दीपेन्द्र सिवाच





जन्म- जनवरी १९६४ मेरठ (उत्तर प्रदेश )

शिक्षा -एम.ए (प्राचीन इतिहास,इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

सम्प्रति -आकाशवाणी में ट्रेक्स 

आज की दुनिया का विरोधाभास यह है कि एक तरफ जहां हम लोग एक 'ग्लोबल विलेज' की परिकल्पना को साकार होते देख रहे हैं वहीँ दूसरी तरफ हम अपने ही पड़ोसी तक को नहीं जानते। शुक्र है कि हमारा आभासी नहीं बल्कि वास्तविक गाँव आज भी उन रिश्तों की गरमाहट को बचाए हुए है जिसमें सब एक दूसरे से सहज भाव से जुड़े हुए हैं। जातिगत दुराग्रहों के बावजूद आज के गाँव की यह खूबी उसे बिलकुल अलग और अनूठा बनाती है। दीपेन्द्र सिवाच ऐसे ही कवि हैं जिन्होंने इन रिश्तों को  अपनी कविताओं में उतारने की कोशिश की है। तो आईए ऐसे ही रंग वाले कवि दीपेन्द्र की कुछ नयी कवितायें पढ़ते हैं। 

रिश्ता 


जब भी गाँव जाता हूँ मैं

मिलना चाहता हूँ सबसे पहले
कृशकाय वृद्ध महिला से 
जो रोज़ सुबह आती है दरवाज़े पे
ओढ़नी से काढ़े लंबा सा घूंघट
और लिए एक टोकरा सर पर और कभी कमर पर टिकाये  
खटखटाती है सांकल

ले जाती है दैनंदिन का कूड़ा
इसे गाँव कहता है चूढी (जमादारिन)
पर माँ मेरी कहती है 'बीवजी '
मैं बुलाता हूँ अम्मा

देखते ही मुझे जब  पूछती है वो
"कैसा है बेट्टा"
तो मन में बजने लगते हैं वीणा के तार
कानों में घुल जाता है शहद
दुनिया भर की माओं का प्यार उमड़ आता  है इस एक वाक्य में    
तब मेरी बेटी पूछती है मुझसे
किस रिश्ते से ये तुम्हारी अम्मा लगती हैं
तो मैं समझाता हूँ उसे
कि बहुत से रिश्ते गाँव की रवायतें बनाती हैं
जो अब मर रहीं हैं
और ये ऐसे रिश्ते हैं शब्दों  में बयां नहीं हो सकते
उन्हें सिर्फ और सिर्फ महसूसा जा सकता है।
 

स्त्री 

वो हमेशा से दो सीमांतों पर ही रहती आयी  है  
इसीलिए हाशिये पर बनी हुई है 

वो या तो  "यत्र नार्यस्ते पुज्यन्तू....."वाली  देवी  है 
जौहर और सती होकर "देवत्व" को प्राप्त करती हैं  
या फिर दीन हीन होकर रहती है 
ढोल और पशु के समान 
ताड़ना की अधिकारी बनती है 
आखिर कब वो संतुलन के केंद्र में आएँगी 
केवल मनुष्य कहलाएंगी 
अपनी  समस्त
सम्वेदनाओं
भावनाओं
इच्छाओं
राग विरागों
कमियों और खूबियों से लैस 
हाड मांस का साक्षात्
साधारण मानव बन पाएगी। 

ख़तरा आ चुका है 

ट्रेन के इंतज़ार में खड़ा स्टेशन पर 
कि अचानक एक छोटा सा लड़का सामने आया
मांगने के लिए हाथ बढ़ाया 
गरीबी को समझाया 
भूख की दुहाई दी 
माँ की बीमारी का वास्ता दिया 
और खूब ही गिडगिडाया 
पर मेरे आदर्शवाद ने उसकी सारी  दलीलों को ठुकराया 
मैं बोला पढ़ो लिखो और काम करो 
उसने पूछा आपके साथ चलूँ 
मैं सकपकाया और जल्दी से एक नोट उसके हाथ थमाया
उसने मुझे कुछ ऐसे देखा कि अपने स्टैंड पर दृढ रहो 
और सफलता के लिए लगातार प्रयत्न करो
सफलता मिलती है 
फिर वो  गया और जल्दी ही पास की स्टाल पर प्रकट हुआ 
पेप्सी  और चिप्स का  पैकेट हाथ में लिए 
उसने कुछ घमंड और उपेक्षा भरी नज़रों से देखा 
मानो कह रहा हो उपभोग करना सिर्फ तुम्हारा अधिकार नहीं 
उपभोग को मैंने भी अच्छी तरह से सीख  लिया है 
मैं सिहर उठा 

पानी सर से ऊपर जा चुका है 
शत्रु निकट से निकटतर आ चुका है 
बाज़ार का जादू उसके ही सर चढ़ कर बोल रहा है 
और दिल के रस्ते दिमाग को जकड चुका है 
जिसके लिए कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो रची गयी 
और बन्दूक की नली से क्रांति की गयी। 

सूअर है  

आदत जाती नहीं गंदगी फ़ैलाने की 
और जब गंदगी फ़ैल जाती है चारों ओर 
और सारा वातावरण भर जाता है सडांध  से 
तो गिरगिट की तरह रंग बदलकर 
बन जाता है कुत्ता 
और अपनी पूँछ से साफ करने कोशिश करता है उस गंदगी को 
जो उसने फैलाई थी 
हिलाता है दुम 
दिखाता है स्वामीभक्ति 
मानो वो ही है उनका रक्षक 
ताकि सौंप दी जाये उसे सत्ता 
साँप की तरह कुंडली मार कर करेगा उसकी रक्षा।

सम्पर्क- 

मोबाईल - 09935616945
 



टिप्पणियाँ

  1. Vivek Kumar

    vani ki seemit abhivyaktiyan kahin na kahin bechaini hai...un darakte samajik evm manviye hwas ke prati. upbhoktawad ke tapte maruthal me umadte bhawnaon ke megh....in srijansheel rachnaon ki asankhya boonden hi to hain. hridaysparshi kavitayen sir..! aur agli kriti ki utsukta se preteeksha bhi.

    जवाब देंहटाएं
  2. मर्मस्पर्शी रचनाओं के लिय दीपेन्द्र जी को शुभकामनायें

    जवाब देंहटाएं
  3. मर्मस्पर्शी रचनाओं के लिय दीपेन्द्र जी को शुभकामनायें

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  4. बहुत सुंदर भावपूर्ण रचनाएं पढवाने का आभार।

    जवाब देंहटाएं
  5. Ram Pyare Rai

    yeh such hai ki nari ka jitana mahima mandan hamare desh me hua hai usse bahut jyada nainsafi hui hai uske sath.nari ko ek insanke roop me kendra me lana mahatwapurna hai.

    जवाब देंहटाएं
  6. हौंसला अफ़जाई के लिए आप सभी का शुक्रिया

    जवाब देंहटाएं
  7. आखों देखी स्त्रीकी व्यथा ओर अम्मा के रिश्ते को आपने कितने सुन्दर शब्दो मे पिरोया है आपको ब हुत शुभकामनाए

    जवाब देंहटाएं
  8. आभार दीपेन्द्र भाई की कविताएँ पढवाने का.गाँव की रिवायतें मरने का और बाज़ार के बिलकुल सर पर सवार होने का खतरा जहां इन कविताओं में हैं वहीं दो सीमान्तो पर रहने को अभिशप्त स्त्री जैसे दुनिया के क्लिफ पर टंगी कभी भी खड्ड में गिर जाने के निरंतर भय में जीने को अभिशप्त है.अंतिम कविता में कवि सीधा हमला बोलता है. शुकिया.इन कविताओं का.कवि का.

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