कविता
जन्म : 15 अगस्त, मुजफ्फरपुर
(बिहार)
शिक्षा : एम. ए. (हिन्दी)
प्रकाशन : मेरी नाप के कपड़े,
उलटबांसी, नदी जो अब भी बहती
है (कहानी संग्रह)
मेरा पता कोई और है (उपन्यास)
संपादन-संयोजन : मैं हंस
नहीं पढ़ता, वह सुबह कभी तो आयेगी
(लेख),
जवाब
दो विक्रमादित्य (साक्षात्कार),
अब
वे वहां नहीं रहते (राजेन्द्र
यादव का मोहन राकेश, कमलेश्वर
और नामवर सिंह के साथ पत्र-व्यवहार)
पुरस्कार
: ‘मेरी नाप के कपड़े’ कहानी के
लिये अमृत लाल नागर कहानी
प्रतियोगिता पुरस्कार
अनुवाद : चर्चित कहानी ‘उलटबांसी’
का अंग्रेज़ी अनुवाद जुबान द्वारा
प्रकाशित
संकलन
‘हर पीस ऑफ स्काई’ में शामिल;
कुछ कहानियां अन्य भारतीय
भाषाओं में अनूदित
संप्रति
: स्वतंत्र लेखन
कविता ने नए कहानीकारों में अपने शिल्प और कथ्य के दम पर अपनी सुस्थापित
जगह बना ली है। उनकी कहानियां जीवन के उन कोनो-अंतरों में झाकने का प्रयास
करती हैं, जहां आमतौर पर कहानीकार जाने से झिझकते हैं। पहली बार पर प्रस्तुत
है कविता की बिलकुल नयी कहानी जिसे हमने कथाक्रम के प्रेम कहानी अंक से
साभार लिया है।
तुमने
खजुराहो की मूर्तियां देखी
है!
एक नन्ही-कोमल
बालिका, प्रिय के समीप आने पर
लज्जा से अनुरक्त अपना चेहरा
छुपाती षोडशी प्रेयसी, प्रियतम
को प्रेम से निहारती तो कभी
पीड़ा से उसकी तरफ से मुंह फेर
लेती स्त्री, विचारशील प्रौढ़ा
का चेहरा... स्त्री जीवन के न
जाने कितने रूप, न जाने कितने
रंग. कहते हैं शिल्पियों ने
इन्हें आदिशक्ति और महामाया
के रूप में अंकित किया था...
उसे लगता
है, वह किसी भी एक दृश्य के आगे
खड़ी हो तो बस खड़ी ही रहे... वह
भूल जाती है कि यहां किस लिये
आई है... और अपने आने का खास उद्देश्य.
मंदिरों के भीतर जाने का उसका
मन नहीं हो रहा है...
स्पंदन,
गति, स्फूर्ति सब जैसे गतिमान
और जीवंत-से दिख रहे हों... वह
एकटक उन मूर्तियों को देख रही
है और देखती जा रही है. तीखी
नाक और ठुड्डी, विशाल पर जीवंत
आंखें, कमानीदार भवें, फूलों
की नाजुक पंखुरी से होंठ.
वह अपनी
कल्पना में भी ठिठकती है, रुक
जाती है... वही सारे पुराने मापदंड!
वही सारे उपमान! वह देखती है
और सोचती है मन-ही-मन.
नया क्या
तलाश रही है वह इन मूर्तियों
में... ये घिसे-पिटे उपमान,
इनकी सुंदरता, कोमलता, तीक्ष्णता
और धार को कहां व्यंजित कर पा
रहे हैं! अव्यक्त ही तो रह गया
सारा का सारा सौन्दर्य! क्या
हमेशा से सुन्दरता के साथ यह
परेशानी या कि दिक्कत नहीं
रही कि उनको सही अर्थों में
व्यक्त कर पाना हमेशा नामुमकिन
ही रहा? कवि, शायर और प्रेमी
लिखते-कहते रहे, पर वह लिखना
हमेशा ही अपूर्ण रहा.... और वह
तो...
...वह कंदरिया
महादेव मंदिर के प्रवेश द्वार
पर खड़ी है. ‘कंदरिया’ - कंदर्प
का विकृत रूप. कंदर्प यानी कामदेव!
सचमुच इन मूर्तियों में काम
और ईश्वर दोनों की तन्मयता
की चरम सीमा देखी जा सकती है.
भावाभिभूत करनेवाली कलात्मकता...
वह स्तंभों
पर अंकित भित्ति-चित्रों में
डूबी है या कि फिर अपने आप में,
यह सिर्फ वही जानती है... या कि
फिर नहीं जानती. कहीं कानों
में गूंज रहा है कोई शब्द; कहीं
आंखों के आगे से गुजर रहा है
कोई दृश्य जिसमें शरमाई, सकुचाई
इन्हीं किन्हीं मूर्तियों
में से एक-सी खड़ी है वह. वही
अर्द्धनिमीलित आंखें, वही लज्जा
से आरक्त चेहरा. पर रोम-रोम सुन
और गुन रहा है उसे, समेट रहा
है उस आवाज़ के एक-एक अणु को.
तब वह नहीं
जानती थी कि ज़िंदगी की दिशा
यहीं से निकलेगी-बदलेगी. तब
कहां जानती थी, वह खुद को पूरा
का पूरा बदल देगी... तब कहां जानती
थी, यह पल भी छल निकलेगा.
वह जबरन
खुद को धकेलना चाहती है भीतर
की तरफ, पर धकेल नहीं पाती. अटकी
रहती है बाहर के ही उन भित्तिचित्रों
में
स्त्रियां ही स्त्रियां!
उनके हाव-भाव, उनके शरीर की गोलाईयों,
अंगों के मोड़-तोड़, भाव-भंगिमाओं
की व्यंजनाओं, सब में रहस्य
लोक-सी छाई हुई कोई मादकता है,
राग है. दुख और अवसाद कहीं नहीं,
जीवन की पीड़ा का पता नहीं. पता
नहीं कौन था वह शिल्पी जिसने
अपनी छेनी-हथौड़े की लय और कुशलता
से बहते जल-से भी अधिक गतिमान
और तरल इन भावाभिव्यक्तियों
को आकार देने की कोशिश की. स्त्री
मन के हर रंग को एक आवाज़... क्या
स्त्री मन का स्वप्नलोक रच
रहा था वह?
अदिता अचरज करती है - हमेशा
की शरमाई-सकुचाई स्त्री इन
प्रणय दृश्यों में बिल्कुल
सकुचाई-सी नहीं दिखती, सहयोगिनी-सी
दिख पड़ती है... यह अजब पहेली थी
उसके लिये कि जो औरत हमेशा सहमी,
सकुचाई-सी रहती हो, मिलन के उन
अंतरंग क्षणों में कैसे पीछे
छोड़ सकती है अपना आदिम भय, संकोच...?
मिलन! वैसे तो यह शब्द ही उसके
लिये एक पहेली जैसा था. हो सकता
है, ऐसा होता भी हो, उसे अनुभव
ही कहां है ऐसे अंतरंग पलों
का.
वह सोचती है और फिर इस तरह
सोचती है... एक ही स्थिति में
हो सकता है ऐसा कुछ -जब प्रिय
वह हो, जो हमेशा से काम्य हो.
प्रिय वह हो, जो सपनों का अधिष्ठाता
हो. वह, जो साथी बनकर आये, जो जीये
हर घड़ी, हर दुख में सही अर्थों
में सहचर बनकर. ऐसा कोई हो तो...
ऐसा कौन
हो सकता है... कोई तो नहीं!
उसके सवालों
के जवाब में भीतर जागता है कोई
चेहरा, कुलबुलाकर कराता है
अपने होने का अहसास. पर वह परे
धकेलती है उसे. हां, वह सोचती
थी ऐसा. उसे लगता था, पर वह वो
नहीं था...
उसके ही
तर्कों को काटता है उसका अपना
ही मन... वह था ऐसा... और तुम जो
कुछ भी हो आज, इसीलिये हो कि
वह था... वह आया था, चाहे कुछ पल
को ही सही तुम्हारी ज़िंदगी
में और उसके आने से ही...
मन बहुत
अधिक विचलित हो उठता है. लक्ष्य
की बात तो दरकिनार, उसके लिये
सहज-साम्य भाव से उन मूर्तियों
को देख पाना भी मुश्किल हो उठता
है. बेचैनी में वह परिसर से बाहर
निकल आती है. सोचती है आज बस
इतना ही... हालांकि वह जानती
है ऐसा करने से नहीं चलेगा...
वह जानती है अपने एक-एक दिन और
एक-एक पल की कीमत.
वह जानती
है यह सब... इसीलिये पहुंच सकी
है आज इस ठौर पर... वर्ना है तो
वह वही साधारण-सी अदिता, जिसे
हर बार तैयार होकर बैठना होता
था किसी के आगे. हर बार की उसकी
नाकामयाबी उसके भीतर तोड़ती
थी बहुत कुछ, और उससे भी ज्यादा
उसके मम्मी-पापा के चेहरे पर
उग आई नई झांईयों में नजर आती
थी.
वह तोलती
खुद को आईने के सामने. नक्श ठीक-ठाक.
कद काठी अच्छी. रंग - ‘गौरवर्ण’
शब्द को एक हल्की-सी सुनहली
लालिमा देता हुआ...क्या यह रंग
सबका काम्य नहीं? वह पूछती आईने
से खुद ही और पूछकर झिझक उठती.
बाल घने, गहरे-भूरे. इन्हें तरतीब
से हर वक्त काट संवार कर रखा
है उसने. पढ़ने लिखने में ठीकठाक
पर व्यवहार कुशल उससे भी कहीं
ज्यादा. घर-परिवार और समाज का
खयाल रखने वाली, मां-बाप का सहारा
बनकर खड़ी रहनेवाली ‘अच्छी बच्ची’.
सभी तो कहते थे यही, सभी तो उसे
इसी तरह जानते थे. पर उसकी यह
प्रसिद्धि, उसके ये गुण धरे
के धरे क्यों रह जाते थे उस एक
वक्त?
कपड़ों की
उसकी पसंद लाजवाब थी. जिस पीस
पर उसकी नज़र पड़ती वह आम न होती.
उसकी पसंद को मान देते सब. पर
उम्र के साथ यह शौक भी कमता ही
गया था. शरीर अपना आकार गढ़ने
लगा था. मानकों के पार भी कोई
मानक होता है, स्वीकृत मानदंडों
के बाहर भी हो सकता है कोई आकार,
इसे कौन समझ पाया? जब किसी कपड़े
को वह प्यार से उठाती, व्यंग्यात्मक-सी
एक हंसी गूंजती उसके आसपास.
मैडम आपके साईज का नहीं है यह.
घड़ों पानी पड़ जाता जैसे उसकी
खुशियों पर, मन पर.
उसने उस
दिन एक नीली साड़ी निकाली थी
- आसमानी नीली साड़ी. उसकी फेवरिट
नीली साड़ी. हल्के-हल्के रेशम
के कामवाली. उसने उसे कंधे पर
डालकर देखा था. उसका चेहरा खिल
गया था. गोरा रंग तो जैसे दिपदिप
करने लगा था. साड़ी शिफॉन की थी
सो थोड़ी पतली भी दिख रही थी वह.
मम्मी की जड़ीदार और बनारसी
साड़ियों में जैसी मोटी-सोटी
दिखती है वह, वैसी नहीं दिख रही
थी.
वह नीली
साड़ी सालों पहले उसे किसी दुकान
में टंगी दिखी थी और फिर उसकी
आंखों में टंग गई. उसने मम्मी
से पैसे मांगे तो मम्मी हंस
पड़ी थी, हैरानी से. पैसे देते-देते
पापा से बोली थी, बेटी अब बड़ी
हो रही है, थोड़ी चिंता कीजिये.
उसे बुरा लगा था और उसने बुरा-सा
मुह बना कर मम्मी से कहा था -
तो?
इसमें चिंता
करने की क्या बात? पापा ने कहा
था और उसके कंधों पर हाथ रख दिये
थे. वह जैसे बालिश्त भर और ऊंची
हो गई थी.
बाद में
समझ में आया था उसे मम्मी के
कहे का मतलब... और ऐसा समझ में
आया कि...
...वह ड्राइवर
की आवाज़ से चौंक उठती है, मैडम
आप खायेंगी कुछ...? किसी रेस्तरां
पर रोकूं? आपने नाश्ता किया
था?
वह अपना चेहरा उठाकर सामने
के मिरर में देखती है. क्या इतनी
थकी-हारी और पश्त दिख रही है
वह कि कोई अजनबी भी चिंतित होने
लगे उसकी खातिर?
उसे लगा, वह थोड़ी परेशान
है बस. उसने नपा-तुला जवाब देने
की कोशिश की.. किया था... अभी बस
होटल.
बातचीत का
सिलसिला शुरु होते ही वह शख्स
बोलने लगा और कुछ इस तरह बोलने
लगा जैसे इसी शुरुआत की इंतजार
में था वह... जैसे हर पर्यटन स्थल
पर अपनी जमीन से प्यार करनेवाला
कोई शख्स आगंतुकों को अपनी
गौरवमयी परंपरा की कटी-फटी
कहानी, मिथक कथायें, आधे सच और
आधे गल्प को अपने खास अंदाज़
में बढ़ा-चढ़ाकर बताये...
अदिता ने
गौर किया, एक गांव की तरह होने
के बावज़ूद यहां आधा दर्ज़न से
ज्यादा पांच सितारा होटल हैं
और इतना सबकुछ होने के बाद भी
यह जगह अभी तक प्रदूषण मुक्त
है, अपने आदिम ग्रामीण स्वरूप
को बनाये रखने में सक्षम होने
के कारण अपने तई खूबसूरत भी...
शंभु टैक्सी
चलाते हुये कह रहा था, "चौदहवीं
शताब्दी में जब अबू रिहान
अलबरूनी, मोहम्मद गजनबी के
साथ भारत आया तो उसने खजुराहो
को एक संपन्न नगर के रूप में
देखा... तेरह सौ पैंतीस में इब्नबतूता
ने यहां के मंदिरों को साधु-संन्यासियों
से भरा पाया. इस सब के बाद अट्ठारह
सौ अड़तीस में इसे पुन: खोजने
का श्रेय ईस्ट ईंडिया के एक
अधिकारी टी. एस. बर्ड को जाता
है... पता है मैडम, खजुराहो का
नाम खजुराहो क्यों पड़ा?"
...वह कहते
हुये देखता तो है उसकी तरफ, पर
उसके देखने में बस देखने का
भाव है. सुनने की कोई चाहना नहीं...
इसीलिये चुप रहती है... वह कहे
उसे जो भी कहना है...
..."नगर के
सिंहद्वार पर दो खजूर के पेड़
थे, ऊंचे और विशाल. इतिहासकारों
ने इसीलिये इसे खर्जूरवाहक
कहा जो बाद में खजुराहो...
सिकंदर लोदी
के आक्रमण के समय यहां बहुत
सारे मंदिर टूटे, प्रतिमायें
नष्ट हुईं... पचासी मंदिरों
के समूह के इस सुंदर-से नगर में
अब तो बस बाईस मंदिर ही बचे हैं,
उसमें भी बहुत कम ही पूरी तरह
सही-साबुत...
...यहां के
शासक - चंदेल, अपने को चन्द्रमा
की संतान कहते थे... ऐसी कहानी
है कि बनारस के राजपुरोहित
की विधवा बेटी हेमवती बहुत
ही सुंदर थी, बहुत ही रूपवती.
एक रात जब वह रति नामक झील में
नहा रही थी तो उसकी सुंदरता
से मुग्ध होकर चन्द्रदेव धरती
पर उतर आये और हेमवती से...."
कहते-कहते पहली बार झिझकता
और रुकता है वह. चेहरे पर उग
आई लालिमा उसकी उम्र को कुछ
और कम करती है, पीछे ले जाती
हुई. वह देखती है उसका चेहरा,
पर सीधे-सीधे नहीं, साइड मिरर
में.
"...हेमवती
और चंद्रमा के इस अद्भुत और
असाधरण मिलन से जो संतान उत्पन्न
हुई उसका नाम चन्द्रवर्मन रखा
गया. यही चंदेलों के आदि राजा
थे... आदि पुरुष"
होटल आ गया
है. वह उतरकर अदिता की तरफ का
गेट खोलता है. वह पहली बार कुछ
कहती है उससे अपनी तरफ से - "कहानियां
अच्छी सुना लेते हो. तुम्हारे
परिवार में कोई गाईड भी है क्या?"
"हम तीनों
भाइ करते हैं गाईड का काम. साथ-साथ
वक्त-जरूरत टैक्सी भी चला लेते
हैं... और हम क्या, हमारे यहां
तो पैंट में सूसू करनेवाला
बच्चा भी..."
वह हंसता
है और थोड़ा ठहरकर कहता है.. "गाईडगिरी
न करें तो और करें क्या? कोई
दूसरा काम जानते ही कहां हैं
हम... कुछ और बचा ही क्या है यहां,
हम जैसे लोगों के करने के लिये...
आप कहें तो मेरा भाई और यदि आप
चाहें तो मैं...." कहते-कहते
थोड़ा सकुचाता है वह ऐसे, जैसे
अपने आप को जबरन न थोप रहा हो
उसपर...
अदिता उतरते-उतरते कहती
है, "तुम हीं... कम से कम जान
तो गई हूं तुम्हें... गाड़ी भी
लेते आना."
वह कहता है, अपने स्वभाव
के विपरीत बेलौस होकर, "बेफिक्र
रहें आप. जबतक आप यहां हैं, गाड़ी
और मैं दोनों आपकी सेवा में..."
और कहते-कहते हिचककर रुक जाता
है, कुछ गलत तो नहीं कह गया वाले
भाव के साथ...
वह होटल में पहुंचकर पहले
नहाती है. खूब-खूब नहाती है...नहाकर
थकान ही नहीं बहाना चाहती वह,
बहा देना चाहती है बहुत सारी
स्मृतियां भी... कुछ भी रहने
नहीं देना चाहती है अपने मन
में. पर फिर भी बचा रह ही जाता
है, हमेशा कुछ न कुछ.
बदन पोंछते-पोंछते
नज़र सामने के शीशे पर पड़ती है
- उसका स्वयं का अनावृत्त शरीर.
वह खुद को इस तरह कहां पहचान
पाती है... कब देख पाती है इतने
इत्मीनान से... फुर्सत ही कहां
है उसके पास और न कोई चाह ही...
आईने में सचमुच वह नहीं है. दिन
में देखी कोई मूर्ति ही है जैसे
सामने. कसे-भरे बृहत वक्ष, छोटे
कंधे, विशाल नितंब. छोटे-छोटे
पर करीने से कटे केशों से टपकती
पानी की बूंदें. वह मुग्ध हुई
जाती है खुद पर... खुद के शरीर
पर. इतनी खूबसूरत है वह... सचमुच?
अनछुये जिस्म का एक अपना अछूता-सा
सौन्दर्य होता है. किसकी कामना
नहीं हो सकती ऐसी देह!
...उसने ठीक
ही कहा था उस दिन. तुमने खजुराहो
की मूर्तियां देखी है!... यू हैव
खजुराहो बॉडी... उसने उस वक्त
अपने कानों के कपाट बंद कर लिये
थे... क्या कह रहा है आकाश... वह
भी इस मौके पर...
पर एक पुलक
उठी थी मन में. बजता रहा था उसके
भीतर किसी संगीत की तरह - यू
हैव... कोई था जो उससे कह रहा था,
वह खूबसूरत है. जिसकी आंखों
में उसके लिये कामना थी - उद्दीप्त
कामना... एक चाहत थी उसके लिये
- उद्दाम चाहत... वरना लोग तो आते
थे, जाते थे और उसने गिनना छोड़
दिया था. खुद को इस मौके के लिये
तैयार करना भी. लेकिन हर बीता
हुआ वह दिन अटका रह जाता दीवारों-खिड़कियों
में, कलेजे में और लटकाये रहता
उसके संपूर्ण अस्तित्व को सूली
पर.
आकाश ने
भांप लिया था शायद, खुशी और आश्चर्य
से भरा अदिति का अकबकायापन...
उस की आंखें जैसे कह रही थीं
उससे - मैं सुंदर हूं यह बात
पहले अपने आप से कहनी होती है.
साईज सुंदरता में बाधक नहीं
होता. भरा बदन भी सुंदर हो सकता
है, पहले खुद इसे कुबूलो. अपने
अंदर की औरत को सेलीब्रेट करना
सीखो...
...उसने भी
उस दिन सोचा था और कुछ इस तरह
सोचा था... मैं क्यों परेशान
होऊं, मैं क्यों छिपूं? शरीर
ईश्वर का दिया खूबसूरत तोहफा
है. मैं जैसी भी हूं सुन्दर हूं.
उसकी बनाई हुई अप्रतिम कृति...
पता नहीं यह जादू नीली साड़ी
का था या उन नीली निगाहों का.
आकाश ने हामी भर दी थी. मन
में जैसे सितार बजते रहते चुप-चुप.
अकेली रातों में, सुरमयी शामों
में... मुस्कुराहट जब-तब होठों
पर आने लगी थी. वह तैयार होते-होते
मुस्कुरा देती. सोते-जागते,
उठते-बैठते कभी भी... सुनती रहती
मन में, यू हैव...
मां देखती उसका बदलाव, खुश
होती मन-ही-मन. पर उन्हें इस
खुशी की कीमत मालूम थी...
दर असल लड़के के परिवारवालों
ने इस रिश्ते की बहुत ज्यादा
कीमत लगाई थी... बहुत ऊंची. अबतक
इतना बड़ा मुंह किसी ने नहीं
खोला था. यह जानकर भी कि लड़की
इकलौती औलाद है. आज नहीं तो कल
सब उसी का...
उनके अपने तर्क थे - लड़की
अभी ही इतनी मोटी है तो शादी
और बच्चों के बाद... पास कोई प्रोफेशनल
डिग्री भी नहीं. कोई खास गुण
या हुनर भी नहीं... और न जाने कहां-कहां
से सुन-गुन कर लाई गई कमियों
की फेहरिश्त... हर तथाकथित कमी
के बदले कुछ गुणात्मक आंकड़े.
माता-पिता अदि के लिये सब
करने को तैयार थे.... तैयार भी
क्यों नहीं होते, पहली बार तो
किसी ने हां की थी... पर मां
के मन में टिसता रहता कुछ, तब
तो खासकर जब अदि को घंटों हंस-हंस
कर आकाश से बतियाते देखतीं.
उन्हें खुश होना चाहिये था
पर वे खुश नहीं हो पातीं क्योंकि
उन्हें पता था बच्ची गफलत में
जी रही है. उन्हें सबसे ज्यादा
गुस्सा आकाश पर आता. क्यो झूठे
भ्रम में रख रहा है बच्ची को,
अगर सचमुच उसे प्यार है तो अपने
मां-बाप से... वे चाहतीं कि अदि
को बता दें सबकुछ... पर अदि का
स्वभाव जानती थी वें, और अदि
के पापा भी रोक लेते उसे... शादी
ब्याह में तो ऐसा ही होता है,
उसे बीच में क्या घसीटना.
उस दिन अदिता घर में अकेली
थी और गांव से किसी दूर के चाचा
ने फोन किया था..."बेटा पापा
को बताना मैंने फोन किया था,
घरारी वाली जमीन के लिये ग्राहक
मिल गया है, कीमत भी अच्छी मिल
जायेगी...." अदिति को जैसे सांप
सूंघ गया था...
वह जानती थी कि पापा रिटायरमेंट
के बाद गांव जाकर ही रहना चाहते
थे. वे तो कहा करते थे अक्सर,
पुरखों से मिली जमीन को जो लोग
बेचते हैं, सहेजकर नहीं रख पाते
उनसे बड़ा अभागा और कौन होगा...
घर और जमीन के सौदे की बात
उसके भीतर कील-सी गड़ी थी... क्या
ऐस सोचने के पहले पापा का दिल
नहीं कांपा होगा? उनकी हथेलियां
पसीजी नहीं होंगी?
उसने इस रिश्ते से इंकार
कर दिया था. उसने पापा की कोई
जिद नहीं मानी थी....
उसने मम्मी
की चुप्पी का मतलब अपने पक्ष
में लिया था...
उसने फिर
कभी आकाश का फोन नहीं उठाया...
उसने पापा
से कहा था उस दिन, दहेज जितने
पैसे न सही; थोड़े से पैसे अगर
मुझे दे देंगे आप तो उससे कर
सकूंगी अपने मन का कुछ...
वह उदास
पापा के कंधों पर पीछे से लटक
गई थी, बचपन की तरह... और इस तरह
आपलोगों को कभी अकेले भी नहीं
रहना होगा. पापा की आंखों से
आंसू बह रहे थे, खुशी के या गम
के उसे नहीं पता. पर मां ने इस
पूरे मुआमले में पहली बार हस्तक्षेप
किया था. लेकिन शादी... वह उन्हें
बचपन की तरह जीभ दिखाती हुई
भागी थी... देखो, कब करती हूं,
करती भी हूं या नहीं.
पर इस सबके
बावजूद, सपने में, मन में, आकाश
के सिवा कोई भी नहीं आ सका कभी...
चाहते न चाहते कानों में बजते
रहते वही शब्द... शायद पहला प्यार
यही होता है. ऐसा ही...
आकाश चला
गया था उसकी ज़िंदगी से... अपनी
तमाम कोशिशों के बावज़ूद... उसने
एक न सुनी थी...
उसने और
कुछ किया हो कि न किया हो, पर
जाते-जाते उसके भीतर छिपी अदिता
से उसे जरूर मिलवा गया था... वह
जान चुकी थी अपनी ताकत, अपनी
खूबसूरती और मंजिल का पता भी.
आज खजुराहो
आई भी तो शायद इसीलिये कि वह
आकाश को नहीं भूल पाई... बहाना
चाहे जो भी रहा हो, कारण चाहे
कोई और... उसने किसी और जगह के
बारे में क्यों नहीं सोचा, वह
पूछती रहती खुद से... और सौ नये
बहाने गढ़ती रहती अपने यहां
आने के...
उसने सोचा था उसी दिन, इस
दुनिया में उस जैसी हजार-हजार
अदितायें होंगी. क्या सब इसी
तरह से... क्या सबको यही... वह पोंछ
देना चाहती थी उन सब के जीवन
की यह स्याही... उनके जीवन में
सपनों के इन्द्रधनुषी रंग भरना
चाहती थी.
उसने कागज-कलम लिया था हाथ
में. रेखाओं से खींची अगणित
आकृतियां पर सब की सब पारंपरिक
खांचे से देखें तो कहीं न कहीं
से बेडौल. उसने उन्हें वर्गीकृत
किया - पेट से मोटी - पीयर टाईप,
यानी मैडम नाशपाती, सेब या खरबूजे
जैसी - ऐपल टाईप, मैडम मिर्ची
यानी जिनका कमर से नीचे का हिस्सा
भारी हो... और उस जैसी - नाम उसे
आज भी फिर वही सूझा...
उन तस्वीरों को उसने रेखाओं
से भरना शुरु किया. आड़ी, तिरछी,
सीधी रेखायें. गोल, वर्तुल, वृत्ताकार
पहरावे, लम्बे-छोटे कट्स, सर्पाकार,
नौकाकार और न जाने कितने प्रकार
के नेकलाइन्स... रेखाचित्रों
का अनगढ़ बेढबपन घटता रहा था,
जाता रहा था.
यही शुरुआत थी, ‘रिवोल्यूशन
प्लस’ की. पहले दो-एक दर्जियों
से काम करवाया, भाड़े पर... घर के
बरामदे का एक हिस्सा दुकान
की तरह... फिर बढ़ते-बढ़ते अपनी
बुटीक और अब अपना फैशन हाऊस.
उसके लिये रैम्प पर चलनेवाली
हस्तियों में फिल्म और मॉडलिंग
जगत के बड़े-बड़े नाम शामिल थे...
...उसके फैशन हाऊस ने बड़े-बड़े
इवेंट आयोजित किये. कैंसर और
एड्स पीड़ितों के लिये, गरीब-बेसहारा
औरतों के लिये. अनाथ-फुटपाथी
बच्चों के वेलफेयर के लिये...
अब उसी फैशन हाऊस के लिये
एक नये मुहिम पर निकली थी वह.
जैसे भरे हुये जिस्म के लिये
कपड़े अलग तरीके के, वैसे ही जेवर
भी. भारी-भरकम गहने भरे हुये
बदन को और ज्यादा बेडौल बनाते
हैं.
उसने वैदिक
सभ्यता के गहनों से प्रेरणा
ली. सिंधुघाटी और मोहनजोदड़ो
से प्रेरित होकर बाज़ार में
काष्ठ, पत्थर और हड्डियों के
गहने उतारे... और अब इसी का नया
प्रस्थान विंदु - ‘खजुराहो
ऑरनामेंट्स’. खजुराहो में चित्रित
स्त्रियां भी भरे-पूरे बदन
वाली... शायद इसी से उत्प्रेरित
होकर...
पर क्यों
लगता है उसे, वह सिर्फ इसीलिये
यहां नहीं आई... कोई है जो लाया
है उसे खींचकर यहां तक. तहों
भीतर दबी कोई चाह, कोई आह...
तभी तो तोल रही है वह यहां
खुद को, किसी और की निगाहों से.
किसी चेहरे के आईने की तलाश
है उसे, जिसमें वह अपने अंगों
की सौम्यता - सुगढ़ता के बिंब
देख सके...
पांच बरस गुजर गये थे इस
बीच, पर उनका बीतना जैसे किसी
रुकी हुई घड़ी की सुईयों की तरह
रुक गया था; ठहर गया था - बीचोंबीच.
कामयाब होते ही न जाने कितने
रिश्ते. पर उन आखों में उसे बस
लालच-लोलुप दिखता. वह बहुत दिनों
तक सोचती कि वह आकाश की आंखें
ही क्यों खोजती है हर चेहरे
में. वह सोचती और सोचती रहती
कि अगर आकाश को पैसों की ही चाहत
होती तो उसकी आंखें क्यों नहीं
चुगली करती थी उसके इस लालच
की?
...बाद में जाना था. अलग होने
के लगभग तीन बरसों के बाद... अगर
आकाश जो कुछ कह रहा था वही सच
था तो, उसे भी पता नहीं था कुछ
भी... उसने जैसे ही जाना सबकुछ,
वैसे ही मना कर दिया... उसने उससे
कितनी बार, न जाने कितनी बार
बात करनी चाही. वह अब भी कहे
तो...
वह जानती थी वह चाहकर भी
अब कुछ नहीं बदल पायेगी. उसका
विवेक नहीं गंवारा कर पायेगा
यह सबकुछ. आकाश जब यह सब कह रहा
था तब उसकी मां अपनी होनेवाली
बहू के लिये लहंगे और साड़ियां
पसंद कर रही थी.
"अरे नहीं, इतना चौड़ा-चौड़ा
नहीं चाहिये. आजकल की लड़कियों
की तरह है वह पतली-छरहरी. क्या
आपके यहां सबकुछ..." कह वह काउंटर
पर खड़ी फरजाना से रही थी लेकिन
निगाहें उसकी तरफ थीं... उसने
सोचा, क्या वह यही सब बताने आई
थी?
उसने एक पल को सोचा पर दूसरे
पल उसने खुद से कहा नहीं उसे
ऐसा नहीं सोचना चाहिये - यहां
तो सभी तरह के लोग आते हैं. फिर
वह इस सब को इस तरह क्यों ले
जबकि सबकुछ बहुत पीछे छूट चुका
है? उसने बरसों में अर्जित किया
वही समभाव ओढ़ लिया था... फरजाना,
मैम को यदि इतना पसंद है यह तो
यदि वे चाहें तो ड्रेस ऑल्टर
करवा देना.
...वह उनके जाने के बाद सोचती
रही थी, आकाश की आंखों में सच्चाई
थी. पर वह अगर उसके कहे पर यकीन
कर भी लेती तो वह न तो आकाश की
मां की आंखों के चौखटे में फिट
हो सकती थी न ही उनकी पसंद के
उस लहंगे में...
यूं भी किसी का सपना छीनना,
उसका हक और उसकी खुशियां छीनना,
उसे कभी नहीं सिखाया गया... मां-पापा
भी क्या सोचेंगे...
दिन के अपने उस शांत संयत
चेहरे को रात में वह आंसुओं
से धोती रही थी. काश, वह मान पाती
आकाश की बात! विश्वास कर पाती
पूर्णत: उस पर! आकाश ने तो अपना
दायित्व पूरा कर ही दिया था...
अपनी सच्चाई किसी तरह पहुंचा
ही दी थी उसतक.
...लेकिन कब, वह पूछती रही
थी अपने भीगे तकिये से? इससे
बेहतर तो होता बारात ले जाने
के वक्त कहता. रात धीरे-धीरे
जाती रही थी. दर्द जाये कि न
जाये, आंसू थे, आखिर कभी न कभी
तो चुकने ही थे. उसने खुद को
कठोरता से डपटा था - अब इस सब
का मतलब? वह जी तो रही है. खुश
है और सफल भी... फिर और क्या चाहिये
उसे? क्या चाहती है वह?
...उस दिन की स्मृतियों से
आज भी उसका चेहरा नम हो आया था.
वह उठकर गई थी वाश-बेसिन तक.
खाने का ऑर्डर किया था. आने में
अभी वक्त था, हारकर उसने टीवी
ऑन किया.
देर रात हो चुकी थी शायद.
टी वी के अधिकतर चैनलों में
सिर्फ विज्ञापन आ रहे थे. आध्यात्मिक
चैनलों पर बाबानुमा जीवों का
प्रवचन. कहीं हर तरह के शरीर
में फिट आनेवाले लचीले अन्त:वस्त्रों
के विज्ञापन तो कहीं मोटापा
घटाने वाली क्रीम के बड़े-बड़े
दावे. सबके सब झूठ. सबके सब ढोंग...
उसने टी वी ऑफ कर दिया था.
मन नहीं लगा तो पिछले कुछ
दिनों में खजुराहो से संबंधित
जो किताबें इकट्ठी कर रखी थी
उसे ही उलटने-पलटने लगी - यहां
वैष्णव, शैव और जैन तीनों तरह
के मंदिर हैं. पर अलग-अलग धर्म
से संबंधित होने के बावज़ूद
इनके बीच एक अद्भुत तारतम्य
है. इनका निर्माण एक ही शैली
में किया गया है. ये मंदिर आम
भारतीय मंदिरों से कई अर्थों
में भिन्न हैं. ये मध्य भारत
में विकसित विशिष्ट मंदिर शैली
के प्रतिनिधि हैं. यहां हर मंदिर
एक चबूतरे पर होता है. भक्तजन
इस चबूतरे का उपयोग दो कामों
- विश्राम और परिक्रमा के लिये
करते हैं.
मंदिरों के छत शिखरों का
आभास देते हैं. सर्वोच्च शिखर
गर्भ गृह के ऊपर. मंदिर का प्रत्येक
भाग लगभग एक-दूसरे से जुड़ा हुआ...
नीरस किताबी वर्णनों ने से
उसका मन ऊब रहा था. इससे बेहतर
तो यही कि वह अपने ड्राइवर कम
गाईड शंभु की लंतरानियों से
ही काम चला ले. कथात्मकता-रागात्मकता
सब एक साथ. सुनना-देखना सब एक
में सम्मिलित.
खाना बीच में आकर ठंडा हो
चुका था. उसने जैसे-तैसे उसे
समाप्त किया और सुबह के इंतजार
में सोने के उपक्रम में लग गई.
वह कई दिनों तक घूमती रही
उस ड्राइवर-कम-गाईड शंभु के
साथ, लिखती-बटोरती रही जानकारियां;
बनाती रही स्केचेज़.
उसने ध्यान दिया, बहुत गौर
से ध्यान दिया कि खजुराहो के
शिल्पियों का ध्यान गहनों के
मामले में भी अधिकतर उन्हीं
दो खास अंगों तक सीमित था - वक्ष
और नितंब... और उन्हें आकर्षक
बनाने के लिये उन्होंने उन्हें
कंचनभार से लाद दिया. कंठाभरणों
में - महाहार, मरकत मणियों के
हार, दो से सात लड़ियों की माला,
उत्पलकर्षिक माला, लंबहार,
रानी हार, बड़े-बड़े मोतियोंवाले
तारहार, हार शेखर, हिमधवल माला,
हेमसूत्रहार, चंद्रहार, कंठश्री,
एकावली और गजमोती हार... स्केच
से उसकी नोटबुक भरी जा रही थी.
... गहने पहनने का शौक उसे
कभी नहीं रहा, पर आज न जाने क्यों
वह मन के आईने में खुद को इन
गहनों के साथ देख पा रही थी.
खजुराहो में ऐसा बहुत कुछ हो
रहा था जो पहले कभी नहीं हुआ.
...सघन पृथुल नितंबों और कटि
प्रदेशों को आकर्षक बनाने के
लिये करधनी मेखला, विलास मेखला,
हेम मेखला, कंचन कांची, किंकिणी,
रशना जैसे लोकप्रिय और कम लोकप्रिय
पर अद्भुत आभरणों की संरचना...
...कंदरिया महादेव की नागकन्या
के दैहिक संरचना और प्रवाहपूर्ण
संतुलन को बनाये रखने में महत
सर्पफण-सा छत्र और कटि-मेखला
उसके नयनों को बांध-बांध गये...
काम लगभग समाप्ति पर आ चुका
था. पर कुछ था जो खत्म नहीं हो
रहा था, अटका हुआ था मन में ...
शरीर किसी कसे हुये वीणा
की तरह हुआ जा रहा था. मन अनुरागी
होने को हो आता...
यह बेचैनी खजुराहो भर की
नहीं थी. सायास सुलाये रहने
पर भी कभी-कभी शरीर जागता ही
था... मन तड़पता किसी कांधे पर
सिर रखकर सोने को. किसी से लिपटकर
सर्द रातों के गुमान को कम करने
को.. किसी की नज़रों में अपना
अक्स देखने की, उसके लिये प्यास
देखने की वही आदिम ख्वाहिश...
कभी-कभी सोचती वह, यह लाचारगी
सिर्फ देह की तो नहीं... उम्र
हो चुकी है शायद इसीलिये... मन
झुठलाता है यह तर्क... देह भी
उसी के लिये जागती है जिसके
लिये प्यार हो मन में... वर्ना
देह का क्या, यह प्यास तो कभी
भी बुझाई जा सकती है; कहीं भी
और वह जानती है, उसके लिये ऐसे
मौकों की कमी नहीं.
... आकाश के लिये अगर आत्मा
तड़पती है, जिस्म थरथराता है
तो सिवाय प्यार के यह और क्या
है... समय की सुई क्यों अटकी हुई
है - वहीं, उन्हीं किन्हीं क्षणों
में. वह आगे बढ़ आई ज़िंदगी में,
पर यह आगे बढ़ आना भी छद्म जैसा
ही क्यों लगता है...
प्रशंसायें, पूजा-अभ्यर्थना,
लालच-लोलुप - वह इनमें से कुछ
चुने भी तो कैसे चुने? मरकत मोती
पर पलनेवाला भला दाने-दुग्गों
से कैसे समझौता कर सकता है.
काम-धाम, घर-परिवार सब चीजें
जैसे बहुत पीछे छूट गई हुई लगतीं...
वह लौट नहीं रही थी. इस तरह नहीं
लौट सकती थी वह. इस तरह नहीं
लौटना था उसे. लौटना तब होता
सही अर्थों में जब घड़ी की सुई
आगे बढ़े. सचमुच की ज़िंदगी में
वह आगे बढ़े. और यह तभी संभव था
जब...
वह पागलों की तरह घूमती
दिनभर. चौंसठ योगिनी मंदिर,
कंदरिया महादेव, विश्वनाथ मंदिर,
देवी जगदम्बा मंदिर... देखी उसने
देवी-देवताओं की मनोहारी मूर्तियां.
शक्ति के विविध स्वरूपों में
उसकी दिलचस्पी हमेशा से थी...
महिषमर्दिनी, सरस्वती, लक्ष्मी,
चामुंडा, पार्वती और सप्तमातृकाओं
की लालित्यपूर्ण अभिव्यंजना...
...आदिनाथ मंदिर में अंकित
विद्याधरों और नर्तकियों के
सुन्दर चित्र. चित्रगुप्त मंदिर
में अंकित सूर्य देव की प्रतिमा
जिनके रथ में साथ घोड़े जुते
हैं - अद्भुत, अनुपम. विश्वनाथ
मंदिर बहुत हद तक कंदरिया महादेव
जैसा ही - वही पंचायतन आकार,
वही दीवारों पर अप्सराओं, किन्नरियों
और सुर-सुंदरियों के चित्र.
लक्ष्मण मंदिर की पश्चिमी भित्तियों
पर अंगड़ाई लेती अलस कन्या...
वह बार-बार जाती, देखती पर मन
है कि फिर-फिर जाने को होता.
...पार्श्वनाथ मंदिर में
- प्रेम पत्र लिखती स्त्रियां,
शंख फूंकती, देहांगोंका श्रंगार
करती, दर्पण देखती, नूपुर बांधती,
बंसी बजाती, पशु पक्षियों से
वार्तालाप करती, अंगड़ाई लेती,
पैरों से कांटा निकालती, अपने
भींगे केशों को निचोड़ती, नयनों
में अंजन लगाती, पैरों में महावर
रचाती, शिशु को दुलराती, चित्र
बनाती नायिकायें और शांत भाव
से नेत्र बंद किये खड़ी दो अप्सरायें...
वह रम गई थी खजुराहो में, खजुराहो
ने रमा लिया था उसे खुद में.
...दुला देवी मंदिर की बीस
चारुसर्वांगी शालभंजिकायें
जो अपनी भाव-भंगिमाओं से
विलासिनी तरुणियों के मांसल
सौन्दर्य को मात करती लगतीं...
अपने होने का गुमान, अपने शरीर
और अस्तित्व पर इतना गर्व...
सीखना होगा उसे कुछ इनसे.
यहां तक कि पशु-गमन, समलैंगिकता,
सामूहिक संभोग और रतिचक्र महोत्सव
के दृश्य भी यत्र-तत्र अंकित
मिले... जो राग उत्पन्न हुआ था
मन में, जैसे इस विद्रूप से कसिला
हुआ जा रहा था... अब बस...
घूम-घूम कर जब थकी तो चुप
बैठ गई गाड़ी में. खाने को भी
कुछ वहीं मंगा लिया. उसी बीच
फरजाना का फोन आया था - लौटो
जल्दी. दिक्कत हो रही है अब तुम्हारे
बगैर... उसने अनसुनी कर दी...
सबकुछ तो दांव पर लगा था
- उसका अस्तित्व... उसकी अपनी
सत्ता... जब वह लौट नहीं सकती
पूरे मन से तो लौटने का मतलब...
उसकी बेचैनी उस तक पहुंची
थी शायद. उसके मन को बूझ-समझकर
ही शायद वह कह रहा था... "खजुराहो
पर उस वक्त कापालिकों और वाममार्गियों
का प्रभाव था, जो शक्ति के उपासक
थे. यूं भी वामाचार की पूजा में
पंच मकारों - मुद्रा, मत्स्य,
मांस, मदिरा और मैथुन की व्यापकता
थी. विभिन्न दैहिक आसनों द्वारा
रतिचक्र मनाना इनके अनुष्ठान
का हिस्सा...
खजुराहो से पूर्व भी वैदिक
काल में लिंग और योनि पूजा होती
थी. यूं भी प्राचीन काल से जननेन्द्रियों
की उपसना का प्रचलन रहा है. यह
परंपरा सिर्फ खजुराहो तक ही
नहीं उसके बाद भी चली.
आपको तो पता होगा, खजुराहो
से काफी पहले चौथी शताब्दी
में ही वात्स्यायन ने अपनी
पुस्तक.... कुमारसंभवम में शिव
पार्वती के कामानुराग...
...कहते हैं मानव मुक्ति के
लिये योग और भोग दोनों जरूरी
हैं. प्राचीन हिंदू विचारकों
के अनुसार धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष
सभी तो जरूरी माने गये हैं. इसीलिये
खजुराहो के शिल्पियों ने काम
को निंदनीय और त्याज्य नहीं
मानते हुये इसे मूर्तियों में
उसी तरह साकार किया.
क्यों पढ़ लेता है वह हमेशा
उसका मन...? यह सब बताकर क्या कहना,
समझाना चाहता है वह उसे? क्या
समझता है वह उसके जीवन की रिक्ति
को...?
शंभु से, शंभु की बातों से
अपना दिमाग हटाना चाहती है
वह. सोचती है मन-ही-मन कि इन मूर्तियों
के मंदिरों के बाहर अंकित होने
का शायद एक अर्थ यह तो नहीं कि
समस्त विषय-वासनाओं, सांसारिक
इच्छाओं को बाहर छोड़े बिना
मुक्ति संभव नहीं...
सोचती है वह, दिन-रात सोचती
है, त्याग से पहले तो संपृक्त
होना ही होगा राग से, देह से,
भोग से... त्याग भी देगी वह, पर
पहले राग आये तो जीवन में.
सुबह में कहीं नंगे पांव
मंदिर में जाते वक्त कोई नुकीली
चीज़ लग गई. शंभु सहारा देकर गाड़ी
तक पहुंचाता है. पहुंचाने के
क्रम में हुये स्पर्श से जैसे
भीतर तक कांपा था कुछ. वह सिहर
गई थी. यह सोच बेचैन कर गई थी
उसे. क्या इसी तरह किसी के छूने
भर से कोई कोई उद्वेलित हो सकता
है? किसी के लिये भी... क्या यह
इच्छा इतनी बड़ी हो सकती है कि...
या फिर परिवेश और इस तरह के लम्बे-लम्बे
वार्तालापों का प्रभाव...
भीतर जागती इच्छायें, खजुराहो
में उसका होना और शंभु का यह
एकालाप... नैतिक-अनैतिक, करणीय-अकरणीय
के बोझ से मुक्त होती जा रही
है वह. भीतर का द्वन्द्व जैसे
समाप्त होना चाहता है.
...वह नहीं चाहेगी आकाश पर
अपना आधिपत्य. वह नहीं मांगेगी
उससे कल के लिये कोई वादा, कोई
अधिकार भी नहीं, विगत के लिये
कोई सवाल भी नहीं...
वह नहीं छीन रही है किसी
से किसी के हिस्से का कुछ. वह
तो बस अपने हिस्से के चंद क्षण
चाह रही है. जो कि उसके थे; सिर्फ
उसके. उन पलों से ज्यादा उसे
कुछ नहीं चाहिये. न कुछ उससे
आगे न कुछ उसके पीछे... वह बढ़ सकेगी
ज़िंदगी में फिर आगे. घड़ी की अटकी
हुई सुई को बढ़ने देगी.
कांपते हाथों से वह फोन
नंबर तलाश रही है...
आ सको तो आ जाओ... बस जो पहली
फ्लाइट मिले उसी से...
इससे ज्यादा कुछ नहीं...
कभी फिर तुमसे कुछ भी नहीं
मानूंगी.
और कोई वक्त होता तो उसे
लगता कितनी छोटी और तुच्छ होती
जा रही है वह. इतना झुककर, गिरकर
रहना उसका स्वभाव नहीं.
पर प्रेम में अहंकार कहां...
अहं अगर आड़े आये तो प्रेम कहां...
...आकाश जब आया तो सचमुच रात
हो चुकी थी... आज भी चांदनी रात
थी. रात अधिया चुकी थी...
वह नहाकर निकली थी खुले
बालों और भींगे अंगवस्त्रों
में. क्षण भर को उसे जाने क्यों
लगा वह हेमवती है, बनारस के
उसी ब्राह्मण पुजारी की पुत्री.
चांदनी रात में खुली खिड़कियां
होटल के कमरे को सरोवर में तब्दील
किये जा रही थी और आकाश...
वह चंद्रमा की किरणों में
नहा रही थी, अंग-अंग डूबी हुई.
वह अपने सपनों की दुनिया
की नायिकाओं में तब्दील हुई
जा रही थी. गहरे तक राग और रंग
से भरी हुई खजुराहो की आत्मलीन,
अद्वितीय नायिकाओं में... विश्वनाथ
मंदिर की मिथुनरत गंधर्वमूर्तियों
में.
वह देखती है खुद को अपने
मन के आईने में... समर्पण भाव
तो है वहां पर वही सहभाव भी...
झुकती नहीं है उसकी आंखें, जब
आकाश के होंठ उसे चूमते हैं.
मन की आंखों से देखती है वह चूमे
जाते हुये अपने हर एक अंग को.
शरमाती नहीं है वह, अपने ही शरीर
की गोलाईयों, घुमावों और कटावों
से. शिथिल नहीं होती वह...
...आकाश भर देता है अपने स्पर्श
की बिजलियों से उसका मन. उसने
कोई अपराध नहीं किया, पाप नहीं
किया. उसने अपने मन में बसे माता-पिता
की तस्वीरों से कहा है... नहीं
किया है उसने कोई पाप. उसने तो
अपनी ज़िंदगी के कुछ विलंबित
सुरों को स्वर दिया है... उसने
अपने वर्षों की चाहत पूरी की
है, अपने सपनों के अधिष्ठाता
के साथ. अपने स्वप्नलोक और मनोजगत
की स्त्रियों में से एक हुई
जा रही है वह, उनसे एकमेक हुई
जा रही है.
दिन पंख लगाकर उड़ते हैं.
रातें स्वप्नलोक जैसी. दिनभर
आकाश के साथ घूमना, शाम ढले फिर
लौट आना अपने प्रणय बसेरे में..
दोनों जैसे किसी नाव पर सवार
हैं. दूर कहीं प्रणय लहरों पर
हिचकोले खाती नाव... पर लौटना
तो होगा न, लौटना तो होता ही
है हर प्रस्थान के बाद... मांगकर,
कुछ हदतक छीनकर ली गई खुशियों
की मोहलत ही आखिर कितनी...
नाश्ते के टेबल पर भी वह
गुमसुम है और हमेशा की तरह उसके
भीगे लटों में उंगलियां नहीं
फंसाता न उसके भीगे चेहरे पर
उंगलियां फिराता है.
.. वह आकाश के चेहरे पर चिंता
की रेखायें देखती है.
क्या हुआ...?
कुछ नहीं...
वह फिर जिद करती है... बार-बार
पूछती है.
‘माया’ - मेरी नन्ही सी बिटिया
बीमार है. कई दिनों से बुखार
है उसे.
वह भीतर तक कांपती है, लगता
है उसे, आ गया है वह क्षण. मोह
और आसक्तियों को त्याग देने
का क्षण...
वह चारुसर्वांगी-शालभंजिकाओं
के शिल्पियों की उदास विचारमग्न
यक्षकन्याओं में तब्दील हुई
जा रही है...
आंसुओं को भीतर पीते-पीते
ही कहती है वह, "जाओ आशु अब
तुम्हें जाना चाहिये, तुम्हारे
परिवार को तुम्हारी जरूरत है."
आकाश की आंखों में चिंता
भाव है... "पर तुम...?"
"मैं... मुझे तो ऐसे भी...
पता तो था... सबकुछ जानते बूझते
हुये भी...मुझे भी जाना ही होगा
वापस, पर अभी नहीं..."
"मेरे साथ चली चलो... जब
जाना एक ही जगह है तो..."
"तुम्हारे साथ नहीं, बिल्कुल
भी नहीं.. यही तो तय था न. नहीं,
हमारी मंजिलें, हमारी राहें
कभी एक नहीं हो सकतीं.... अब इसके
बाद हमारा कोई रिश्ता नहीं...
मन का भी, ऐसा नहीं कहूंगी
कुछ क्षण थे हमारे हिस्से
के, जो मेरे पास रहेंगे मेरी
थाती बनकर. इन्हें संजोकर रखूंगी
हमेशा अपने मन में...
पर तुमसे यह भी नहीं कहूंगी
कि इन्हें दिल से लगाये रखना...
जंजीर मत बनाना इन्हें..."
आगे अपनी ज़िंदगी... अपना परिवार...
वह मन की सुबकन को जुबान तक नहीं
लाना चाहती.
जा रहा है आकाश, कहती है अदिता
- "पीछे मुड़कर मत देखना..
देखना मत प्लीज."
पर वह मुड़कर देखता है, न जाने
कैसी निगाहों से. इस दृष्टि
में न जाने क्या है.. सबकुछ वैसा
ही तो नहीं हो पाता जैसा कि चाहते
हैं हम...
वह दोपहर तक बैठी है कमरे
में, वैसी ही उदास, थकी हुई. शरीर,
मन सब बेजान...
बाहर गाड़ी की हॉर्न आवाज़
देती है... लगातार दे रही है.
अकाश होता तो वे दोनों भागते
हुये उतरते सीढिंयां, पहली
ही हॉर्न की आवाज़ के साथ.
वह नहीं उतरती तो वह ऊपर
ही आ जाता है. वह जैसे समझ जाता
है सबकुछ. कोई कौतूहल, कोई प्रश्न,
कुछ भी नहीं. गिलास में ढाल कर
उसे पानी देता है... कुर्सी पर
पड़े शॉल को दूर से ही उसके कंधे
पर डालता है, इस तरह कि उसकी
पारदर्शी नाईटी का वह भाग पूरी
तरह ढक जांये...
"कहीं चलेंगी?"
उसकी आखें पूछती हैं, "कहां..?"
"कहीं भी, बस आज ऐसे ही,
मंदिर-वंदिर तो बिल्कुल भी
नहीं."
...बेमतलब , बेमकसद घूमते
हैं वे - सड़कों, गलियों चटकीले
बाज़ारों में. बैग इतना भर गया
है कि उठाये न उठे, पर मन खाली...
वह कहता है, "लाईये बैग
मुझे दे दीजिये."
कौन है वह उसका...
उसका दिमाग कुछ सोचने-समझने
की स्थिति में कहां है...
आकाश के साथ जब वह होती थी
तब भी वह ऐसे ही... उनकी मन माफिक
जगहें, प्यार करनेवालों के
लायक एकांत...
क्या है यह, आतिथ्य भाव? उसके
अपने संस्कार या फिर...
वह कृष्ण-सा क्यों हुआ जाता
है? जैसे हजारों रूप हों उसके,
जब जरूरत हो सारथी, जब जरूरत
हो सखा...
वह वापस लौटना चाहती है.
उसकी आखों मे प्रश्न-सा
टंगा है - क्यों? पर आदतन वह कुछ
भी नहीं कहता... वह जानती है, अपने
नगर, अपनी संस्कृति पर धुंआधार
बोलनेवाला वह अपनी भावनाओं
को हमेशा भीतर-ही-भीतर पीता
है...
जाते वक्त वह उसे मिट्टी
से बनी खजुराहो की अनुकृतियां
या कहें कि अनु-आकृतियों का
एक सेट थमाता है.. आपके लिये....
देते वक्त उसकी आंखों में बहुत
कुछ है... पर अदिता नहीं पढ़ पाती
उसकी आंखें...
अदिता जा रही है, जाते-जाते
सोचती है - क्य सचमुच रुकी
हुई घड़ी की सुई चलने लगी है...
क्या पीछे छूटा हुआ सबकुछ
सचमुच पीछे छूट गया है...
***
संपर्क :
एन एच 3 / सी 76,
एन टी पी सी, पो.
विन्ध्यनगर,
जि. सिंगरौली ४८६
८८५
(म. प्र.)
मोबाईल : 07509977020
ई-मेल : kavitarakesh@yahoo.co.uk
कविता स्वयं जिसका नाम हो उसका अप्रतिम हो जाना आश्चर्यजनक कैसे हो सकता है |अद्भुत कथा लेखिका ,कवयित्री से परिचय कराने के लिए पहली बार का आभार |
जवाब देंहटाएंकविता जी को पढ़ना सुखद है.
जवाब देंहटाएंसुन्दर और सशक्त कहानी !कविता जी को बधाई !
जवाब देंहटाएं