रामजी तिवारी
फ़िल्में केवल हमारे मनोरंजन का ही साधन नहीं होतीं बल्कि ये हमारे समय का एक बेहतरीन दस्तावेज भी होती हैं। एक विश्लेषक अपनी सूक्ष्म दृष्टि के द्वारा इन फिल्मों को देख कर उनकी वास्तविकता या दिखावे को समझ और समझा सकता है। वियतनाम युद्ध इतिहास का एक ऐसा ही अध्याय है जिस पर फिल्मकारों ने अनेक फ़िल्में बनाईं। यहाँ यह काबिले-गौर है कि अलग-अलग निर्देशकों द्वारा एक ही विषय वियतनाम युद्ध पर बनायी गयी फिल्मों में उनके काल-स्थान-सोच एवं संस्कृति का स्पष्ट फिल्मांकन दिखाई पड़ता है। आस्कर अवार्ड्स को फिल्मों का सर्वोच्च सम्मान माना जाता है लेकिन यहाँ भी तमाम घालमेल होता है। जाहिरा तौर पर अमरीका में दिए जाने वाले इस सम्मान पर अमरीकी सोच एवं मानसिकता भी शामिल होती है और जो फ़िल्में इस प्रतिमान पर खरा उतरतीं हैं उन्हें ही इस सम्मान से नवाजा जाता है। बाक़ी को इससे महरूम कर दिया जाता है। फिर भी दम-ख़म वाली फ़िल्में बिना किसी पुरस्कार-सम्मान के भी दर्शकों का जो प्यार एवं सम्मान पाती हैं वह सम्म़ानित फ़िल्में हांसिल नहीं कर पातीं।
हमारे मित्र रामजी तिवारी की पहली किताब 'आस्कर अवार्ड्स: यह कठपुतली कौन नचावै' का विमोचन प्रतिरोध के सिनेमा द्वारा 22 फरवरी से 24 फरवरी 2013 तक आयोजित 'गोरखपुर फिल्मोत्सव' में 22 फरवरी को 2013 किया गया। इस किताब में रामजी ने आस्कर अवार्ड्स के मिथक एवं यथार्थ को अपनी सूक्ष्म दृष्टि एवं विश्लेषण के द्वारा परखने की कोशिश की है। पहली किताब के प्रकाशन की बधाई देते हुए पहली बार पर प्रस्तुत है रामजी तिवारी की इसी किताब का एक अंश 'वियतनाम युद्ध और हालीवुड मायोपिया'.
वियतनाम युद्ध और हालीवुड मायोपिया
अब हम उस सबसे महत्वपूर्ण
दौर पर आते हैं, जिसने
अमेरिका को अंदर तक मथ दिया
था। और वह था “वियतनाम का युद्ध”। इससे पहले कि हम इस युद्ध
पर बनी फिल्मों की बात
करें, और यह देखें कि आस्कर
पुरस्कृत फिल्मों में वियतनाम
युद्ध की कैसी तस्वीर उभरती
है, यहाँ उस युद्ध के संक्षिप्त इतिहास को जान लेना समीचीन
होगा| सदियों से फ्रेंच कालोनी
के रूप में गुलामी का जीवन
जीने वाले इस समाज को आजादी
के लिए एक लंबा संघर्ष करना
पड़ा। 1954 में अंततः फ्रांसीसियों
ने वियतनाम छोड़ दिया, और वह
आजाद हो गया। लेकिन उसकी किस्मत
में आजादी और संघर्ष-विराम
की यह गाथा लिखी ही नहीं थी।|
वह शीत युद्ध का दौर था, और कोरियाई
युद्ध ने ‘देशों के भीतर देशों को बाँट
लेने’ की नयी परम्परा का सूत्रपात
कर दिया था। दोनों खेमे नव-स्वतन्त्र
देशों पर निगाह लगाए रखते थे, और अपने साथ जोड़ने की हर संभव
कोशिश को वैध मानते थे। ऐसे
में वियतनाम का आजाद होकर साम्यवादी
खेमे में चला जाना अमेरिकी
खेमें के लिए नाकाबिले-बर्दास्त
था। ‘हो-ची-मिन्ह’ के नेतृत्व
में लड़े गए आजादी के संघर्ष
और उसके बाद गठित सरकार को अस्थिर
करने की अमेरिकी कोशिशे पहले
दिन से ही आरम्भ हो गयीं | गृह
युद्ध की स्थिति पैदा कर दी
गयी, और जेनेवा कन्वेशन के माध्यम
से अंततः 17 पैरलल रेखा के द्वारा
वियतनाम को दो हिस्सों में
विभाजित कर दिया गया।
(किताब का आवरण)
उत्तरी हिसा साम्यवादी
खेमें में और दक्षिणी
हिस्सा अमेरिकी पिट्ठू के
रूप में पूंजीवादी खेमें
में शामिल हुआ। दोनों
तरफ इसे लेकर असंतोष था। उत्तरी खेमा इस विभाजन को कृत्रिम
और थोपा हुआ मान रहा था
और देश का एकीकरण चाहता
था, जबकि दक्षिणी खेमा अमेरिका
को संतुष्ट करने के लिए
उत्तर की सरकार को परेशान
करने और उसे अस्थिर करने की
चालों को लगातार चल रहा
था। अमेरिका से उसे इस बाबत
करोड़ों और अरबो डालर की सहायता
भी मिल रही थी। दक्षिणी
खेमें की तमाम कोशिशों
के बाद भी जब उत्तरी साम्यवादी
वियतनाम का कोई खास नुकसान
नहीं हुआ, वरन उलटे दक्षिणी
खेमें का ही नुकसान होने लगा, तब अमेरिका को सीधे इस युद्ध
में उतरना पड़ा। आइजनहावर
से आरम्भ होकर केनेडी, जानसन और निक्सन तक आते-आते अमेरिकी
सैनिकों की संख्या इस युद्ध
में हजारों से लाखों तक पहुँच
गयी। जमीनी के साथ साथ हवाई
हमले भी बड़े पैमाने पर आजमाए
गए। यहाँ तक कि पडोसी देशों
– कम्बोडिया और लाओस - की सीमाओं
में भी घुसकर बम बरसाए गए। युद्ध
के सारे नैतिक आधार मुँह ताकते
रहे और हिरोशिमा में परमाणु
बम से हाहाकार मचाने वाले नायक, रासायनिक हथियारों से वियतनाम
को तबाह करते रहे। वियतनामियों
ने गुरिल्ला-युद्ध की अपनी
पुरानी रणनीति को पुनः आजमाया, जिसे वे अपने स्वत्रंतता-संघर्ष
में सफलता पूर्वक प्रयुक्त
कर चुके थे, और युद्ध लंबा खिचने
लगा। अमेरिकी सैनिको की सैकड़ों
और हजारों की संख्या में पहुँचने
वाली लाशों ने वहाँ के समाज
में हलचल पैदा करना आरम्भ कर
दिया। दबाव इतना बढ़ गया कि अमेरिका
को बाहर निकलने के लिए बाध्य
होना पड़ा। 1975 में जब युद्ध समाप्त
हुआ और वियतनाम का पुनः एकीकरण
सम्पन हुआ, तब लगभग बीस साल
चले उस हाहाकार का हिसाब लगाने
का काम भी शुरू किया गया। अनुमानतः
उस युद्ध में 15 से 30 लाख लोग मारे
गए थे, जिसमे अमेरिकी सैनिकों
की संख्या भी पचास हजार के आसपास
थी। अब यह अलग बात है , कि उस युद्ध
को याद करते समय विश्लेषक अक्सर
इस तथ्य को गोल कर जाते हैं,
कि ‘शेर और मेमने के उस युद्ध
में, जब शेर ने इतने घाव खाए
थे तब मेमने का क्या हुआ होगा।’
(आस्कर ट्राफी)
ठीक ही कहा जाता है कि युद्धों
ने दुनिया को कई गहरे जख्म दिए
हैं। कुछ जख्म तो खड़ी फसलों
को नेस्तनाबूद कर देते हैं
और कुछ उस समाज या देश की जड़ों
में चले जाते हैं, जहाँ से भविष्य
की फसलों को उगना है। यह जख्म
भी उनमे से एक है, जिसको वियतनाम
के पडोसी और उस युद्ध में अमेरिका
के मित्र थाईलैंड के खाया। जब
वियतनाम युद्ध आरम्भ हुआ, तब
थाईलैण्ड खुल कर अमेरीका के
साथ खड़ा हो गया। उसने अपने हवाई
अड्डों को अमेरीकी सेना के
लिए खोल दिया। जब अमेरिकी सेनाए
थाईलैण्ड में उतरीं और युद्ध
लम्बा खिंचने लगा तो उन अमेरीकी
सैनिकों के मनोरंजन के लिए
वेश्याओं की व्यवस्था की गयी।
इतिहास में ऐसा नुस्खा पहले
भी आजमाया जा चुका था। अमेरीकी
सरकार ने थाईलैण्ड के सहयोग
के बदले बड़ी मात्रा में उसकी
वित्तीय मदद आरम्भ की। थाईलैण्ड
का कायाकल्प होने लगा। शहरीकरण
तेजी से शुरू हो गया। फैशन, समाज,
विचार, संस्कृति और जीवन शैली
में आए इस बदलाव ने भूचाल खड़ा
कर दिया। थाई समाज की आँखे अमेरीकी
डालर की चमक के आगे चौंधियाँ
गयी। उसने आँख मूद कर पश्चिम
को गले लगाना चाहा, जिसके लिए
उसका समाज तैयार नहीं था। वह
परजीवी होता चला गया। आसान
रास्तों से पैसा कमाना उसकी
आदत बन गयी। पश्चिमी चकाचौंध
वाली जीवन शैली उसे ऐसा करने
के लिए प्रेरित करती रही। अमेरीकी
तो चले गये लेकिन यह देश ‘अन्तर्राष्ट्रीय
चकलाघर’ बन कर रह गया। कहना न होगा कि
आज भी वह देश डालर द्वारा नाथे
गए उसी नथिये में घिसट रहा है
|
फिल्मों की तरफ लौटते हैं। इस युद्ध पर बनी दो फिल्मो
1978 की “डियर हंटर” और 1986 की “प्लाटून”
को आस्कर पुरस्कार मिले हैं। “डियर हंटर” वियतनाम युद्ध
के अमेरिका पर पड़ने वाले प्रभाव
को अमेरिकी समाज के माध्यम
से देखती है और वहाँ अगर वियतनाम
का मोर्चा आता भी है , तो वह एक
ट्रेलर के रूप में गुजर जाता
है , जिसमे हमें वहाँ की जमीनी
हकीकतों का कोई अंदाजा नहीं
लग पाता। यह फिल्म तीन भागों
में चलती है | पहले भाग में, 1967
का अमेरिकी नायक अपने प्रेम
में डूबा हुआ है और अपनी सगाई
की तैयारी कर रहा है। दूसरे
में वह वियतनाम युद्ध में पाया
जाता है , जहाँ की स्थितियां
बेहद भयावह हैं। वह कुछ समय
के लिए बंदी भी बना लिया जाता
है, जिसमे उसे ‘रशियन रौलेट’ खेलने के लिए विवश
किया जाता है। इस खतरनाक खेल
में पिस्तौल की चेंबर में कुछ
गोलियों को डाल कर उसे घुमा
दिया जाता है, और बारी-बारी
से उसे अपने कनपटी पर रख कर,
तब तक जीवन पर दाव लगाया जाता
है , जब तक किसी एक की मौत नहीं
हो जाती है। इस खेल में उसके
कुछ साथी मारे भी जाते हैं ,
लेकिन संयोगवश वह बच जाता है। तीसरे दृश्य में वह अमेरिका
में दिखाई देता है, जहाँ वह
लगभग मनोरोगी की स्थिति में
पहुँच चुका है, और इसी खेल को
खेलते हुए एक दिन अपनी जान दे
देता है।
जाहिर है कि यह फिल्म उस प्रक्रिया
को साफ़ नजरअंदाज कर देती है
, जिसने वियतनाम युद्ध
को जन्म दिया था | लेकिन इसको
लेकर दूसरी आपत्तियां अधिक
तार्किक और जायज हैं | ‘एसोसिएटेट
प्रेस’ के ‘पीटर अर्नेट’, जिन्होंने इस युद्ध को
लंबे समय तक कवर किया था, का कहना है, कि “बीस साल के इस युद्ध
में ‘रशियन रौलेट’ खेलने के,
एक भी ऐसे वाकये का पता
नहीं चलता, जिसका इस फिल्म
में जिक्र किया गया है। कुल मिला कर इस फिल्म का ‘केन्द्रीय –तत्व’ ही सफ़ेद झूठ है।” 1979
के बर्लिन फिल्म समारोह में
पहली बार जब इस फिल्म को दिखाया
गया था, तब संपूर्ण साम्यवादी
खेमे ने यह कहकर ‘वाक्-आउट’ किया था, कि “इस फिल्म के द्वारा वियतनामी
जनता का घोर अपमान किया गया
है। उन्हें हत्यारा, क्रूर और
अमानवीय दिखाया गया है , जो कत्तई
रूप से गलत है।” इस फिल्म के बचाव में आये कुछ
विश्लेषकों ने यह तर्क दिया, कि ‘रशियन रौलेट’ के खेल को ‘अविधा’
में नहीं वरन ‘व्यंजना’ में देखना चाहिए,
और यह फिल्म इस युद्ध को ‘समग्रता’
में इस खेल की तरह ही खतरनाक
मानती है। इस तर्क को मान लेने
में कोई बुराई नहीं है, बस उसमे
यही एक पेंच फसता है, कि उस युद्ध
में किसने ‘रशियन रौलेट’ नामक इस खतरनाक
खेल को खेला था। वियतनामियों
ने, जैसा की फिल्म में प्रदर्शित
किया गया है, या अमेरिकियों
ने, जैसा कि उस युद्ध में वास्तविक
रूप से हुआ था।
(डियर हंटर फिल्म का एक दृश्य )
1986 की पुरस्कृत फिल्म 'प्लाटून' अलबत्ता वियतनाम में ही चलती है , लेकिन युद्ध
के दौरान उसमे अमेरिकी
सैन्य कमांडरों द्वारा
दिखाई जाने वाली नैतिकता
और मानवता को पचा पाना
कठिन है। फिल्म दिखाती
है कि युद्ध के दौरान
अपने साथियों की मृत्यु
पर बौखलाए अमेरिकी सैनिक
जब सामान्य नागरिकों
का टार्चर और यौन उत्पीड़न करने लगते हैं, तब उनका कमांडर कैप्टन उन्हें
ऐसा करने से रोकता है
और चेतावनी देता है, कि
भविष्य में ऐसा करना
बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। बाद में उस और उस
जैसी अन्य टुकड़ियों को
काफी नुकसान उठाना पड़ता
है, और तब उसके साथी
सैनिक उस कमांडर का
खूब मजाक उड़ाते हैं। फिल्म कुल मिला कर अमेरिकी
सैनिकों की कारस्तानियों
पर पर्दा डालने का काम
करती है, जिसमे उनके ऊपर
युद्ध के नियमों की
अवहेलना के कई संगीन
आरोप लगते रहे हैं।
(प्लाटून फिल्म का एक दृश्य )
अब प्रश्न यह उठता है, कि
आखिर दुनिया वियतनाम युद्ध
को किसलिए याद करती है ? जाहिर
तौर पर ,वह अमेरिकी गुरुर के
टूटने और बिखरने का युद्ध है, और दोनों में से कोई भी आस्कर
विजेता फिल्म इस पर प्रकाश
नहीं डालती। “ऐसा क्यों है ..?”
के जबाब में एक प्रसिद्द अमेरिकी
फिल्म निर्देशक अपनी पीड़ा व्यक्त
करते हुए कहते हैं कि “ यह अमेरिका
की दुखती हुई रग है | न तो कोई
इस विषय पर फिल्म बनाना चाहता
है और न ही देखना। जाहिर है कि
इस स्थिति में पुरस्कृत होने
की बात ही बेमानी है।” दरअसल अमेरिका जब भी अपनी
चौखट से बाहर निकलता है, वह
‘वियतनाम युद्ध’ जैसे सवालो
से ही अपने आपको घिरा हुआ पाता
है। मध्यपूर्व से लेकर अफ्रीका
के तानाशाहों तक, इराक से अफगानिस्तान
तक, हथियारों की बिक्री से हिरोशिमा
के हाहाकार तक और धरती के गर्भ
में सुरक्षित तेल भंडारों से
अंतरिक्ष की ऊँचाईयों में तार-तार
होती ओजोन परत तक, यह देश जहाँ
भी देखता है, उसे वियतनाम ही
दिखाई देता है। यही दुखती रग
उसे इन विषयों पर फिल्म बनाने
से रोकती है। वह अपनी खोल में
सिमट जाता है और जब कभी कोई निर्माता-निर्देशक
इससे बाहर निकलने का साहस दिखाता
है, तो आस्कर की निर्णायक मंडली
उसे कूड़ेदान में फेंक देती
है। ऐसी स्थिति में आस्कर पुरस्कारों
की सूची से अमेरिका के इस बाह्य
जीवन की अनुपस्थिति स्वाभाविक
ही लगती है।
(हालीवुड की पहाड़ियों का एक नजारा)
वियतनाम युद्ध कुल मिला कर ‘हालीवुड
मायोपिया’ की तरफ भी इशारा करता
है, जिसमे उसका फिल्म उद्योग
ऐसे सवालों के सामने अंधा
दिखाई देने लगता है, जो दूरगामी
महत्व के हैं और जिनसे
किसी भी देश, समाज या उद्योग
का भविष्य निर्धारित होता
है। इस विषय पर अमेरिका में
सैकड़ों फ़िल्में बनी हैं, लेकिन उनमे सच को बयान करने
का साहस कुल मिला कर अनुपस्थित
दिखाई देता है, और जिन कुछ
फिल्मो में यह प्रयास किया
भी गया है, उन्हें कोई देखना
नहीं चाहता। इसने हालीवुड
सिने-उद्योग के लिए भविष्य
का रास्ता भी निर्धारित कर
दिया है, और जिसका उसने इराक
और अफगानिस्तान युद्ध पर
ज्वलंत सवालों से कन्नी काटते
हुए सफलतापूर्वक अनुसरण
भी किया है। जाहिर है कि ऐसा
करते हुए, कोई भी देश, समाज
या उद्योग अपने अंधकारमय भविष्य
की पटकथा ही लिख सकता है। बहरहाल यहाँ हालीवुड में ‘वियतनाम
युद्ध’ पर बनी कुछ चुनिन्दा
फिल्मों को देख लेना ठीक
ही होगा। ये हैं ‘फुल मेटल जैकेट’, ‘अपोकेलिप्स नाऊ’, ‘बोर्न आन द फोर्थ जुलाई’, ‘गुड मार्निंग वियतनाम’, ‘वी
आर सोल्जर्स’, ‘ट्रापिक थंडर’, ‘ टाइगर लैंड’ ‘हेयर’, ‘आई आफ द ईगल’, ‘ द ग्रीन बेरेट्स’, ‘कमिंग
होम’, ‘द फाग आफ वार’ और ‘रेस्क्यू डान’। जाहिर है कि
हालीवुड की बनी ये फिल्मे
वह सब तो नहीं ही बता पाएंगी, जो वहाँ हुआ था, लेकिन फिर
भी इनके सहारे आपको उस युद्ध
का कुछ बेहतर अंदाजा जरुर
लग सकता है। चुकि वियतनाम
का फिल्म उद्योग इतना विकसित
नहीं रहा, और उस युद्ध के दौरान
उसके लिए यह संभव भी नहीं
था, इसलिए इस विषय पर वहाँ
से बनने वाली फिल्मों का खासा
अभाव दिखाई पड़ता है। जो फिल्मे
वियतनाम में उस दौरान बनीं भी, वे दक्षिणी वियतनाम
में ही बनी और जिनमे कुल
मिलाकर वही एकांगीपन दिखाई
देता है। अलबत्ता वहाँ पर
बाद में बनी ‘डाक्यूमेंट्री फि ल्मों’
में इसकी थोड़ी व्यस्थित झलक
देखी जा सकती है, फिर भी इस
विषय पर अभी बहुत काम किया
जाना शेष है।
(रामजी तिवारी ने अभी हाल ही में
लेखन आरम्भ किया है। इन्होने कविताओं और कहानियों के अलावा कुछ यात्रा
वृत्तांत भी लिखे हैं जो पर्याप्त चर्चा में रहे हैं। यह आलेख रामजी तिवारी
की बहुमुखी प्रतिभा का उदाहरण है जिसमें रामजी तिवारी ने फिल्मों की अपनी
गहरी समझ का परिचय दिया है।)
संपर्क-
जीवन बीमा निगम
मुख्य शाखा बलिया
बलिया, उत्तर प्रदेश
277201
मोबाईल: 09450546312
ई-मेल: ramji.tiwari71@gmail.com
जीवन बीमा निगम
मुख्य शाखा बलिया
बलिया, उत्तर प्रदेश
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यहाँ पुस्तक के इस अंश को पढ़ने के बाद ....अब पूरी किताब को पढ़ने की इच्छा बढ़ गई है . कहाँ से खरीद सकता हूँ पुस्तक ? रामजी तिवारी जी को बहुत -बहुत बधाई .
जवाब देंहटाएं-नित्यानंद गायेन
Thanks a lot for this informative article
जवाब देंहटाएंबहुत -बहुत बधाई .सर...
जवाब देंहटाएंramji bhai ko kitab ke liye badhai .kitab padhna chahunga
जवाब देंहटाएंSaarthak aalekh. Pustak hetu haardik badhai...bhai aapse apekshain bad gai hain.saadhuvaad. - Kamal jeet choudhary ( j n k )
जवाब देंहटाएंकिताब बहुत जल्द पढ़ी जायेगी. रामजी भाई ने एक शानदार काम किया है..खूब-खूब बधाई
जवाब देंहटाएंapne bahur achchha kam kiya hai. is pustak se oscar ke bare me bharteey samaaj ke vibhram avashya tutenge aur shayad yahi is pustak ki safalta hogi.
जवाब देंहटाएंरामजी को हार्दिक बधाई
जवाब देंहटाएं