादेवी के रेखाचित्र भी अपनी काल्पनिक उड़ान तथा भावुकता में छायावाद से टक्कर लेते हैं।  इस प्रवृति पर गंभीरता से विचार किए जाने की आवश्यकता है। महादेवी की कविता को छायावाद के परिप्रेक्ष्य में पढ़ने से उसके मर्म को समझना संभव नहीं है। उसे स्त्रीवादी परिप्रेक्ष्य में जेंडर लेंस से तलाशने से उनकी रचनाओं की नई मिमांसा बनती हैं। महादेवी की कविताओं की छायावाद के आलोक में रुढ़िबद्ध विवेचना होने के कारण उनका विश्लेषण कम महिमामंडन अधिक हुआ है। वर्तमान स्त्रीवादी आलोचना को महादेवी वर्मा के स्त्री संबंधी चिंतन को तत्कालीन सामाजिक राजनीतिक संदर्भों में अवस्थित करते हुए उससे देशज स्त्रीवादी सैद्धांतिकी गढ़ने की आवश्यकता है। उन्हें निःसंदेह भारतीय संदर्भ में प्रथम स्त्रीवादी चिंतक कहा जा सकता है। 


हालांकि, बहुत बाद के वर्षों में नामवर जी ने एक साक्षात्कार में यह कहते हुए इस भूल को स्वीकार किया है कि ‘हमने स्त्रियों पर होने वाले अत्याचारों पर उतना ध्यान नहीं दिया जितना दिया जाना चाहिए था। यह एक ऐसी कमजोरी थी जिसे यूरोपीय देशों खासकर अमेरिका के वामपंथी समूहों ने सबसे पहले पकड़ा।  नामवर जी की समकालीन रहीं प्रोफेसर निर्मला जैन भी स्त्री विमर्श एवं स्त्रीवादी साहित्यालोचना को यह कर खारिज करती हैं कि “मैं इस तथाकथित स्त्रीवादी आंदोलन से बिल्कुल प्रभावित नहीं हूँ, क्योंकि जहाँ मूल समस्याएँ हैं वहाँ ये आंदोलन तो होते ही नहीं। कुछ सीमित समस्याओं को ले कर लिखने को मैं स्त्री विमर्श नहीं मानती। विमर्शों के नाम पर ये बस अपनी पहचान बनाने की कोशिश है। जिनको कलम चलाने की तमीज नहीं है वे आज स्त्री विमर्शों के सरोकार बन बैठे हैं और जो संपन्न परिवार से आती हैं उनकी अलग समस्याएँ हैं। हर घर की अपनी-अपनी समस्याएँ हैं। असलियत से कोसों दूर रह कर और रचनाओं में अन्याय अत्याचार के विरूद्ध लिख देने से स्त्री विमर्श नहीं होता।’ उन्होंने 2011 में कथा समय में 'तीन हमसफर' में अपने समकालीन रचनाकारों कृष्णा सोबती, मन्नू भण्डारी और उषा प्रियंवदा पर अत्यंत महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए लिखा है कि कुल जमा किस्सा यह है कि ‘नई कहानी’ को सुनियोजित आंदोलन के रूप में चलाने की योजना जिन लोगों ने बनाई, उन्हीं के समानांतर बिना किसी आंदोलनात्मक तेवर या मुद्रा अख्तियार किए ये तीन महिलाएं पूरी निष्ठा और समर्पित मनोभाव से कहानियां लिख रही थीं। यह कहना ज्यादा सही होगा कि इनकी आरंभिक रचनाएं अपने पुरुष हमराहियों की तुलना में बेहतर थीं। इन सभी असहमतियों के बावजूद नामवर सिंह के महत्वपूर्ण साहित्यिक अवदान को रेखांकित किया जाना आवश्यक है। नामवर सिंह का आलोचकीय दायरा सिर्फ़ हिन्दी तक सीमित नहीं है। सच्चे अर्थों में वह भारतीय साहित्य के समीक्षक थे। हिन्दीतर भाषाओँ के अद्यतन साहित्य का विषद अध्ययन था। यही कारण है कि उनकी ख्याति महज़ हिन्दी तक सीमित नहीं थी। वह हिंदी के बाहर भी उतने ही समादृत थे। उनकी दृष्टि भारतीय भाषाओं में लिखे जा रहे साहित्य पर तो थी ही, साथ ही विश्व साहित्य में आ रहे नवाचारोन्मुखी भी थी। आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी के अनुसार ‘अपभ्रंश साहित्य के अध्येता हुए हैं लेकिन नामवर सिंह उसके आलोचक थे।’ नामवर सिंह के आलोचना की अपनी विशेषता, सीमायें और कुछ विसंगतियां भी हैं। विशेषकर अज्ञेय, रामचंद्र शुक्ल और तुलसीदास सम्बंधित उनकी मान्यताओं में बाद में हुए बदलाव के कारण हिंदी में साहित्यिक विमर्शों के मद्देनज़र उनकी दृष्टि की सीमाओं का भी अंदाज़ा लगता है।


नये दौर के साहित्य को वह पारम्परिक दृष्टिकोण से देखने के पक्षधर नहीं थे। यही कारण है कि रूढ़ पारंपरिक और पुराने पड़ चुके साहित्यिक सौन्दर्यशास्त्रीय प्रतिमानों को उन्होंने बदलने की वकालत की। नये दौर के साहित्य में विचारधारा (वैचारिकी) महत्त्वपूर्ण थी, जिसका मूल्यांकन सामंतयुगीन साहित्य सिद्धान्तों से संभव नहीं था। कविता और आलोचना के क्षेत्र में उन्होंने साहित्य के नये प्रतिमानों को गढ़ा और ‘दूसरी परम्परा की खोज’ का कठिन मार्ग प्रशस्त किया। उनके बारे में यह आम धारणा है कि वे लिखते कम थे, बोलते ज्यादा थे। निर्मला जी अपनी आत्मकथा 'जमाने में हम' में लिखती हैं: नामवर जी अपनी कलम का इस्तेमाल दो ही स्थितियों में करते हैं: किसी दबाव में या किसी से हिसाब चुकता करने के लिए। उनकी दूसरी पुस्तक ‘दूसरी परंपरा की खोज’ भी, जिसे वह अपनी सर्वोत्तम कृति मानते हैं, अपने गुरु के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करने के सात्विक मनोभाव के दबाव में लिखी गई थी। 'कविता के नए प्रतिमान' कुछ मौलापन की सी झोंक में और कुछ मित्रों के दबाव में की गई रचना है। उन्होंने आदिकालीन साहित्य से ले कर नए से नए हिंदी कवियों व लेखकों को अपनी आलोचना का विषय बनाया है। वे पृथ्वीराज रासो से ले कर मुक्तिबोध और धूमिल तक की लंबी और विशाल काव्य परंपरा को आत्मसात कर उसकी सम्यक् समीक्षा करते हैं। हिन्दी कहानी की कोई ठोस आलोचना पद्धति यदि नहीं बन सकी तो इसके पीछे एक खास तरह की आलोचकीय अवधारणा रही है कि ‘कहानी इस लायक है ही नहीं कि उसे गम्भीर समीक्षा का विषय माना जाए।’ यह दुविधा नामवर जी के मन में भी थी। ‘कहानी नयी कहानी’ की भूमिका में उन्होंने इसे स्वीकार भी किया है। बावजूद इस दुविधा के यदि नामवर जी ने कहानियों पर ‘सैद्धान्तिक ढंग से सामान्य बातें न कहते हुए भी सिद्धांतों के निर्माण’ में जो योगदान किया है उसके ऐतिहासिक महत्व हैं। ‘कहानी नयी कहानी’ किताब में नामवर जी के दो रूप हैं। एक सिद्धांतकार का जो कदम-कदम कहानी पढ़ने के तरीके बताता हुआ पाठ-प्रक्रिया के कई महत्वपूर्ण ‘टूल्स’ का इजाद करता है और दूसरा रूप उस आलोचक का है जो कुछ चुनिंदा कहानियों की पाठ प्रक्रिया से गुजरता हुआ पाठकों को उस कहानी की लेखन-प्रक्रिया तक पहुंचाने की कोशिश करता है। एक ऐसी कोशिश जिसमें कहानी के रेशे-रेशे का पुनर्मूल्यांकन और पुनरान्वेषण सन्निहित है। 


विशुद्ध कहानी का पाठक आलोचना का नाम सुन कर ही शायद घबरा उठे। लेकिन नामवर जी जिस सहज-सरल और तरल भाषा में कहानी पढ़ने की सैद्धांतिकी गढ़ते और उसे विकसित करते हैं उसे पढ़ना किसी रचना पढ़ने जैसा ही प्रीतिकर है, कई बार इतना सम्मोहक कि कई रचनायें भी अपने पाठकों को उस दुनिया तक न ले जा पायें। कविता और कहानी की आलोचना के ‘टूल्स’ बिल्कुल एक से नहीं हो सकते। हालांकि कथालोचना की तरफ अपना पहला कदम बढ़ाते हुये उन्हें कहानी में आलोचना की वही विश्लेषण पद्धति कारगर दिखती है जो प्राय: छोटी कविताओं के लिये प्रयुक्त होती रही हैं। लेकिन ‘नयी कहानी’ पाठ-प्रक्रिया का व्याकरण निर्मित करने के क्रम में अपनी इस शुरुआती धारणा से बहुत हद तक मुक्त होते हुये वे कहानी पढ़ने के कुछ ऐसे औजार हमारे हाथों में थमा जाते हैं जो हर भाषा और हर समय के कथा-पाठ के लिए जरूरी और उपयुक्त है। 


यथार्थ को संवेदना से जोड़ने के लिये जिस रचनात्मक संघर्ष की जरूरत होती है उसे नामवर जी केवल युद्ध या कोई स्थूल लड़ाई नहीं मान कर व्यक्ति और समुदाय के आपसी संबंधों की प्रतिक्रिया मानते हैं। व्यक्ति और समुदाय का यह संवाद एक सफल कहानी में रूपयित हो इसके लिये सामाजिक स्थिति, पारिवारिक संस्कार, जीवन दृष्टि तथा अनुभव सीमा को भेदने की जरूरत है, जो सिर्फ भाषा या शिल्प से संभव नहीं है। सायास और चौकन्ने भाषाई रचाव को तो नामवर जी कहानीकार की चालाकी के रूप में देखते हैं जो पाठक को भरमाने का एक उपक्रम है। “कहानी में जहां भाषा को अधिक कवित्व-पूर्ण, ललित, सुन्दर या उदात्त बनाने की कोशिश दिखाई पड़े वहां समझ लेना चाहिये कि वस्तु सत्य की पूंजी के अभाव में शब्दों के व्यापार के सहारे कामयाबी हासिल करने की कोशिश है।” नामवर जी भाषा-शिल्प बनाम अन्तर्वस्तु की इस बहस को और स्पष्ट करते हुये कहते हैं कि प्रभावान्विति का असली कारण कहानी में अन्तर्निहित विचार और अनुभूतियों की विशेषता ही होती है। इसलिए भाषा शैली के आधार पर ही कहानियों के मूल्यांकन को वे आलोचनात्मक असामर्थ्य और पाठकीय भोलापन का सूचक मानते हैं।


'कविता के नए प्रतिमान' में नामवर जी ने मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता 'अंधेरे में' की समीक्षा कर सबके लिए समीक्षा का द्वार खोल दिया। उनके अनुसार 'अंधेरे में' का मूल कथ्य अस्मिता की खोज है। अस्मिता की अभिव्यक्ति को परम अभिव्यक्ति से जोड़ते हुए नामवर जी ने कवि मुक्तिबोध के लिए अस्मिता की खोज को अभिव्यक्ति की खोज माना है। एक कवि के लिए परम अभिव्यक्ति ही अस्मिता है। मुक्तिबोध ने आत्मसंघर्ष के साथ-साथ बाह्य सामाजिक संघर्ष को भी स्वीकार किया है। उन्होंने राम विलास शर्मा की पुस्तक ‘नई कविता और अस्तित्ववाद’ में व्यक्त मान्यताओं को चुनौती देते हुए मुक्तिबोध जैसे कवियों के साहित्यिक मूल्य को पुनर्स्थापित किया। स्त्री प्रश्नों पर उनकी दृष्टि भी इसी सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य से निर्मित हुई। नामवर सिंह की आलोचना का मूलाधार मार्क्सवादी यथार्थवाद रहा। इस दृष्टि से वे स्त्री प्रश्नों को वर्ग, जाति और सत्ता-संरचना से जोड़ कर देखते थे। उनके अनुसार स्त्री की स्थिति को समझना केवल लैंगिक असमानता तक सीमित नहीं है, बल्कि वह सामाजिक-आर्थिक विषमताओं से गहराई से जुड़ा हुआ प्रश्न है। उन्होंने लिखा है “स्त्री विमर्श को यदि व्यापक सामाजिक विमर्श से अलग कर दिया जाए, तो उसकी प्रभावशीलता कम हो जाती है।” (कविता के नए प्रतिमान, 1983) नामवर जी ने परंपरा और आधुनिकता दोनों में स्त्री के प्रश्नों की पड़ताल की। उनकी इस दृष्टि पर अपनी टिप्पणी में आशुतोष लिखते हैं कि : दलित साहित्य और स्त्री-लेखन के संबंध में नामवर जी के बड़े ब्लाइंड स्पॉट हैं। ज़माने की हवा के खि़लाफ जाते हुए भी वे अपने इस अतार्किक ख़याल पर आखिर तक टिके रहे कि साहित्य में विभाजन और आरक्षण नहीं हो सकता! साहित्य केवल साहित्य है, जो स्त्री-पुरुष ब्राह्मण-दलित सबके हाथ आज़माने के लिए समान रूप से खुला हुआ है। आश्चर्य की बात है कि साहित्यिक रूपों और प्रवृत्तियों की राजनीति को समझने-समझाने वाला उनसे बेहतर कोई न हुआ। छायावाद से ले कर नई कविता तक और रूपवाद से ले कर उत्तर-आधुनिकता तक की राजनीति की वे सटीक पहचान कर लेते हैं, लेकिन दलित-विमर्श और स्त्री-विमर्श के उभार के पीछे सक्रिय राजनीतिक आकांक्षाओं को नहीं देख पाते। 


नामवर जी ने मन्नू भंडारी, मृदुला गर्ग और प्रभा खेतान जैसी लेखिकाओं के लेखन में स्त्री की आत्मनिर्भरता और सामाजिक विद्रोह की अभिव्यक्ति को रेखांकित किया। उनका मानना था कि आधुनिक स्त्री लेखन केवल भावनात्मक अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि वह सामाजिक संरचना को चुनौती देने वाली चेतना भी है। नामवर सिंह ने आधुनिक हिंदी साहित्य में स्त्री लेखन को गंभीरता से लिया। प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों में स्त्री के यथार्थ चित्रण की उन्होंने सराहना की। मन्नू भंडारी की रचनाओं (विशेषकर 'महाभोज') में उन्होंने स्त्री को केवल घरेलू पीड़ा से बंधी न मान कर सामाजिक-राजनीतिक संघर्ष में सक्रिय भूमिका निभाते हुए देखा। मृदुला गर्ग और प्रभा खेतान की रचनाओं को उन्होंने स्त्री की आत्मनिर्भरता, यौनिकता और विद्रोही स्वर की अभिव्यक्ति माना। हालांकि जगदीश्वर चतुर्वेदी, नामवर जी के स्त्री दृष्टि पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि नामवर सिंह के लेखन और व्याख्यानों में स्त्री तकरीबन गायब है और जो व्यक्त हुई है वह नकारात्मक और अवैज्ञानिक है। वे स्त्री के प्रति पुंसवादी नजरिए और स्त्री नजरिए में वे अंतर नहीं करते।  उन्होंने कहा था कि “भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति को समझने के लिए हमें अपने सामाजिक यथार्थ से निकलना होगा।” हालांकि, नारीवादी आलोचकों का आरोप रहा कि वे स्त्री प्रश्नों को प्रायः व्यापक सामाजिक-आर्थिक संघर्षों के अधीन रख देते थे। इस कारण स्त्री की स्वायत्तता का विशिष्ट स्वर कभी-कभी धुंधला पड़ जाता है। नामवर सिंह की आलोचना-दृष्टि में स्त्री प्रश्नों को अलग-थलग नहीं, बल्कि समाज के व्यापक वर्गीय और सत्ता-संघर्ष के संदर्भ में देखा गया। नामवर सिंह की आलोचना-दृष्टि में स्त्री की छवि दो स्तरों पर सामने आती है: पहला परंपरागत साहित्य में स्त्री, मुख्यतः करुणामयी, त्यागमयी और सहनशील रूप में चित्रित। दूसरा, आधुनिक साहित्य में स्त्री आत्मनिर्भर, विद्रोही और सामाजिक संरचना को चुनौती देने वाली चेतना के रूप में चित्रित। उन्होंने स्त्री लेखन की गंभीरता को स्वीकार किया और उसे हिंदी आलोचना में उचित स्थान दिया। यद्यपि उनकी दृष्टि कभी-कभी पुरुष-केन्द्रित सीमाओं से बंधी दिखती है, फिर भी स्त्री विमर्श को साहित्यिक विमर्श का हिस्सा प्रस्तावना हिंदी आलोचना के क्षेत्र में नामवर सिंह (1926–2019) का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है। 


उत्तर नामवर : (80 के दशक के बाद के नामवर) 

सामाजिक न्याय के प्रयोगों और  साम्यवाद की अवधारणा  से विचलित मनःस्थिति को दर्शाते ऐसे कई  विचित्र, अन्तर्विरोधग्रस्त और निर्मम बयान समय-समय पर उन्होंने दिये कि ताज्जुब होता था कि क्या ‘उत्तर नामवर’ को ‘पूर्व-नामवर’ की याद नहीं आती? उस नामवर की, जिसने ‘कविता के नये प्रतिमानों’ के केन्द्र में मुक्तिबोध को स्थापित किया, लम्बे समय तक कलावादी शिविर के बरअक्स प्रगतिवादी एवं जनवादी मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए आलोचनात्मक संघर्ष का नेतृत्व किया और ‘दूसरी परम्परा की खोज’ की थी? नामवर सिंह के व्यक्तित्व के अनेक पहलू हैं जिनमें उनकी अस्मिता की दरारें साफ देखी जा सकती हैं। मसलन् उनके शिक्षक व्यक्तित्व, शिक्षा प्रशासक, पति, पिता, दोस्त, कॉमरेड, समीक्षक आदि रूपों पर आलोचनात्मक ढंग से विचार किया जाना चाहिए और देखना चाहिए कि एक व्यक्ति के नाते नामवर सिंह किस तरह की सामाजिक भूमिका और व्यवहार का निर्वाह करते रहे हैं। इन सभी रूपों में नामवर सिंह एक जैसे नजर नहीं आते। जगदीश्वर चतुर्वेदी लिखते हैं कि नामवर सिंह के अनेक व्याख्यान लेखकों के मनोबल को बढ़ाने के लिहाज से दिए गए हैं। हिन्दी में जिसे अपना मनोबल टूटता सा लगता है दौड़ कर नामवर सिंह के पास जाता है और अनुरोध करता है चलो भाषण दो। यह काम मूलतः प्रौपेगैंडिस्ट का है। वह नैतिक मनोबल बढ़ाने का काम करता है। इस काम में नामवर सिंह अपनी साख और आदर्शों का जम कर इस्तेमाल करते रहे हैं। नामवर सिंह की साख सबसे ज्यादा है, जिसका वे व्यक्तियों, लेखकों और साहित्य पाठकों के नैतिक मनोबल बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। इस प्रक्रिया में साहित्य की ग्रहण क्षमता बढ़ाने पर उनका खास ध्यान रहा है। 

 

नामवर जी द्वारा विभिन्न स्थानों पर दिए गए वक्तव्यों एवं साक्षात्कारों को ‘जमाने से दो-दो हाथ’ शीर्षक से आशीष त्रिपाठी ने संपादित किया है जिसमें एक अध्याय ‘मुक्त स्त्री की छद्म छवि’ शीर्षक से संकलित है। यह 2003 में उनकी बातचीत का सारांश है जिसमें वे स्त्री -पुरुष संबंधों को तीन दायरों में विमर्श के योग्य समझते हैं । कानून, समाज और परिवार। वे इस बात पर जोर देते हैं कि कानून जिस नजरिए से इस सम्बन्ध को देखता है, समाज उसके प्रति उससे कहीं अधिक उदार है। कानून के अनुसार, बहुविवाह अवैध है, परन्तु समाज में लोगों के जीवन में ऐसी स्थितियाँ आती हैं कि कई बार उनके लिए दो या इससे अधिक विवाह करना आवश्यक हो जाता है। सन्तान पाने के लिए दो विवाह करना यदि आम बात नहीं है तो विचित्र भी नहीं है। ऐसा प्राचीन काल से ही होता आ रहा है। शास्त्रों में उन स्थितियों का वर्णन है जिसमें कि स्त्री-पुरुष दूसरा विवाह कर सकते हैं। लेकिन जब हम समाज की बात करते हैं तो वहाँ आवश्यकताएँ व्यक्तिनिष्ठ हो जाती हैं। साहित्य में भी ऐसे लोग हैं जो गाँव में एक और शहर में दूसरी स्त्री के साथ रहते हैं।  नामवर सिंह द्वारा इस समय तक आते-आते जबकि वो साहित्यालोचना से अधिक सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर केंद्रित हैं और उत्तर औपनिवेशिकता के समस्त उभरते विमर्शों से भली-भांति परिचित थे, स्त्री मुद्दों को ले कर इतने विरोधभासी कैसे हुए? वे कभी भी अपने लेखन में स्वतंत्र स्त्री की चेतना का उल्लेख करते हुए नहीं दिखते। क्यों वे स्त्री को परिवार, कानून और समाज के दायरे में ही सीमित करना चाहते हैं? जिस व्यक्ति की पहचान नए प्रतिमानों को स्थापित करने के कारण बनी हो, जो एक सजग आलोचक, समाज द्रष्टा और चिंतक हो उसके विचारों को प्रशांकित किया जाना आवश्यक है। स्त्री-पुरूष संबंध का मतलब शादी का संबंध नहीं है। स्त्री-पुरूष संबंधों के बारे में नामवर सिंह की समझ बेहद सीमित है। वे इस टिप्पणी में स्त्री-पुरूष संबंधों को शादी के संबंध में रिड्यूज करके देखते हैं। शादी में भी बहुविवाह या अवैध विवाह में रिड्यूज करके स्त्री-पुरूष संबंध को कानूनी नजरिए से देखते हैं, वे बात शुरू करते हैं स्त्री-पुरूष संबंधों की और अचानक शिफ्ट कर जाते हैं विवाह, बहुविवाह, अवैध संबधों पर और उसमें भी निम्न-मध्यवर्गीय पुंसवादी नैतिकता के नजरिए को व्यक्त करते हैं, विवाह के साथ ही औरतों के बारे में नामवर सिंह की टिप्पणियां पुंसवाद को अभिव्यक्त करती हैं।  


उनका मानना था कि समलैंगिकता एक अपवाद है, कोई प्रचलन नहीं। वह चाहे पुरुष पुरुष या स्त्री स्त्री के बीच हो, पर वह अप्राकृतिक है। साहित्य में इसे इसी रूप में आना चाहिए। कुछ अंग्रेजी लेखक पश्चिम के प्रभाव में इस अपवाद को ग्लोरिफाई करके सस्ती लोकप्रियता बटोरने की कोशिश कर रहे हैं। इस लिहाज से देखा जाए तो मुझे स्त्रियों के अधिकारों को ले कर चल रहे आन्दोलनों का उद्देश्य ठीक से समझ नहीं आता। नामवर सिंह जैसे प्रगतिशील विद्वान की उपरोक्त टिप्पणी स्वयं में इस बात का प्रमाण है कि उन्हें परिवार के उदारवादी ढांचे में रहते हुए विषमलैंगिक व्यवस्था ही स्वीकार्य थी। यह संभवतः इसलिए भी था क्योंकि मार्क्सवाद की शास्त्रीय परंपरा जिसका उन पर प्रभाव था, उसके चिंतक एंगल्स 'परिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति' में स्त्री-पुरुष संबंधों पर आधारित एकल परिवार को श्रेष्ठ मानव स्थिति के रूप में देखते थे, इसलिए समलैंगिकता उनके लिए अप्राकृतिक होने के साथ-साथ अस्वीकार्य भी थी। उनका यह भाव समलैंगिक समूहों द्वारा अपने मानवाधिकारों और संबंधों की वैधता के लिए चलाए जा रहे आंदोलनों के दरम्यान व्यक्त हुआ था और वे इसे साहित्य में प्रवेश देने के पक्षधर नहीं थे । बावजूद इसके कि उसके बहुत पहले इस्मत चुगताई ‘लिहाफ’ लिख चुकी थीं और कई महत्वपूर्ण उपन्यास इस विषय पर हिन्दी में आ चुके थे। वे कामकाजी स्त्रियों के प्रति भी उदारवादी दृष्टि से विचार करते हुए मानते हैं कि स्त्रियाँ चूँकि अब कामकाजी हो गई हैं इसलिए वे अधिक उग्रता से अपने अधिकारों की माँग कर रही हैं पर कोई मुझे यह तो बताए कि स्त्रियाँ कब कामकाजी नहीं थीं? यह अलग बात है कि पहले वे घरों में काम करती थीं, अब दफ्तरों में करने लगी हैं। पर घरों का काम क्या दफ्तरों के काम से कम था। इससे भी बड़ी बात यह कि क्या घरों में काम करते हुए उनके अधिकार कम थे? सच यह है कि आज भी भारतीय घरों में औरतों के साथ दोयम दर्जे से भी बदतर व्यवहार किया जाता है। हमारा पूरा साहित्य इस धारणा से भरा पड़ा है कि घरेलू स्त्रियां सिलाई बुनाई के अतिरिक्त कुछ नहीं करती। सुधा अरोड़ा के द्वारा लिखी गई कहानी 'रहोगी तुम वही', में देखा जाए तो ऐसी वास्तविकता से परिचय कराया गया है जिसमें एक पति वास्तव में अपनी पत्नी से क्या चाहता है? एक पति अपनी पत्नी को किस रूप में देखना चाहता है? खुद पति को भी मालूम नहीं होता और और फिर भी वह अपनी और अपनी दुविधा का दोष भी वह सिर्फ पत्नी पर डालता है। हमारे घरों में औरतें आज भी अधिकारहीन हैं। इस बात को नामवर सिंह जानते हैं।


 वे अपनी आत्मकथा में भी स्वयं अपनी पत्नी के प्रति बरते गए उनके रूखे व्यवहार की चर्चा करते हुए इस बात की सफाई देते हैं कि चूंकि वह शादी उनकी मर्जी से नहीं हुई थी, इसलिए ऐसा हुआ। ऐसा तब हुआ जब वे नामवर जी की पत्नी थीं..। तब सामान्य घरों में स्त्रियों के अधिकार कितने सुरक्षित हैं, इस पर विचार किया जाना चाहिए। औरतों के पास घरों में अधिकार शून्य के बराबर थे, यदि ऐसा न होता तो औरतों को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष ही नहीं करना पड़ता। मार्क्सवादी नामवर जी भी इस बात से परिचित थे कि स्वयं मार्क्स ने भी अपने किसी लेखन या चिंतन में ‘स्त्री’ को एक भिन्न वर्ग के रूप में वर्गीकृत नहीं किया बल्कि साम्यवाद की धारणा में यह बात निहित थी कि वर्ग के प्रश्नों के हाल होने के साथ-साथ लिंग की असमानता भी समाप्त हो जाएगी। इस धारणा का खंडन करते हुए स्वयं मार्क्सवादी स्त्रीवादियों ने ‘डोमेस्टिक वेज’ के विमर्श को प्रारंभ किया था। औरत अधिकारहीन थी, असमानता की शिकार थी, और आज भी है। यही वजह है कि सत्तर के दशक में स्वायत्त महिला संगठनों का गठन हुआ जिन्होंने भारतीय स्त्रियों के अधिकारों को व्यवस्थित तरीके से सार्वजनिक विमर्श का विषय बनाया। 


नामवर जी यह मानते थे कि पश्चिम के समाजों की अपेक्षा हमारे समाज से कहीं अधिक तलाक होते हैं। और खासकर सम्बन्धों के मामले में वहाँ स्त्रियों का हमारे समाज से कहीं अधिक शोषण होता है। साहित्य में ये सब बातें प्रतिबिंबित होती रही हैं। शायद इसीलिए उसे अधिक संयमित होने की जरूरत है। ऐसा कहते हुए वे इस तथ्य को नजरंदाज कर गए कि तब तक भारतीय स्त्री आंदोलन ‘घरेलू हिंसा के विरुद्ध अधिनियम’ के लिए लगातार राज्य और कानून से लड़ाई लड़ रहा था और अंततः 2005 में वह अधिनियम पास हुआ। भारत में जाति, धर्म, वर्ग और नैतिकता की सीमाएं स्त्रियों को उनके प्रति होने वाली हिंसा के प्रति मुखर होने से रोकती हैं इसलिए हमारे यहाँ तलाक के प्रकरण कम आ पाते हैं । स्त्रियां जीवन भर एक अनचाहे रिश्ते के बोझ तले दाब कर जीवन गुजार देती हैं। प्रश्न यह है कि अपने समय की सभी महत्वपूर्ण लेखिकाओं के लेखन को पढ़ने-जानने के बाद भी वे इस कड़वे यथार्थ पर पर्दा क्यों डालते हैं? 


उनका मानना था कि फिल्मों और मीडिया में जिस तरह स्त्री को प्रस्तुत किया जा रहा है और मुक्त स्त्री के रूप में उसकी एक छद्म छवि प्रस्तुत की जा रही है, परिवार इसके खिलाफ है। तथाकथित आधुनिक परिवार भी ऐसा नहीं चाहते। मीडिया का ऐसा प्रयास या साहित्य में इधर जो बोल्डनेस बढ़ी है, यह ग्लैमर से अधिक कुछ नहीं है। असल साहित्य स्त्री के शोषण का विरोधी है और पुरुष लेखकों ने भी अपनी रचनाओं में स्त्री के शोषण के खिलाफ आवाज उठाई है। कुछ लेखिकाएँ और कवयित्रियाँ स्त्री-अधिकारों को ले कर बहुत उग्र दिखाई देती हैं। उनकी उग्रता से प्रतीत होता है कि वे सभी पुरुषों के खिलाफ हैं। इसका कोई अर्थ नहीं है। मैं मानता हूँ कि औरत ही पुरुष को मुक्त कर सकती है पर ऐसा वह उसमें भय कर.के नहीं कर सकती। स्त्री आज आक्रामक मुद्रा में है। उसके लिए नए रास्ते खुल रहे हैं। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन में उसकी भागीदारी बढ़ रही है के तौर पर रखें। उन्हें 'नार्म' के रूप में स्थापित कर सस्ती लोकप्रियता बटोरने की विकृतियों को संदिग्ध निगाह से देखा जाना चाहिए। स्त्री-पुरुष के बीच सेक्स सम्बन्धों को भी बहुत अतिरंजित किया जा रहा है। साहित्य में थोड़ी-बहुत अतिरंजना चलती है, परन्तु यथार्थ को छिपाना या उससे दूर भागना उचित नहीं। साहित्य को समाज से आगे चलना चाहिए, परन्तु सिर्फ एक कदम आगे। उसके बीच अधिक दूरी से तालमेल गड़बड़ा जाएगा। कालिदास ने शिव-पार्वती के बीच प्रेमलीला का वर्णन किया है। परन्तु तुलसीदास ने उन्हें जगत का माता-पिता माना। अब माता-पिता के बारे में लिखते हुए शालीन तो होना ही पड़ेगा। साहित्य में अश्लीलता नहीं होनी चाहिए। कृष्णा सोबती के 'यारों का बर'...। और मृदुला गर्ग के 'चितकोबरा' में कहीं-कहीं अश्लीलता दिखाई देती है। पर हमें ध्यान रखना चाहिए कि सेक्स से जुड़ी विकृतियों को हम ‘एबिरेशन’के तौर पर दिखाएं उन्हें ‘नॉर्म’ के रूप में स्थापित कर सस्ती लोकप्रियता बटोरने का प्रयत्न न करें। नामवर जी के इस प्रकार के विचार उनके पुनर्परीक्षण की मांग करते हैं कि वे आलोचना कर्म के शिखर पुरुष होने के बावजूद सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाओं की तासीर को न समझने का भ्रम पैदा कर रहे थे या वे उन विमर्शों पर बात कर के उसे प्रामाणिकता देने के खिलाफ थे। 



संदर्भ सूची


1. Chaudhuri, M. (2003). Feminism in India. London: Zed Books.

2. Kishwar, M. (1996). स्त्रियाँ और राजनीति: कोटा से आगे की सोच, Economic and Political Weekly, 31(43), 2867–2874.

3. कुमार, रवि (2019). नामवर सिंह: आलोचना और दृष्टि, दिल्ली: दिल्ली विश्वविद्यालय प्रकाशन।

4. खेतान, प्रभा (1991). पीली आँधी, दिल्ली: वाणी प्रकाशन।

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10. सिंह, नामवर (1980). काव्यालंकार और आलोचना, दिल्ली: राजकमल प्रकाशन।

11. सिंह, नामवर (1983). कविता के नए प्रतिमान, नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन।

12. सिंह, नामवर (1992). साहित्यिक आलोचना: दृष्टिकोण और विधाएँ, नई दिल्ली: वाणी प्रकाशन।

13. सिंह, नामवर (1997). कविता की जमीन और जमीन की कविता, दिल्ली: वाणी प्रकाशन।

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