जवरीमल्ल पारख






जन संस्कृति मंच के द ग्रुपद्वारा ऑस्कर अवार्ड पर अभी हाल ही में रामजी तिवारी की पुस्तक यह कठपुतली कौन नचावेप्रकाशित की गयी। यह किताब फिल्म समीक्षकों एवं जानकारों द्वारा बहुत सराही गयी। इसी किताब पर प्रस्तुत है जवरीमल पारख की यह समीक्षा।
   
यह कठपुतली कौन नचावेः ऑस्कर अवार्ड की राजनीति

जन संस्कृति मंच के द ग्रुपद्वारा ऑस्कर अवार्ड पर प्रकाशित यह कठपुतली कौन नचावेकई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। ऑस्कर अवार्ड प्रत्येक वर्ष अमरीकी संस्था एकेडमी ऑफ मोशन पिक्चर्स आर्ट्स एंड साइसेंजद्वारा दिया जाता है। 1927-28 से ये पुरस्कार दिये जा रहे हैं और अब तक 85 बार यह पुरस्कार दिये जा चुके हैं। 24 श्रेणियों में दिये जाने वाला यह पुरस्कार अमरीकी और अंग्रेजी फिल्मों को दिया जाता है। इनमें एक श्रेणी सर्वश्रेष्ठ विदेशी फिल्म का पुरस्कार भी है जो किसी दूसरे देश या अंग्रेजी से इतर भाषा की फिल्म को दिया जाता है। इसी श्रेणी में भारत की तीन फिल्मों को नामांकन का अवसर मिला है लेकिन अब तक किसी भी फिल्म को ऑस्कर अवार्ड नहीं प्राप्त हो सका है। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि ऑस्कर अवार्ड की विश्व भर में सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा है। भारत भी लंबे समय से हर साल एक फिल्म को विदेशी श्रेणी के लिए भेजता है। लेकिन मदर इंडिया, सलाम बोम्बे और लगान को छोड़कर किसी भी फिल्म को नामांकन का भी अवसर प्राप्त नहीं हुआ है। भारत सहित कई अन्य देश भी फिल्मों में पुरस्कार प्रदान करते हैं और उनमें विदेशी फिल्में भी आमंत्रित होती हैं। लेकिन उनको वह प्रतिष्ठा और लोकप्रियता हासिल नहीं हैं जो ऑस्कर अवार्ड को प्राप्त है। इसकी वजह क्या है? प्रति वर्ष सर्वश्रेष्ठ फिल्म का ऑस्कर पुरस्कार जीतने वाली फिल्म क्या वास्तव में सर्वश्रेष्ठ कही जा सकती है? ऑस्कर अवार्ड की दौड़ में भारतीय फिल्मों की इतनी कमजोर उपस्थिति क्या फिल्मों के क्षेत्र में भारत के कमजोर योगदान को दर्शाता है? ऐसे कई सवाल ऑस्कर अवार्ड के संदर्भ में उठते हैं जिन पर इस पुस्तिका में विचार किया गया है।

सूचनाओं से भरपूर यह पुस्तक 12 अध्यायों में विभाजित है। इनके अलावा अंत में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का ऑस्कर पुरस्कार जीतने वाली फिल्मों की सूची, ऑस्कर में भेजी गयी भारतीय फिल्मों की सूची, विदेशी भाषा की श्रेणी में ऑस्कर पुरस्कार जीतने वाली फिल्मों की सूची और विश्व के 60 श्रेष्ठ फिल्मकारों का संक्षिप्त परिचय परिशिष्ट में दिया गया है। इन साठ फिल्मकारों में 18 भारतीय फिल्मकार हैं और शेष अन्य देशों के। यह सूची ऑस्कर को ध्यान में रख कर नहीं बनायी गयी हैं बल्कि यह सूची लेखक की अपनी पसंद को अभिव्यक्त करती है। इनमें हॉलीवुड से जुड़े फिल्मकारों की संख्या सिर्फ सात है। ऑस्कर द्वारा विदेशी श्रेणी में जो पुरस्कार प्रदान किये जाते हैं उनकी शुरुआत 1947 में हुई थी और अब तक 65 बार यह पुरस्कार दिये जा चुके हैं। इनमें भी सिर्फ दस बार यह पुरस्कार यूरोपीय देशों से बाहर के देशों को मिले हैं। स्पष्ट है कि ऑस्कर पुरस्कारों पर अमरीका और यूरोप का ही वर्चस्व रहा है। 

ऑस्कर के वर्चस्व का सीधा संबंध विश्व राजनीति पर अमरीकी वर्चस्व से है। अमरीकी वर्चस्व का संबंध पूंजीवादी राजनीतिक व्यवस्था से है। लेखक का मानना है कि आज वैश्विक स्तर पर जीवन का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र बचा हो, जिसमें अमरीकी हस्तक्षेप और जुड़ाव दिखायी न देता हो इस पुस्तक के लेखक रामजी तिवारी ने सिनेमा के जिन तीन मॉडलों की चर्चा की है उसमें वे तीसरे मॉडल के रूप में हॉलीवुड की चर्चा करते हैं। हॉलीवुड मॉडल उनके अनुसार, ‘अधिक से अधिक पूंजी कमाने के हित में वाणिज्यिक और कॉरपोरेट संस्थानों द्वारा सिनेमा का उपयोगका है। लेखक का मानना है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सिनेमा से आदर्शों और विचारो को तिलांजलि दे दी गयी और सिनेमा का क्षेत्र सिर्फ़ और सिर्फ़ धन कमाने के एक लाभप्रद क्षेत्र के रूप में तब्दील होता चला गया। लेकिन अमरीकी सिनेमा को सिर्फ इस लाभप्रद क्षेत्र के रूप में देखने से इसके राजनीतिक अंतर्वस्तु की उपेक्षा हो सकती है। सच्चाई यह है कि दुनिया के किसी भी देश के सिनेमा की तुलना में हॉलीवुड का सिनेमा सर्वाधिक राजनीतिक सिनेमा है। लेखक का यह कहना बिल्कुल सही है कि अमरीका अपने को दुनिया का संरक्षक मानता है। दुनिया के पचास देशों में उसके सैन्य अड्डे हैं। अमरीका द्वारा उठाया गया किसी भी तरह का कदम उसकी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं के अनुरूप होता है। इसलिए यह बहुत स्वाभाविक है कि हॉलीवुड सिनेमा का संबंध भी उसकी इन आकांक्षाओं से हो और लेखक का यह विचार बिल्कुल सही है कि वहां की फिल्मों के बारें में भी विचार हमें अमरीका की इसी विश्वदृष्टि को ध्यान में रख कर ही करना चाहिए। लेकिन लेखक का मानना है कि अमरीकी फिल्मकार विश्व में होने वाली उथल-पुथल को आमतौर पर ईमानदारी से नहीं दिखाते। मसलन, द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में बनने वाली फिल्में प्रायः फासीवादी दमन चक्र पर मौन है। कुछ ही फिल्मों में इस पहलू को उठाया गया है। स्टीवन स्पिलबर्ग की फिल्म शिंडलर्स लिस्ट को वह अपवाद की तरह मानते हैं। विश्वयुद्ध में सोवियत संघ की  भूमिका पर अमरीकी फिल्में प्रायः मौन रहती हैं। इसी तरह वियतनाम युद्ध पर बनी अधिकतर फिल्में अमरीकी नज़रिए को पेश करती हैं। वियतनाम युद्ध के दौरान अमरीकी सैनिकों द्वारा किये गये अमानुषिक कृत्यों पर अमरीकी फिल्में न सिर्फ़ पर्दा डालती हैं, दूसरे पक्ष के बारे में भी असत्य का प्रचार करती है। लेकिन ऐसी ही फिल्मों ‘डियर हंटर’ और ‘प्लाटून’ को ऑस्कर अवार्ड से नवाजा गया। फिल्मों की लंबी सूची दे कर इस किताब में बताया गया है कि जिन विषयों पर अमरीका से बाहर कई महान फिल्में बनी हैं उन पर आमतौर पर हॉलीवुड का सिनेमा या तो प्रायः चुप रहता है या थ्रिलर विधा में हिंसा प्रधान फिल्में बनाता है। अमरीकी राजनीति के संदर्भ में 9/11 का विशेष महत्त्व है। इस विषय पर हॉलीवुड प्रायः चुप ही रहा है। हां कुछ महत्त्वपूर्ण वृत्तचित्र बने हैं जिनमें माइकेल मूर द्वारा बनाया गया वृत्तचित्र फारेनहाइट 9/11 का खास स्थान है जिसे ऑस्कर अवार्ड भी दिया गया था। लेखक ने कई अन्य वृत्तचित्रों का हवाला भी दिया है। 

पुस्तक के एक अध्याय में उन भारतीय फिल्मों पर भी विचार किया गया है जिन्हें ऑस्कर में विदेशी भाषा श्रेणी के अंतर्गत भेजा गया था। 2011 तक भारत से 46 फिल्में भेजी जा चुकी हैं जिनमें 31 बार हिंदी फिल्मों को भेजा गया है और जिन तीन फिल्मों को नामांकन का अवसर मिला है वे सभी हिंदी फिल्में हैं। लेकिन मुख्य प्रश्न यह है कि क्या हॉलीवुड या अमरीकी सिनेमा विश्व के श्रेष्ठ सिनेमा का प्रतिनिधित्व करता है? लेखक ने एक अध्याय में ठोस उदाहरण देकर बताया है कि सच्चाई इसके बिल्कुल विपरीत है। विश्व का श्रेष्ठ सिनेमा दूसरे देशों में बनता रहा है और उनमें भारत भी शामिल है। यहां तक कि लेखक ने अफ्रीकी देशों के उदाहरण देकर बताया है कि वहां भी कई उल्लेखनीय फिल्में बनी हैं जिनके द्वारा अफ्रीकी यथार्थ को ज्यादा बेहतर ढंग से देखा और समझा जा सकता है। हम सभी जानते हैं कि अमरीका के लिए अफ्रीका का क्या अर्थ है और वह उसे किस नज़रिए से पेश करता रहा है। लातीन अमरीकी देशों में भी कई महत्त्वपूर्ण फिल्में बनी हैं और यूरोप और एशिया में सिनेमा  को लेकर जितने प्रयोग हुए हैं और जितनी तरह की विविधता दिखायी देती है वह अमरीकी सिनेमा में शायद ही देखने को मिले। यूरोप के फ्रांस और इटली जैसे देशों में विश्व स्तर के कई महान फिल्मकार हुए हैं और उन्होंने विश्व सिनेमा को हॉलीवुड से कहीं ज्यादा प्रभावित किया है।
 
भारतीय सिनेमा को सौ साल पूरे हो चुके हैं। यहां हर साल लगभग पचीस भाषाओं में 1200 फ़ीचर फिल्में बनती हैं। भले ही भारतीय फिल्मों ने आज तक कोई ऑस्कर न जीता हो, लेकिन उत्कृष्टता की दृष्टि से भारतीय फिल्में विश्व सिनेमा से कमतर नहीं हैं। महान फिल्मकारों और फिल्मों की लेखक ने विस्तृत सूची अपनी इस पुस्तिका में प्रस्तुत की है। पुस्तक को पढ़ कर भारतीय सिनेमा की विविधता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। पुस्तक इस तरह ऑस्कर पुरस्कारों की रोशनी में विश्व सिनेमा की एक झलक प्रस्तुत करने में कामयाब रहा है। लेखक का निश्चित मत है कि सिर्फ ऑस्कर पुरस्कारों से विश्व सिनेमा की सही तस्वीर नहीं जानी जा सकती। पुस्तक सूचनाओं से भरपूर है और अपनी बात लेखक ने ठोस तथ्यों द्वारा प्रस्तुत की है। लेकिन पुस्तक की सीमा यह है कि यहां तथ्य सिर्फ सूचनाओं और जानकारियों के रूप में ही आ पाते हैं। विश्लेषण और तुलना के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी। पुस्तक की पृष्ठ सीमा के कारण लेखक को कई पहलुओं पर विस्तार से बात करने से बचना पड़ा है। मसलन, हॉलीवुड के कामकाज पर अधिक विस्तार से बात की जा सकती थी। हॉलीवुड में फिल्म निर्माण की प्रक्रिया और विश्व भर में वितरण का उनका तौर तरीका भी इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण है। इसी तरह ऑस्कर पुरस्कार देने की प्रक्रिया पर भी विस्तार से विचार किया जाना चाहिए था। विश्व के दूसरे पुरस्कार जिनकी प्रतिष्ठा ऑस्कर से कम नहीं है उन पर भी विचार होना चाहिए था। दरअसल, लघु पुस्तिका के रूप में ही कल्पित होने के कारण ऐसे कई पक्ष छूट गये हैं। यह सीमा पुस्तक की प्रस्तुति में भी नज़र आती है। फोंट साइज छोटा होने के कारण और कम पृष्ठों में ज्यादा से ज्यादा सामग्री समाने की कोशिश ने किताब के सौंदर्य को प्रभावित किया है। किताब की अंतर्वस्तु के साथ-साथ उसकी प्रस्तुति भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं होती।

ऑस्कर अवार्ड्सः यह कठपुतली कौन नचावे 
रामजी तिवारी; पहला संस्करणः 2013;  
दि ग्रुप, जन संस्कृति मंच, गाजियाबाद;  
पृ. 64; मूल्यः रुपये 40/-

जवरी मल पारख इग्नू के दिल्ली स्थित मुख्य परिसर में हिंदी के प्रोफ़ेसर हैं। फिल्म लेखन में गहरी रुचि रखते हैं। 

संपर्क-

Mobile- 09810606751
 

टिप्पणियाँ

  1. सूचना और जानकारियों से भरी किताब की सूचनात्मक समीक्षा है यह...इस लिये उद्धरणों का अधिक प्रयोग़ है विश्लेषण से अधिक.. एक अच्छी किताब को सामने लाती है..

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  2. keshav Tiwari

    Behatreen samiksha lekh k marm ko udgatit bakhoobi kiya gaya ha. Kitab meri padhi ha. Maine cenema aur is puraskar ki rajneet per aisi kitab nahi dekhi. Naya path ka cenema ank aa raha ha uski bhi pratiksha ha.

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  3. Shayak Alok

    ramji bhai kee yah kitaab behtareen hai .. itni rochakta se likhi gayi hai ki ek reading mein padh gaya main .. aur badi baat ki yah kitaab oscar aur cinema ke saath vishwa vaichaarikta par commentary karti aage badhti hai
    2 hours ago

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  4. Ashok Kumar Pandey

    अच्छी किताब की बेहतरीन समीक्षा

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  5. तिवारी जी को बधाई । सिनेमा केवल मनोरंजन ही नहीं है वरन जीवन-बोध और शिक्षण का महत्त्वपूर्ण कला-
    माध्यम है । उसकी अपनी कला है तो राजनीति और रणनीति भी है । इसे तभी समझा और जाना जा सकता है । जब हमारे पास जीवन को समझने और जानने की व्यापक और वस्तुगत दृष्टि हो । यह काम तिवारी जी ने अपनी सीमा में किया है ,यह पारख जी की समीक्षा को पढ़ कर लगता है ।

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