क्षमा शंकर पाण्डेय
क्षमा शंकर पाण्डेय का जन्म २८ मार्च १९५५ को उत्तर प्रदेश के मीरजापुर जिले के नियामतपुर कलाँ ग्राम में हुआ। सम्प्रति आजकल भदोही के ज्ञानपुर के काशी नरेश स्नातकोत्तर राजकीय महाविद्यालय में हिन्दी के एसोसिएट प्रोफ़ेसर एवं विभागाध्यक्ष हैं।
क्षमा शंकर पाण्डेय एक कवि हैं साथ ही आलोचक भी। इधर इन्होने कुछ ललित निबन्ध लिखे हैं। ऐसा ही इनका एक ललित निबन्ध प्रस्तुत है आपके लिए -‘‘केन मोर अवध उजारी।’’
केन मोर अवध उजारी
वर्षों बाद इस बार दस पंद्रह दिनों तक गाँव में रहने का अवसर मिला। बदलती हुई ग्राम संरचना एवं व्यवस्था के बीच, इस बार आँच कुछ ज्यादा लगी। विकास का मतलब शहरीकरण समझने वालों की कृपा से गाँव के बीच और आस-पास से घनी छाया वाले छतनार वृक्ष विदा हो गए हैं। गाँव से पुरानी हवेलियों का निशान क्रमशः मिटता जा रहा है और नवधनिकों ने शहरों की देखा-देखी धर नहीं बँगले बनवाने शुरू कर दिए हैं, जिनमें न आँगन होता है, न द्वार। हरियाली के लिए अब गाँवों में भी गमलों की संख्या में वृद्धि हो रही है। पालतू जानवरों में कुत्तों की नई प्रजाति पामेरियन कुछ घरों में दिखने लगी है, पर इस सारी समृद्धि और दिखावे के बावजूद गाँव की आबादी में पढ़े-लिखे योग्य, युवाओं की संख्या कम होती जा रही है। पढ़-लिख कर रोजी-रोटी की तलाश में पंख फड़फड़ाते हुए ये युवा विभिन्न शहरों की ओर उड़ जा रहे हैं। कुछ दिन बाद उनका परिवार भी बाहर चला जाता है, और घरों में रह जाते हैं अशक्त बूढ़े माँ-बाप जो उनके साथ जा नहीं पाते। नयी पीढ़ी के बच्चे अपनी जड़ से कटे हुए परजीवी की तरह पल-बढ़ रहे हैं। वे अपनी परंपरा, पूर्वज और जड़ों से कटे हुए वर्तमान और केवल वर्तमान को जान रहे हैं। वे इस बात से पूरी तरह बेखबर हैं कि हर वर्तमान का एक भूत और एक भविष्य होता है। वर्तमान को सँवारने की उत्कट इच्छा कुछ इस तरह प्रभावी हुई है कि नयी पीढ़ी प्रायः भूल चुकी है कि हर वर्तमान की आधारशिला उसका भूत ही होता है। अपनी महत्वाकांक्षाओं के मोह-पाश में बँधी नयी पीढ़ी का चरम पुरुषार्थ अर्थ है जिसे वह किसी भी कीमत पर पाना चाहती है। अपरिचय, अकेलापन और टूटे हुए सपनों की किरिचें गाँव में छोड़ कर, अपने मन से अयोध्या छोड़ कर जाने वाले ये राम जाने कहाँ-कहाँ अपनी आभासी अयोध्या बना रहे हैं, जिसमें शायद दशरथ और कौशल्या के लिए जगह नहीं है, और अयोध्या में अकेली छूटी हुई कौशल्या बिलखती हुई हर किसी से पूछ रही है कि, ‘केन मोर अवध उजारी’। उसके इस प्रश्न का जबाव देने और उसकी पीड़ा सुनने का अवकाश गाँव, पुर, टोला-पड़ोस सहित पूरी अयोध्या में किसी के पास नहीं है।
नये विकास के प्रमुख लक्षणों में ‘संयुक्त परिवारों’ के समाप्त होने को अध्येताओं ने एक प्रमुख लक्षण माना है। इस तथाकथित विकास की बहुत बड़ी कीमत चुकाई है समाज ने। समाज को जोड़े रखने वाले आत्मीयता के मजबूत धागे आज छिन्न भिन्न हो चुके हैं। नये ईकाई परिवार में पति-पत्नी और बच्चों के अलावा किसी और के लिए बमुश्किल जगह बचती है। इन परिवारों का घर नहीं घोसला होता है, जहाँ दिन भर की नौकरी से थके-हारे दो परिन्दों की तरह पति-पत्नी रात गुजारते हैं और बच्चे दी गई सुविधाओं में उलझे, ऊबते हुए चोंच खोले प्रतीक्षा करते हैं माँ-बाप की। इन्हीं बच्चों का भविष्य सुरक्षित करने के लिए संसाधन और सुविधाएँ जुटाने की जुगत में लगे माँ-बाप इन बच्चों का क्या और कैसा भविष्य गढ़ रहे हैं, या गढ़ने जा रहे हैं शायद वे इससे अनजान हैं। रिश्तों की विविधता, ताप और ऊर्जा से बेखबर ये बच्चे माम, डैड, ब्रदर, सिस्टर के अलावा अंकल और आंटी ही जानते हैं। वे बाबा, दादा, दादी, नानी, बुआ, ताई जैसे शब्दों से अपरिचित तो हैं ही उस स्नेह और आत्मीयता से भी दूर हैं। यह है उस आभासी अयोध्या का परिदृश्य जहाँ ‘अतिथि देवो भव’ नहीं ‘अतिथि कब जोओगे’ वरेण्य है। बम्बई में रहने वाले गाँव के एक परिवार के बच्चे से जब मैंने पूछा, ‘‘बेटा तुम्हारा गाँव कहाँ है?’’ तो उसने कहा ‘गोरे गाँव’। इस पर मैंने पूछा कि यह गाँव किसका है तो उसका उत्तर था ‘‘यह पापा का गाँव है जो बहुत गंदा है।’’यह परिदृश्य आम होता जा रहा है। गाँव छोड़ कर शहर जाने वालों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है। रोजी-रोटी के चक्कर में बाहर निकले लाडले अपना आशियाना बाहर ही बना रहे हैं। गाँव पीछे छूट रहा है, साथ ही छूट रहे हैं रिश्ते-नाते, आत्मीयता और वृद्ध माँ-बाप भी। ऐसा नहीं कि बाहर सब अच्छा ही अच्छा है, बल्कि हालत तो यह है कि गाँव का भरा-पूरा घर आँगन छोड़ कर जाने वालों को बाहर मिलते हैं डिब्बे नुमा दड़बे या बहुमंजिली इमारातें के फ्लैट जिसमें न नीचे धरती है न ऊपर आसमान। इतने के बाद भी ऊपर से खुश होने का दिखावा है और मन में टीसता है कि, ‘‘घर के मारल बन में अइलीं वन में लागल आग’। यह चमक-दमक और दिखावे का आकर्षण लगातार अपने पीछे भगा रहा है।
गाँव के अधिकांश सूने पड़ते जा रहे घरों को आबाद रखने की जिम्मेदारी अब कुत्तों, बिल्लियों तथा चूहों पर आन पड़ी है। ग्राम व्यवस्था की रीढ़ खेती के निरंतर हाशिए पर जाने का परिणाम यह हुआ है कि कृषि और उससे जुड़ी समृद्धि सपने की संपत्ति होती जा रही है। चरनी, खूँटा, नाद, भुसउल, पगहा, हल, पैना सब निरर्थक। खेती अब खुशी की वाहक नहीं बरबादी का वायस हो गई है। घर के पढ़निहार, हाथ में कलम पकड़ कर खेतों से मुँह मोड़ चुके। जन मजूर मिलते नहीं। न समय पर खाद, न पानी। तरह-तरह के प्रयोगों की प्रयोगशाला बने गाँव में अब खेती मजबूरी में हो रही है, इसलिए कि वह पुरखों की मरजाद है। वर्ना लागत भी न देने वाली खेती को कोई कब तक ढोयेगा। थोड़े बहुत जो भी काबिल थे वे शहरों की राह पकड़ चुके। गाँवों में बच गए कहीं रास्ता न पाने वाले, मुँह में गुटका दबाए दिग्भ्रमित युवा या फिर जीवन का स्वर्णकाल, सुखमय वृद्धावस्था की आस में गँवा चुके निरीह वृद्ध जिनके बारे में रहीम ने कहा था कि ‘‘दीन-मीन बिनु पंख के, कहु रहीम कँह जाहिं।’ थके पुरुषार्थ और टूटे सपनों वाली यह पीढ़ी बार-बार अपने प्रयासों की व्यर्थता पर खीझती है और रेडियो पर बजते गाने से सहमत होती है, ‘‘हम थे जिनके सहारे, वे हुए ना हमारे।’’ सपनों के पीछे भागते हुए जिस अयोध्या को इन लोगों ने अपना खून-पसीना देकर बसाया वह अयोध्या किसी कैकयी या मंथरा के कारण नहीं बल्कि राम के कारण ही वीरान होती जा रही है, और अपने प्रयासों की व्यर्थतता देख कौशल्या पूछ रही है, ‘‘केन मोर अवध उजारी।’’
सुखमय भविष्य की कामना में बेटों की चाह रखने वाला समाज, उन्हीं बेटों के हाथों छला जा रहा है। कहाँ तो सोचा था कि सुयोग्य बेटे की सुन्दर सी बहू आएगी। दहेज से घर भर जाएगा और पोते-पोतियों से आँगन। जवानी भले ही हाड़-तोड़ मेहनत करते गुजर रही है पर बुढ़ापा सुकून और चैन से गुजरेगा। पर सपना सपना ही रहा। जिस बेटे को पेट-काट कर पढ़ा-लिखा कर योग्य बनाया, वह बेटा योग्यता का फल पाने गाँव छोड़कर शहर चला गया। उसके पीछे धीरे-धीरे पोते-पोतियाँ और बहू भी गई। लायक बेटे ने गाँव में बच गए माँ-बाप के लिए भौतिक सुविधा सम्पन्न घर बनवा दिया, कि अब बुढ़ापे में आप लोगों को क्या चाहिए, चुपचाप राम-राम कीजिए, और बूढ़े माँ-बाप टीसते घुटनों पर हाथ रखकर उठते-बैठते राम-राम ही कर रहे हैं। एक को कम दिखता है, दूसरे को कम सुनाई पड़ता है। इन्द्रियाँ क्रमशः शिथिल होती जा रही हैं। इतने बड़े घर में अब झाड़ू लगाने का भी पौरुष नहीं बचा। मन में गूँज रही है लोकगीत की पंक्ति, ‘केकरा से आग माँगी, केकरा से पानी।’ यह विवशता बार-बार खुद से ही पूछ रही है कि यह क्या हो गया? आम के रोपे गये बिरवे इतने कँटीले कैसे हो गए? न कोई उत्तर सूझ रहा है और न ही रास्ता। उस कौशल्या को तो यह आश थी कि राम लौटेंगें, भले ही यह प्रतीक्षा चौदह वर्ष लंबी हो। प्रतीक्षा की इन घडि़यों के बीतने पर राम आएँगे और दिन बहुरेंगे अयोध्या के, उजड़ी अयोध्या फिर बसेगी। पर यह कौशल्या तो जान रही है कि राम अब आने वाले नहीं और क्रमशः उजड़ते जाना ही, इस अयोध्या की नियति है, फिर भी वह बार-बार पूछ रही है कि किसने मेरी अयोध्या उजाड़ दी।
यह अयोध्या गैरों ने नहीं खुद अपनों ने उजाड़ी है। इस घर को आग लग गई घर के चिराग से। लंका की समृद्धि और चमक-दमक से चैंधियायी आँखें अयोध्या से संतुष्ट नहीं हैं। इस आकर्षण में वे यह भूल जा रही हैं कि हर समृद्धि अपने साथ अपने मूल्य भी लाती है। अयोध्या के मूल्यों पर लंका की समृद्धि संभव नहीं। दरअसल अयोध्या उजड़ने के सबसे बड़े कारक वे मूल्य हैं, जिन्होंने अयोध्या की संरचना को छिन्न-भिन्न कर दिया है। अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए कुछ भी दाँव पर लगा देने वाली पीढ़ी ही अयोध्या के उजड़ने की जिम्मेवार है। चारों पुरुषार्थों में से केवल अर्थ को ही वरीयता देने वाले इसके अनर्थकारी परिणामों से अनजान नहीं हैं। हाँ यह अवश्य है कि वे इसकी ओर से आँख मूँदे हुए हैं। फायदे के पीछे कायदे की परवाह न करनेवालों को अब अयोध्या की परवाह नहीं है। बूढ़ी आँखों और पके बालों का अनुभव अब उनके काम की चीज नहीं है। दुनियाँ देखने का दावा करने वाले इन बुजुर्गों की सीख, सलाह और आशीष इस पीढ़ी के लिए अर्थहीन है। ‘यूज एण्ड थ्रो’ के दर्शन में विश्वास करने वाले अपने घरौंदों में वृद्धों की छाया भी नहीं चाहते। सब मशीनी ढंग से करने के अभ्यासी प्यार, व्यवहार और आचार को भी यांत्रिक बना चुके हैं। निःस्वार्थ प्रेम को बकवास मानने वालों की दृष्टि का विस्तार इतना संकुचित हो गया है कि उसमें अब वृद्ध माता-पिता के लिए भी जगह नहीं बची। माँ है कि बेटे के लिए हुड़क रही है और सपने में भी उसका अमंगल नहीं चाहती और बेटे हैं कि वृद्ध माँ-बाप की जगह वृद्धाश्रमों में आरक्षित करा रहे हैं। यही एक प्रश्न मन में कुलबुलाता है कि आखिरकार अयोध्या की चिंता किसे है? अब वे राम तो रहे नहीं जो सार्वजनिक रूप से घोषणा करते कि ‘मम धामदा पुरी सुखराशी’ जिन लोगों का रिश्ता धूल-मिट्टी, हवा-पानी, शीत-ताप से न रह गया हो, वे अयोध्या के लिए क्यों चिंतित होंगे? जिनके लिए अयोध्या अब पिछड़े और जड़ लोगों की जगह रह गई हो उन्हें अयोध्या से क्या सरोकार? दरअसल अयोध्या के उजाड़ने वाले कारक अनेक हैं, जिनमें तमाम चीजों के साथ व्यवस्था भी सम्मिलित है।
गाँवों की सम्पदा, समृद्धि और श्रम पर पल्लवित पुष्पित होने वाले शहर ही अनायास हमारे समय का सच बन चुके हैं। ग्रामीण विकास के नाम पर अंधाधुंध शहरीकरण को बढ़ावा देने वाले व्यवस्था के अलंबरदार शायद विकास का अर्थ शहरीकरण ही जानते हैं। उनके दिमाग में आदर्श शहर का तो नक्शा है जिसकी संस्कृति और आबोहवा में वे पल बढ़ रहे हैं, पर आदर्श ग्राम का कोई माडल उनके पास नहीं है। ग्रामीण संस्कृति पिछड़ेपन का पर्याय बन गई है। स्नेह, संबंध, मेल-जोल से भरी डगर पर चलना अब नाक कटने के समान है। इसकी जगह आ रही है एक ऐसी संस्कृति जो हर चीज खरीदने में विश्वास रखती है। शोषण की भित्ति पर टिकी इस उपभोक्ता प्रधान संस्कृति के बीज शब्द विनिमय, विपणन एवं प्रबंधन हैं। यह येन केन प्रकारेण सब मैनेज करने में विश्वास रखती है। तुरंत, सबसे आगे और समय से पहले उपलब्धकरने की अंधी दौड़ आज आम हो चुकी है। ‘धीरे-धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय। माली सींचे सौ घड़ा रितु आया फल होय’ का मंत्र अब अप्रासंगिक हो चुका है। हथेली पर सरसो उगाने में विश्वास रखने वालों का ऋतु की प्रतीक्षा में कोई विश्वास नहीं है। विशिष्ट बनने और दिखने की चाह में तमाम कायदे, कानून और व्यवस्था को ताक पर रखते हुए मनचाहा प्राप्त करने का हुनर परवान चढ़ रहा है। इस देश की नब्ज के जानकार गांधी का हिन्द स्वराज आज के नवचिन्तकों की दृष्टि में अप्रासंगिक हो चला है। (संदर्भ केंद्रीय मंत्री शशि थरूर का वक्तव्य) ऐसे में अयोध्या अब एक दुःखती रग है, जिसे छेड़ना समस्याओं को आमंत्रित करना है।
यह अयोध्या कोई एक दिन में नहीं उजड़ी है। व्यवस्थित ढंग से किश्तों में इसे उजाड़ा गया है। कभी इसके उत्पाद को गुणवत्ता विहीन बता कर, कभी इसकी प्रतिभा को दोयम दर्जे का बता कर और कभी इसके श्रम को निर्मूल्य बता कर या सिद्ध कर इसके मन में अविश्वास और हीनताबोध भरा गया। दुनियाँ के सभी उत्पादकों को अपने उत्पाद का मूल्य तय करने का अधिकार है पर किसान को नहीं। परिश्रम की भी कीमत न मिलने और दाता होते हुए भी भिखारी की नियति झेलने को अभिशप्त इन लोगों का खेती-किसानी से मोहभंग स्वाभाविक था। कोढ़ में खाज की तरह बिना जमीनी सच्चाई जाने, वांछित विकास के लिए दिया जाने वाला सरकारी कर्ज
न चुका पाने की स्थिति में, मरजाद की रक्षा के लिए बढ़ती हुई किसानों की आत्महत्या ने एक ऐसा परिदृश्य उपस्थित कर दिया है, जिसे उजड़ने के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता। खेती के हाशिए पर जाने, रोजी-रोटी के लिए गाँवों की जनसंख्या का शहरों की ओर पलायन, औद्योगिक विकास के नाम पर कृषि योग्य भूमि का हर साल अधिग्रहण आदि ऐसे कारक हैं जो अयोध्या को वीराना बना रहे हैं। जहाँ अन्नदाता आत्महत्या को मजबूर हो, युवा दिग्भ्रमित होकर पलायन कर रहे हों या आत्मघाती कृत्यों में मशगूल हों, हाथ बिक गये हों वह अयोध्या उजड़ेगी नहीं तो क्या करेगी?
देश में बढ़ती वृद्धाश्रमों की संख्या, गाँवों में बनते विवाह गृह, प्रायोजित सार्वजनिक कार्यक्रम, मुँह में राम बगल में छुरी वाला प्रेम, अपनी विद्या, अपने हुनर और अपने हाथों की ताकत से उठता विश्वास आदि ऐसे चिन्ह हैं जो नई अयोध्या की पहचान हैं। दादी कहा करती थीं, ‘‘सारा सुख राम के, एकहू न काम के’। नए बदलाव के साथ आने वाली चीजों, प्रवृत्तियों और संस्कृति से न तो कौशल्या की आत्मीयता बन पा रही है न जुड़ाव। कौए भी तो कभीं-कभीं ही दिखते हैं, गौरैया भी कहाँ रोज आती है। घर के नए नक्शो की भेंट दरवाजे की नीम हो गई। ले दे कर गमले में लगी तुलसी को जल ढारती, दिया जलाती कौशल्या सुबह-शाम माँग-कोख की सलामती मनाया करती है। सूना घर भाँय-भाँय करता है। किससे अपना सुखा-दुखा करे। किसी के पास फुरसत नहीं है। नई-नई दुलहिन नया-नया गीत का मुहावरा इतनी तेजी से परवान चढ़ा है कि पुरानी भीत थरथराते हुए ढहने के कगार पर है। सब का हितू बनकर आने वाले कब गला काट देंगे इसका कोई ठिकाना नहीं है, तब सिवाय इसके कि अयोध्या के मूल्य, मान और संस्कृति की रक्षा करते हुए इसे फिर से आबाद करने का प्रयास किया जाए और कोई रास्ता नजर नहीं आता। अयोध्या को उजाड़ने पर उतारू हाथों को शायद इसी तरह जबाव दिया जा सकता है।
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