महेश चंद्र पुनेठा




लॉन्ग नाईन्टीज और कविता के सन्दर्भ में चल रही बहस के क्रम में अभी तक आप पढ़ चुके हैं विजेन्द्र, अमीर चन्द्र वैश्य और आग्नेय के आलेख। इसी कड़ी में प्रस्तुत है इस बार युवा कवि और आलोचक महेश चन्द्र पुनेठा का आलेख-
 


सीमित जीवनानुभव के कवि-आलोचकों द्वारा फैलाया गया भ्रम
                          
  
 काव्य में लोकधर्मी परंपरा बहुत पुरानी है।हिंदी काव्य की मूलधारा लोकधर्मी ही रही है। लोकधर्मी कविता कहने से हमारा आशय उस कविता से है जिसमें जीवन रस हो, जीवन के संबंधों का प्रवाह हो तथा हृदय के सच्चे भाव हों। इसमें जो मनुष्य आए वह अपने बल पर खड़ा हो तथा उन उपेक्षितों और परित्यक्तों की बात करती हो, जिनका स्वभाव बड़ी-बड़ी हाँकना नहीं ,सीधी-सरल मगर सच्ची बात करना होता है।जो सौंदर्य का त्याग भी नहीं करती है और लोक या जन से दूर भी नहीं होती है। वह सर्वहारा के आंतरिक गुण और क्षमताओं को दिखाकर उसकी क्षमताओं का अहसास कराती है। सामान्य जन की उत्कंठा, आकांक्षा और पीड़ाओं को गहराई एवं प्रभुविष्णुता से रचती है। जीवन की विविधतापूर्ण समृद्धि प्रकृति का क्रियाशील वैभव और मनुष्य सृजित संसार के बहुमुखी आयामों को विविधिता से चित्रित करती है। पर कुछ कवि-आलोचकों का मानना है कि लोकधर्मी कहने से काव्य की अधिक विस्तृत पढ़त और बढ़त  रूक जाती है। उन्हें किसी कवि को लोकधर्मी कहना उसे एक निश्चित दायरे में कैद कर देना सा लगता है। जैसे कि लोक कोई बाड़ा हो। वे लोक को जीवन संघर्ष से पलायन किए कवियों की शरणगाह मानते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि सबसे अधिक संघर्ष लोक जीवन में ही हैं।वास्तव में देखा जाय तो लोक नहीं अभिजात्य शरणगाह है। यदि कोई कवि लोकजीवन को अपनी कविता में व्यक्त करता है तो वह जीवन की कठिन परिस्थितियों से जूझता-टकराता है। शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ बोलने के खतरे उठाता है।



 दरअसल लोकधर्मी कविता के प्रति यह दृष्टिकोण लोक को गाँव का पर्याय मानने से पैदा हुआ है। यह समझ में नहीं आता है कि लोक को गाँव का पर्याय क्यों मान लिया गया? मुझे अभी तक किसी शब्दकोश में लोक का यह अर्थ नहीं मिला और न ही हिंदी कविता और उसकी आलोचना में जहाँ भी इस शब्द का प्रयोग हुआ है उससे यह अर्थ निसृत होता है। कबीर से लेकर केशव तिवारी तक अनेकानेक कवि-आलोचकों ने इस शब्द का प्रयोग किया है जो एक व्यापक जगत का बोध कराता है। यदि लोक को गाँव मान लिया जाय तब तो लोकतंत्र का अर्थ गाँवतंत्र हो जाएगा। लोकतंत्र को जब हम गाँवतंत्र नहीं मानते तब लोकधर्मी कविता को गाँव की कविता कहना कितना उचित है? लोककल्याणकारी राज्य की बात हमारे संविधान में कही गई तब क्या उसका आशय गाँव के कल्याण से लगाया जाय? आचार्य रामचंद्र शुक्ल का लोकहृदय, लोकमंगल,लोकरंजन, लोकधर्म, लोकजागरण आदि शब्दों में आया लोक क्या गाँव के अर्थ को लिए हुए है? तब ’लोक की कविता’ को गाँव की कविता क्यों मान लिया जाता है? यह बात गले नहीं उतरती है। लोकसंस्कृति, लोकगीत, लोकसाहित्य आदि पदों की बात करें तो यहाँ भी ’लोक’ शब्द से गाँव नहीं बल्कि  ’समूह’ का अर्थ व्यंजित होता है। आचार्य शुक्ल के चर्चित निबंध  'कविता क्या है?’ की कुछ पंक्तियाँ देखिए- 'कविता मनुष्य के हृदय को स्वार्थ-संबधों के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोक-सामान्य भाव-भूमि पर ले जाती है, जहाँ जगत की नाना गतियों के मार्मिक स्वरूप का साक्षात्कार और शुद्ध अनुभूतियों का संचार होता है। इस भूमि पर पहुँचे हुए मनुष्य को कुछ काल के लिए अपना पता नहीं रहता। वह अपनी सत्ता को लोक-सत्ता में लीन किए रहता है।' यहाँ भी ’लोक’ शब्द जन-समूह के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। मीरा जब ’लोकलाज तज दीनी’ की बात कहती है तब भी  लोक गाँव का अर्थ नहीं देता है और न ही मुक्तिबोध की इस काव्य-पंक्ति में- 'लोकहित पिता को घर से निकाल दिया’, फिर लोक बराबर गाँव का भ्रम क्यों फैलाया जाता है? इसको समझने की आवश्यकता है। जबकि ’लोक’ शब्द व्यापक अर्थ को समेटे हुए है। यह उस दुनिया का पर्याय है जो श्रमशीलों से जुड़ी है। अभिजनो से भिन्न है। सामूहिकता, सादगी, स्पष्टता, परस्परिकता, निःश्चलता, बेवाकी, प्रकृति से निकटता  उसकी विशेषता है। गाँव या शहर जैसा भेद इसमें नहीं आता है। जो पेड़,फूल-पत्ती, नदी, पहाड़, पशु-पक्षी और गाँव या अंचल को ही लोक मानते हैं, वे लोक की अवधारणा को सीमित करते हैं। लोक व्यापक जन-जीवन का प्रतीक है जो बंधा नहीं है और नितांत निजी, संकुचित और अस्थाई लक्ष्य से नहीं जुड़ा है। प्रतिरोध और संघर्ष इसका प्रमुख गुण है।



लोक सिर्फ गाँव के लोकगीतों-नृत्यों या कलाओं में ही नहीं है। आदिवासी, किसान, श्रमिक अर्थात अपने श्रम से आजीविका चलाने वाले सभी जन ’लोक’ के अंतर्गत आते हैं जो अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है कि वे गाँव में रह रहे हैं या शहर में। नगर में रह रहे हैं या महानगर में। वरिष्ठ आलोचक जीवन सिंह के शब्दों में कहें तो, 'किसी समाज में सर्वाधिक क्रियाशील शक्ति के रूप में लोक होता है। जीवन की सारी उत्पादकता उसी के कंधों पर टिकी होती है। ज्ञान-विज्ञान में दीक्षित लोग उसी लोक-श्रम की शक्ति के बल पर अपनी इच्छा को क्रिया के रूप में परिणित करते हैं।’ लोक को मनोरंजन का साधन मान कर उसके संघर्ष को भुलाया नहीं जा सकता है। न ही उसको बैठक के कमरों में सजावट की वस्तु माना जा सकता है। लोक शास्त्र का उल्टा है। शास्त्र रूढिबद्धता होता है जबकि लोक में खुलापन जो जीवनानुभवों पर निर्भर होता है। आचार्य भरत ने ’भरत नाट्यम’ में ’दुःख से दुःखी, श्रम से थके  तथा शोक से दबे’ लोगों को लोक कहा है। क्या ऐसे लोग केवल गाँवों तक ही सीमित हैं? ये तो पूरे विश्व में फैले हैं जो शोषण-उत्पीड़न में पिसे हैं और उसके खिलाफ लड़ भी रहे हैं। लोक स्थानसूचक नहीं बल्कि स्थितिसूचक है। उन लोगों का सूचक है जो श्रमरत हैं, कठिन जीवन संघर्ष कर रहे हैं। जो शोषित-दमित पर लोकतंत्र का आधार हैं। वरिष्ठ कवि-आलोचक विजेन्द्र लोक को सबसे सही रूप में परिभाषित करते हैं, ' लोक वह जो इस समाज के निर्माण में लगा हुआ है। किसान या श्रमिक लोक पुरुष हैं। यही सभ्यता के निर्माता हैं। उनका जीवन अभिजात्य के विरूद्ध व्यंग्य और विडंबना है। लोक भद्रता का उलट है।......लोक सर्वहारा का पर्याय है। अतः लोक की सीमा गाँव या जनपद तक नहीं है। वह समूचे विश्व की उभरती ताकत है। ज्यों-ज्यों पूँजी केन्द्रित व्यवस्था साम्राज्यवाद से गठजोड़ कर उसका दमन करेगी त्यों-त्यों उसकी शक्ति बढ़ेगी। वह प्रतिरोध करेगा। संघर्ष कर वह दमन और शोषण से मुक्त होना चाहेगा।’ लोक के इसी स्वरूप को पूरी ईमानदारी और समग्रता से व्यक्त करने वाला कवि ही लोकधर्मी कवि है जिसके लिए जीवन ही सतत् समर, प्रकृति  प्रेरणा और संघर्षशील सर्वहारा ,बल है।वह स्वार्थबद्ध नहीं होता है। वह कविता कुछ पाने के लिए नहीं लिखता। पद-प्रतिष्ठा या पुरस्कार पाना उसका यथेष्ट नहीं होता है। लोक की तरह खरापन उसका स्वभाव होता है। बाहरी टीम-टाम और आडंबर-पाखंड से दूर रहता है। इसलिए लोक को जाने समझे और व्यक्त किए बिना हम एक अच्छे कवि नहीं हो सकते हैं। लोकतंत्र में हमें लोक को नई आँख से देखना ही होगा।



’लोकजीवन’ से आशय उस जीवन से है जो शहरी उच्च मध्यवर्गीय जीवनानुभवों से बाहर पड़ता है। नागार्जुन, केदार,त्रिलोचन सहित अधिकांश लोकधर्मी कवियों ने अपनी कविताओं में इस जीवन को ही स्थान दिया है। लोकधर्मी होने का मतलब लोकजीवन की चिंताओं के प्रति तादात्म्यता है। आत्मबद्धता से बाहर निकलकर जगतबद्ध होना है।जो कवि अपने तक ही सीमित हैं और अपने मन की उमड़न-घुमड़न को ही कविता में व्यक्त करते हैं , वे लोकधर्मी नहीं कहे जा सकते हैं। इस तरह की कविता की लोक या जनसामान्य  के लिए कोई प्रासंगिकता नहीं है। समय और समाज की टकराहट में यदि स्थितियों का विश्लेषण नहीं किया जाता है तो वह एकांगी और आत्मनिष्ठ  है। जीवन चिंता और जीवन सौंदर्य की अभिव्यक्ति ही कविता को बड़ा बनाती है। अपने समय के जीवन के प्रति अत्यंत सीमित-सिकुड़ी-सिमटी समझ से बड़ी कविता नहीं लिखी जा सकती है। ऐसी कविता विसंगति-विडंबना तक ही सीमित रह जाएगी उसमें जीवन की व्यापकता नहीं आ सकती है। वह तो लोक से जुड़कर ही आ सकती है। जिसे कबीर लोकानुभव कहते हैं। यह तभी संभव है जब लोकजीवन और प्रकृति के व्यापक फलक से हमारी निकटता हो। लोक की बात करना जीवन को व्यापकता और गहराई में देखना है। अतः लोक से बाहर निकलने का मतलब तो एक संकीर्ण व सीमित दुनिया में जाना है जो शास्त्र तक सीमित है। जब कोई कवि लोक की व्यापक दुनिया से निकलकर सीमित दुनिया में जाएगा तो स्वाभाविक है फिर वह कविता में क्रीड़ा-कौतुक और अर्थ चमत्कार ही पैदा करेगा। एक बड़ी कविता लोेक से जुड़कर ही लिखी जा सकती है। विश्वसाहित्य को उठा लीजिए, आप पाएंगे कि हर बड़ी रचना लोक से आबद्ध हो तथा सामंती-पूँजीवादी व्यवस्था का विरोध करके ही बड़ी हुई है।



यह सही है कि लोकधर्मिता के नाम पर बहुत सारी कविताओं में पुरास्मृति के बिंब घटित होते दिखाए जा रहे हैं वास्तव में जो नष्ट हो रहा है उसके प्रमाण कविता में नहीं दिखाई दे रहे हैं। लोकधर्मी कहलाने वाले  कुछ कवियों के यहाँ लोक तो खूब लदा रहता है पर उसे व्यक्त करने की सही राजनीति और विचारधारा से उसकी निकटता नहीं दिखाई देती है। लिजलिजी भावुकता के दर्शन होते हैं। पेड़,फूल-पत्ती, नदी, पहाड़, पशु-पक्षी और गाँव या अंचल के जन-जीवन का चित्रण ही  लोकधर्मिता मान ली जाती है। लोक में व्याप्त अंधविश्वासों-रूढ़ियों का महिमामंडन भी किया जाता है। कविता में केवल गाँव-जवार या खाँटी देशजता का चित्रण ही होता है। द्वंद्वात्मकता का अभाव दिखता है। आधुनिकता और उस पर आसन्न सामाजिक-राजनैतिक संकटों की कसौटी पर लोक को नहीं कसा जाता।मैं सुबोध शुक्ला की इस बात से सहमत हूँ कि  " लोक का सरलीकरण संभव नहीं है। कविता में लोक का इस्तेमाल किसी चकमक पत्थर की तरह अथवा कढ़ाई के धागे की तरह करने वाले ही उसका सार्वधिक नुकसान कर रहे हैं। ’ यह भी  बिल्कुल सही है कि एक खास लोकेल के चमत्कारी दृश्यों को रूमानी तरीके से और लद्धड़ भाषा में प्रस्तुत करना लोकधर्मिता नहीं है जो इसे लोकधर्मिता मानता है वह लोक की आधी-अधूरी, सतही और भ्रमित समझ रखता है।ऐसे ही कवि-आलोचक लोक में फँसते हैं रमते नहीं। परंतु ये सब कवियों की सीमाएं हैं लोक की अवधारणा की नहीं। जो कवि लोक को ऐतिहासिक द्वंद्वात्मकता की कसौटी में कसता है। उसके यहाँ प्रकृति और जीवन के कुछ दृश्यमात्र ही नजर नहीं आते हैं बल्कि लोक का पूरा संघर्ष ,संघर्ष के कारण और उनसे मुक्ति के उपाय भी अभिव्यक्त होते हैं। सामाजिक-राजनैतिक अंतर्विरोध उजागर होते हैं।शोषित-उत्पीड़ित ही नहीं शोषक-उत्पीड़क भी साफ-साफ नजर आते हैं। जीवन ,प्रकृति और समाज की विविधता पूरी समग्रता के साथ दिखती है।



  यदि लोकधर्मी कविता में गाँव का जन-जीवन और उसके चित्र अधिक आते हैं तो उसके पीछे ठोस कारण हैं क्योंकि लोक या सर्वहारा वर्ग का बड़ा हिस्सा अभी भी गाँवों में रहते हुए अभावों की जिंदगी जीने को विवश है या किसी नगर या महानगर में रहते हुए भी गाँव उनकी चिंताओं में बना हुआ है।ऐसे में यदि गाँव की, कविता में अधिक बात की जाती है तो यह गलत क्या है ? हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि गाँव जैसे भी हों भले-बुरे पर आज भी विकास और सुख-सुविधाओं की दृष्टि से  शहरों से बहुत पीछे हैं। अभावों और उपेक्षाओं के शिकार हैं। आज भी उनके विकास की लड़ाई लड़ने की जरूरत है। इस लिहाज से उनका कविता के केंद्र में होना स्वाभाविक ही है।कविता में हाशिए की आवाज का अभिव्यक्त होना गतल कहाँ है?यह सही है गाँव आज बदल गए हैं। गाँवों में अब वह बात नहीं रही जो आज से दो-चार दशक पहले थी। तब क्या उन बदलावों को कविता में दर्ज नहीं होना चाहिए ? उनकी कमजोरियाँ , बदलाव ,अंतर्विरोध ,विकृतियाँ आदि सभी बातें कविता में दर्ज होनी चाहिए। किसी कवि का इस लोक से बाहर निकलना खुशी की बात कैस मानी जा सकती है? या इस लोक को नजदीकी से देखना और कविता में अभिव्यक्त करना वहाँ ’फँसना’ कैसे माना जा सकता है?’फँसना’ शब्द तो मजबूरी का परिचायक है। एक मध्यवर्गीय जीवन जीने वाले कवि-आलोचकों को ही लोक में जाना ’फँसने’ की तरह लग सकता है। वही लोक से जितनी जल्दी हो सके बाहर भाग निकलने की कोशिश करता है। उसके भी ठोस कारण हैं। दरअसल हमारे मध्यवर्गीय कवि-आलोचक जिस तरह का आरामतबलब जीवन जीते हुए शब्दों में खुद को जनपक्षधर दिखान चाहते हैं लेकिन लोक जीवन के दुर्धर्ष कष्ट और संघर्ष उनसे प्रश्न पूछते हुए लगते हैं इसलिए अपनी सुविधा के लिए जल्दी से जल्दी खुद तो दूर चले ही जाना चाहते हैं दूसरों को भी वैसा ही करने को प्रेरित करते हैं।



 कभी कविता में कुलीनतावाद का विरोध करने वाला आलोचक आज जब ’लोक से बाहर निकलने’ को किसी कवि के विकास के रूप देखता है तो यह उसका विचलन नहीं तो और क्या है? क्या यह गाँव या जनपद के प्रति हिकारत का भाव नहीं है? ऐसे कवि-आलोचकों के प्रति कवि मित्र केशव तिवारी यह बात मुझे अच्छी लगती है कि ’’अपनी जरूरत का अन्न, फल-फूल,साग-सब्जी ,दूध-दही आदि हम लोक से लेते हैं। हमारे फार्म हाउसों , कल-कारखानों, घरों में काम करने वाले लोग लोक से आते हैं। अपनी हर जरूरत के लिए हम लोक की ओर देखते हैं जिसमें किसी को कोई हिचक नहीं होती है। कोई किसी तरह का परहेज नहीं करता है पर वहाँ से आने वाली संवेदना से हमें दिक्कत क्यों होने लगती है? लोक की संवेदना पिछड़ी क्यों प्रतीत होने लगती है?’’  कुछ आलोचक इधर की लोकधर्मी कविताओं पर यह आरोप भी लगाते हैं कि ये कविताएं अक्सर ग्रामीण लोक के लालित्य का ही बखान करती हैं। लोक में व्याप्त सामंती आचरणों और उसकी बढ़ती विद्रूपता को नहीं देख पाती हैं।इनमें विविधता और वैचारिकी का अभाव हैं। ये व्यापक लोक से अपना संबंध नहीं जोड़ पाती हैं। इसमें  गाँवों के जीवन की परंपरागत लय,सादगी,सरलता,निष्कपटता, आत्मनिर्भरता, उच्च जीवन मूल्यों से जुड़ाव, भाईचारे, स्नेह, आपसी सौहार्द तथा सामूहिक सहअस्तित्व की स्थितियों पर मंडराता संकट, मूल्यविहीन राजनीति, स्वार्थ, तिकड़मबाजी, क्षुद्र महत्वाकांक्षाओं, स्पर्धा, जातिवाद, संगठित अपराध से ग्रस्त ग्रामीण समाज, वैश्वीकरण के लोकजीवन पर प्रभाव, किसानों की आत्महत्या, परम्परागत काम-धंधों में आए परिवर्तन आदि नहीं दिखाई देते है। यह आरोप कुछ हद तक सही हो सकता है पर पूरी तरह नहीं। इधर लिखी जा रही लोकधर्मी कविताओं में ऐसी कविताओं की पर्याप्त संख्या मिल जाएगी जिनमें उपरोक्त बातों का गहरा एवं व्यापक चित्रण मिलता है। जिनका यहाँ विस्तार के भय से उल्लेख संभव नहीं हो पा रहा है।



कोई दूर-दराज जनपदों में रचनारत कवियों की कविताओं को पढ़ने की जुर्रत तो करे। जो आलोचक-समीक्षक कवियों से तो व्यापक लोक से संबंध जोड़ने की अपेक्षा करते हैं उन्हें पहले कविता के व्यापक लोक से संबंध जोड़ना चाहिए। जिन स्वनामधन्य आलोचकों की नजर साहित्य के बड़े केंद्रों और सत्ताश्रयी-रंगीन-चमकीले कागजों में निकलने वाली पत्रिकाओं से बाहर नहीं जाती है, जो अपने आग्रहों-पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हो पाते, वे भला  ये सब कहाँ से देख पाएंगे? फलस्वरुप अपनी नजर की सीमा को कविता की सीमा बना देते हैं। इसके लिए तो शिवकुमार मिश्र, विजेन्द्र,विष्णु चंद्र शर्मा, आनंद प्रकाश ,जीवन सिंह ,रमाकांत शर्मा, रेवतीरमण, सियारामशर्मा, कर्मेन्दु शिशिर, ए0अरिविंदाक्षन, सूरज पालीवाल, अमीरचंद वैश्य, रामकुमार कृषक, ज्ञानेन्द्रपति ,मदन कश्यप, नूर मुहम्मद नूर , एकांत श्रीवास्तव, कपिलेश भोज, रश्मि रेखा, भरत प्रसाद, बलभद्र, जितेन्द्र श्रीवास्तव, रमेश प्रजापति, सत्येंद्र पांडे, नीलकमल, अच्युतानंद मिश्र, सुबोध शुक्ला सरीखे लोकोन्मुखी आलोचक-संपादकों जैसी दृष्टि की आवश्यकता होती है। दरअसल दिक्कत यह है कि मध्यवर्गीय कवि-आलोचकों के पास सीमित जीवनानुभव होने के कारण लोक की व्यापकता और गहराई में वे उतर नहीं पाते हैं। लोक के कठिन और दुर्गम जीवन से जुड़ना उनके वश में होता नहीं है ऐसे में लोक को नकार और उसको सीमित दिखाकर ,वे अपने कद और अनुभव को बड़ा दिखाने की जोड़-जुगत करते हैं। उसी जोड़-जुगत में ’लोक’ की लाइन को मिटा कर वे अपनी लाइन को बड़ा करने की नाकाम कोशिश करते हैं।लोक के नाम पर फैलाए जा रहे तमाम भ्रमों को इसी कड़ी में देखा जाना चाहिए।

 

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महेश चन्द्र पुनेठा हिन्दी के महत्वपूर्ण युवा कवि  एवं आलोचक हैं। इनका एक काव्य संग्रह भय अतल' में काफी चर्चा में रहा है।
इस आलेख में प्रयुक्त की गयी सभी पेंटिंग्स मशहूर कलाकार वान गॉग की है। जिसे हमने गूगल से साभार लिया है।


संपर्कः 
जोशी भवन, निकट लीड बैंक 
पिथौरागढ़ 262501 (उत्तराखंड)
मो- 09411707470

टिप्पणियाँ

  1. गझिन और सारगर्भित आलोचनात्मक आलेख पढकर अच्छा ही नहीं लगा वरन ज्ञानवर्धन भी हुआ |आभार

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  2. अच्छा आलेख ..लोक की बेहतरीन व्याख्या की है आपने |इसे पढने के बाद कई चीजें साफ़ हो जाती हैं |बधाई आपको |

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  3. बहुत बढ़िया लेख , पढ़कर लोकधर्मी कविता के विषय में काफ़ी जानकारी मिली . महेश भैया और आपको बधाई एवं आभार .
    सादर
    नित्यानंद गायेन

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  4. लोक .... ये शब्द विस्तृत भाव से परिपूर्ण है .... सीमित संदर्भों मे इसकी गरिमा भी कम हो जाती है .....बहुत गहन विश्लेषण के साथ आपकी ये प्रस्तुति सराहनीय है ।

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  5. महेश जी " लोक " शब्द के अर्थ को विशिष्ट स्पष्टता देते हुए यह लेख ज्ञानवर्धक है , इसमे आपने कही से भी कोई शक अथवा संशय की गुंजाइश तक नही छोडी है ,. हर पहलू की व्याख्या के साथ स्पष्ट कर दिया है ,.यह जानकारी बहुत अच्छी लगी । आपका आभार ।

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  6. 'लोक' को लेकर लिखा आपका आलेख महत्वपूर्ण है ज्ञानवर्धक है पूरी परम्परा को आपने समेटा है ,और वर्तमान के सन्दर्भ में लोक की महत्वपूर्ण व्याख्या के साथ-साथ लोक की चुनोतियों से भी अवगत करने के लिए धन्यवाद 'लेख को पढ़ते हुए रसूल हमजातोव का 'मेरा दागिस्तान' और उसके लोक का जीवंत वैभव याद हो आया बधाई और आभार

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  7. बहुत सारे नाम लोकधर्म से मेल नहीं खाते, बस यही आपत्ति है, आप उनके गुणों से शायद अभी अपरिचित हैं...

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  8. Krochvadh kee baat yaad karen baalmiki ki panktiyon ke saath Kavita ka janm hee anyaya ke virodh se hua tha. Lok alok longninetees jaise shabdon ka bhram failaane se kisi ka bhala bhale ho jaye par kavita ka to nahi hee hoga.aapse bold alekh ki apeksha thi baharaal...abhaar. -kamal jeet choudhary ( j and k )

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  9. बढिया लेख है. वैसे लोकधर्मी आलोचकों की सूची पूरी तरह आश्वस्त करती सी नहीं लगती. कुछ ज़्यादा उदारता बरती है. संभव है मेरी समझ का ही फेर हो. अवधारणा की साफ़ और स्पष्ट समझ के लिए बधाई.बधाई.

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  10. लोकधर्मिता को बेहतर तरीके समझाने हेतु आपका बेहद आभार. इस महत्वपूर्ण लेख के लिए बधाई. मध्यमवर्गीय लेखकों/कवियों/आलोचकों की कथित लोकधर्मिता की हकीकत को बेबाकी से सामने रखने हेतु साधुवाद.

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  11. आशा है यह लेख कविता को लेकर फैलाये गए भ्रम-जाल को तोड़ने में अपनी सशक्त भूमिका निभाएगा और नए कवियों की काव्य-दृष्टि को निर्मल करेगा ! इस उपयोगी लेख के लिए महेश जी को बधाई !

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  12. ek gyanwardhak aalekh. aabhar!......Chintamani Joshi

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  13. ---साफ़-साफ़ देखना-अनुभव से या कल्पना से --- फ़िर लिखना साहित्य है ....समाज की वास्तविक स्थिति का प्रकटन -----लेख में "लौकत" बा........Santosh Mishra

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  14. लोक पर केन्द्रित सारगर्भित आलेख के लिए वधाई !......Parmanand Shastri

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  15. आशा है यह लेख कविता को लेकर फैलाये गए भ्रम-जाल को तोड़ने में अपनी सशक्त भूमिका निभाएगा और नए कवियों की काव्य-दृष्टि को निर्मल करेगा ! इस उपयोगी लेख के लिए महेश जी को बधाई !......Misir Arun

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  16. एक महत्त्वपूर्ण आलेख ...आपने लोक , लोकधर्मिता और
    लोक कविता की अवधारणा को बारीकी से स्पष्ट किया है
    एतदर्थ बधाई .-मीठेश निर्मोही

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  17. अत्यंत महत्त्व पूर्ण एवं उपयोगी लेख .....बहुत सी बातें सीखने को मिली ..बधाई

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  18. महेश पुनेठा का यह आलेख लोक पर बहुत अच्छा आलेख है। हमारे देश में ही देखा जाय तो उच्च मध्य वर्ग करीब एक करोड़ है। इनको छोड़ दिया जाय तो 120 करोड़ लोग तो लोक ही हैं। उनके संस्कार एवं संघर्ष कमोबेश एक से हैं। ऐसे में लोक को उपेक्षित कर कोई महत्वपूर्ण रचना नहीं की जा सकती।
    बुद्धिलाल पाल

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  19. महेश जी ने लोक की धार के बीच खड़े होकर अपनी बातें कही हैं , इससे उनकी धारणाओं में लोकानुभव की आंच स्वत;आ गयी है ।जीवन का ताप ही लोक को उस जीवन से अलग करता है , जो जीवन भर ठंडेपन से ग्रस्त रहता है ।दरअसल यह एक कवि द्वारा लिखी अनुभवों से गुजरी आलोचना है ।जरूरी यह भी है कि उस मध्यवर्गीय सीमित भावबोध की कविता से लोक की कविता की तथ्यपूर्ण तुलना हो , जो अपनी सांसारिक शक्ति और सत्ता की वजह से मुख्यधारा में बनी रहती है ।, महेश जी ने सही कहा है कि लोक का जीवन अन्य सभी वर्गों के जीवन से ज्यादा संघर्षपूर्ण होता है ।हमारे देश में वह आज भी रोटी,कपड़ा और मकान की लड़ाई लड़ रहा है ,जबकि मध्यवर्ग के सामने वैसी चुनौतियां नहीं हैं ।वह सुविधा सम्पन्न शहरी जीवन जीते हुए उन जीवनानुभवों से दूर होता जाता है ,जो हर युग में साहित्य का खनिज रहे हैं ।इसी वजह से यदि लोक की कविता में गाँव ज्यादा आता है तो यह एक जरूरत के तहत है , न कि शरणगाह ।प्रेम चंद का पूरा साहित्य ग्राम-जीवन पर आधारित है और यही उसकी ताकत भी है ,।महेश जी को मेहनत और चिन्तापूर्वक तैयार किये आलेख के लिए बधाई ।

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  20. लोक शब्द का गहरा विश्लेषण करता आलेख ...बधाई.....अवनीश उनियाल

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  21. जिन लोगो में लोक को लेकर जो रोमांटिक या रोमांचित करने वाली समझ है , वह लोग महेश भाई का यह लेख आँख खोलकर और दिमाग खोलकर कर पढ़ें।
    भारतीय परम्परा में लोक क्या है -'सबौ भूमि गोपाल की ' ..... इसका ऐतिहासिक और सामाजिक विकास क्या है ? लोक क्या सिर्फ ग्रामीण जीवन और उसके आसपास के जंगल तक सीमित है .... जी नहीं .. कंक्रीट के जंगलों के बीच संघर्ष कर रहे जीवन यर्थाथ को देखना व समझना भी लोक का ही अंग है। नई उदारवादी नीतियों ने किस तरह से इस जन-जीवन के संघर्ष और दुःख दर्दों को बढाया है ..... पूंजीवाद के दंश का विषवमन सबसे ज्यादा इन्ही लोगो के हिस्से आया है। उनके जीवन के हिस्सों और उनके सामने पैदा हुई नई जीवन स्थितियों में उनके संघर्ष व कठिनाईयों को अपनी कविता में व्यक्त करना , जन जीवन को करीब से देखकर शब्द -चित्रों का निर्माण करना लोक का विस्तार है। सांस्कृतिक मूल्यों को नागरी मध्यवर्गीय क्षण के आत्म लापी प्रलाप के हस्तक्षेप बगैर एकदम अलग .............

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  22. मेरा मानना है कि तात्कालिकता को एकमात्र यथार्थ और प्रतिक्रिया को एकमात्र सौन्दर्य-बोध मानने वाली रचना-प्रक्रिया ने ही लोक की संकल्पना को गहरे आघात दिये हैं.महेश जी ने लोक को उसके अमूर्त और औपचारिक क्षेत्रफल से बाहर निकालने का सक्षम कार्य किया है. सृजन और सरोकारों के उन्मादी प्रलापों की क्रूर शिनाख्त करता यह पाठ लोक को हमारे जीवन के नैसर्गिक दस्तावेज़ की तरह सामने लाता है...........उन्हें बधाई......सुबोध शुक्ला

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  23. लोक की अवधारणा पर एक स्पष्ट संतुलित आलेख के लिए आभार आपको .. अगर किसी कवि के कवित्त को अलग अलग खांचों में बाँट कर भी हम देखें तो मैं सोचता हूँ उसके पास लोक वाला एक सुगठित खांचा अवश्य हो - कविता से लोक का गायब रहना कविता के ही गायब होने सरीखा होगा और वर्तमान समय में हमें चारणों भाटों व भक्तों प्रकार के किसी नियो कवि की दरकार बिलकुल नहीं है .. मैं सोचता हूँ कि पूंजीवाद के विकास के समानान्तर लोक को साहित्य में और ज्यादा स्पेस मुहैया कराना किसी रचनाकार की नैतिक जिम्मेवारी भी बनती है .. इससे चूकना वैचारिकता के स्तर पर एक बड़ी चूक होनी है ..

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  24. लोक की व्यापकता को दिखाने वाला यह आलेख सच्चे तौर पर एक जीवन दृष्टि देता है जो मनुष्य को आम मनुष्य ( लोक ) से जोड़ती है... लोक से किनारा करना तो जीवन से ही किनारा करना है ।कौन है जो खुद को साहित्यकार मानते हुए भी लोक को एक सीमा मानता है ?
    लेकिन इस आलेख को लॉन्ग नाइंटीज के संदर्भ के साथ क्यों दिया गया ?

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  25. एक बहुत अच्छा और सुलझा हुआ आलेख है.आम तौर पर लोक सुलभ होते हुए भी आम समझ से परे रहता है. महेश जी ने इसे आसान बनाया है. संभव है कि कहीं कुछ बातों का प्रयोग मै कहीं कर लूं लेकिन वह साभार होगा. आशा है कि महेश जी को इसमें आपत्ति नहीं होगी. आलेख के लिए बधाई.

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  26. Mahesh ji vaicharik aur samikshatmak gadya main jam kar kam kar rahe hain....ye aalekh iska praman hai....sadhuvaad....Atma Ranjan

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  27. सारगर्भित आलेख ..पहले बधाई स्वीकार करें...वाकई यह भ्रम अफवाह की तरह फैल चुका है कि जो कवि ग्रामीण जन-जीवन पर लिखता है वही लोकधर्मी है, संभवतः आज से 50-60 साल पहले की स्थिति में वह सही रहा होगा, लेकिन शहरीकरण के इस युग में ग्राम एवं कसबों सभी का नगरीकरण हो चुका है, फिर ग्रामीण जनजीवन भी शहर पर ही निर्भर है, ग्रामों को स्वतंत्र इकाई तो बिलकुल भी नहीं माना जा सकता। अब तो लोक की परिभाषा बदलनी ही होगी, आपने बड़े ही अच्छे से अपनी बात को रखा है एक बार फिर बधाई स्वीकारें.

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  28. लोकधर्म पर आपका विस्तृत आलेख पढ़ा.
    बहुत सी बातों की और महत्वपुर्ण इशारा है. जीवन सिंह और सुबोध शुक्ल के कथन एकदम सही है. कविता पर यह शायद इस और सोचा गया एक महत्वपुर्ण आलेख. आपको बधाई.....नीलोत्पल उज्जैन

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  29. aalekh-achcha hai. lok-shahar ka ho, kasbe ka ya gavn ka-usaki upechcha kar sahitya sambhav hi nahin.......Shailendra Shrivastava

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  30. acchhaa aalekh hai ...kam shabdon me aapne poora vishleshan kar diyaa ...bahut badhaai aur shubhkaamanayen.......Rohit G Rusia

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  31. behtreen....lok ka matlab logo ke samuh se hai aur pahle adhhktar log gaanv mei rahtez they, log apne tradition and sanskrity ko lekar bahut sanjeeda they,unhi logo par likhe geet,kavita lok geet aur lok kavita ho gye ......Virender Bhatia

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  32. यह सीमेंट और ईंट , कंक्रीट से बना सभ्य समाज भी इसी लोक की उपज है . स्वर्ग लोक , नर्क लोक , परलोक , पृथ्वी लोक , पाताल लोक , माने वो स्थान जहाँ लोगों का निवास है .. कविताओं को एक नदी की तरह बहने देना चाहिय उसके बहाव को रोकने के लिय बाँध हमने लगाय है . उसे सीमाओं में बाँधने की कोशिश हम करते है ...कवि का काम है संकेतों में उसके चारों तरफ की सृष्टि को प्रस्तुत करना ....कवि जब भी अपने सुन्दर भावों को हवाओं में बहाता है तो उस हवा पर उस कवि का भी हक नहीं रहता . .. वो स्वतंत्र होकर बहती है .. ज़ाहिर है कि कवि की भावनाएं तभी उद्वेलित होती है जब वह अपने चारों तरफ के जीवन से प्रभावित होता है .. उसे वो सभी कारण लिखने के लिय विवश करते हैं जो उसके लोक में घट रही है -जीवन का संघर्ष , समाज की चिंताएं , समाज का बदलता स्वरुप ,, प्रकृति का क्षरण , बदलते रिश्तों के बीच बदलती दुनिया ,, कुंठाएं आदि ...अपनी संवेदनाओं को वह किसी व्यक्ति विशेष या समुदाय के लिय नहीं लिखता .... वह संकेतों में इस लोक में घट रही घटनाओं का चित्रण करता है ...... इसीलिए यह कहना मुझे भी तर्कसंगत नहीं लगता कि किसी कविता को लोक धर्मी कहना उसे एक निश्चित दायरे में कैद करने जैसा है .... यह बाड़ा हमने लगाया है .. हमारी बुद्धि ने क्योंकि इस लोक शब्द के संकुचित अर्थ को कहीं ना कहीं हमारी संकुचित विचारधारा ने ही जन्म दिया है
    व्यक्तिगत तौर पर मुझे लगता है कि कविता को एक स्वतंत्र नदी की तरह बहने देना चाहिए ..एक पक्षी की तरह इसे स्वतंत्र आकाश में उडने देना चाहिए .....Sunita Katoch

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    1. सही लिखा है . कविता बन्धन और निर्देश नहीं मानती . इसी लिए वह कविता है .

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  33. आपके अनुसार लोक का अर्थ जन से है , और यह उसको व्यापकता देता है , सहमत हूँ पर एक जिज्ञासा है कि मेरी समझ में जिस रूप में लोक साहित्य / गीत /संगीत को समझा जाता है , वह पूंजीवादी मशीनी समाज /जटिल जीवनशैली की अमानवीय स्थितियों के बरक्स प्रक्रति पर निर्भर खेतिहर समाजो / पूर्व पूंजीवादी समाजो की साधारण ,सरल जीवन को दर्शाता है . अगर लोक से अर्थ जन समूह लेंगे , तो इस भिन्नता को दर्शाने वाला शब्द क्या होगा ?.......Pan Bohra

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  34. लोक को लेकर वागर्थ के फ़रवरी अंक में वरिष्ठ आलोचक शम्भुनाथ अपने आलेख में लिखते हैं कि ........यह लोक आज कुछ बदले जीवन और वेश-भूषा में हो ,पर वही है ,जो सैकड़ों साल से शास्त्र और सत्ता से टकराता रहा है .यह बुद्ध के समय का पाली भाषा बोलने वाला लोक है .यह भक्तियुगीन लोकजागरण का लोक है.यह १८५७ का लोक है.यह भारतेंदु के अंधेर नगरी के बाजार का लोक है .यह प्रेमचंद,रामचंद्र शुक्ल,निराला और नागार्जुन का लोक है.जिस तरह भारत के नागरिक का अर्थ सिर्फ नगरों में रहने वाले लोग ही नहीं है,उसी तरह लोक का अर्थ सिर्फ गांवों में रहने वाले लोग नहीं है.यह लोक फोक नहीं है अर्थ बदला है .यह लोक ऐसी जगह है ,जहाँ उपेक्षित ,दलित,किसान, स्त्री,आदिवासी और वैश्वीकरण के विकास से वंचित ,ठेके पर गुलामों की तरह काम करते श्रमजीवी सब एकसाथ हैं .यह राज सत्ताधारियों ,बहुराष्ट्रीय सम्पर्क्वाले व्यापारियों और सुविधाजीवी नागरिकों के बाहर देश के नब्बे प्रतिशत लोगों की दुनिया है .

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  35. बोहरा जी ने सही सवाल उठाया है ।इसकी वजह लोक शब्द का प्रयोग अनेक संदर्भी होना है ।जहां तक मैं समझ पाया हूँ , आज की कविता को जब हम लोक के सन्दर्भ में परिभाषित करते हैं तो उसका सन्दर्भ ----वर्गीय ----होता है ।जब से सरप्लस पैदा हुआ और समाज वर्गों में विभक्त हुआ तभी से हमारा सोच भी वर्गीय होता गया , जो होना जरूरी था ।इससे द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न हुई ।दूसरे , अभिजात और कुलीन लेखन से भिन्न लोकजीवन यानी किसान जीवन के स्तर पर लोक साहित्य की एक समानांतर धारा प्रवाहित होती रही , लोक उस अर्थ में भी रूढ़ हुआ ।इससे भिन्न लोक शब्द अपने अर्थ के साथ और जीवनानुभवों के रूप में शास्त्रीय परम्परा के प्रवाह रूप में चले आ रहे साहित्य को भी नया रूप देता रहा ।आज के समाज की वर्गीय संरचना को देखें तो स्पष्ट हो जायगा कि मौजूदा स्थितियों में --- लोक का सन्दर्भ ख़ास तौर से निम्न मेहनतकश वर्ग से है ।इस रूप में आज का लोक भक्तिकालीन लोक से अलग नया अर्थ रखता है ।इसे हम लोकतंत्र शब्द में प्रयुक्त लोक से भी समझ सकते हैं ।जहाँ यह लोक साहित्य से अलग हो जाता है ।निराला की परवर्ती कवितायें लोकानुभावों पर आधारित कवितायें ही तो हैं ।आज हिंदी कविता का सृजन करने वाले दो वर्ग हैं ----मध्य और निम्नमध्य ।निम्नमध्यवर्ग की अनुभूतियों में जहां देश के श्रमिक-किसान आते हैं वहाँ लोक की उपस्थिति रहती है ।चूंकि , आज भी हमारे देश में खेती और किसानी का बहुमत है , इस वजह से गाँव की बात कुछ ज्यादा आ जाये और उसके साथ प्रकृति आ जाय तो यह अनुभव को सहेज कर ही आता है , न कि किसी तरह के रूपवाद के तहत ।

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    1. माने , हम ऐसा भी कह सकते हैं सर , कि विजेन्द्र का लोक तुलसी दास के लोक से भिन्न है , क्यों कि विजेन्द्र में जो वर्गीय सोच मौजूद है वह तुलसी दास में नहीं थी ?

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  36. बहुत सुन्दर आलेख
    नमन आपकी कलमकारी को

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  37. halanki mai itna bada tarkshastri nahi hon. Lekin aapki baat se sahmat hon. Lok aur gawn main bahut bada antar hai. Loktantra ko gawn ka tantra nahi kaha ja sakta hai aur na hi kisi lokgeet ko gawn ka geet.......Navin Dimri Badal

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  38. वैसे जीवन सिंह जी ने बात कह दी है.देखिये पहले तो हम लोक को कोई ब्रांड नहीं बनाना चाहते . क्यूंकि ब्रांड है तो बेचने की प्रक्रिया आगे शुरू होती ही है.यह सब लोक के साथ कवियों ने किया भी .इन्हीं प्रवृत्तियों और एक खास मध्य वर्ग द्वारा गलत व्याख्या के कारन बार-बार सही पक्ष के साथ आना पड़ता है .लोक के साथ शोषण ,आर्थिक असमानता ,उनके सामाजिक कमजोरियों के सवाल नत्थी हैं .उनसे दो-चार हुए बिना आप लोक की कविता पर बात नहीं कर सकते.लोक को अक्सर गलत ब्याख्या में उलझाया जाता है .लोक का सीधा मतलब सर्वहारा से जुड़ता है .लोक वहां के भूगोल से जुड़कर व्यापक हो जाता है .प्रो.चन्द्रबली सिंह से अपनी बात ख़त्म करूँगा .लोक दृष्टि और हिंदी साहित्य में वे कहते हैं साहित्य की mahapradta लोक में है . हाँ लोक का नगर से ऐसा कोई विरोध नहीं है ......केशव तिवारी

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  39. महेश पुनेठा जी ने मसले को विस्‍तार से उठाया है। लोकधर्मी कहलाए जाने वाले अधिसंख्‍य बड़े कवि और महत्‍वपूर्ण समकालीन हस्‍ताक्षर वामपंथी अथवा प्रगतिशील ही हैं। मुसीबत सरलीकरण से होती है। यकीन मानिए नितान्‍त प्रतिभाहीन, मूर्ख और अपने लिखे हुए में अवसरवादी दिखते लोग भी लोक का नाम जपते हैं, इस रास्‍ते से पहचान बनाने की आशा में। अच्‍छे लोगों पर लिखने से पहले ऐसे लोगों को चुनिए और रेखांकित कीजिए।

    - कृष्‍णप्रताप सिंह(केपी)

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