विद्या निवास मिश्र का निबन्ध 'बसन्त आ गया पर कोई उत्कंठा नहीं'
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विद्या निवास मिश्र |
ऋतुओं में अल्हड़ होने के कारण ही बसन्त को ऋतुराज कहा गया है। कुछ भी अधिक नहीं। सबमें एक साम्य भाव दिखाई पड़ता है। न अधिक ठंड, न अधिक गर्म। मौसम सुहाना हो जाता है। यह नवागत का स्वागत करता है। नव पल्लव पुराने की जगह लेने के लिए आतुर हो जाते हैं। हमारे यहां जो अधिकांश पर्व त्यौहार हैं वे ऋतुओं पर ही आधारित हैं। बसन्त पंचमी का पर्व ऐसा ही है। बच्चों को इसी दिन विद्यारम्भ कराया जाता है। विद्यानिवास मिश्र के ललित निबन्ध अपने आप में बेजोड़ हैं। इस बसन्त को ले कर ही उन्होंने अपना चर्चित निबन्ध लिखा था 'बसन्त आ गया पर कोई उत्कंठा नहीं'। सभी को बसन्त की बधाई एवम शुभकामनाएं। आइए इस अवसर पर आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं विद्या निवास मिश्र का निबन्ध 'बसन्त आ गया पर कोई उत्कंठा नहीं'।
'बसन्त आ गया पर कोई उत्कंठा नहीं'
विद्या निवास मिश्र
दो हजार वर्ष पूर्व किसी प्राकृत कवि ने लिखा—
दीसइणं चूअमउलं अत्ता ण अ वाई मलअगन्धवहो।
पत्तं वसंतमासं साहइ उक्ककण्ठिअं चेअम्॥
दीखते न बौर कहीं आम के
छू नहीं पाई अभी गंधलदी दखिना पवन।
पर अकुलाए चित्त ने साखी भरी
सखि वसंत आ गया॥
वसंत का प्रमाण बाहर ढूँढ़ने की जरूरत नहीं, रागाकुल चित्त ही वसंत का अधिष्ठान है, इसलिए कोयल बोले न बोले, भोर में अलसाई दखिनैया बहे न बहे, आम में बौर आए न आए, महुआ के कूचे द्रवें न द्रवें, कुछ अंतर नहीं पड़ता, चित्त अकुला पड़े, बस उसी क्षण वसंत का आविर्भाव हो गया। सुंदर दृश्य, मधुर शब्द, स्निग्ध स्पर्श, मदिरगंध और दूधधोया चाँदनी का जल अपने आप में व्यर्थ हैं, ये अर्थ पाते हैं निश्चिंत और निरुद्विग्न चित्त को पर्युत्सुक बना कर ही। यह पर्युत्सुकता ‘अबोधपूर्व’ का स्मरण है, अस्तित्व की निरंतरता का प्रतिबोधन है, ‘मैं’ की शृंखलाओं का संग्रथन है, व्यष्टि और समष्टि चित्तों के मिलन की बेचैनी है। ‘जननांतरसौहृद’ या जन्मांतर-प्रीति या पिछली पहचान का वास्तविक अभिप्राय यही है कि इस पिंड में रह-रह कर ब्रह्मांड गूँजता है, उस गूँज को सुन कर उसके पीछे दौड़ जाने की बेकली उठती है और तब पिंड ही ब्रह्मांड बन जाता है पिंड का नवरसन ही वसंत बन जाता है।
पर आज चढ़े फागुन की ढलती दुपहरी में ललित निबंध के तगादों का भुगतान करने बैठा हूँ तो लगता है, वसंत आ गया है, कहीं मैं ही पीछे छूट गया हूँ। जापानी कवि सहजो यासो के शब्दों में ‘कोई मेरे हाथों एक छोटा-सा लिफाफा पकड़ा गया है,’ जिसमें एक संदेश है ‘आने वाली पूनो की रात पहाड़ियाँ दहक उठेंगी।’ पर क्या करूँ, चित्त सुलगने को तैयार नहीं, बहुत फूँकता हूँ तो धुआँ हो कर रह जाता है। मेरी आँखों से, मेरे कानों से बस अंधकार मूसलाधार बरस रहा है। किसी भी उषा की लाली की यहाँ पैठ नहीं, बस एक शून्य है, जिसमें न वृक्ष हैं, न घर, न घर के बाहर बैठा हुआ कुत्ता, पर शून्य में बसेरा लिए चित्त है, जो न मरना चाहता है, न सोना, न सपनों में खोना, जो हर बेचैनी के खिलाफ जेहाद बोले हुए हैं, जो बस शांति का तिमिरगीत गाए जा रहे हैं, एकदम बेसुर, एकदम बेताल।
प्राकृत गाथाओं का भोला हिरन जंगल में आग लग जाने पर भी टेसू की सुधि में खोया रहता है और आज के कवि का विदग्ध चित्त टेसू के दहकने को कोई घटना ही नहीं मानता, जहाँ इतनी आग धधक रही हो, वहाँ एक फूल की ठंडी शोखी की बिसात ही क्या? उससे क्या बनता-बिगड़ता है? कोई दिन नहीं जाता, जब किसी-न-किसी का अभिनंदन न हो, कोई-न-कोई टेसू न बन रहा हो या बनाया जा रहा हो, किस-किस टेसू का लेखा-जोखा रखा जाए?
और सेमल की कँटीली डालियों के गुलाबी रोमांच की रट्टू तोतों का मन ललचाएँ, तो ललचाएँ, अंत में उधियाने वाले इस रागात्मक प्रपंच में इस तत्त्वान्वेषी आधुनिक बोध को क्या रस? मुझे तो नया संवत्सर एक पियक्कड़ अंधे की तरह सड़क पर लुढ़कता हुआ, अर्थहीन गीत गाता हुआ दिख रहा है, इसको तो तुम पुराने भँगेड़ियो, वसंत के नाम से नहीं पुकारते? अफ्रीका का आदिम कवि चित्त पुकारता है, “सभ्यता का सूरज अपने बच्चों को भी कौर बना ले।” यह जो कमल खिला है, वह कमल नहीं, मृत्यु है, यह सूरज के नासा रंध्रों में से उग कर बाहर निकली है। जिसे तुम वसंत कहते हो, वह इसी मृत्यु कमल की रतनार वासना है। मुझे इस सूरज में, इस सूरज जननी मृत्यु में, इस मृत्युमाया वसंत में कोई दिलचस्पी नहीं। मेरा कवि-मानस अनादिम है, पुरायठ है, जाने कितना तेल वह सोख चुका है और उस तेल के कारण कितनी धूल समेट चुका है। वह अब घरैतिन महिला का हृदय है जो प्राकृत गाथाकार के शब्दों में ‘विश्रब्धहसित परिक्रमों’ को, उच्छल हँसी, बाँकी चितवन और ललित त्रिभंगी विलासों को एक साथ तिलांजलि दे चुका है और अपने को डुबा चुका है, घर के कामकाज में, साँझ की सिरवाई से अब राहत की साँस नहीं मिलती, नदी की हिलोर से पुलक नहीं होती, चैत की चाँदनी में चुरने के लिए मन उन्मन नहीं होता, बस घर-बार है और मैं हूँ, वसंत की बेचैनी बड़ी बचकानी लगती है।
या मैं वसंत से डर रहा हूँ, जैसे कोई अंधकार में श्मशान के पीपल की डाल से लटकती हुई किसी लाश से डरता हो। मैं डर रहा हूँ, क्योंकि वसंत मेरे ढूह होने को प्रमाणित करने के लिए आ रहा है, मैं डर रहा हूँ, क्योंकि वसंत मेरे ऊपर पागलपन में चढ़ी हुई खीरे की बेल सरीखी मेरी प्रतिमा को झकझोर कर विलग कर देगा, उसे ढूह और हरियाली की लिपटन बरदाश्त नहीं है। नहीं, मैं बूढ़ा नहीं हुआ। वसंत ही बुढ़ा चला है। मैं आधुनिकता का प्रवाचक कभी बूढ़ा हो नहीं सकता, वसंत की प्रक्रिया में ही कोई व्यतिक्रम आ गया होगा, किसी दुष्यंत ने अपनी विस्मृति की खीझ में यह डौंडी पिटवा दी होगी कि इस वर्ष मदनोत्सव नहीं मनाया जाएगा, जिसके कारण लंबे अरसे से आमों के बौर लगे हैं, पर उनमें पराग अभी नहीं पड़ रहा, कुरबैया बस अपनी कुड्मलावस्था में बाहर जाने को तैयार बैठा है, बाहर निकलने की हिम्मत नहीं कर पा रहा। कोयल का राग गले में रुँधा-सा है, यद्यपि शिशिर कभी का जा चुका। लगता है कामदेव भी अचकचाया-सा, तरकस के तीर निकालूँ न निकालूँ, आधा निकाल कर फिर अंदर कर लेता है।
लगता है कि कुछ छंद बिगड़ गया है। जो लय जहाँ होनी चाहिए, वहाँ नहीं है, जहाँ न होनी चाहिए, वहाँ है। यह कुबड़ा आम इस साल ऐसा बौराया है कि कुछ न पूछो, इसकी बाढ़ जाने कब से रुकी है, पर यह विश्वास की प्रक्रिया को खुली चुनौती दे रहा है। समस्त युग, लगता है, ययातियों से छा गया है। हर ठूँठ जवानी की शर्त पर ही अपना ठीका सौंपने को राजी है। इसलिए ठूँठ जवान हैं और जवान ठूँठ।
वसंत का उत्साह जितना बूढ़ों में है उतना तरुणों में नहीं, जितनी निर्मम तटस्थता तरुणों में है, उतनी बूढ़ों में नहीं। बूढ़े गले में ढोल बाँधे चिल्लाते हैं—“शिवशंकर खेलै फाग गौरा संग लिये” और जवान खिड़कियों, दरवाजों को बंद कर घर में पड़े रहते हैं—मुझे चैन से रहने दो। वसंत जाते ही विद्यालयों में मायूसी छा जाती है। साल भर किए गए उपद्रव बेमानी लगने लगते हैं, लगता है कुछ नहीं होने का, एक निश्चिंत क्रम है, वसंत उसका है जिसके हाथ में सत्ता है, सत्ताहीन का कैसा वसंत? इसीलिए निर्मियाद होने की, उच्छृंखल होने की छूट भी उसी को है, जिसके हाथ में वसंत है। वही नियामक और शासक की हैसियत से जितनी चाहे उतनी अनीति करे, शासक की हैसियत से चाहे दमन करे और स्रष्टा की हैसियत से जितना चाहे विध्वंस करे। उसे छूट है, बचपन से खेले, तरुणाई से खेले।
जिनके लिए वसंत विधि होना चाहिए, उनके लिए निषेध हो गया है, वे निषेध में जीते हैं—
अपने बचपन में मुझे स्कूल से नफरत थी
और फिर मुझे अब काम से नफरत है।
सबसे अधिक स्वास्थ्य और सफाई से नफरत है।
स्वास्थ्य और सफाई से बड़ा क्रूर
कोई मनुष्य के लिए हो नहीं सकता।
मुझसे कोई पूछे मैं क्यों पैदा हुआ,
बिना हिचक के कहूँगा नकारने के लिए
मैं जब पूरब हूँ कहूँगा पच्छिम जा रहा हूँ।
यही मेरी निष्ठा है, जीवन में नकारना ही एकमात्र मूल्य है।
नकारना ही जीवन है।
नकारना ही अपनी निजता को मुट्ठी में करना है।
(कनेको मित्सुहारु)
जब तरुण इस प्रकार निर्विकार दृष्टि से अपने युग की संभावना को देखे, ऐसी दृष्टि से जिसमें न ईर्ष्या हो, न मत्सर, न काम हो, न क्रोध, तब भला संभावना प्राकृत गाथाकार की नायिका की तरह
सा तुह कारण बालअ अणिसं घरदारतोरणणिसण्णा।
ओससई बन्दणामालिअब्ब दिअहं बिऊ बराई॥
“बेचारी तुम्हारे ही कारण बेटा! निरंतर दरवाजे की तोरण के नीचे बैठी-बैठी एक ही दिन में उसमें तनी बंदनवार की तरह क्यों न सूख जाए?”
पर यह ‘बेटा’ वह तरुण फूलों में एक अजीब दहशत देखता है, वह चिल्ला उठता है—
उन्माद उनींदे फूल, मुझे थपकियाँ दे कर सुला दो
पर मुझे तुम प्यार मत दो
उफ कितनी विपुल है तुम्हारी गंध
कितनी भारी है तुम्हारी गुलाबी रून
कितनी अतिअंजी है तुम्हारी दीठ
कितनी तपी है धूप में तुम्हारी रूह
मैं अकेले काँपता हूँ तेरा हाथ अपने हाथ लेते
काँपता हूँ वहीं तुम एक दिन नारी न बन जाओ।
उन्मद उनींदे फूल।
(अल्फांसो रयेज)
उसे दहशत है अपनी पूर्णता से, क्योंकि वह तथाकथित पूर्णताओं से चिपका हुआ है। जीवन की पूर्णता के प्रतिमान इतने रीते लगे हैं कि वह अधूरा बने रहना चाहता है, रीतेपन का जोखिम नहीं उठाना चाहता। उसकी पूरी-की-पूरी पीढ़ी इसी रीतेपन के त्रास से आतंकित है, रीतापन जो उसका नहीं, उसकी पिछली पीढ़ी का है, उस पीढ़ी का, जिसके लिए वसंत एक नीलाम की मुनादी है, एक कानूनी रस्म है, जिसकी पूर्ति इसलिए होनी है कि आज तक होती आई है, जिसके लिए क्रमभंग का भय, इसलिए इतना यथार्थ है कि वह पीढ़ी मात्र क्रम है, क्रम को छोड़ कर कुछ भी नहीं। वह पीढ़ी टूट कर भी जुड़े रहना चाहती है, इसीलिए वह मीनाक्षी मंदिर के बजने वाले खोखले खंभों से पारस्परिक मूल्यों को बारी-बारी से थामती चलती है, उन खंभों से निकली हुई विविध वाद्यों की गूँज उनके शून्य के लिए सेतु का काम करती है, ऐसे सेतु का, जिसमें पीढ़ी का स्वत्व नहीं है।
दुष्यंत पुरुवंशी था, पुरु ने ययाति को अपना यौवन दे कर राज्य सत्ता पाई थी, दुष्यंत में वही यौवन-विक्रयी संस्कार था, वह संभावना का तिरस्कार कर सकता था, क्योंकि वह मधुलोलुप था, उसे तुरत और सामने मधु चाहिए, मधुगर्भा शकुंतला से उसका लगाव नहीं, मधुस्नाता शकुंतला से लगाव था। इसलिए वह अपनी भूल की संभावना के हाथ से निकल जाने के पछतावे की खीझ उतारता है वसंतोत्सव पर। भला वसंत ने क्या बिगाड़ा था? वसंत ने तो उसे तपोवन में मदनोत्सव दिया था। अँग्रेजी आईन के साये में पली बुजुर्ग और कर्तव्यपरायण राजशाही-परस्त पीढ़ी आज खीझ उतारती है स्वाधीनता पर। स्वाधीनता के लिए जो संघर्ष हुआ, वही सारे अनर्थों की जड़ है, अब इस स्वाधीनता पर पाबंदी लगनी चाहिए, कोई बात हुई कि फूहड़ गीत गाए जाएँ, कीच-काँदों फेंके जाएँ, बिना मतलब जुलूस निकाले जाएँ। सबसे बड़ा मूल्य है शांति और व्यवस्था। सत्य, न्याय ये सब अस्थायी और सापेक्ष मूल्य हैं, शांति और व्यवस्था शाश्वत और निरपेक्ष मूल्य हैं। स्वाधीनता आ ही गई है तो रहे, पर जरा सलीके से रहे, परदे में रहे, पालकी में चले, अभिसार करने जाए तो जाए, भालुओं से भरे अँधियारे विजन में या गोरी चाँदनी से नहलाई रात में, पर सड़क पर चले तो जरा सँभल कर, अपनी जबान न खोले, बस लौंडी के जरिए अपनी बात कहे, उसके पैरों की महावर भर दिखे, शरीर गहनों से (उधार के हों या मुलम्मा हो, इससे कोई मतलब नहीं) लदा रहे, शिष्टता का कीमखाबी ओहार पड़ा हो, उसके कहारों को देशी ताड़ी पीने की छूट है और ठर्रा किस्म का कहरवा गाने की छूट है या किसी पीपल की छाया में पालकी उतार कर खर्राटे भरने की छूट है, पर स्वाधीनता की सामंती मर्यादाओं के भीतर ही रहना है। उसकी मंजिल हवेली है, जहाँ से चली वह मैका हवेली है।
फिर कैसा वसंत और कैसी बेचैनी? अब कोयल क्यों दिन-दुपहर अपना राग बिखेरे? सब सो जाएँ, कोई सुनने वाला न हो तब अपनी पुकार शून्य के तट पर अंकित करा जाए, यही काफी है। शांति भंग का अपराध न हो और अपनी बेचैनी भी द्वार पा सके, इसके लिए सिवाय इसके कि वसंत और वासंती आकुलता का स्मरण उसके प्रत्याख्यान के द्वारा किया जाए कोई चारा नहीं। स्वाधीनता का रागात्मक स्मरण उसके तामझाम को, उसकी दिख रही अटारीनुमा मंजिल को नकार कर ही संभव है। आज वसंत के प्रति तटस्थता ही बेचैनी की सही अभिव्यक्ति है और चूँकि मेरा चित्त अनाकुल और तटस्थ है, इसलिए वसंत जरूर कहीं चोरी-छिपे आ गया है, लीजिए उसके लिए यह उपेक्षा की अंजलि समर्पित है। मेरे जीवन में उसका अस्तित्व प्रमाणित हो ले।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
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