पंकज मोहन का आलेख '1911 प्रयाग कुम्भ के अवसर पर आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी'
महाकुम्भ विशेष : 15
'1911 प्रयाग कुम्भ के अवसर पर आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी'
पंकज मोहन
31 जुलाई 1909 को युक्त प्रान्त के गवर्नर ने भारत के राजे-रजवाडों के साथ विचार-विमर्श कर यह निर्णय लिया कि हिन्दू समाज में तीर्थराज के रूप में सर्वसमादृत प्राचीन नगरी प्रयाग में 1911 के कुम्भ मेला के अवसर पर एशिया की सबसे बडी प्रदर्शनी आयोजित होगी जो भारतीयों के लिये समुन्नत राष्ट्रों के ज्ञान-विज्ञान, शिल्प और व्यवसाय के गवाक्ष की भूमिका निभायेगी। इस अवसर पर प्रकाशित स्मारिका में इस तथ्य को रेखांकित किया गया कि यह प्रदर्शिनी कृषि, व्यवसाय और उद्योग के क्षेत्र में सक्रिय भारतीयों के लिये शिक्षादायी तो होगी ही, उन्हें हर तरह के खेल और तमाशे का आनन्द उठाने का भी अवसर मिलेगा।
"पोलो का खेल जिसमें करीब दो हजार रुपए का इनाम दिया जाएगा, प्रदर्शनी के खुलने के पहले 2 हफ़्ते में होगा - 12 पोलो खेलने वाले टीम ने अब तक खेलने वालों में अपना नाम लिखवाया है और यह उम्मीद है कि ऐसा पोलो का खेल पहले हिन्दुस्तान में कभी नहीं हुआ। फरवरी के पहले हफ्ते में एक घूसा लड़ने वालों का दंगल होगा जिसमें 800 आदमी लड़ेंगे और 16 जनवरी से एक तमाशा होगा जिसमें हिन्दुस्तान की पुरानी-पुरानी बातों का दिखाया जाएगा। यानि हर रोज़ एक न एक तमाशा होता ही रहेगा -- एक तमाशेदार रेलगाड़ी और नाव, जादू का शीशा और विलायत के एक मशहूर कारखाने की बनी हुई आतिशबाज़ी का तमाशा दिखाया जायगा और प्रदर्शिनी के भीतर वायसकोप और नाटक भी होगा।
प्रिन्स आफ वेल्स के गुरखा पलटन का अङ्गरेजी बाजा जिसके टक्कर का और दूसरा विलायत के सिवाय कही नहीं है, बजेगा - हिन्दुस्तान के मशहूर गाने वालों का गाना भी होगा और सब से बढ़ कर तमाशा जो कि हर एक आदमी को पसन्द आवेगा वह एक बड़ा भारी दंगल जिसमें कि यह तय किया जायगा कि हिन्दुस्तान मे सब से बढ़ कर पहलवान कौन है।
ग्रेन्ड सरकस भी देखने लायक है--यहां पर सीखे हुए जानवरों की कार्रवाई को देख कर चित्त प्रसन्न हो जायेगा। प्रोफ़ेसर राममूर्ति नायडू भी अपनी कसरत यहां पर दिखलायेंगे। प्रोफ़ेसर के ऊपर से बैलगाड़ियां, जिस में 30 आदमी बैठते हैं निकल जाती हैं और यह अपने छाती के ऊपर 3 टन का हाथी उठा लेते हैं।
यहां ऐसे थियेटर की भी व्यवस्था है जिसमें शेक्सपियर के नाटक दिखलाये जाते हैं- हिन्दुस्तानी क़द्रदानों के लिये इनका काम बहुत मनोरंजक होगा।"
18 फरवरी 1911 को इस प्रदर्शनी में फ्रांसीसी पायलट हेनरी पिक्वेट ने विश्व के प्रथम एअर मेल का श्रीगणेश किया था। उसने अपने विमान में करीब 6500 पत्रों को ले कर प्रयागराज से नैनी तक की उड़ान भरी। उन पत्रों ने नैनी के आगे की यात्रा रेलवे और पानी के जहाज द्वारा पूरी की।
इस प्रदर्शनी का आनन्द द्विवेदी युग के एक महान हिन्दी कवि जिनका नाम मैं गुप्त रखूंगा (लेकिन सुधी जन के लिये प्रदर्शनी के समय के उनके चित्र को संलग्न कर रहा हूं।) की तत्संबंधित कविता के माध्यम से लिया जा सकता है। द्विवेदी युग के विद्वान समझते थे कि अगर द्विवेदी जी की सम्पादकीय रवि रश्मि न होती, तो उनका प्रतिभा-सरोज प्रस्फुटित न हो पाता। पटना के बैरिस्टर काशी प्रसाद जायसवाल ने एक बार दिनकर जी से कहा, "हिन्दी में केवल दो ही उल्लेखनीय कवि हुए - एक तो वही चंद, और दूसरा हरिचंद। हिन्दी के महान कवियों की सूची में तुलसी दास का नाम न पा कर जब दिनकर जी ने आश्चर्य व्यक्त किया, तो जायसवाल जी ने कहा, सोलहवीं सदी के अप्रतिम रामभक्त की कविता तो "ज्ञान गुण सागर" महावीर जी सुधार देते थे, जैसे बीसवीं सदी के रामभक्त शिरोमणि की कविता का संशोधन "सरस्वती"-साधक श्री महावीर करते थे- देव और मानव महावीर का यह अद्भुत संयोग!"
वैष्णव कविवर 24 दिसम्बर 1910 को प्रयाग गए। उन्होंने सुन रखा था कि यह अपने समय की सबसे बड़ी औद्योगिक प्रदर्शनी है। इस बात का सारे भारत में जोर-शोर से प्रचार हुआ था कि इस प्रदर्शनी में भारत की प्रजा देश-विदेश में बने उन यन्त्रों के प्रयोग को देख पाएगी जिन्हें उस समय तक भारत के किसी भी कोने में सार्वजनिक रूप से नहीं दिखाया गया था। "यमुना-तट पर संगम और अकबरी दुर्ग के सन्निकट आलीशान की एक बस्ती-सी इस प्रदर्शिनी में बस गई थी। देश के कोने-कोने से लोग इसे देखने दौड़ पड़े थे। उनके साथ दो अनुज भी गये थे। इसी अवसर पर वे द्विवेदी जी से भी मिले। 3 जनवरी 2011 को घर लौट कर उन्होंने द्विवेदी जी को लिखा, "श्रीमान् का कृपापत्र मिला। पढ़ कर बड़ा हर्ष हुआ। विशेष प्रसन्नता इस बार हुई कि यहां श्रीमान् अपने ही घर में रहते थे। मेरे स्वर्गीय पिता जी से श्रीमान् का परिचय था।" "सरस्वती" के फरवरी 1911 अंक में द्विवेदी जी ने अधोलिखित कविता को स्थान दिया।
प्रयाग की प्रदर्शनी
तीर्थराज की पावन यात्रा प्रदर्शनी-दर्शन के साथ
एक पन्थ दो काज-सिद्ध का देख खुअवसर आया हाथ।
उठी हमारे मानस में भी सहसा एक उमंग-तरंग
चले अतः सानन्द एक दिन कुछ आत्मीय जनों के संग॥
(2)
हुई रेलगाड़ी में जैसी रेल पेल या ठेलाठेल
नहीं कहेंगे उन बातों को था वह भी मेले का मेल।
वहाँ पहुँचते ही हम अपना मार्ग-कष्ट सब भूल गये
कहें कहाँ तक, देखे हमने दृश्य एक से एक नये॥
(3)
सुन कर स्वागतपूर्वक, पहले पण्डा-दल का मृदुआलाप
पुण्योदका त्रिवेणी तट पर पूर्ण किया निज कार्य-कलाप।
मन्द-वायु-विक्षिप्त तरंगें शत शत सूर्य विम्ब कर व्यक्त
शीत समय भी दृष्टि-मार्ग में करती थीं मन को अनुरक्त॥
(4)
सब कामों से, छुट्टी पा कर, हम प्रदर्शिनी में आये
ऊँचे ऊँचे पीत वर्ण के भव्य भवन थे मन भाये।
उनके भीतर विविध वस्तुयें संगृहीत सज्जित पाई
आकर्षित सी हो कर आंखें जिन्हें देखने को धाई॥
(5)
कहीं सजावट की चीजों से हो जाता था चित्त प्रसन्न
कहीं कला अपनी महिमा से करती थीं विस्मय उत्पन्न।
भाँति भाँति की वस्त्र-राशियाँ कहीं दिखाई देती थीं
कुशल कलाकारों की कृतियाँ चित्त चुराये लेती थीं॥
(6)
नई-पुरानी तरह तरह की तसवीरें छवि पाती थीं
मनोविकार, प्राकृतिक शोभा सभी दृश्य दिखलाती थीं।
कहीं मूर्तियाँ रम्य रूप से आँखों में घुस जाती थीं
कर्ताओं की कला-कुशलता बोले बिना बताती थीं॥
(7)
देख छटा वह गृह-रचना की होगा किसको हर्ष नही?
छोटे बड़े शिविर या तम्बू थे दिखलाये गये कहीं।
लकड़ी पत्थर और काँच के कई तरह के सुन्दर काम,
देखे बिना नहीं हो सकता उन सब का अनुभव अभिराम॥
(8)
कहीं स्त्रियों के कौशल के काम अनेक निराले थे
गिरी दशा में भी भारत का नाम बढ़ाने बाले थे।
कहीं कसीदा, पच्चीकारी, तारकशी, नक्काशी देख
रुचिर बेल-बूटों से मन को होता था आनन्द विशेष॥
(9)
तरह तरह के यन्त्र मनोहर, तरह तरह के थे औजार,
जल-यानोँ की अनुपम रचना थल-यानों का था व्यापार।
भाँति भाँति के बाजे सुन्दर कहीं दृष्टि में आते थे
बीच बीच में बज कर कोई श्रवण-सुधा बरसाते थे॥
(10)
आभूषण-विभाग था मानों रत्नों का भाण्डार यथार्थ
बड़ी सजावट से रक्खे थे यहां वहुत बहुमूल्य पदार्थ।
रंग बिरंगे रत्नों की वह ज्योति मनोरम जगती थी
विद्युत-दीपों के प्रकाश मे चकाचौंध सी लगती थी॥
(11)
कहीं ऐतिहासिक पदार्थ थे रक्खे गये विचित्र विचित्र
जिन्हें देख कर खिंच जाते थे आंखों में बहु घटना चित्र।
हस्त-लिखित प्राचीन पुस्तकें शास्त्र भूषणादिक अवलोक,
काल चक्र की चाल लोक में विदित हो रही थी बे-रोक॥
(12)
किसी भवन में जीवजन्तु-मय देख प्रकृति की अद्भुत सृष्टि,
विधि की रचना के अनुभव से मोहित हो जाती थी दृष्टि।
देहधारियों की विभिन्नता रङ्ग, रूप, आकार, प्रकार
उस कारीगर की महिमा है महा महत्तापूर्ण, अपार॥
(13)
कृषि-विभाग था हम लोगों को अति उपयोगी, उपकारी,
जल-सिञ्चन की नई रीतियाँ कल के हल बहु-बलधारी।
कृषि-सम्बन्धी काम यहाँ पर थे दिखलाये गये तमाम
जिनके द्वारा लाभ उठा कर कृषक वृन्द पावें आराम॥
(14)
जल-विभाग में जल यन्त्रों से पानी आता जाता था
कहीं पुलों का रचना-कौशल मन का मोद बढ़ाता था।
जल का कहीं जमाव जमा था नहर निकाली गई कहीं,
नदियों की नैसर्गिक शोभा निपट निराली नई कही॥
(15)
खेल तमाशे भी कितने ही होते देखे जहाँ तहाँ
यद्यपि हमारे लिये सभी कुछ था कौतुहल-ज़नक यहाँ।
चलती फिरती तसवीरें थीं सरकस और थियेटर गान
कहीं अखाड़े मे लड़ते थे नामी पहलवान बलवान॥
(16)
वैज्ञानिक लोगों की कृतियाँ देख एक से एक बड़ी,
मनुज बुद्धि-बल की असीमता हमें यहाँ पर जान पड़ी।
अहा, विमानों के उड़ने का दृश्य और भी नूतन था,
अद्भुत भावों की लहरों में बहता नहीं कौन जन था॥
(17)
संध्या होने पर प्रदर्शनी दिखलाती थी नई छटा,
उन्नत-नैष्ठिक-नभस्थली का जिसे देख कर गर्व घटा।
विद्युतदीपों के प्रकाश से अन्धकार का करके नाश
रत्नाभरण युक्त रमणी-सम करती थी मानो मृदु हास॥
(18)
एक दूसरे की कृतियों को एकत्रित अवलोकन कर,
और अधिक उत्साह-सहित हों अपने कामों में तत्पर।
ज्ञान-वृद्धि के साथ साथ ही नूतनता पर डालें दृष्टि,
इसीलिये ही विज्ञजनों ने की प्रदर्शिनी की शुभ सृष्टि॥
(19)
कला-कुशलता की उन्नति हो अनुभव का विस्तार बढ़े,
नये नये आविष्कारों की महिमा सबके चित्त चढ़े।
नानाविधि वाणिज्य-वृद्धि से हो समृद्धिशाली निज देश
इस प्रकार कितने ही उत्तम हैं प्रदर्शिनी के उद्देश॥
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