विनोद कुमार शुक्ल की कविताएं
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| विनोद कुमार शुक्ल |
दुनिया में बहुत से लोग ऐसे हैं जो आज हताशा से भरे हुए हैं। हताशा के इन क्षणों में प्रायः कोई साथ नहीं देता। और इस गाढ़े वक्त में जब कोई साथ आता है तो बल मिलता है। विनोद कुमार शुक्ल हताशा को जानने और महसूसने वाले कवि थे। यह कवि उस जमीन का कवि था जहां दुःख, अवसाद, हताशा का ही आधिक्य रहा है। कवि को पता है कि इस गाढ़े वक्त में उसे हताश व्यक्ति के पास जाना है और उसकी तरफ हाथ बढ़ाना है। यह हाथ बढ़ाना मुश्किल समय में साथ होने की गहरी आश्वस्ति है। 1971 में प्रकाशित 'लगभग जय हिन्द' उनका पहला कविता-संग्रह था। इस पहले संग्रह से ही उन्होंने हिन्दी कविता की मुख्य धारा में अपनी वह जगह बना ली जो उनके मृत्युपर्यंत बनी रही। इसके बाद 'वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहिनकर विचार की तरह' (1981), 'सब कुछ होना बचा रहेगा' (1981), 'अतिरिक्त नहीं' (2000), 'कविता से लंबी कविता' (2001), 'आकाश धरती को खटखटाता है' (2006), 'कभी के बाद अभी' (2012), जैसे संग्रहों ने उन्हें समकालीन हिंदी कविता के मौलिक स्वरों में शामिल कर दिया। साधारण शब्दों से असाधारण अनुभूति की कविताएं लिखने वाले अनूठे कवि विनोद कुमार शुक्ल का कल 23 दिसम्बर 2025 को निधन हो गया। हिन्दी साहित्य जगत की यह अपूरणीय क्षति है। विनोद जी को पहली बार की तरफ से सादर नमन एवम विनम्र श्रद्धांजलि। आइए इस मौके पर हम पढ़ते हैं उनकी कुछ उम्दा कविताएं।
विनोद कुमार शुक्ल की कविताएं
हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था
हताशा को जानता था
इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया
मैंने हाथ बढ़ाया
मेरा हाथ पकड़ कर वह खड़ा हुआ
मुझे वह नहीं जानता था
मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था
हम दोनों साथ चले
दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे
साथ चलने को जानते थे।
कितना बहुत है
कितना बहुत है
परंतु अतिरिक्त एक भी नहीं
एक पेड़ में कितनी सारी पत्तियां
अतिरिक्त एक पत्ती नहीं
एक कोंपल नहीं अतिरिक्त
एक नक्षत्र अनगिनत होने के बाद।
अतिरिक्त नहीं है गंगा एक होने के बाद
न उसका एक कलश गंगाजल,
बाढ़ से भरी एक ब्रह्मपुत्र
न उसका एक अंजुरी जल
और इतना सारा आकाश
न उसकी एक छोटी अंतहीन झलक।
कितनी कमी है
तुम ही नहीं हो केवल बंधु
सब हो
परन्तु अतिरिक्त एक बंधु नहीं।
संसार छोड़ दूँगा
संसार छोड़ दूँगा के संदर्भ में
जीवन का उतना ही विस्तार रहेगा कि पड़ोस छोड़ दूँगा
मृत्यु से जो छूट जाएगा।
बच्चों से मैंने कहावत की तरह कहा
कि जब याद आए तो तारों के पड़ोस में
किसी भी एक तारे को ढूँढ़कर मुझे देख लेना
और पीढ़ी-दर-पीढ़ी उस तारे को बता देना
कि मैंने पृथ्वी का पड़ोस नहीं छोड़ा है
पड़ोस की इच्छा को मैं तारों के बीच सुरक्षित रख देता हूँ
और तारे को देखता हूँ
जैसे अपने रहने को।
जो मेरे घर कभी नहीं आएंगे
जो मेरे घर कभी नहीं आएंगे
मैं उनसे मिलने उनके पास चला जाऊंगा
एक उफनती नदी कभी नहीं आएगी मेरे घर
नदी जैसे लोगों से मिलने नदी किनारे जाऊंगा
कुछ तैरूंगा और डूब जाऊंगा
पहाड़, टीले, चट्टानें, तालाब
असंख्य पेड़, खेत
कभी नहीं आएंगे मेरे घर
खेत-खलिहान जैसे लोगों से मिलने
गांव- गांव, जंगल-गलियां जाऊंगा
जो लगातार काम में लगे हैं
मैं फुर्सत से नहीं
उनसे एक जरूरी काम की तरह मिलता रहूंगा
ऐसे में अकेली आखिरी इच्छा की तरह
सबसे पहली इच्छा रखना चाहूंगा।
गुज़ारिश
गुजराती मुझे नहीं आती
परन्तु जानता हूँ
कि गुजराती मुझे आती है।
वह हत्या कर के भाग रहा है-
यह एक गुजराती वाक्य है।
दया करो, मुझे मत मारो
मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं,
अभी लड़की का ब्याह करना है,
और ब्याह के लिए बची लड़की
बलात्कार से मर गई-
ये गुजराती के वाक्य हैं।
'गुज़ारिश' यह एक गुजराती शब्द है
सबसे गरीब आदमी की
सबसे गरीब आदमी की
सबसे कठिन बीमारी के लिए
सबसे बड़ा विशेषज्ञ डॉक्टर आए
जिसकी सबसे ज्यादा फीस हो
सबसे बड़ा विशेषज्ञ डॉक्टर
इस गरीब की झोपड़ी में आ कर
झाड़ू लगा दे
जिससे कुछ गंदगी दूर हो।
सामने की बदबूदार नाली को साफ कर दे
जिससे बदबू कुछ कम हो।
उस गरीब बीमार के घड़े में
शुद्ध जल म्युनिसिपल के नल से
भर कर लाए।
बीमार के चीथड़ों को
पास के हरे गंदे पानी के डबरे से न धोएं
कहीं और धोए
बीमार को सरकारी अस्पताल जाने की सराह न दे
कृतज्ञ हो कर
सबसे बड़ा डॉक्टर सबसे गरीब आदमी का इलाज करे
और फीस मांगने से डरे।
सबसे गरीब आदमी के लिए
सबसे सस्ता डॉक्टर भी
बहुत महंगा है।
घर-बार छोड़ कर संन्यास नहीं लूंगा
घर-बार छोड़ कर संन्यास नहीं लूंगा
अपने संन्यास में
मैं और भी घरेलू रहूंगा
घर में घरेलू
और पड़ोस में भी।
एक अनजान बस्ती में
एक बच्चे ने मुझे देख कर बाबा कहा
वह अपनी माँ की गोद में था
उसकी माँ की आँखों में
ख़ुशी की चमक थी
कि उसने मुझे बाबा कहा
एक नामालूम सगा।
जाते-जाते ही मिलेंगे लोग उधर के
जाते जाते ही मिलेंगे लोग उधर के
जाते जाते जाया जा सकेगा उस पार
जाकर ही वहॉं पहुंचा जा सकेगा
जो बहुत दूर संभव है
पहुंच कर संभव होगा
जाते जाते छूटता रहेगा पीछे
जाते जाते बचा रहेगा आगे
जाते जाते कुछ भी नहीं बचेगा जब
तब सब कुछ पीछे बचा रहेगा
और कुछ भी नहीं में
सब कुछ होना बचा रहेगा।
जितने सभ्य होते हैं
जितने सभ्य होते हैं
उतने अस्वाभाविक।
आदिवासी जो स्वाभाविक हैं
उन्हें हमारी तरह सभ्य होना है
हमारी तरह अस्वाभाविक।
जंगल का चंद्रमा
असभ्य चंद्रमा है
इस बार पूर्णिमा के उजाले में
आदिवासी खुले में इकट्ठे होने से
डरे हुए हैं
और पेड़ों के अंधेरे में दुबके
विलाप कर रहे हैं
क्योंकि एक हत्यारा शहर
बिजली की रोशनी से
जगमगाता हुआ
सभ्यता के मंच पर बसा हुआ है ।
दूर से अपना घर देखना चाहिए
दूर से अपना घर देखना चाहिए
मजबूरी में न लौट सकने वाली दूरी से अपना घर
कभी लौट सकेंगे की पूरी आशा में
सात समुन्दर पार चले जाना चाहिए।
जाते जाते पलटकर देखना चाहिये
दूसरे देश से अपना देश
अन्तरिक्ष से अपनी पृथ्वी
तब घर में बच्चे क्या करते होंगे की याद
पृथ्वी में बच्चे क्या करते होंगे की होगी
घर में अन्न जल होगा की नहीं की चिंता
पृथ्वी में अन्न जल की चिंता होगी
पृथ्वी में कोई भूखा
घर में भूखा जैसा होगा
और पृथ्वी की तरफ लौटना
घर की तरफ लौटने जैसा।
घर का हिसाब किताब इतना गड़बड़ है
कि थोड़ी दूर पैदल जा कर घर की तरफ लौटता हूँ
जैसे पृथ्वी की तरफ।
बहुत कुछ कर सकते हैं ज़िंदगी में का काम बहुत था
बहुत कुछ कर सकते हैं ज़िंदगी में का काम बहुत था।
कुछ भी नहीं कर सके की फ़ुरसत पाकर
मैं कमज़ोर और उदास हुआ।
ऐसी फ़ुरसत के अकेलेपन में
दुःख हुआ बहुत,
पत्नी ने कातर होकर
पकड़ा मेरा हाथ
जैसे मैं अकेला छूट रहा हूँ
उसे अकेला छोड़।
बच्चे मुझसे आकर लिपटे
अपनी पूरी ताक़त से
मैंने अपनी ताक़त से उनको लिपटाया
और ज़ोर से
पत्नी-बच्चों ने मुझे नहीं अकेला छोड़ा
फिर भी सड़क पर गुज़रते जाते
मैं
हर किसी आदमी से अकेला छूट रहा हूँ
सबसे छूट रहा हूँ
एक चिड़िया भी
सामने से
उड़कर जाती है
अकेला छूट जाता हूँ।
चूँकि मैं आत्महत्या नहीं कर रहा हूँ
मैं
दुनिया को नहीं छोड़ रहा हूँ।




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