परांस-9 : मनोज शर्मा की कविताएं
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| कमल जीत चौधरी |
इस दुनिया में मनुष्य ने अपने आस पास के तमाम चीजों के नामकरण किए हैं। पेड़-पौधों, और फूलों-फलों के नाम इसी क्रम में रखे गए। लेकिन तमाम फूल ऐसे भी हैं जिनका अस्तित्व तो है लेकिन उनका नामकरण नहीं हो पाया। इन फूलों का भी अपना अस्तित्व हुआ। इन की भी अपनी जिंदगी है। मनोज शर्मा ऐसे ही अनाम फूलों के कवि हैं। उन अनाम फूलों की खुशी और उन्हें समुचित सम्मान देने वाले कवि हैं। इस बार 'परांस' के कवि हैं मनोज शर्मा। बीते 29 अप्रैल 2025 को अचानक उनके देहांत की जब खबर आई हम हतप्रभ रह गए। कमल जीत चौधरी का यह आलेख एक तरह से मनोज शर्मा के प्रति आदरांजलि भी है।
अप्रैल 2025 से कवि कमल जीत चौधरी जम्मू कश्मीर के कवियों को सामने लाने का दायित्व संभाल रहे हैं। इस शृंखला को उन्होंने जम्मू अंचल का एक प्यारा सा नाम दिया है 'परांस'। परांस को हम हर महीने के तीसरे रविवार को प्रस्तुत कर रहे हैं। अपरिहार्य कारणों से इस महीने यह कॉलम चौथे रविवार को प्रस्तुत किया जा रहा है। इस कॉलम के अन्तर्गत अभी तक हम अमिता मेहता, कुमार कृष्ण शर्मा, विकास डोगरा, अदिति शर्मा, सुधीर महाजन, दीपक, शाश्विता और महाराज कृष्ण संतोषी की कविताएं प्रस्तुत कर चुके हैं। इस क्रम में आज हम नवें कवि मनोज शर्मा की कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं। कॉलम के अन्तर्गत कवि की कविताओं पर कमल जीत चौधरी ने एक सारगर्भित टिप्पणी लिखी है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं मनोज शर्मा की कविताएं।
परांस-9 :
पर उनसे पेंच कौन लड़ाता होगा?
कमल जीत चौधरी
एक बड़ी दुनिया के लिए लड़ते हुए; मनोज शर्मा ने एक छोटी दुनिया अर्जित की। उनकी यह दुनिया जानती है कि उनका कवि; अमरता का नहीं; बल्कि जीवन का कवि हैं। जीवन हमेशा याद रहता है। उनके लिए श्रीकांत वर्मा की यह पंक्तियाँ उद्धरित की जा सकती हैं:
‘चाहता तो बच सकता था
मगर कैसे बच सकता था
जो बचेगा
कैसे रचेगा।’
मनोज जी ने कभी बचने की कोशिश नहीं की। जोखिम और प्यार से ही नहीं, बल्कि मृत्यु से भी नहीं। जब 'परांस' (स्तम्भ) लिखने का निर्णय लिया तो; प्यारे अग्रज मनोज शर्मा को बहुत खुशी हुई। उन्हें नई मगर अच्छी भूमिकाएँ बेहद पसंद थीं। मुझसे उनकी अपेक्षाएँ, स्नेह और आत्मीयता सभी दोस्तों को मालूम है। नौकरी से सेवानिवृत्त होने के बाद वे होशियारपुर चले गए। उसके बाद हम जिस परस्परता को प्राप्त हुए, वह दुर्लभ भावों और वैचारिकता से भरी थी। लगभग दूसरे तीसरे दिन फोन पर हमारी बातचीत होती थी। हम दोनों के परिवार भी इस संवाद में; प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से शामिल रहते। आज भले दैहिक रूप से मनोज जी हमारे बीच नहीं हैं, मगर उनका लेखन और उनकी स्मृतियाँ पहले से अधिक उपस्थित हैं:
‘रुई के फाहे-सी
धुनी जाती देह में
अपना सपना धूनूंगा मैं भी
उड़ेंगे फाहे चारों ओर
बनाते रेखाएँ
आकाश में...
बचें न बचें
हिज्जे-हर्फ
किसी मनोज शर्मा के,
बचे रहेंगे फाहे
जैसे बचेंगी रेखाएँ
बुनती-बनाती इतिहास !'
(मृत्युबोध)
उन पर 'परांस' की अंतिम कड़ी लिखना चाहता था, मगर निर्णय बदल लिया, और अब इनकी बची रेखाओं और फाहों से 'परांस-9' लिख रहा हूँ। उनके लेखन पर पहले भी दो आलेख लिख चुका हूँ। मेरे लिए यह सुखद है कि उनकी अंतिम पाँच किताबें मेरे हाथों से तैयार हुईं, और छपीं। इन किताबों के कवर, शीर्षक, क्रमिकाएँ, भूमिकाएँ, ब्लर्ब और इनमें दर्ज़ कवि-परिचय भी उन पर मेरी सोच और स्थापनाओं को दर्शाते हैं। उनकी इन काव्य पंक्तियों को भी स्थापना रूप में देख सकते हैं:
'शिल्प से बाहर हूँ, मैं
जैसे घर के बाहर कर दी गयी, स्त्री
जैसे कोई अकेला पड़ा चित्रकार, जो बिका ही नहीं
शिल्प से बाहर कर दिए गए लोग
चुक चुके नहीं होते
समाज में खिंची रेखा के अंतिम सिरे पर मौजूद रहे हैं सदा अपनी जमात में रंग जमाते
उनके कंधों पर टिक, बेहिचक रो लेते हैं दुत्कारे गए
उन्हें, गलियों के कोनों पर उगी घास तक
पसंद करती है।'
(शिल्प से बाहर)
उनका लेखन और व्यक्तित्व हिन्दी की तथाकथित मुख्य धारा के शिल्प से बाहर रहा। दरअसल मनोज एक एक्टिविस्ट कवि हैं। उनका लेखन और व्यक्तित्व; चिंगीज आईत्मातोव के सुन्दर उपन्यास 'पहला अध्यापक' के नायक दूइशेन; से मेल खाता है। इनकी कविताओं, साहित्यिक टिप्पणियों, अनुवाद कार्य और रंगकर्म में एक ऐसे डाकिए, प्रेमी, पिता, दोस्त और शिक्षक को देखा जा सकता है, जो दुनिया को हर हाल में सुन्दर देखना चाहता है। इनकी कविताओं का मूल स्वर समतावादी है। यह कविताई; जन की, जन द्वारा, और जन के लिए कही जा सकती है। इसमें प्यार, प्रतिरोध, दुख, संघर्ष और 'लोक की हेक' है। उन्होंने लगभग साढ़े चालीस-बयालीस साल तक लिखा। वे सबसे ज़्यादा समय तक जम्मू में और कुछ समय मुम्बई और पंजाब में रहे। उनका अनुभव संसार व्यापक है। लोक नायकों और क्रांतिकारियों से लेकर बार गर्ल तक, भठियारन से ले कर कूड़ा बीनती लड़कियों तक, अपने बेटे किट्टू (अतीव) से ले कर घास के बीज तक, खेत से ले कर पहाड़ तक, समुद्र से ले कर संग्रहालय में टंगी पतंग तक और उस पतंग के बहाने आकाश तक उनकी नज़र है। 'पतंग' शीर्षक कविता; इनकी प्रतिनिधि कविताओं की प्रतिनिधि कविता है। यह कविता पढ़ें:
'म्यूज़ियम में एक पतंग थी
टंगी पतंग के ठीक नीचे
उड़ाने वाले राजा का सिंह जैसा नाम
इतनी खूबसूरती से लिखा था
कि मुलायम और रेशमी नज़र आता था
पतंग बनाने वाले के खानदान तक का ब्यौरा था वहाँ
जैसे कि
वह इलाके का एक ही मुसलमान परिवार था, जो
दशहरे पर रावण बनाता और दूरदराज़ तक अपनी रची पतंगें पहुँचाता
मैंने तथा मेरे बेटे ने
एक साथ देखी पतंग
फिर हम पहाड़ी के ऊपरी सिरे तक चले गए
वहाँ – जहाँ सर्रसर्र हवा थी, बहती – छूती हुई
पापा!
यही खड़े हो कर ही तो उड़ाते रहे होंगे राजा पतंग
हो सकता है – मैंने कहा
तभी, तभी तो - -
बोला बेटा
पतंग लूटने वालों का नाम नहीं है लिखा वहाँ
क्या उतरते रहे होंगे इसी खाई में
अपने बांस, झाड़, धागों के सिरों पर लटकते पत्थर ले कर
और राजा तो
कट जाने पर एकदम बनवा लेते होंगे
नयी पतंग
पर उनसे पेंच कौन लड़ाता होगा पापा?'
दरअसल यह कविता उन्होंने मियां डीडो को समर्पित की है। वे डुग्गर प्रदेश के एक जन नायक हैं। यहाँ पतंग उड़ाने वाले राजा और पतंग बनाने वाले का इतिहास अंकित है। मगर राजा से पेंच लड़ाने वाले का नाम उकेरित नहीं किया गया है। बच्चे का एक सवाल है - 'पर राजा से पेंच कौन लड़ाता होगा पापा?' यह सवाल हमें वहाँ ले जाता है, जहाँ अहंकार और अन्याय का सामना साहस और विद्रोह से किया जाता है। यह कविता; हिन्दी कविता की उस धारा से जुड़ती है, जो सत्ताओं को चुनौती देती आई है। सवाल पूछती है। सोचने पर विवश करती है। नई दृष्टि देती है। मासूम और आसान सवालों से दुनिया को नए रास्ते मिलते हैं। यहाँ दो सवाल पढ़ें:
'बाबा!
हमें स्कूलों में पढ़ाया क्यों नहीं जाता
कौन होते हैं दंगाई
और कैसे करें इनसे
मुकाबला?'
(दंगाई)
''आता है मेरा बेटा
खिलौना बंदूक ले कर
और मेरे सीने पर तान देता है...'
'तुतलाता गुर्राता है
और मेरी मुस्कान पर
एक झटके से ट्रेगर दबाता है
हाँ!
उसके प्रश्न में भी
मुझे असीम संभावनाएँ नज़र आती है-
पापा, आप मर कर भी ज़िंदा कैसे रहते हो?'
(पंजाब)
पहले ही कह चुका हूँ कि मनोज शर्मा के लेखन में अमर होने की लालसाएँ नहीं हैं। जबकि मर कर ज़िंदा रहने की कला; कवियों को बखूबी आती है। यहाँ ज़िंदा रहना; एक दायित्व है। खाने के लिए जीना नहीं, बल्कि जीने के लिए खाने जैसा। 'खिलौना बन्दूक़' में संभावनाएँ हैं, जबकि 'बन्दूक़ खिलौना' बहुत घातक है। कवि इस खिलौना बना दी गई बन्दूक़ के व्यापार को समझता है। यह भी कि यह खेल बंद होना चाहिए। इसके लिए किसी भी सूरत ज़िंदा रहना ज़रूरी है। संघर्ष करना ज़रूरी है। शिक्षा व्यवस्था के ख़राब किए जाने पर बात होनी चाहिए।
नक्सलबाड़ी किसान आन्दोलन से उपजी कविता की प्रतिष्ठा किसी भी वाद से कम नहीं है। यह उन कविता-परम्पराओं को ताकत देती है, जो समूल बदलाव से ही समता, न्याय और अधिकार को संभव मानती हैं। हिन्दी कविता पर नक्सलवाड़ी किसान आन्दोलन के असर को पढ़ते हुए, मनोज जी से परिचित हुआ जा सकता है। कवि का सही परिचय उसकी कविताएँ देती हैं। कविताओं का सही परिचय अच्छे पाठक देते हैं। मनोज के पास अच्छे पाठक कम हैं। यह 'कम' बताते रहे हैं कि हिन्दी कविता के प्रचलित मुहावरे से अलग देखने पर; मनोज को काफी ज़्यादा देखा जा सकता है। यह कविताई; अपरिचय का परिचय है। यह कवि को पैदा और पोषित करती है। उसके बाद कवि; लिखता है:
'इतना मत सोचो
समय से टकराना जो नियति है, तो टकराओ
पूरे वजूद सहित
तुम जीवन का उत्कर्ष ढूँढ़ने वाली महिला हो
जीवन, तुम्हें ललकारेगा, पग-पग
उसे दुपट्टे सा ओढ़ना सीखो
और गुनगुनाओ
जैसे भरती रही हो सुगंध आस-पास
मचलती, खिलखिलाती, समय तक को सिखलाती
वहीं लौटा लाओ अपना-आप
तुम, तुम हो
उदाहरणों से परे...'
(कविता-1)
कवि लौटने की बात करता है, मगर लौटने की सियासत नहीं करता। वह वापस लौटने की प्रतिष्ठा को जानता है। अन्यत्र भी आने की बात बहुत सघन भाव में करता है:
मैं आऊँगा और
आटा पकने की गंध सा
प्रत्येक खौफ के विरुद्ध फैल जाऊँगा।
(एक आस्था और)
आने पर हिन्दी के वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी की काव्य पंक्ति याद आ रही है - 'आऊँगा, जैसे थके हारे में दम आता है।' हिन्दी कविता में आने पर अनेक काव्य-पंक्तियाँ हैं। मगर मनोज का आना अनुपम है। आटा पकने की गंध सा फैल जाने की कवि- इच्छा निःशब्द करती है। यहाँ प्रत्येक डर दुबक जाता है। ऐसे विरुद्धों की विरुदावली लिखी जानी चाहिए। निःसंदेह यह राजा की नहीं, आमजन और क्रांतिकारियों का यशोगान होगा।
कुछ पहली किताबें अगली अच्छी किताबों की सम्भावना व अपेक्षा से भरी होती हैं। इस सन्दर्भ में मनोज जी की 1986 में छपी; पहली किताब मुड़ कर देखनी चाहिए। उसमें भविष्य के मनोज और आज हो रहे के बिंब मौजूद हैं। इनके आठ कविता-संग्रह और अन्य चार किताबें हैं। मगर किताबें सिर्फ़ उन्हें कहा जा सकता है, जो संचित करने की वृत्ति और संख्या बढ़ाने से दूर ले जा सकें। यहाँ संचित करने की वृत्ति को बहुअर्थ में लिया जाना चाहिए, मसलन सुख संचित करने, पुरस्कार संचित करने, अपने खाते में विदेश यात्राएँ संचित करने की वृत्ति आदि-आदि। इस सन्दर्भ में देखें तो मनोज जी 'फिलहाल' नामक स्तम्भ में लिखी अपनी टिप्पणियाँ और पाश व भगत सिंह के किए अनुवाद; किसी किताब में संकलित नहीं कर सके। केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय के हिन्दीतर भाषी सम्मान के अलावा उन्हें कोई पुरस्कार नहीं मिला है। उनके खाते में एक भी सरकारी-ग़ैरसरकारी खर्चे पर की गई; साहित्यिक यात्रा नहीं है। इनके कविता-संग्रह सामूहिक वृत्तियों की एक ऐसी अभिव्यक्ति है, जो संख्या-बल पर भरोसा नहीं करते। इनकी कविताई भी न्यायबल पर भरोसा करती है। इधर कवि और कलाकारों के परिचय में, 'विविध' के अंतर्गत उनके उन कार्यों को रेखांकित किया जा रहा है, जो उनके 'अकेले तरह के होने' को महिमामण्डित करते हैं। अपनी अभिव्यक्ति और सरोकारों में; मनोज के कवि में अकेले तरह से खड़े होने की लालसा नहीं दिखती, उनके साथ उनके दोस्त और सामूहिक सपने भी देखे जा सकते हैं। वे अपनी बात करते हुए, दूसरों की बातें करते हैं:
मैं दरअसल
हाड़ी के लिए बादलों की चाह जैसा हूँ
क्वार की महक में
माहिए की तान जैसा
फौजी बेटे की पहली छुट्टी में
बाप के आराम जैसा हूँ
मैं उस सभी जैसा हूँ
जहाँ काम और आराम साथ-साथ चलते हैं।
(एक आस्था और)
जैसे भारतीय समाज की पहचान और ताकत उसकी विविधता है, ठीक वैसे ही हिन्दी कविता के सीमांत इसे समृद्ध करते हैं। मनोज का लेखन इन्हीं सीमांतों की देन है। उनकी कविताएँ स्थानीयता में उपजकर; अखिल भारतीय हिन्दी कविता में अपना मताधिकार प्राप्त करती है। बरसों मतदान करती चली जाती है; बिना यह परवाह किए कि वे कभी बहुमत नहीं जुटा पाए। इनकी कविताई और अन्य साहित्यिक उपक्रम; जम्मू-कश्मीर की हिन्दी कविता में एक निर्णायक मोड़ लाते हैं। इस मोड़ के बाद; इनके साथी कवियों ने भी मशाल थाम ली। यह अभी बुझी नहीं है, मगर 2019-20 के बाद अधिकतर ने दूसरा मोड़ ले लिया है, जिधर शॉर्टकट्स हैं। जहाँ अनेक-अनेक छुपी हुई सत्ताएं; वंचित जन के विरोध में खड़ी हैं। शोषित जन का सारा आकाश और अवकाश ले लिया गया है। उसके रोटी, कपड़े और रहवास के मामले ही ख़त्म नहीं होने दिए जाते। यह जन कविताएँ पढ़े या न पढ़े, मगर वह अपनी 'परांस' लगा रहा है। इसलिए इसे न्याय, समता, अधिकार और श्रेय दिए जाने का भाव इसकी पीठ पीछे भी बना रहना चाहिए। मनोज आम भूमिकाओं में आशा की कविताएँ सम्भव करते हैं:
भट्ठी गरमाती
भठियारन गरमाती है रेत
सूखी मकई; छोड़ती है गरम रेत में
तिड़कते हैं सफेदी में फूल
भर डालते हैं कड़ाही
कि उछल बाहर गिरते हैं बार-बार
बाहर आ गिरे इस भुने अन्न पर ही
छोटे छोटों का हक़ है अभी
चबाएँगे तथा पाएँगे वही
कि दहकी रेत से ही आते हैं बाहर
कुरकुरे फूल।
यहाँ लघु की प्रतिष्ठा से आगे की बात है। 'दहकी रेत से ही आते हैं बाहर/कुरकुरे फूल' में पूरी कविता है।
पाँच आबों के अंचल में भठियारन के बिना; लोक-संस्कृति और अदब के इलाके पर पूरी बात नहीं हो सकती। शिवकुमार बटालवी जी का विरह हो या नई फ़सल की महक या फिर बच्चों की लहक ही हो, इन सभी का भट्ठी से अटूट और गहरा सम्बन्ध है। इनकी कविताई के बीज उन कौमों के गीतों में हैं, जिन्होंने जीवन की अँधेरी व सीलनभरी सुरंगों में मशालें जलाईं। इनका काव्य-संस्कार सामूहिक जन-आंदोलनों में देखा जा सकता है। बिग ब्रदर इज़ वॉचिंग यू के घातक समय में इनकी कविताई सत्ता के सी. सी. टी. वी. तोड़ती नज़र आती है। यह झूठ और उन्माद के बरक्स उस रास्ते और उन पगडंडियों की निशानदेही करती है; जिन पर हिन्दी साहित्य के पटवारी कोई फर्द नहीं काट सकते। ऐसे कम कवि हैं जो आजीवन कविता के लिए हाज़िर-नाज़िर रहे हों; जिनके लिए पद, प्रलोभन, पुरस्कार, प्रशंसा और अनुशंसा व्यर्थ रही हो। इस कम में मनोज शर्मा प्रतिष्ठित होते हैं। उनके लेखन में एक उजास है। यह कामनाओं की कविताएँ हैं। यहाँ अपनी संतति और घास-फूल के प्रति एक समान ममता, प्रार्थना और चिंता है:
'इस नववर्ष में
इस फूल के लिए उतनी ही शुभकामनाएँ
जितनी
अपने बेटे के लिए चाही हैं मैंने
कि बीज बनने तक
जीवित रहे
घास का फूल भी।'
(नए साल के बधाई संदेश)
मनोज ऐसे कवि हैं, जिनके जहाँ शुरू को शुरू से नहीं बल्कि अंत को भी शुरू से देखने-समझने की आवृत्तियां दिखती हैं। दुनिया में एक दुनिया है, जो पाक है। यह बच्चों की दुनिया है:
'बस्तों में हैं पुस्तकें
कायदे
बस्तों में बंद अक्षर
तस्वीरें
बस्तों में निश्चल पड़ी हैं पेंसिलें
रबड़ें
बस्तों में वह सभी है जिससे
नया संसार रचा जा सकता है।
कवि; बच्चों के बस्तों में रखी पेंसिल, रबड़ के साथ-साथ ब्लेड भी देख लेता है। वह उस रहस्य को भी जानता है, जिससे मुस्करा कर बाज़ी पलटी जा सकती है। यह कविताई चौपाल पर ताश फैंटते हुए पत्तों की गड्डी से तीन इक्को को निकाल कर अभिभूत कर देती है। खेल देखने वाले ताली बजा उठते हैं।
आज अन्याय, अत्याचार, शोषण और क्रूरता को सामान्य ढंग से स्वीकार किया जा रहा है। अधिकतर न्यू नॉर्मल्स फासीवादी और पूंजीवादी ताकतों के हक़ में हैं। अशिक्षा, ग़रीबी, बेरोज़गारी, जातिगत-धार्मिक-नस्ल भेदभाव, बलात्कार, सांप्रदायिकता, सामूहिक हत्याएँ आदि से हम विचलित नहीं होते। इससे अधिक बुरी बात क्या हो सकती है? एक संवेदनशील कवि; मानवता और संवेदना को मरते हुए नहीं देख सकता:
'माँ चीखती है
बाप चीखता है
भाई-बहन
साथी-दोस्त
पत्नी-बच्चे चीखते हैं
और मैं भी चीखता हूँ
सम्पूर्ण घर चीखता है
गली, मोहल्ला, शहर चीखता है
और चीख कर
बिस्तरों में दुबक जाते हैं।
(चीख)
हम कर्तव्यच्युत हो कर, सुरक्षित घेरे में जीने के आदी होते जा रहे हैं। चीखने के बाद क्या करना चाहिए? बिस्तरों को त्याग देना चाहिए। सोने वाले जगा नहीं सकते। मुझे यहाँ कुमार विकल की प्रसिद्ध कविता - 'अगली ग़लती की शुरुआत' का स्मरण हुआ है:
'और उस रात
जब तुम हताश हो कर
अपने बिस्तर में छटपटाते हो
तो बूढ़े पिता की याद कर के बहुत रोते हो
तुमें अपने मज़दूर भाई की बहुत याद आती है
और गाँव-घर की बातें बहुत सताती हैं।
उस घड़ी तुम
आँसुओं की कमज़ोर भाषा में
कुछ मज़बूत फ़ैसले करते हो
और अपनी कायरता के नर्म तकिए में
मुँह रख कर सो जाते हो
अगली ग़लती की शुरुआत
यहीं से होती है।'
(अगली ग़लती की शुरुआत)
क्या आपने कभी स्त्री का विलाप देखा है? क्या यह सिर्फ़ रोना है? स्यापा करना है? चीखना है? नहीं। यहाँ विलाप की व्यंजना बहुत मार्मिक है। 'स्त्री विलाप कर रही है'; मनोज शर्मा की एक मार्मिक कविता है। यह कविता; हमारे निरर्थक होते जाने; और विस्मय से दूर होते जाने को दर्शाती है। आश्चर्य और आश्चर्य के बाद अब प्रेम, ख़ुशी या क्रोध का न रहना सही है? आश्चर्यबोधक चिन्ह के न होने से भाषा में आदमी होने की तमीज़ भी नहीं रह जाती। इस कविता का तीसरा बंध कवि का बिल्कुल निजी मुहावरा है। यहाँ पीड़ा से भरे लोक का कोई उपेक्षित इलाका है:
'विलाप कर रही है स्त्री
जैसे घूम रही है पृथ्वी
वह नहा रही है और रो रही है
हिचकियाँ ले रही है और सेंक रही है रोटियां
एक हाथ से बांधा है नाडा उसने अभी
और दूसरे से, होठों तक फैले आँसुओं को पोंछा है
पूरे ज़ोर से निचला होंठ दबाकर
ईश्वर की निर्धारित प्रार्थना तक पूरी की है।'
ऐसे इलाके चतुर्दिक हैं। इन पंक्तियों में पीड़ा का एक पूरा आख्यान है। जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती। यहाँ 'ईश्वर की निर्धारित प्रार्थना' के स्थान पर 'निर्धारित ईश्वर की प्रार्थना' भी पढ़ा जा सकता है। इसे निर्धारित दिनचर्या मान कर भी चला जा सकता है। पृथ्वी के घूमने के साथ स्त्री का विलाप केवल एक बिम्ब नहीं रह जाता बल्कि एक शोक-धुन भी हो जाती है। यह धुन कानों को बेचैन करती है। वृक्षों के फलहीन होने, पक्षियों की चोंचें सूख जाने, मल्लाह द्वारा नाव उलट देने, परछाइयों का ऐंठना भूल जाने की कल्पना; श्रोता और पाठक को यथार्थ के उस सोपान पर ले जाती है, जहाँ स्त्री का विलाप सिर्फ़ एक वाक्य नहीं है। 'स्त्री विलाप कर रही है'; यह पढ़ते -पढ़ते कानों में पिघला शीशा डल जाता है। अब कान तभी साफ हो सकते हैं; जब विलाप से पहले ही स्त्री को ठीक-ठीक सुन और देख लिया जाए। गोरख पाण्डेय लिखते हैं:
'इन आँखों में है
तकलीफ का उमड़ता हुआ समन्दर
इस दुनिया को जितनी जल्दी हो सके बदल देना चाहिए।'
मनोज की कविताई में ऐसी आँखें बार-बार दिखती हैं, जिनमें अपार दुख है। ऐसे हाथ दिखते हैं, जिनमें बहुत ताकत है। ऐसे पैर दिखाई देते हैं, जो पैदल चलते थकते नहीं। ऐसे सुन्दर सिर दिखाई देते हैं, जो शीश नवाने और कटवाने में सिद्धहस्त हैं। यह सब देख-समझ कर; दुनिया बदल देने का मन करता है। मन बदल देने वाली इस कविताई का बदल सिर्फ़ इंक़िलाब हो सकता है। मुक्तिबोध के 'दूर तारा' और आलोच्य कवि के 'अनाम फूल' के लिए हमें प्रतिरोध, प्यार और सामूहिकता पर भरोसा बनाए रखना है। अपने इस कवि को दिल से सलाम करता हूँ! दोस्तो, धन्यवाद!
मनोज शर्मा की कविताओं को जानने समझने के लिए उन पर लिखा यह आलेख भी पढ़ा जाना चाहिए। लिंक ये रहा
https://pahleebar.blogspot.com/2021/10/blog-post_16.html
सम्पर्क:
कमल जीत चौधरी
ई मेल : jottra13@gmail.com
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| मनोज शर्मा |
कवि-परिचय:
मनोज शर्मा का जन्म 24 अगस्त, 1961 को गाँव कितना (गढ़शंकर, पंजाब) में हुआ। लेखन की शुरुआत पंजाबी से हुई, 1980 से हिन्दी में कविताएँ लिखने लगे। नौकरी, लेखन व संस्कृति-कर्म के लगभग तीन दशक जम्मू में बीते। इस बीच जम्मू में 'संस्कृति मंच' की स्थापना की, और युवा वर्ग को साथ जोड़ते हुए नुक्कड़, रंगमंच, पोस्टर-कविता, स्वतंत्र पत्रकारिता इत्यादि में सक्रिय रहे। राष्ट्रीय स्तर के कुछ साहित्यिक आयोजन भी करवाए। जम्मू के प्रथम हिन्दी दैनिक, 'कश्मीर टाईम्स' को शुरू करने में अग्रणी भूमिका निभाई व कई वर्षों तक उसमें साहित्य, संस्कृति, अनुवाद, रंगमंच पर आधारित सप्ताहिक-स्तम्भ 'फ़िलहाल' लिखा। कुछ साहित्यिक पत्रिकाओं के विशेषांक भी संपादित किए। मुंबई प्रवास के दौरान 'संस्कृति मंच' को विस्तार देते हुए वहाँ भी 'समज' चैप्टर प्रारम्भ किया। इनके कविता संग्रह निम्नलिखित हैं :
यथार्थ के घेरे में, यक़ीन मानो मैं आऊँगा, बीता लौटता है, ऐसे समय में, मीलपत्थर बुला रहा है, आवाज़ की खनक, यह दीयों में तेल डालने का समय है, शिल्प से बाहर और समकाल की आवाज़-चयनित कविताएँ।
इन्होंने इसी साल 'पानी पर पंख' शीर्षक से आधुनिक पंजाबी कविता से एक चयन अनूदित किया। पंजाबी से हिन्दी में यह एक महत्वपूर्ण कार्य है।
इनकी कविताओं के पंजाबी अनुवाद के दो संकलन (चयन व संपादन-अरतिंदर संधू और चयनित कविताएँ- राजेन्द्र ब्याला) और अंग्रेजी अनुवाद का एक संकलन (चयन व अनुवाद नलिन राय) प्रकाशित हुए हैं। इसके अलावा इनकी कुछ कविताएँ मराठी, बंगला, उर्दू, डोगरी और उड़िया में भी अनूदित व प्रकशित हुई हैं।
इन्होंने पंजाबी के क्रांतिकारी कवि पाश की बोलियों और कुछ गद्य का अनुवाद हिन्दी में किया है। इसके अलावा शहीद भगत सिंह पर केंद्रित पंजाबी कविताओं के हिन्दी-अनुवाद की किताब, 'हवा में रहेगी मेरे ख्याल की बिजली' व शहीद भगत सिंह के छोटे भाई द्वारा लिखित उनकी जीवनी का हिन्दी अनुवाद भी किया है। यह भी इनका एक हासिल कार्य है।
बैंक से सेवानिवृत्त हो कर वे होशियारपुर (पंजाब) में सपरिवार रह रहे थे। 29 अप्रैल 2025 को उनका देहांत हो गया। वे अंत तक लेखनरत रहे। हिन्दी साहित्य में उनकी भूमिका रेखांकित करने योग्य है।
मनोज शर्मा की कविताएँ
मैं इन्हें जानता हूँ
भट्ठी गरमाती
भठियारन गरमाती है रेत
सूखी मकई छोड़ती है गरम रेत में
तिड़कते हैं सफेदी में फूल
भर डालते हैं कड़ाही
कि उछल बाहर गिरते हैं बार-बार
बाहर आ गिरे इस भुने अन्न पर ही
छोटे छोटों का हक़ है अभी
चबाएँगे तथा पाएँगे वही
कि दहकी रेत से ही आते हैं बाहर
कुरकुरे फूल।
नए साल के बधाई संदेश
मंगलकामनाएँ
इस वर्ष
जिस किसी ने भी फेफड़ों में हवा का अहसास अनुभव किया
यह मंगलकामनाएँ, उनके लिए हैं
शुभ हो
नववर्ष की यह शुभ इच्छाएँ उनके लिए हैं
जिनकी प्रार्थनाएं जीवित हैं अभी
जो रूह के अंतिम सत्य सिद्ध किए जा चुकने के बावजूद
माहौल में
सांस लेना भूले नहीं हैं
हौसला हो
नया साल विश्वास दे उन्हें
दुआ में हाथ बाँधता हूँ
जिनके लिए वर्ष ताज्जुब भरा रहा
प्रभु
उन्हें सद्बुद्धि दे –
जो वर्ष भर ताज्जुब तलाशते रहे
नव वर्ष में
उन नन्हें शीशु पाँवों को बधाई
जिनको कि इस साल जूते नसीब हो सके
और जिनके पैर नंगे रह गए इस साल भी
उनको
आने वाले वर्षों के लिए शुभकामनाएँ
उन लोगों को कोटिश: बधाई
जो अपने सगे-सम्बन्धियों के जन्मदिन मना सके
जो शादियों में शरीक हो सके
जिनके नौनिहाल जुलूस-जुलूस खेलने से बचे रहे
जिनके भोजन के वक्त दूरदर्शन पर
किसी हादसे का कोई समाचार नहीं आया
और वर्ष के इन पलों में जो
जी रहे हैं ज़रा सा भी भय
वे लाज़िमी तौर पर उन्हें बधाई दे दें
जो बकौल ‘राजेश जोशी’ मारे नहीं गए
वर्ष भर
समय है मित्र कि किसी घटक के
आखिरी हिस्से में बैठ कर हम महज गुटुक सकते हैं :
‘देखें
निकल गया एक और साल
और पता भी नहीं चला
अभी कल ही तो बंद हुआ था कोकाकोला
कि वापस आ भी गया
भोपाल से कहीं अधिक मरे उत्तरकाशी में
पाप भी कित्ता बढ़ गया है साहिब
और लातूर की तरह गुजरात में फिर से
एक औरत ने मलबे में जना बच्चा
जाको राखे -, पर
आपका नाम क्या है भाई जी?
यह दौर ही है ऐसा
कि चौंकते भी नहीं हैं हम
जब कुछ उतरता है तेज़धार
धमनियों में सरकती बर्फ
तिड़कती है बस
इस अंतिम बेला में
जब मांजा जा रहा है इतिहास
स्थिर प्रकृति में चुपचाप चटखा है बहुत
जैसे घास में अभी अभी खिला है भूरा फूल
फूल खिला है कि पहले कभी नहीं खिला था
इस तरह
इस नववर्ष में
इस फूल के लिए उतनी ही शुभकामनाएँ
जितनी
अपने बेटे के लिए चाही हैं मैंने
कि बीज बनने तक
जीवित रहे
घास का फूल भी।
बस्ता
बस्तों में हैं पुस्तकें
कायदे
बस्तों में बंद अक्षर
तस्वीरें
बस्तों में निश्चल पड़ी हैं पेंसिलें
रबड़ें
बस्तों में वह सभी है जिससे
नया संसार रचा जा सकता है।
पतंग
म्यूज़ियम में एक पतंग थी
टंगी पतंग के ठीक नीचे
उड़ाने वाले राजा का सिंह जैसा नाम
इतनी खूबसूरती से लिखा था
कि मुलायम और रेशमी नज़र आता था
पतंग बनाने वाले के खानदान तक का ब्यौरा था वहाँ
जैसे कि
वह इलाके का एक ही मुसलमान परिवार था, जो
दशहरे पर रावण बनाता और दूरदराज़ तक अपनी रची पतंगें पहुँचाता
मैंने तथा मेरे बेटे ने
एक साथ देखी पतंग
फिर हम पहाड़ी के ऊपरी सिरे तक चले गए
वहाँ – जहाँ सर्रसर्र हवा थी, बहती – छूती हुई
पापा !
यही खड़े होकर ही तो उड़ाते रहे होंगे राजा पतंग
हो सकता है – मैंने कहा
तभी, तभी तो - -
बोला बेटा
पतंग लूटने वालों का नाम नहीं है लिखा वहाँ
क्या उतरते रहे होंगे इसी खाई में
अपने बांस, झाड़, धागों के सिरों पर लटकते पत्थर लेकर
और राजा तो
कट जाने पर एकदम बनवा लेते होंगे
नयी पतंग
पर उनसे पेंच कौन लड़ाता होगा पापा?
दंगाई
कौन होते हैं
ये दंगाई,
इनकी क्या दाढ़ी होती है, या बोदी या पगड़ी. ..
इनका पिता कौन होता है
क्या ये डालते हैं चिड़ियों को दाना
क्या ये जानते हैं
गाँधी या भगत सिंह
क्या इनकी जान
किसी तोते में होती है...
बाबा!
हमें स्कूलों में पढ़ाया क्यों नहीं जाता
कौन होते हैं दंगाई
और कैसे करें इनसे
मुकाबला?
पंजाब
आता है मेरा बेटा
खिलौना बंदूक ले कर
और मेरे सीने पर तान देता है
हँसता
चिल्लाता
खेलता
इतराता
खुद को आतंकी बताता
तुतलाता गुर्राता है
और मेरी मुस्कान पर
एक झटके से ट्रेगर दबाता है
हाँ!
उसके प्रश्न में भी
मुझे असीम संभावनाएँ नज़र आती है
पापा-
आप मर कर भी ज़िंदा कैसे रहते हो?
अनाम फूल के नाम
एक नया फूल खिलेगा
कि खिलेगा चौतरफा
अंबर खिलेगा, खिलेगा प्रकाश, हवा भी खिलेगी
खिलेंगी उमंगे, नींद खिलेगी, भूख भी तो खिलेगी
और धमनियों में खिल-खिल जाता रक्त गुनगुनाएगा...
घड़ी तो अपनी चाल में होगी
कि, टिकटिक की आवाज़ बदल जाएगी
उस रात छपती अखबारें
बस अनाम फूल का नाम छापेंगी
फौजियों की कदम ताल यूँ लगेगी
जैसे घर बाहें पसारे खड़ा हो
दरख़्त गीत गाएँगे
गूंगे , गुनगुनाएँगे
दौड़ में भाग लेंगे, लंगड़े
बूढ़े, साइकिल भगाएँगे
जब खिलेगा फूल, अनाम
सौंदर्य में पहली बार राग फूटेगा
यकायक, सन्नाटा उम्मीद से भर जाएगा
डायरी के खाली पन्नों पर
'खुशी' लिखी मिलेगी
हलवाई नयी मिठाइयां ईजाद करेंगे
औरतें श्रृंगार में रम-रम जाएँगी
पतंगे उड़ाते बच्चे, छतों से देर तक न उतरेंगे
गायें, पहले से अधिक दूध देंगी
रात बहुत पहले ही
भोर में बदल जाएगी
तो आएँ
उस अनाम से कहें :
"आपके इंतज़ार में हैं दिशाएँ ...
जैसे धरती, देवता
जैसे पिता इंतज़ार में हैं
जैसे स्याही में शेष बचीं
तमाम कविताएँ!"
चीख
माँ चीखती है
बाप चीखता है
भाई-बहन
साथी-दोस्त
पत्नी-बच्चे चीखते हैं
और मैं भी चीखता हूँ
सम्पूर्ण घर चीखता है
गली, मोहल्ला, शहर चीखता है
और चीखकर
बिस्तरों में दुबक जाते हैं।
एक आस्था और
जब तक खेतों की हरियाली
बाबा बंतु को
लाले की हट्टी में तौलती रहेगी
जब तक गोपाला मोची
बुढ़ापे की पाथी सा सुलगता रहेगा
जब तक बचना दिहाड़ीदार
देसी शराब के चपटे में गर्क होता आएगा
जब तक प्रत्येक तोतला सवाल
नंगा कूद मचाएगा
जब तक रमालो की
पैबंद और लाज में होड़ चलेगी
जब तक वृक्ष–वृक्ष में हरी पत्तियाँ फूट नहीं पड़तीं
जब तक बूंद–बूंद रिसता क़तरा
समुद्र हो जाने के अर्थ नहीं पहचानता
मैं आऊँगा
...
मैं आऊँगा कि जब तक
बुलंदी पर पहुँचाने वाले
ढलान का दर्शन पकड़ाते रहेंगे
यक़ीनन
मैं आऊँगा
मैं आऊँगा और पत्ती-पत्ती गुलाब हो उठेगी
शोर के तिलिस्म को चीर संगीत फूट पड़ेगा
उम्मीदों की घास पसर जाएगी
मैं आऊँगा और दरख़्त सूखना बंद कर देंगे
मैं आऊँगा और उस प्रत्येक के साथ हो जाऊँगा
जो वक़्त की मार पर
स्वयं को पलीता लगाए बैठा है
मुर्दा जलाने से जागने की साधना तक बढ़ता है
और अपने ही हाथों नथा जाता है
मैं आऊँगा और दिमागों में घुस जाऊँगा
मैं, दरअसल कुछ भी नहीं
केवल शपथ उठाने का हौसला हूँ
मैं दरअसल
सपनों को अर्थ देने की कोशिश हूँ
मैं दरअसल यह बताने का मानदंड हूँ कि
कितनी ऊँचाई के बाद ढलान शुरू हो जाती है
मैं दरअसल
हाड़ी के लिए बादलों की चाह जैसा हूँ
क्वार की महक में
माहिए की तान जैसा
फौजी बेटे की पहली छुट्टी में
बाप के आराम जैसा हूँ
मैं उस सभी जैसा हूँ
जहाँ काम और आराम साथ-साथ चलते हैं
मैं आऊँगा और
आटा पकने की गंध सा
प्रत्येक खौफ के विरुद्ध फैल जाऊँगा।
स्त्री विलाप कर रही है
एक स्त्री विलाप कर रही है
देखा जाए तो
साधारण सी कितनी आम पंक्ति है यह
जैसे कह दिया जाए
कोई सो रहा है
सुबह की सैर को निकल रहा है कोई
जैसे कोई खाना खा रहा है
और स्त्री विलाप कर रही है
पता नहीं क्यों लग रहा है मुझे
क्या ऐसा नहीं हो सकता...
लिखूं यदि यूँ कि
'स्त्री विलाप कर रही है'
तो ऐसा लिखते ही सूख जाए पेन की स्याही
जिस कैमरे ने खींची हो ऐसी तस्वीर
उसके लैंस में पड़ जाए तरेड़
या फिर झड़ जाए ब्रुश चित्रकार का
गायक के कंठ में फँस जाए सुर
कमाल देखें
कि ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है
दुनिया के प्रारम्भ से
विलाप कर रही है स्त्री
जैसे घूम रही है पृथ्वी
वह नहा रही है और रो रही है
हिचकियाँ ले रही है और सेंक रही है रोटियां
एक हाथ से बाँधा है नाड़ा उसने अभी
और दूसरे से, होठों तक फैले आँसुओं को पोंछा है
पूरे जोर से निचला होंठ दबाकर
ईश्वर की निर्धारित प्रार्थना तक पूरी की है
बाजारों के उठ जाने के बाद
ज्यों उजड़े नज़र आते हैं मैदान
ज्यों भरे थानों के बावजूद
उतरता नहीं गाय का दूध
इच्छाएं अलमस्ती में खुद को ही निगलती जाती हैं ज्यों
ज्योंं रात का आखिरी गजर बजते ही भयावह हो उठता है कब्रिस्तान
इस शाश्वत रुदन की
कुछ ऐसी ही सच्चाई है
दुनिया के तमाम शोर शराबे में
एक स्त्री का विलाप
किस उम्मीद से है...
स्त्री विलाप करे
और वृक्ष फलदार न रहें
सूख जाएँ पक्षियों की चोंचें
हमेशा के लिए मल्लाह उलट दें अपनी किश्तियां
चीत्कार उठे तथा आखिरी ध्रुवों तक जाए
और इसके बाद फिर
परछाइयां ऐंठना भूल जाएँं
सोचें ज़रा
ऐसा घट सकता है क्या...
यह दीयों में तेल डालने का समय है
रोज़-रोज़ की उठापटक से
हलक सूख चुका था
और जैसे ही सरोवर के पास पहुँचा
यक्ष ने कहा-
तुम्हारे सामने दो ही रास्ते हैं
चुन लो...
मैं दुविधा में रहा
मुझसे कहा गया पुरस्कार चुन लो
या निज़ाम का विरोध
उम्मीद चुन लो
या मस्ती भरी, चुस्कियां लेतीं महफिलें
रात का खामोश पहर चुन लो
या जैकारों की गूंज
मैंने, लोग टटोले,
आसपास टटोला
एक दीया निरन्तर जलता मिला
वह बहुतेरों के विश्वास में टिमटिमाता,
निश्चल उपस्थित था
मैंने कहा
यह दौर दीए में तेल डालने का है ऐ यक्ष !
वह ठठाकर हँसा तथा बोला
तो कविता में तेल लेकर आओ मनोज शर्मा
और दीये बुझने न दो।
रहस्य
वह, जो मुस्करा रहा है,
उसने
कौन सा रहस्य बूझ लिया
जिस महिला ने
दे फेंका मर्द के मुँह पर सिंदूर
कौन सा जान गई है रहस्य
जो फैंट रहा था ताश
दरअसल, बेकार कहे जाने पर बेबस था
कि यकायक उसने
किसी रहस्य की मानिंद
तीन इक्के निकाल
सामने वाले को चित कर दिया।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)





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