शिवकुटी लाल वर्मा
मित्रों, कल यानी १८ जुलाई २०१३ को ११ बजे दिन में हमारे शहर के वरिष्ठ कवि
शिवकुटी लाल वर्मा का निधन हो गया। शिवकुटी लाल जी एक कवि होने के पहले एक
बेहतरीन इंसान थे। उनकी सहजता एवं विनम्रता के हम कायल थे। श्रद्धांजलिस्वरुप हम पहली बार पर यह पोस्ट लगा रहे हैं, जिसे मैंने सोचा तक नहीं था कि उनके न रहने पर इसे प्रकाशित करूंगा। पोस्ट को यहाँ पर
मूल रूप में ही प्रस्तुत किया जा रहा है। जिसमें कवि हरीश चन्द्र पाण्डे की
एक टिप्पणी है उसके बाद शिवकुटी लाल जी की कुछ प्रतिनिधि कविताएँ, जो उनके
हालिया प्रकाशित संग्रह 'सितारे साम्राज्यवादी नहीं होते' से ली गयी हैं।
शिवकुटी लाल वर्मा का जन्म इलाहाबाद में एक जुलाई १९३७ को हुआ. प्रयाग विश्वविद्यालय से १९५४ में बी ए करने के बाद ए जी आफिस में नौकरी करने लगे.
पहली कविता निकष-२ (इलाहाबाद से प्रकाशित पत्रिका संकलन) में १९५६ में प्रकाशित. पहला कविता संग्रह अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित ‘पहचान’ सीरीज में १९७४ में प्रकाशित. दूसरा कविता संग्रह ‘हार नहीं मानूंगा’ १९८० में, तीसरा कविता संग्रह ‘समय आने दो’ १९९५ में और चौथा कविता संग्रह ‘सितारे साम्राज्यवादी नहीं होते’ २०१३ में प्रकाशित.
वरिष्ठ कवि शिवकुटी लाल वर्मा की कवितायें अपने बिम्ब विधान और गहन सर्वेक्षण दृष्टि के लिए जानी जाती रही हैं. वे अभिधा के कवि कभी नहीं रहे –पहले न आज. ऐसा उन्होंने संप्रेषणीयता को लेकर पाठकीय व आलोचकीय वारों को शिरोधार्य करते हुए किया है. सरलीकरण और स्फीति इस कवि को पसंद नहीं. कवि जब कहता है कि ‘मैं वह स्वतन्त्रता हूँ / गुलामी के दिनों में जिसकी सबको जरूरत थी’ तो यह एक अभिधात्मक बयान नहीं. इसकी व्याप्ति दूर और देर तक गूंजती है. चाही गयी स्वतन्त्रता या पायी गयी स्वतंत्रता (या कहें सपने) की फांके उजागर होने लगती हैं. इसी फांक से भ्रष्टाचार, आतंक, धर्मान्धता और क्रूरता की नदियाँ उद्गमित होती हैं.
शिवकुटी लाल वर्मा एक अत्यंत भाषा सजग कवि हैं. भाषा उन्हें संवेगों में बहका नहीं ले जाती वरन वे बार-बार भाषा को मांजते-संवारते-बनाते हैं. सजगता का आलम यह है कि कवि चिता बुझने के बाद की राख व अधजली लकड़ियों को भी ‘कविता’ और ‘गद्य’ के रूप में अलगाता है. ये कविताएँ अपने रचयिता के स्वत्व और वेदना को जीती हैं. इन कविताओं का कवि पुरस्कार रूप में, यश या राशि न मांग कर ‘दृढ़ता’ मांगता है.
दो इतनी दृढ़ता कि
अंकुरित सत्य की लय बनकर
पात दूं मैं जीवन और मृत्यु का अन्तराल
और अंकुरित सत्य की लय बनना सबके बूते की बात नहीं. इस कवि को सामाजिक बदलाव में कविता की भूमिका को लेकर भी कोई भ्रम नहीं है. उनके कविता के बाहर की कविता सोचने को मजबूर करती है कि रचनात्मक अभिव्यक्तियाँ कमजोर हो गयी हैं या ‘बर्बर समूह’ कद्दावर हो गये हैं.
इन कविताओं में कवि की निजता भी यहाँ सामाजिक वेदना का प्रतिनिधित्व करती हैं. इन कविताओ के बारे में कवि के शब्दों में ही कहा जा सकता है कि ये कविताएँ
कुछ युग की करूणा सी मुलायम (हैं)
कुछ युग के यथार्थ सी सख्त
-हरीश चन्द्र पांडे
आप सब के लिए पेश है शिवकुटी लाल वर्मा की कुछ चुनिन्दा कविताएँ
‘अभाव'
किसे खलेगा मेरा अभाव
एक ऐसा पाठ हूँ मैं
जिसे शब्द-स्फीत पाठ्यक्रम से हटा दिया गया
मैं वह स्वतन्त्रता हूँ
गुलामी के दिनों में जिसकी सबको जरूरत थी
लेकिन मिलते ही जिसका आशय झुठला दिया गया
वह रचना-बोध
जिसे रचना का स्वांग रचने वालों ने ही मिटा दिया
फैक्ट्रियों, मिलों और उद्योगपतियों की इमारतों के बीच
किसी झोपडपट्टी की खाली जमीन हूँ मैं
आपाधापी और महत्वाकांक्षाओं के बीच
मैं वह निःसंग आत्मीयता हूँ
जिसे एक अधूरी पंक्ति सा बार-बार काटा गया
पर हर बार काटे जाने के साथ
वह परिवेश में कटी हुई अदृश्य अँगुलियों सी आज भी
तैरती है.
पॉकेटमार
पॉकेटमार
भाग्य की पॉकेट मारो
और बाँट दो उसे भाग्यहीनों में
वाही तो है तुम्हारा परिवार
जानता हूँ मैं तुम्हारा वर्तमान
तुम्हारा भविष्य
पर बेड़ियों और हथकड़ियों से डर कर क्या तुम
भाग्यहीनों के आंसुओं के उस रास्ते को
तब्दील करने से मुकर जाओगे
जो उन्हें सिर्फ मौत की ओर ढकेलता है.
साफ कर दो उस परिवेश की जेब
जहां विकास नपुंसकता का पर्याय बन जाता है
लोकमत चुनवा दिया जाता है मतपेटिकाओं में
आरोपों-प्रत्यारोपों से सजी-धजी
ठगती है वेश्या राजनीति
सबूत के अभाव में लडखडाता हुआ
गिरता है किसी उच्च रक्तचाप के रोगी सा न्याय
निर्दोष की विवशता भरी यंत्रणा से बढ़ कर
क्या और कोई जेल हो सकती है
पॉकेटमार
कविता के बाहर
तुम एक कविता लिखते हो
और एक बिच्छू अपना नुकीला डंक लिए
तुम्हारी ओर दौड़ पड़ता है
तुम दूसरी कविता लिखते हो
और एक सर्प तुम्हारी ओर बढ़ने लगता है
फन काढ कर वह तुम्हारे हाथों की ओर झुकता है
तुम तीसरी कविता लिखते हो
और एक भेड़िया तुम्हारी ओर देख कर गुर्राता है
तुम कोशिश करते हो एक और कविता लिखने की
और एक बर्बर समूह तुम्हारी ओर झपट पड़ता है
बेहतर क्या है
आज के समय में कवि होना
या एक बिच्छू, एक साँप, एक भेड़िया
या एक बर्बर समूह बन जाना?
बताओ कवि
बिच्छू, साँप, भेड़िये और बर्बर समूह
तुम्हारी कविताओं के भीतर तो मरते हैं
पर क्यों नहीं मरते तुम्हारी कविताओं के बाहर?
कवि तुम मौन क्यों हो?
समय के बाहर
समय मुझे अपने से बाहर फेक रहा है
ओह!कैसा होता है समय के
बाहर फेक दिया जाना
समय के बाहर जीना
समय के बाहर ही मर जाना
कीच सने पाँव
कीच सने पाँव क्या सदा भद्दे ही होते हैं
कीच क्या सदा बदबू ही देती है
किसने आंका है कीच की शक्ति को
कीच सने पाँवों ने नाप डाली है अब तक
जाने कितनी धरती!
लिपट जाती है गीली-गीली
तो या तो पांवों से अलग होते-होते
पानी में भी अपनी छाप छोड़ने लगती है
या पांवों से लिपटी-लिपटी ही सूख जाती है
जैसे कोई कुरूप सती नारी
कीचड सने नंगे पाँव दौड़ पड़ते हैं प्रभु
किसी भक्त की गुहार पर
कब तक बचेगी मोज़े की नफासत
कीच सने पाँवों से
जबकि हावी होते जा रहे हैं
किसी सर्वव्यापी की तरह
लगातार
कीच सने पाँव?
रिश्तों की ज़बानें भूल गए
रिश्तों के ज़मानें भूल गए रिश्तों की ज़बानें भूल गए
मजहब की उलझी दालों में अश्कों की ज़बानें भूल गए
तहजीब की सिलवट याद रही वो खलूस की बाहें भूल गए
क़ुदरत की हँसी वो रुसवाई सब गूंगे रिश्ते भूल गए
ये चेहरा पहचाना है
गली-गली में डगर-डगर में भटक रहे सुनसान नयन
ऐसा क्या वीरान शहर में जो याराने जैसा है
बसा अजनबीपन नज़रों में घूर रहा इंसान यहाँ
कौन यहाँ है जो पूछे ये चेहरा पहचाना है
मेरे इस देश में
मेरे इस देश में आहों के सिवा
कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं
कटी बाहों, कटी टांगों कटी राहों के सिवा
कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं
मेरे इस देश में कातिल तो बहुत मिलते हैं
मगर इस देश को सरसब्ज बनाने के लिए
कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं
बड़ी उम्मीद बड़ी आस कागजी, तहरीरें
मेरे इस देश में शब्दों के सिवा
कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं
जवाब
तुम न दिन की तरह निकले
न फूल की तरह खिले
रजत रात की तरह किसी दिल में महके भी नहीं
क्या जवाब है तुम्हारी आत्मा में उनके लिए
जो दिन का इन्तिजार कर रहे हैं.
फूल के खिलने की बात जोह रहे हैं
रजत रात की धड़कनों को
मुर्दा दिलों में सुनने को बेचैन हैं
पर जो दब गए हैं भरी जेबों के अंधेरों में
निर्वासन
देश में होकर भी निर्वासित हूँ
(देता हूँ दिलासा अपने को)
निर्वासित होकर भी
देश में तो हूँ
दीवार
अब तबीयत कैसी है?
किसी ने पूछा-उस ढही दीवार से
वह बेचारी क्या बोलती
मौन
नजरें झुकाए
सीलन भरे सिकुड़े होठों से वह मुस्कुराई
देश के सारे बुलडोजर खुशी के मारे
अपने को क्रांतिकारी समझ नाचने लगे
बदले पैमाने
गोली लगी
झुकी हुई पीठ में
निकल पड़े खून की जगह
घुन लगे गेहूं के दाने
सभी थे भूखे
बाँट लिया मिल-जुल
सिपाहियों ने
हत्यारों ने
भ्रष्ट मुकुटों ने
मौसम तो यह भाईचारा देख दंग रह गया
चिड़ियों के चोचों से छूट गए गाने
काँपे गुफा-घाटी
बदले पैमाने
बिना रेट सबक
बच्चे हो गए सयाने
धीरे-धीरे
चली मिनिस्ट्री धीरे-धीरे
बढे गिरहकट धीरे-धीरे
सड़कें धसतीं धीरे-धीरे
ईंट खिसकती धीरे-धीरे
झाड़ा प्लास्टर धीरे-धीरे
गिना बहत्तर धीरे-धीरे
बीत गए दिन, बीती रातें
बीत गए तुम धीरे-धीरे
सितारे साम्राज्यवादी नहीं होते
सितारे साम्राज्यवादी नहीं होते
वे चमकते हैं शिशुओं के ह्रदय और आँखों में
वे प्रतीक्षा करते हैं उनके जवान होने की
और फिर आहिस्ता से उन्हें मुक्त कर देते हैं
उनके मनचाहे स्वप्नों के लिए
वे जहां रात देखते हैं
वहीं चमकने लगते हैं
सूरज की भूमिका समाप्त होने के साथ ही
उनकी भूमिका शुरू हो जाती है
वे सारी रात चमकते रहते हैं
अगले सूर्योदय की प्रतीक्षा में
दुनिया से बेदखल होती मानवता को
वे आमंत्रित करते हैं अपने अन्तःकक्ष में
विचारित नहीं होते वे वैज्ञानिकों और ज्योतिषियों की गणित से
वे मुस्करातें हैं कलाकार के रंगों में
संगीतज्ञ की मीड और गमक में
सितारे साम्राज्यवादी नहीं होते
वे बेचैन रहते हैं नाकाम करने को
कुटिलताओं और साजिश भरे मंतव्यों को
लेकिन एक उल्कापात होता है
तब कोई मर जाता है बेसहारा
और वंचित रह जाते हैं सितारे
उसके प्राणों की रोशनी बन पाने से.
संपर्क-
१५८ आर, राजरूपपुर,इलाहाबाद २११०११
मोबाईल- ०९३०५१०२९३३
शिवकुटी लाल वर्मा का जन्म इलाहाबाद में एक जुलाई १९३७ को हुआ. प्रयाग विश्वविद्यालय से १९५४ में बी ए करने के बाद ए जी आफिस में नौकरी करने लगे.
पहली कविता निकष-२ (इलाहाबाद से प्रकाशित पत्रिका संकलन) में १९५६ में प्रकाशित. पहला कविता संग्रह अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित ‘पहचान’ सीरीज में १९७४ में प्रकाशित. दूसरा कविता संग्रह ‘हार नहीं मानूंगा’ १९८० में, तीसरा कविता संग्रह ‘समय आने दो’ १९९५ में और चौथा कविता संग्रह ‘सितारे साम्राज्यवादी नहीं होते’ २०१३ में प्रकाशित.
वरिष्ठ कवि शिवकुटी लाल वर्मा की कवितायें अपने बिम्ब विधान और गहन सर्वेक्षण दृष्टि के लिए जानी जाती रही हैं. वे अभिधा के कवि कभी नहीं रहे –पहले न आज. ऐसा उन्होंने संप्रेषणीयता को लेकर पाठकीय व आलोचकीय वारों को शिरोधार्य करते हुए किया है. सरलीकरण और स्फीति इस कवि को पसंद नहीं. कवि जब कहता है कि ‘मैं वह स्वतन्त्रता हूँ / गुलामी के दिनों में जिसकी सबको जरूरत थी’ तो यह एक अभिधात्मक बयान नहीं. इसकी व्याप्ति दूर और देर तक गूंजती है. चाही गयी स्वतन्त्रता या पायी गयी स्वतंत्रता (या कहें सपने) की फांके उजागर होने लगती हैं. इसी फांक से भ्रष्टाचार, आतंक, धर्मान्धता और क्रूरता की नदियाँ उद्गमित होती हैं.
शिवकुटी लाल वर्मा एक अत्यंत भाषा सजग कवि हैं. भाषा उन्हें संवेगों में बहका नहीं ले जाती वरन वे बार-बार भाषा को मांजते-संवारते-बनाते हैं. सजगता का आलम यह है कि कवि चिता बुझने के बाद की राख व अधजली लकड़ियों को भी ‘कविता’ और ‘गद्य’ के रूप में अलगाता है. ये कविताएँ अपने रचयिता के स्वत्व और वेदना को जीती हैं. इन कविताओं का कवि पुरस्कार रूप में, यश या राशि न मांग कर ‘दृढ़ता’ मांगता है.
दो इतनी दृढ़ता कि
अंकुरित सत्य की लय बनकर
पात दूं मैं जीवन और मृत्यु का अन्तराल
और अंकुरित सत्य की लय बनना सबके बूते की बात नहीं. इस कवि को सामाजिक बदलाव में कविता की भूमिका को लेकर भी कोई भ्रम नहीं है. उनके कविता के बाहर की कविता सोचने को मजबूर करती है कि रचनात्मक अभिव्यक्तियाँ कमजोर हो गयी हैं या ‘बर्बर समूह’ कद्दावर हो गये हैं.
इन कविताओं में कवि की निजता भी यहाँ सामाजिक वेदना का प्रतिनिधित्व करती हैं. इन कविताओ के बारे में कवि के शब्दों में ही कहा जा सकता है कि ये कविताएँ
कुछ युग की करूणा सी मुलायम (हैं)
कुछ युग के यथार्थ सी सख्त
-हरीश चन्द्र पांडे
आप सब के लिए पेश है शिवकुटी लाल वर्मा की कुछ चुनिन्दा कविताएँ
‘अभाव'
किसे खलेगा मेरा अभाव
एक ऐसा पाठ हूँ मैं
जिसे शब्द-स्फीत पाठ्यक्रम से हटा दिया गया
मैं वह स्वतन्त्रता हूँ
गुलामी के दिनों में जिसकी सबको जरूरत थी
लेकिन मिलते ही जिसका आशय झुठला दिया गया
वह रचना-बोध
जिसे रचना का स्वांग रचने वालों ने ही मिटा दिया
फैक्ट्रियों, मिलों और उद्योगपतियों की इमारतों के बीच
किसी झोपडपट्टी की खाली जमीन हूँ मैं
आपाधापी और महत्वाकांक्षाओं के बीच
मैं वह निःसंग आत्मीयता हूँ
जिसे एक अधूरी पंक्ति सा बार-बार काटा गया
पर हर बार काटे जाने के साथ
वह परिवेश में कटी हुई अदृश्य अँगुलियों सी आज भी
तैरती है.
पॉकेटमार
पॉकेटमार
भाग्य की पॉकेट मारो
और बाँट दो उसे भाग्यहीनों में
वाही तो है तुम्हारा परिवार
जानता हूँ मैं तुम्हारा वर्तमान
तुम्हारा भविष्य
पर बेड़ियों और हथकड़ियों से डर कर क्या तुम
भाग्यहीनों के आंसुओं के उस रास्ते को
तब्दील करने से मुकर जाओगे
जो उन्हें सिर्फ मौत की ओर ढकेलता है.
साफ कर दो उस परिवेश की जेब
जहां विकास नपुंसकता का पर्याय बन जाता है
लोकमत चुनवा दिया जाता है मतपेटिकाओं में
आरोपों-प्रत्यारोपों से सजी-धजी
ठगती है वेश्या राजनीति
सबूत के अभाव में लडखडाता हुआ
गिरता है किसी उच्च रक्तचाप के रोगी सा न्याय
निर्दोष की विवशता भरी यंत्रणा से बढ़ कर
क्या और कोई जेल हो सकती है
पॉकेटमार
कविता के बाहर
तुम एक कविता लिखते हो
और एक बिच्छू अपना नुकीला डंक लिए
तुम्हारी ओर दौड़ पड़ता है
तुम दूसरी कविता लिखते हो
और एक सर्प तुम्हारी ओर बढ़ने लगता है
फन काढ कर वह तुम्हारे हाथों की ओर झुकता है
तुम तीसरी कविता लिखते हो
और एक भेड़िया तुम्हारी ओर देख कर गुर्राता है
तुम कोशिश करते हो एक और कविता लिखने की
और एक बर्बर समूह तुम्हारी ओर झपट पड़ता है
बेहतर क्या है
आज के समय में कवि होना
या एक बिच्छू, एक साँप, एक भेड़िया
या एक बर्बर समूह बन जाना?
बताओ कवि
बिच्छू, साँप, भेड़िये और बर्बर समूह
तुम्हारी कविताओं के भीतर तो मरते हैं
पर क्यों नहीं मरते तुम्हारी कविताओं के बाहर?
कवि तुम मौन क्यों हो?
समय के बाहर
समय मुझे अपने से बाहर फेक रहा है
ओह!कैसा होता है समय के
बाहर फेक दिया जाना
समय के बाहर जीना
समय के बाहर ही मर जाना
कीच सने पाँव
कीच सने पाँव क्या सदा भद्दे ही होते हैं
कीच क्या सदा बदबू ही देती है
किसने आंका है कीच की शक्ति को
कीच सने पाँवों ने नाप डाली है अब तक
जाने कितनी धरती!
लिपट जाती है गीली-गीली
तो या तो पांवों से अलग होते-होते
पानी में भी अपनी छाप छोड़ने लगती है
या पांवों से लिपटी-लिपटी ही सूख जाती है
जैसे कोई कुरूप सती नारी
कीचड सने नंगे पाँव दौड़ पड़ते हैं प्रभु
किसी भक्त की गुहार पर
कब तक बचेगी मोज़े की नफासत
कीच सने पाँवों से
जबकि हावी होते जा रहे हैं
किसी सर्वव्यापी की तरह
लगातार
कीच सने पाँव?
रिश्तों की ज़बानें भूल गए
रिश्तों के ज़मानें भूल गए रिश्तों की ज़बानें भूल गए
मजहब की उलझी दालों में अश्कों की ज़बानें भूल गए
तहजीब की सिलवट याद रही वो खलूस की बाहें भूल गए
क़ुदरत की हँसी वो रुसवाई सब गूंगे रिश्ते भूल गए
ये चेहरा पहचाना है
गली-गली में डगर-डगर में भटक रहे सुनसान नयन
ऐसा क्या वीरान शहर में जो याराने जैसा है
बसा अजनबीपन नज़रों में घूर रहा इंसान यहाँ
कौन यहाँ है जो पूछे ये चेहरा पहचाना है
मेरे इस देश में
मेरे इस देश में आहों के सिवा
कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं
कटी बाहों, कटी टांगों कटी राहों के सिवा
कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं
मेरे इस देश में कातिल तो बहुत मिलते हैं
मगर इस देश को सरसब्ज बनाने के लिए
कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं
बड़ी उम्मीद बड़ी आस कागजी, तहरीरें
मेरे इस देश में शब्दों के सिवा
कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं
जवाब
तुम न दिन की तरह निकले
न फूल की तरह खिले
रजत रात की तरह किसी दिल में महके भी नहीं
क्या जवाब है तुम्हारी आत्मा में उनके लिए
जो दिन का इन्तिजार कर रहे हैं.
फूल के खिलने की बात जोह रहे हैं
रजत रात की धड़कनों को
मुर्दा दिलों में सुनने को बेचैन हैं
पर जो दब गए हैं भरी जेबों के अंधेरों में
निर्वासन
देश में होकर भी निर्वासित हूँ
(देता हूँ दिलासा अपने को)
निर्वासित होकर भी
देश में तो हूँ
दीवार
अब तबीयत कैसी है?
किसी ने पूछा-उस ढही दीवार से
वह बेचारी क्या बोलती
मौन
नजरें झुकाए
सीलन भरे सिकुड़े होठों से वह मुस्कुराई
देश के सारे बुलडोजर खुशी के मारे
अपने को क्रांतिकारी समझ नाचने लगे
बदले पैमाने
गोली लगी
झुकी हुई पीठ में
निकल पड़े खून की जगह
घुन लगे गेहूं के दाने
सभी थे भूखे
बाँट लिया मिल-जुल
सिपाहियों ने
हत्यारों ने
भ्रष्ट मुकुटों ने
मौसम तो यह भाईचारा देख दंग रह गया
चिड़ियों के चोचों से छूट गए गाने
काँपे गुफा-घाटी
बदले पैमाने
बिना रेट सबक
बच्चे हो गए सयाने
धीरे-धीरे
चली मिनिस्ट्री धीरे-धीरे
बढे गिरहकट धीरे-धीरे
सड़कें धसतीं धीरे-धीरे
ईंट खिसकती धीरे-धीरे
झाड़ा प्लास्टर धीरे-धीरे
गिना बहत्तर धीरे-धीरे
बीत गए दिन, बीती रातें
बीत गए तुम धीरे-धीरे
सितारे साम्राज्यवादी नहीं होते
सितारे साम्राज्यवादी नहीं होते
वे चमकते हैं शिशुओं के ह्रदय और आँखों में
वे प्रतीक्षा करते हैं उनके जवान होने की
और फिर आहिस्ता से उन्हें मुक्त कर देते हैं
उनके मनचाहे स्वप्नों के लिए
वे जहां रात देखते हैं
वहीं चमकने लगते हैं
सूरज की भूमिका समाप्त होने के साथ ही
उनकी भूमिका शुरू हो जाती है
वे सारी रात चमकते रहते हैं
अगले सूर्योदय की प्रतीक्षा में
दुनिया से बेदखल होती मानवता को
वे आमंत्रित करते हैं अपने अन्तःकक्ष में
विचारित नहीं होते वे वैज्ञानिकों और ज्योतिषियों की गणित से
वे मुस्करातें हैं कलाकार के रंगों में
संगीतज्ञ की मीड और गमक में
सितारे साम्राज्यवादी नहीं होते
वे बेचैन रहते हैं नाकाम करने को
कुटिलताओं और साजिश भरे मंतव्यों को
लेकिन एक उल्कापात होता है
तब कोई मर जाता है बेसहारा
और वंचित रह जाते हैं सितारे
उसके प्राणों की रोशनी बन पाने से.
संपर्क-
१५८ आर, राजरूपपुर,इलाहाबाद २११०११
मोबाईल- ०९३०५१०२९३३
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(20-7-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ!
कविताओं में अनुभव घुला हुआ है. अनुभव के आगे किसी की नहीं चलती. अनुभव जब कविता का जामा पहन सामने आती हैं तो बेहद मारक साबित होती हैं. शुक्रिया संतोष जी.
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएं एक से बढ़कर एक
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
मेरी कोशिश होती है कि टीवी की दुनिया की असल तस्वीर आपके सामने रहे। मेरे ब्लाग TV स्टेशन पर जरूर पढिए।
MEDIA : अब तो हद हो गई !
http://tvstationlive.blogspot.in/2013/07/media.html#comment-form
बहुत शानदार रचनाएं
जवाब देंहटाएंएक से बढ़कर एक
जवाब देंहटाएंशिवकुटी लाल जी को मेरी श्रधांजलि है ...
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएं जो आपने ब्लॉग पे डाली हैं बहुत प्रभावी और मानवीय स्तर पे सोचने को मजबूर करती हैं ...
रचनाओं का पैनापन चुभता है गहरे कहीं ...