विश्व के लोकधर्मी कवियों की श्रृंखला 7: शैले
विश्व के लोकधर्मी कवियों की श्रृंखला के क्रम में हम वाल्ट व्हिटमैन, बाई जुई, मायकोवस्की, नाजिम हिकमत, लोर्का एवं बर्टोल्ड ब्रेख्त के बारे में पहले ही पढ़ चुके हैं। इसी क्रम में प्रस्तुत है पी. बी. शैले पर आलेख।
विजेंद्र
लोकधर्मी क्रांतिकारी कवि शैले
पूरा नाम है पर्सी बाइशि शैले। अंग्रेजी रोमेंटिक आन्दोलन के अत्यंत प्रमुख प्रगीति कवि। स्वभाव से विद्रोही। अपने अंग्रेज़ी सामंती –अर्द्ध सामंती समाज में लोकधर्मी क्रांतिकारी कवि शैले। इस संदर्भ में याद आते हैं निराला। वैसे निराला पर शैले का प्रभाव है। उनकी प्रसिद्ध कविता, ‘बादल राग’ शैले की बहुचर्चित प्रसिद्ध कविता ‘दॅ क्लाउड’ के असर में है। भारत में शैले का असर रबि बाबू तथा जीवनानंद दास की कविताओं पर भी है। गाँधी जी शैले की प्रसिद्ध कविता, ‘मास्क ऑफ एनार्की’ से उनकी अहिंसक नीति के वाक्य अक्सर उद्धृत करते थे। गाँधी जी उनकी ‘अहिंसक क्रांति’ तथा जनता में शांति तथा धैर्य रखने की बात को बहुत सराहते भी थे। शैले ने भारत में अंग्रेजों के औपनिवेशिक साम्राज्य का विरोध किया था। उनका मानना था कि औपनिवेशिक साम्राज्यवादी युद्धों से इंग्लैण्ड की शोषित जनता को कोई लाभ नहीं मिलता। अपनी क्रांतिकारी विश्वदृष्टि की वजह से शैले को उनके निजी तथा साहित्यिक जीवन में बहुत उत्पीड़न सहना पड़ा था। उनके जीवन काल में उनकी कविता को प्रकाशन के लिये बड़ी कठिनाइयाँ थीं। उन्हें अपेक्षित कवि सम्मान भी नहीं मिला। न उनका सही मूल्यांकन हुआ। आज भी सारे समीक्षक उनके क्रांतिकारी स्वरूप को सामने लाने से हिचकते हैं! शैले को ठीक तरह समझने के लिये उनका गद्य समझना बहुत जरूरी है। वैसे किसी भी कवि को समझने के लिये उसका गद्य उसकी मनोरचना, विश्वदृष्टि तथा सामाजिक सरोकारों को समझने में बहुत सहायक होतो हैं। यदि निराला, मुक्तिबोध, त्रिलोचन, केदार बाबू तथा नागार्जुन की कविता को तह तक समझना है तो हमें उनके गद्य से गुज़रना बेहतर होगा। मुक्तिबोध के नेमिचंद को लिखे पत्र उनके व्यक्तित्व तथा उनकी कविताओं के कई अनजाने कमज़ोर गवाक्ष खोलते हैं। कवि कीट्स के पत्र पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हैं। उनके काव्य सिद्धान्तों के बीज यत्र तत्र पत्रों में ही बिखरे हैं। शैले का गद्य बिना पढ़े उनके क्रांतिकारी कवि व्यक्तित्व तथा कविता की संश्लिष्ट गहनता को नहीं समझा जा सकता।
शैले अपने जीवन के प्रारंभ से ही विद्राही रहे हैं। उन्होंने अपने ऑक्सफोर्ड छात्र जीवन में एक पुस्तिका लिखी, ‘अनीश्वरवाद की आवश्यकता’। उसके फलस्वरूप उन्हें विश्वविद्यालय से निष्कासित किया गया। उन्हें क्रांतिकारी बताया गया। विद्रोही चिंतक भी। इसी समय से उन्हें साहित्य के हाशिये पर ढकेला जाने लगा। प्रतिक्रियावादी- लोकविमुख कुलीन बुर्जुआ बुद्धिजीवियो तथा रूढ़िवादी राजनीतिज्ञों ने उनका सामाजिक बहिष्कार करना शुरू किया। पर प्रगतिशील लोगों ने शैले को समर्थन दिया था। खासतौर पर गौडविन जैसे राजनीतिक चिंतक ने। शैले अपनी अत्यंत प्रतिकूल स्थितियों में भी कविता और गद्य निरंतर लिखते रहे। उन्होंने अपने का्रंतिकारी आदर्श नहीं छोड़े न उनमें कोई बदलाव ही किया। उस समय के अधिकांश प्रकाशकों ने उनकी कृतियाँ प्रकाशित करने से मना कर दिया था। उन्हें भय था कि कहीं उनको विधर्मी तथा देशद्रोही कवि का हमदर्द समझ कर गिरफ्तार न कर लिया जाये। शैले के जीते जी न तो उनकी कविता का सम्यक् मूल्यांकन हो पाया। न उनके राजनीतिक विचारों को सराहा गया। बाद में तीन चार पीढ़ियों तक शैले को महान कवि मान लिया गया। फिर भी उनके क्रांतिकारी विचारों को कोई संबल नहीं मिल पाया। कहा जाता है कि शैले को पाठ्य पुस्तके पढ़ने में ज्यादा रुचि न थी। उनके साथी उन्हें चिढ़ाते थे। क्षुब्ध होकर शैले अपनी किताबे फाड़ डालते थे। अपने कपड़े उतार फेंकते थे। बहुत जोर जोर से चीखते थे। जब तक वह ऑक्सफर्ड विश्वविद्यालय में रहे कुल जमा एक व्याख्यान कक्षा में बैठ कर सुना था। पर वह स्वाध्याय 16 -16 घंटे तक करते थे। प्रारंभ में शैले ने उपन्यास भी लिखे थे। कई-बार विवाह और तलाक भी हुए। वह अपने किसी भी विवाह से प्रसन्न नहीं थे। शैले ने योरुप के कई देशों की यात्रायें बार बार की। 8 जुलाई , 1822 को उनकी मृत्यु हुई। अभी वह सिर्फ 30 वर्ष के होने को ही थे। कहा जाता है कि शैले की मृत्यु समुद्री यात्रा के दौरान एक बड़े तूफान में घिर कर हुई थी। उनकी अंतिम पत्नी मेरी शैली ने 1822 में प्रकाशित कविताओं के पूर्व कथन में शैले की मृत्यु को संदेह से देखा है! उनका मानना है कि जिस नाव में शैले समुद्र में यात्रा कर रहे थे वह समुद्र में उतारने की क्षमता वाली नाव नहीं थी। उसमें कई एक कमियाँ थीं। तूफान इतना भयानक था कि नाव उसे सह नहीं पाई। नाविक भी बहुत अनुभवी न थे। कुछ लोग शैले की मृत्यु को आकस्मिक दुर्घटना नहीं मानते। कुछ लोगों का कहना है कि शैले उन दिनों बहुत अवसाद ग्रस्त थे। हो सकता है उन्होंने आत्महत्या की हो? कुछ कहते हैं कि शैले के क्रांतिकारी राजनीतिक विचारों के कारण उनकी हत्या कराई गई। जो भी हो इतने प्रतिभाशाली क्रांतिकारी कवि का इतनी कम उम्र में संसार से चले जाना अंग्रेज़ी साहित्य की अपूणीर्य क्षति का कारण बना। इंग्लैण्ड की जनवादी संस्कृतिक परम्परा को गहरा आघात।
शैले की लोकधर्मिता आज हमारे लिये अत्यंत प्रासंगिक है। अब प्रगतिशील लोग उनके महत्व को पहचानने लगे हैं। जरा सोचने की बात है हिंदी में नृपतंत्रवादी तथा पुनरुत्थानवादी अंग्रेजी कवि टी0 एस0 एलियट को तो लोकप्रियता मिली। पर शैले को नहीं! हमारी पाठ्य पुस्तकों में भी शैले की क्रांतिकारी कविताओं को जगह नहीं है?
क्रांतिकारी चेतना के अलावा वैसे उनकी कविता के केंद्रीय कथ्य है- प्रेम, स्वतंत्रता, मानवीय तथा प्राकृतिक सौंदर्य। यह प्रेम निजी होकर उस की सीमाओं को लाँघता है। उसका सामाजिक पहलू बराबर बना रहता है। इस प्रेम का बृहद् रूप है अपने देश की उत्पीड़ित जनता से अटूट प्रेम। इसी प्रेम में निहित है सर्वहारा की शोषण, दमन तथा क्रूर उत्पीड़न से मुक्ति। प्रकृति प्रेम भी उनका रूमानी नहीं है। वर्डस्वर्थ की तरह वह उसे जब तब रहस्यमय भी नहीं बनाते। प्रकृति में वह मनुष्य की तरह ही सतत विकास देखते हैं। शैले के लिये प्रकृति एक प्रकार की ऊष्मा है। उसमें अपार शक्ति तथा क्षमता निहित है। स्वतंत्रता का अर्थ शैले के लिये सदियों पुराने जड़ सामंतवाद का अंत करना है। पूँजी केंद्रित व्यवस्था को ध्वस्त कर एक समता मूलक समाज स्थापित करने का स्वप्न। शैले के ऐसे क्रांतिकारी विचारों को इंग्लैण्ड का बुर्जुआ, सामंती तथा रूढ़िवादी समाज कैसे सह सकता था? देखने की बात है कि शैले मार्क्स से पहले उन बातों को कह पा रहे हैं जिन्हें मार्क्स ने बाद में कहा। क्या इससे नहीं लगता कि जनता के पक्षधर कवि अपने समय से बहुत आगे होते हैं? वे अतीत और वर्तमान का अघ्ययन कर तर्कसंगत भविष्य की कल्पना कर लेते हैं। इसी को राजशेखर ने प्रतिभाशील कवि द्वारा ‘परोक्ष को प्रत्यक्षवत’ समझ लेने की बात कही है। शैले सदा भविष्योन्मुखी कवि हैं। ऐसी ही बातें प्राकृतिक परिवेश को लेकर ऋचायें कहती रही हैं। वहाँ भी मुक्ति पर जोर है। प्रतीक वहाँ भले ही देवताओं के हैं। पर दमनकारी और दमित का संघर्ष वहाँ भी है। ऋचायें एक बेहतर समाज बनाने की ओर बराबर संकेत करती हैं। शैले बराबर स्वप्न देखते हैं। उनकी इस स्वप्नदृष्टि की सांकेतिक गहराई को बिना समझे उनके बुर्जुआ समीक्षक उन्हें ‘स्वप्नदर्शी सुधारक’ भी कहते रहे हैं। मार्क्स को भी बुर्जआ चिंतक यही कहते रहे। यद्यपि हर बड़ा कवि या चिंतक स्वप्नदर्शी होता ही है। पर बुर्जुआ इस स्वप्नदर्शिता को मात्र काल्पनिक स्थिति मानता है जो कभी हासिल नहीं की जा सकती। शैले जिस समतामूलक समाज की बात करते रहे उसे बहुत कुछ समाजवादी देशों ने करके दिखा दिया। वह व्यवस्था अनेक कारणों से टूट बिखर गई। यह अलग बात है। पर उसको हमने लम्बे समय तक एक बेहतर सामाजिक-राजनीतिक विकल्प की तरह देखा समझा है। आज भी हमारे मन में वह विकल्प जीवित है। हम अपने मुक्तिसंग्राम की अधूरी छूटी क्रांति को उसके तार्किक निष्कर्ष तक पहुँचाने को यत्नशील बने रहेंगे। शैले मुक्तिकामी विचार के लिये जीव जन्तुओ तथा नैसर्गिक उपकरणों से रूपक और प्रतीक चुनते हैं। जैसे ‘छिपकलियों’ तथा ‘साँपों’ को वह ‘बंधनमुक्त लपटें’ कहते हैं। उनके लिए प्रेम एक ऐसी उद्दीप्त आँच है जो ‘मरणधर्मा बादलों’ को छिन्न - भिन्न करती रहती है। शैले के यहाँ अनन्त फूल खिलते हैं। वे खेतों, वनों, उपवनों में सूर्य की रोशनी से निखर उठते हैं। उनकी कविता पढ़ के लगता है कि शैले में जीवन और प्रकृति एक अत्यंत क्षमताशील शक्ति एवं उत्तापमूलक तत्व हो कर हर जगह संक्रियाशील बने रहते हैं। न तो वे कहीं थिर हैं। न जड़। यह सब कवि की सक्रिय द्रव्यता की ओर संकेत करता है। इस की वह प्रक्रिया भी बताते हैं। द्रव्यता वैज्ञानिक सत्य है। जीवन का ताप है। उससे उसमें संक्रियाशीलता उत्पन्न होती है। इससे पृथ्वी जगती है। पृथ्वी के इस जागरण से कवि को प्रेरणा मिलती है। शैले की एक अत्यंत प्रसिद्ध कविता है, ‘जीवन की विजय’। कविता में संकेत है सूर्य अपने वैभव से उल्लसित हो कर अंधकार के छद्मवेशी नक़ाब को छिन्न भिन्न करता है। पृथ्वी जैसे जाग उठती है।
प्रकृति में ‘नाश‘ और ‘निर्माण’ का चक्र कवि को विश्वास दिलाता है कि सुंदर भविष्य जरूर आयेगा। अपनी विश्वप्रसिद्ध कविता ‘पछुआ हवा को संबोधन गीत’ में सार तत्व पंक्ति है-
‘यदि शरद ऋतु आती है
तो वसंत क्यों नहीं
आयेगा।
दुनिया में महान पुनर्नवन
का
उदय होने को है
सुंदर समय लौटता
है
पृथ्वी साँप की कैचुल
उतार कर
फिर से नई होती है
उसके शीत -बीज जीर्ण–शीर्ण
होते हैं
स्वर्ग विहँसता है
बिखरते स्वप्न अवशेषों
की तरह
आस्था और राष्ट्र
झिलमिलाते हैं।
इसमें संदेह नहीं औद्योगिक क्रांति ने योरुप की मनोरचना तथा काव्य संवेदना को बहुत प्रभावित किया है। सामंतवाद -अर्द्धसामंतवाद की सदियों पुरानी मज़बूत जंजीरें टूट रही हैं। नये राजनीतिक संघर्ष उभर रहे हैं। इन सबकी चरम परिणति फ्रांस की राज्य क्रांति में लक्ष्य की जा सकती है। इस क्रांति के बाद नये नागरिक अधिकार प्राप्त हुए। राजनीतिक स्वायत्तता मिली। योरुप में अग्रगामी संवेदना पैदा हुई। पुरानी जड़ सामंती संवेदना टूटी। इसका बड़ा सूक्ष्म तथा रचनात्मक प्रभाव था कि सामान्य जन अपने आस पास के परिवेश को ऐंद्रिक सजगता से देखने परखने लगा। हर परिघटना को बड़ी उत्सुकता से समझना शुरू किया। मनुष्य में वैज्ञानिक रुझान विकसित हुए। कुल मिला के एक बौद्धिक जागरण की स्थिति की समझ पैदा हुई। जो संसार अजाना -दृष्टि से दूर था -उसे जानने को बेचैनी पैदा होती गई। यही वजह है शैले की कविता में वैज्ञानिक उत्सुकता है। उनके यहाँ ऊँची उड़ान के बिंब बार बार आते हैं। ये बिंब उनकी शुरू तथा परिपक्व कविताओं में बराबर मिलते हैं। अपनी एक कविता ‘पान’ ( देवता) के लिये प्रार्थन में पंक्तियाँ हैं -
मैंने नृत्य करते नक्षत्रों
के लिये गाया
मैंने पृथ्वी के लिये
गाया
स्वर्ग और महायुद्धों
के लिये भी
प्रेम, मृत्यु और जन्म
के लिये
गाता रहा
निर्माण से ध्वंस
तक
नदी में बुलबुले
की तरह
सदा विश्व के ऊपर विश्व
तैरते रहे हैं
कभी झिलमिलाते
कभी फूटते
कभी लुप्त होते रहे
हैं
मैं पृथ्वी औेर जल
की कन्या हूँ
मैं समुद्र तथा तटों
के रोंयों से
गुज़रता हूँ
मैं बदल सकता हूँ
मर नही सकता
ये पत्तियों को उड़ा ले जाती है। समुद्र में लहरों को उद्वेलित करती है। बादलों को इधर उधर छितराती रहती है। इसी प्रक्रिया से यह एक ऐसी उर्वर भूमि तैयार करती है जहाँ परिवर्तन के ‘पंखधारी बीज’ बोये जा सकें। बाद में ये विविध गंधो, रंगों तथा संक्रियाओं के साथ उगें। हवा शैले को कोई काल्पनिक वस्तु नहीं है। वह उनके लिये वस्तुनिष्ठ सत्य है। इसीलिए वह उसे परिवर्तन के लिये उचित शक्ति मान कर उस पर भरोसा करते हैं। पछुआ हवा अपने द्रव्य सत्य के लिये कवि के संवेदनों पर समाश्रित नहीं है। बल्कि कवि अपनी क्षमता तथा शक्ति के लिये पछुआ का आश्रय लेता है। पत्ती, बादल, लहर और कवि ये सब पछुआ की शक्ति के प्र्रकंप में शिरकत करते हैं। शैले ने पछुआ हवा को ‘सर्जक - संहारक’ के साथ ‘नियंत्रित न होने वाली’ शक्ति भी कहा हैं। संकेत है कि प्रकृति मनुष्य से प्रभावित होकर भी स्वायत्त है। चाहे जितना वैज्ञानिक विकास हुआ हो अभी प्रकृति को मन चाहे ढंग से नियंत्रित करने की क्षमता मनुष्य में नहीं है। प्रकृति के यही मूल गुण है जिन्हें शैले पछुआ हवा में देखते हैं। इसी तरह ऋतुओं का आना-जाना शैले के लिये कोई मिथकीय सत्य नहीं है। जैसे वैदिक ऋषि प्रकृति के हर रूप में देवी-देवताओं की परिकल्पना करते हैं। शैली ऐसा नहीं करते। ऋतुओं का आना जाना कवि के लिये वस्तुनिष्ठ सत्य है। मनुष्य के सुंदर भविष्य की कल्पना शैले इसी वस्तुनष्ठिता के आधार पर करते हैं। उनकी कविता की अर्थध्वनियों से लगता है कि वैज्ञानिक संदृष्टि (विजन) कवि के सौंदर्य प्रेम तथा सामान्य जन के प्रति सहानुभूति में भी समाहित है। समुद्र के गहरे तल पर शैले को मँहकदार सुंदर चटक रंग के फूल खिले दिखते हैं। उनकी इतनी मँहक है कि कवि की संवेदना मूर्च्छित होने लगती है ।
शैले की कविता की लोकधर्मिता का एक गुण है उनकी सघन ऐंद्रिकता। वस्तुनिष्ठता। तथा समूर्त बिंब विधान। कई-बार उनकी ऐंद्रिकता ‘ऐंद्रिकता के सम्राट’ कीट्स की ऐंद्रिकता के भी आगे जाती है । शैले के लिये धरती पर द्वीप सागर तथा अन्य सभी चीज़ें क्षुब्ध तथा गतिशील हैं। जैसे इन सभी चीज़ों के आदि स्रोत सूर्य उदित और अस्त होता हैं। कीट्स की ऐंद्रिकता बहुत सीमित है। शैले की ऐंद्रिकता विविध, व्यापक तथा विराट है। वह अमूर्त चीज़ों को भी मूर्त बिंबों में व्यक्त करने के अभ्यासी है। समय के भार का भी उन्हें ऐंद्रिक बोध होता है। ‘पछुआ हवा’ कविता में कहते हैं।
समय के सघन बोझ ने
जकड़ कर
मुझे झुका दिया है
।
लगता है उनकी सभी
इंद्रिया अत्यधिक चौकन्नी
हैं।
शैले का राजनीतिक चिंतन अपने समय के अंग्रेजी समाज पर आधृत है। ‘क्वीन मैब’ कविता पर टिप्पणी करते हुए शैले ने कहा है कि जिस समाज में हम रहते हैं उसकी स्थिति सामंती बहशीपन तथा अपूर्ण सभ्यता की है। यहाँ अपूर्ण सभ्यता से शायद कवि का अभिप्राय है बंज -व्यापार पर आधृत उपभोक्तावादी संस्कृति। शैले कुलीन तंत्र तथा उसपर आधृत संपत्ति का घोर विरोध करते हैं। उनका मानना हैं कि सामंतशाही तथा कुलीन तंत्र के विरुद्ध सर्वहारा वर्ग को संगठित होना बहुत जरूरी है। इससे लगता है कवि को राजनीतिक-आर्थिकी का संज्ञान है। शैले मानते है कि कुलीन सामंतों का परजीवी समाज प्रगति का सबसे बड़ा शत्रु है। सबको पता हैं कि नृपतंत्र का सीधा जुड़ाव सामंतों से था। इंग्लैण्ड में टौरी चर्च सामंतों का समर्थक था। यही वजह है शैले बराबर चर्च के पादरी समूह का विरोध करते रहे हैं। शैले चाहते थे नृपों, सामंतों, कुलीनों तथा चर्च की सत्ता समाप्त हो। उसके स्थान पर एक लोकतान्त्रिक समतामूलक व्यवस्था कायम हो सके। इसके लिए अहिंसक तरीके से आक्रामक प्रतिरोध जरूरी है। शैले यह जानते थे कि शांतिपूर्ण तरीके से नृप और सामंत अपने अधिकार नहीं छोड़ सकते। पर और कोई विकल्प था ही नहीं। शैले जनता के विद्रोह का समर्थन बराबर करते रहे। उनका दर्शन है कि जनता के अहिंसक विद्रोह की तीव्रता इस बात पर निर्भर है कि उसके विद्रोह के दमन के लिये सत्ता अपनी सेना का उपयोग करती है या नहीं? शैले विश्व के किसी भाग में श्रमिकों के दमन का विरोध करते हैं। बार बार जनता को संघर्ष के लिये प्रेरित भी करते हैं। वह अपने देशवासियों को ग्रीक लोगों के मुक्तिसंग्राम की याद भी दिलाते हैं। वह प्रश्न करते हैं क्या इंग्लैण्डवासी कभी मुक्त हो पायेंगे? कवि मानते हैं कि यह समय उत्पीड़ितों का उत्पीड़कों के विरुद्ध संघर्ष का समय है। दुनिया के क्रूर बहशी नृप सामंत एक जुट हैं। वे हत्यारे है। लुटेरे हैं। वे गिरोहबंद हैं। गलत तरीकों से उन्होंने सत्ता हथिया ली है। स्वयं को सर्वसत्तधारी होने का अधिकारी भी समझते हैं। लेकिन पूरे योरुप में अब नई सजग प्रजाति जन्म चुकी है। क्रूर सत्ताधारी उस में अपने विनाश के बीज का पूर्वानुमान लगा कर भयभीत हैं। यह भी कि रूस, तुर्की तथा इंग्लैण्ड के तानाशाहों का अंत समीप है। अंतर्राष्ट्रीयता में शैले का यकीन था। वह मानते हैं कि तानाशाहों की सशस्त्र एकता संगठित जनता से ही परास्त की जा सकती है। ‘हैलास का सहगान’ 1827 में रचा गया था। तब से लेकर अंत तक शैले के क्रांतिकारी विचारों में कोई बदलाव देखने को नहीं मिलता। बल्कि समय के साथ वह और प्रखर होता गया है। वह बार बार मनुष्य जाति के शत्रु का स्मरण कराते हैं,
’ क्या मनुय जाति
के ये शत्रु /
अपने शत्रु को भी
पहचानते हैं ?
आखिर सर्वहरा के लिये संघर्ष क्यों आवश्यक है? क्योंकि वही समस्त भौतिक सम्पत्ति का अपने कठिन श्रम से सृजन करता है। शैले शोषक के स्वभाव को भी बेहतर समझते थे। श्रमिक की क्रांतिकारी भूमिका को भी। वही संगठित होकर अपने वर्ग को शोषण उत्पीड़न से मुक्त करा सकता है। कवि ने भौंड़े निठल्ले तथा आलसी सामंतो -कुलकों का गृणास्पद मज़ाक उड़ाते हुये उन्हें खाने-पीने वाला, सोने - झींकने वाला, झूठ बोलने वाला तथा दबाव में घिघियाने वाला बताया है। यह भी कि वे समकालीन साहित्य को अपनी रुग्ण मनोरचना से विषाक्त करते हैं। उनके इरादे, उम्मीदें तथा सोच बहुत ही तुच्छ होते हैं। हर समय सिर्फ अपने लाभ के बारे में ही सोचना उनका जीवन लक्ष्य होता है। यही वह वर्ग है जिसने श्रमिकों के साथ धोखाधड़ी से अपार धन एकत्र कर लिया है।
ज्यों ज्यों औद्योगिक विकास हुआ श्रमिकों का शोषण बढ़ता गया। वे, उनकी स्त्रियाँ तथा बच्चे तक क्रूर यातना झेलते हैं। कठिन श्रम के बाद भी उन्हें पर्याप्त पौष्टिक भोजन नहीं मिलता। न बेहतर कपड़े। अपनी अति प्रतिकूल स्थितियों के वशीभूत वे अज्ञानी, अपराधी तथा अनैतिक बनने को विवश होते हैं। शैले अपनी कविता तथा गद्य में इन्ही लोगों को आंदोलित करने की सोचते हैं। उत्पीड़ितों के हाथ से सत्ता उनके हाथ में सौंपने की प्रविधि बताते हैं -
गहरी नींद में सोये
तुम
शेरों की तरह जाग
उठो
तुम संख्या में अजेय
हो
जिन जंजीरों ने
तुम्हें सोते में
जकड़ लिया है
उन्हें ओस की तरह
धरती पर छिन्न भिन्न
कर दो
तुम असंख्य हो
वे बहुत थोड़े हैं
अपने देश के सर्वहारा
को सम्बोधित करते हुये शैले
कहते हैं -
इंग्लैण्डवासियो -
उन प्रभुओ, सामंतों
के लिये
क्यों जोतते हो खेत
जो तुम्हारा दमन
करते हैं
क्यों बुनते हो कपडा
उनके लिए
इतने श्रम और चिंता
से
तुम्हारे तानाशाह,
प्रजापीड़क
भव्य पोशाकें पहनते
हैं
आखिर क्यों -
अपने जन्म से मौत
तक
उन्हें अन्न उगा
कर देते हो
वस्तुओं का उत्पादन
करके देते हो
अपने प्राण दे कर
उनकी रक्षा करते
हो
वे कृतघ्न हैं, निकम्मे
हैं, नाकारा हैं
तुम्हार पसीना निकालते
हैं
ओह ... नहीं, तुम्हारा
खून भी पीते हैं
ये इंग्लैंड की मधुमक्खियाँ
भट्टियों में तपा
कर
क्यों गढ़ती हैं
निरे हथियार, जंजीरें
और चाबुक
ये डंकहीन, निठल्ल
आलसी
तुम्हारी कठोर कमाई
को
चौपट कर देंगे।
मैं हत्यारे से
रास्ते में मिला
वह एक मुखौटा पहने
था
ऊपर से बहुत शांत
लेकिन अंदर कलुष भरा
था
खून के प्यासे
सात शिकारी कुत्ते
उसके पीछे थे ....।
अराजकता राजा का मुकुट
पहने हुए कहती है -
मैं ईश्वर हूँ, राजा
हूँ, कानून भी
मैं ही हूँ ...
रक्त घास पर
ओस की तरह बिखरा
हुआ है -
तुम उनके लिये (श्रमिकों)
वस्त्र हो
अग्नि हो, भोजन हो
इंग्लैण्ड के किसी हिस्से
में
निडर और मुक्त नागरिकों
की
ऐसी विधानसभा बनने दो
जहाँ विस्तृत मैदानों
जैसा
खुलापन हो
ओ इंग्लैडवासियो
क्या तुम्हें अवकाश,
आराम, शांति नसीब है
तुम्हारे आश्रय
अन्न
प्यार का सुखद मरहम
कहाँ है
यह कैसी नियति है
तुम अपने कष्ट और त्रास
का
मूल्य दे कर ये सब पाते
हो
यहाँ ध्यान देने की बात है कि शैले जहाँ जनता को सम्बोधित करते हैं वहाँ उनकी भाषा, शैली, शब्द विन्यास, शिल्प गठन, संरचना तथा भाव व्यंजना अति सहज -सरल होते हैं। यहाँ कवि का मूल लक्ष्य अपनी जनता को जाग्रत करना है। वह इसी भाषा में संभव है। हमारे जनवदी कवि नागार्जुन, त्रिलोचन तथा केदारबाबू इस बात का ध्यान बराबर रखते हैं। पर मुक्तिबोध सर्वहारा के पक्षधर होकर भी ऐसा नहीं कर पाते। वह दुरूह -अतिदुरूह -तथा फैन्टसी में डूबते उतराते नज़र आते हैं। आज के लोकधर्मी कवि को यह बात सीखने की है। कवि वर्डस्वर्थ ने कविता में जिस सामान्य बोल-चाल की भाषा के प्रयोग का मूलतः प्रस्ताव किया था उसे शैले व्याहारिक बना रहे हैं। कई बार सरल भाषा भी छल करती है। भाषा सरल होती है। पर कहने को कुछ नहीं होता। सम्मान्य कविवर केदारनाथ सिंह तथा विनोदकुमार शुक्ल की भाषा सरल है। उस भाषा में जनता के जीवन के कथ्य न होकर वाग्मिता द्वारा शब्द चमत्कार पैदा किया जाता है। शैले इस पक्ष में भी है कि जनता के लिये सहज-सरल लोकधर्मी साहित्य रचा जाना चाहिए। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कविता, ‘दॅ नेनसी’ के पूर्व कथन में जनता को आंदोलित करने के लिये सामान्य जन की अति परिचित भाषा का प्रयोग करना ही बेहतर बताया है। इस संदर्भ में वह अपने महान अग्रज कवियों का उल्लेख करते हैं जिन्होंने यह कर दिखाया।
इसी प्रक्रिया से बुर्जुआ -कुलीन -सामंती संस्कृति के समानांतर एक अग्रगामी जनवादी संस्कृति रची जा सकती है।
शैले की क्रांतिकारी चेतना का प्रमाण है उनका आयरलैण्डवासियों की स्वतंत्रता का प्रबल समर्थन। सच्चा देश भक्त क्रांतिकारी कवि वही है जो अपने देश की जनता के साथ अन्य देशों की उत्पीड़ित जनता को भी प्रतिरोध के लिये संप्रेरित करे। शैले बार बार अपनी जनता को बताते हैं कि साम्राज्यवादी औपनिवेशिक युद्ध शासको का हित साधते हैं। जनता का तो शोषण ही होता है। वह बराबर प्रश्न उठाते हैं कि श्रमिको -किसानों को उनके कठिन श्रम का समुचित पारिश्रमिक क्यो न मिले ? बार-बार वह अपने स्वतंत्रता प्रेम की ओर लौटते हैं। वह जानते हैं कि नृप तथा सामंत अंदर से खोखले हो चुके हैं -
राजकुमारों और महंतों
के चेहरे
भक्क पड़ चुके हैं
वह राक्षसी आस्था
जिसके सहारे जनता
को
उत्पीड़ित कर
उसका दमन किया गया
था
वह अज्ञ धनुर्धारी
के बाण से
छूटे हुए तीर की तरह
उन्हीं के सीने में
चुभ गया है
तुम बिजाई करते हो
फसल दूसरे काटते
हैं
पूँजी तुम कमाते
हो
दूसरे हड़पते हैं
पोशाके तुम बनाते
हो
दूसरे भव्य दिखते हैं
हथियार तुम ढालते
हो
उनपर दखल औरों का
होता है।
शैले का काव्य नाटक ‘दॅ नैनसी’ में वह जनता के उत्पीड़न के विरुद्ध उसका संघर्ष व्यक्त करते हैं। ‘हैलास’ ग्रीक स्वतंत्रता का आख्यान है। एथेन्स ग्रीक सभ्यता का केंद्र रहा है। शैले नये जनवादी मुक्त एथेन्स के जन्म की भी उम्मीद करते हैं -
एक नया एथेन्स जन्मेगा
वह आगे कहते हैं
-
दुनिया अतीत से थक
चुकी है
ओह ... या तो इसका अंत
हो
या फिर सबकुछ शांत
हो जाये।
शैले अपने राजनीतिक विचारों तथा रणनीतियों से अपनी जाग्रत जनता को बराबर परिचित कराते रहे। अपने श्रमशील किसानों को सम्बोधित करते हुये उन्हें प्रेरित करते हैं
बिजाई करो, बिजाई
पर तानाशाह उसे
न काट पायें
धन कमाओ
पर धोखेबाज़, ढोंगी
उसे तिजूरियों में
न सेंत पायें
भव्य पोशाकें बनाओ
हरामखोर, निकम्मे उसे
न पहन पायें
अपनी सुरक्षा के
लिये
हथियार भी ढालो
उन्हें चलाना भी
सीखो।
ध्यान देने की बात है शैले कवि हैं। राजनीतिक चिंतक बाद में। वह जानते हैं कविता से जनता को उत्प्रेरित तथा आंदोलित करना तथा राजनीतिक व्यूह रचना करना दोनों में फर्क है। फिर भी शैले राजनीतिक कथ्य को व्यक्त करने के लिये सदैव बेचैन दिखते हैं। अंग्रेज़ी में मुझे कोई दूसरा कवि इतना लोकधर्मी तथा सर्वहारा के प्रति समर्पित नहीं दिखता। यही वजह है शैले महान क्रांतिकारी प्रगीति कवि हैं। शैले की सर्वहारा के प्रति इतनी प्रतिबध्दता देखकर इंग्लैण्ड के क्रूर शासकों ने शैले के बच्चों तक को उनसे छीन लिया था। वह स्वेच्छा से उनका लालन पालन तक नहीं कर पाये थे। तानाशाह शासक शैले को उनकी क्रांतिकारी आस्था से डिगाने को ही ऐसा कर रहे थे। इस त्रासदी जनित गहरी वेदना से मर्माहत होकर शैले ने कहा है -
डरो मत -
कि क्रूर अत्याचारी
ही
सदा शासन करेंगे
या ये महँत अपनी पैशाचिक
आस्था को
हम पर थोपते रहेंगे
वे एक उफनती नदी
के
तट पर खड़े हैं
उसकी लहरों पर
उनकी मृत्यु अंकित
हो चुकी है
हजारों अंध घाटियों
की गहराइयाँ
उनमें समा चुकी है
उनके चारों तरफ
उसके उफनते झाग
हैं
उमड़ती लहरें हैं
उनके दण्ड और तलवारें
मैं उसमें तैरते
देखता हूँ ।
शैले योरुप के अलावा एशिया के नवजागरण के प्रति भी सजग हैं। उनका मानना है कि एशिया के बड़े बड़े नृप तंत्र बेहद शक्तिशाली हैं। वे उन भूकंपों से भी धराशायी नहीं हो सकते जिनसे बड़े बड़े पर्वत राख में बदल जाते हैं। शैले सभी क्रांतिकारी चिंतकों को कवि का दर्जा देते हैं।
ध्यान रहे शैले ने सिर्फ राजनीतिक कवितायें ही नहीं लिखी। उन्होंने मनुष्य के कोमल भावों -प्रेम, करुणा, सौंदर्य, प्रकृति के विभिन्न पक्षों को लेकर भी महान कवितायें लिखी है। शैले ने प्रगीति कविता में भी क्रांतिकारी परिवर्तन किये हैं। प्रगीति कविता को जो गांभीर्य, व्यापकता, गहन जीवन मूल्यबोध तथा कलात्मक शिल्प सौष्ठव की अनुलंघ्य ऊँचाइयाँ उन्होंने प्रदान की वे अप्रतिम है। उनकी महान काव्य साधना को उनके विरोधी भी स्वीकार करते हैं। यह सच है कि शैले की क्रांतिधर्मी लोकधर्मिता को बिन जाने-समझे उन्हें समग्रता में नहीं समझा जा सकता। कविता में क्रांति का विज्ञान कह पाना बहुत कठिन है। शैले ने क्रांति विज्ञान तथा उसकी प्रक्रिया को अपनी कविता तथा वैचारिक गद्य में बड़ी कलात्मकता तथा सफलता के साथ कहा है। इंग्लैण्ड जैसे साम्राज्यलोलुप तथा जड़ रूढ़िवादी देश में शैले का अवतरित होना एक ऐसी महान परिघटना है जिसे इतिहास में कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। उनकी अनेक कवितायें क्लैसिक का रूप ले चुकी हैं। खासकर ‘ओज़मैंडियाज़’, ‘ओड टू दॅ वैस्ट विन्ड’, ‘टू दॅ इस्काई लार्क’, ‘ भैन सौफ्ट वुआइसिज़ डाइ’, दॅ क्लाउड’, दॅ मास्क ऑफ एनार्की’, ‘क्वीन मैब’, एलास्टर’, दॅ रिवोल्ट ऑफ इस्लाम’, दॅ ऐडोने’, ‘दॅ ट्राइम्फ ऑफ लाइफ’ आदि।
महान कवि मिल्टन ने भी संसद के पक्ष में नृपतंत्र का भारी विरोध किया था। पर उनका ध्यान सर्वहारा क्रांति पर न था। सर्वहारा की इतनी उत्कट पक्षधरता शैले के अतिरिक्त अंग्रेजी के अन्य किसी कवि में दिखाई नहीं देती। बाद में यह व्यक्त हुई नेरूदा, ब्रेख्त, माइकोवस्की तथा वोले शंयिका आदि में। फर्क यह है कि शैले के समय तक किसी देश में सर्वहारा पक्षधर सरकारें नहीं बनी थी। नेरूदा, ब्रेख्त, माइकोवस्की तथा वोले शयिंका आदि सर्वहारा को प्रतिष्ठित होते देख चुके थे। पर निजी तथा सामाजिक जीवन में यातना जनित कठिनायाँ सबको ही उठानी पड़ी थी। सही अर्थों में लोकधर्मी कवि तथा समीक्षक की यही नियति है। बिना इसके न तो कविता बड़ी बनती है । न कवि व्यक्तित्व। न कवि कर्म अनुलंघ्य गरिमा को प्राप्त कर पाता है।
रूढ़िवादी तथा बुर्जुआ लोग शैले की कड़े शब्दों में निंदा भी करते रहे हैं। क्योंकि शैले सर्वहारा के लिये सामाजिक न्याय दिलाने को अंत तक संघर्षरत रहे। शैले की मृत्यु के बहुत दिनों बाद लोगों ने शैली को समझना शुरू किया। विक्टोरियन कवियों ने शैले को बहुत आदर दिया था। इसी प्रकार प्रि- रेफिलाइट्स ने भी शैले को सराहा। समाजवादी विचाधारा के लोगों को शैले सदा प्रेरणा स्रेात बने रहे। श्रमिक आंदोलन से जुड़े लोगों ने भी शैले को बहुत आदर दिया। जॅार्ज बर्नार्ड शा, मार्क्स, बरट्रेन्ड रसल आदि शैली को बहुत सम्मान देते रहे हैं। मार्क्स तथा एंग्ल्सि ने अपने साहित्यिक पत्रों में शैले का बड़े सम्मान से उल्लेख किया है। उनका मानना है कि बायरन और शैले को लोधर्मी जन पढ़ते -सराहते हैं। कोई भी कुलीन शैले के कविता संग्रह को बिना बे-आबरू हुये अपनी मेज़ पर नहीं रख सकता था। गरीब लोग भाग्यशाली हैं जो शैले के स्वर्गीय साम्राज्य में रह लेते हैं। वह स्वर्गीय साम्राज्य धरती पर अवतरित होने में जाने कितना समय लेगा? पर मैथ्यूआर्नल्ड जैसे समीक्षक शैले को एक ऐसा देवदूत मानते हैं जो शून्य में अपने पंख फड़फडाता है। एलियट ने शैले को नफरत से ‘ब्लैकगार्ड’ तक कहा है। ये वे लेखक है जो लोकधर्मिता को महत्व नहीं देते। न समाज में मूलगामी परविर्तन चाहते हैं। दूसरे, राजनीतिक यथास्थिति के घोर समर्थक भी हैं। शैले की कृतियाँ उनकी मृत्यु के बाद तक अप्रकाशित रहीं। या कहें बहुत कुछ अनजानी भी। उनकी महत्वपूर्ण कृति, ‘ए फिलोफसिकल व्यू ऑफ रिफार्म’ तो 1920 तक पाण्डुलिपि के रूप में ही उपलब्ध थी। वैसे अभी भी शैली के क्रांतिकारी विचारों को न तो इंग्लैण्ड में कोई महत्व देता है। न पूँजी केंद्रित भारतीय विश्वविद्यालयों के अंग्रेजी विभागों में। शैले के बारे में अंग्रेजी समीक्षकों की धिसी पिटी बातें ही रटाते रहते हैं। उनके इस क्रांतिकारी पक्ष को वे ही सराहते हैं जो अपने देश की जनता से एकात्म हो चुके हैं। उनके काव्य संग्रहों में उनकी क्रांतिकारी कविताओं को निर्ममता से फटक दिया जाता है। यह बात शैले के साथ ही नहीं घटी। सब प्रबल लोकधर्मी कवियों को यह जोखिम उठाने को तैयार रहना चाहिये। इधर के एक समीक्षक हैं पॉल फुट । उन्होंने शैले की सुप्रसिद्ध कविता ‘क्वीन मैब’ को संपादित करते हुये कहा है कि इस कविता ने ब्रिटिश क्रांतिकारी परम्परा में प्रमुख भूमिका अदा की है। कुलीन विक्टोरियन शासकों ने शैले की कृतियों को प्रतिबंधित किया था। फिर भी किसी तरह शैले की राजनीतिक कृतियाँ को रिछार्ड कार्ली जैसे प्रकाशकों ने छापने का जोखिम उठाया। उसके लिये उन्हें जेल जाना पड़ा। पर शैले के विचार बहुत बड़े समुदाय के पास पहुँचते रहे। 2007 के मध्य में, ‘पोयटिकल ऐसे ऑन दॅ एक्जिस्टिंग स्टेट ऑफ थिंग्ज़’ की पुनर्खोज तो हुई। पर उसकी उपलब्धता को रोक दिया गया। वह न तो इन्टरनैट पर उपलब्ध है। न अन्य कहीं। उसका अता-पता भी नहीं है। 12 जुलाई 2006 के ‘दॅ टाइम्स लिटरेली स्पलीमैंट’ में उक्त कविता का विश्लेषण छपा है जिसे शैले की ‘काल्पनिक उछल कूद’ बताया गया है। इसका कारण है उनके क्रांतिकारी विचार। हमारे यहाँ भी लोकधर्मी कवियों की कम ज्यादा यही स्थिति रही है। सेठाश्रित पत्रिकाओं के द्वार उनके लिये बंद हैं। प्रकाशन विरल। अन्य पत्रिकयें भी अपने को बचाने के लिये उनसे परहेज करती है। ज्यों ज्यों विश्व में लोकतांत्रि़क तथा सामाजिक न्याय प्रिय सरकारे बनेंगी शैली की कविता का महत्व बढ़ेगा। जनता की पक्षधर सरकारे उनकी कविता से प्रेरणा लेंगी। उनकी कवितायें श्रमिक तथा छोटे किसान सड़कों पर उन्हें गायेंगे। इसीलिए शैली ने अपने देश की जनता को संदेश दिया
ओ इंग्लैण्डवासियो
-
तुम इतने कठिन श्रम से
करहाते हुए
खेत जोतते हो
वे कौन हैं
तुम्हारी फसल काट
कर ले जाते हैं
तुम कपड़ा बुनते हो
जिसे तुम्हारा शोषक
पहनता है
जो दूसरों को सुख
देते हैं
वे अंधड़ बौछारें
सहते हैं
वे देवता है
जो अपना सब कुछ
जन्म से मृत्यु तक
दूसरों को देते रहते
हैं।
मोबाईल-09928242515
(विजेन्द्र जी वरिष्ठ कवि एवं हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिका कृति ओर के संस्थापक सम्पादक हैं।)
(विजेन्द्र जी वरिष्ठ कवि एवं हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिका कृति ओर के संस्थापक सम्पादक हैं।)
हमेशा की तरह विजेन्द्र जी ने फिर से हटकर काम किया है . यह अत्यंत महत्वपूर्ण आलेख है . खासकर हिंदी के युवा कवि /आलोचकों के लिए . हमारे समय के इस महान वरिष्ठतम कवि -आलोचक आदरणीय विजेन्द्र जी की सृजन ऊर्जा को नमन|.
जवाब देंहटाएं- नित्यानंद गायेन