यश मालवीय का आलेख 'महाकुंभ और प्रयागराज'

 

यश मालवीय 



कुम्भ मेला दुनिया का सबसे बड़ा मेला है। इस दौरान गंगा यमुना और संगम की रेत पर तंबुओं का एक बड़ा शहर बस जाता है। उत्तर प्रदेश सरकार इसे एक जनपद मानते हुए तमाम प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति करती है। करोड़ों लोग यहां आस्था, धर्म और अध्यात्म के समागम को देखने के लिए पधारते हैं। इस मेले की तैयारी साल-दो साल पहले शुरू हो जाती है। सड़कों को बेहतर बनाया जाता है। दीवार को तमाम तरह के चित्रों से सजाया संवारा जाता है। समूचे शहर को झालरों से कुछ इस तरह सजा दिया जाता है जैसे तारों भरा आसमान जमीन पर उतर आया हो। लेकिन इस तैयारी की कीमत तमाम वृक्षों की कुर्बानी दे कर चुकाई जाती है। इस दौरान लगने वाले जाम से शहरवासी त्रस्त हो जाते हैं। गीतकार यश मालवीय ने कुम्भ की इस तैयारी को नजदीक से देखा और महसूस किया है। 'महाकुम्भ विशेष' के अन्तर्गत आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं यश मालवीय का आलेख 'महाकुम्भ और प्रयागराज'।



महाकुम्भ विशेष : 14


'महाकुंभ और  प्रयागराज'

                                  

यश मालवीय 


कुंभ मेला आहट देने लगा है। अमृत घट छलकने वाला है। दुल्हन की तरह सजने लगी है संगम नगरी। इन दिनों शहर सो नहीं रहा है, बस मेले के सपने सजा रहा है। ज़ोर शोर से कुंभ की तैयारियां चल रही हैं। सड़कें चौड़ी हो गई हैं, यह बात और है कि युद्ध स्तर पर पेड़ काट डाले गए हैं। हर विकास का उजियारा, अपने साथ विनाश का अंधियारा ले कर आता ही है। वातावरण में उत्सव की गंध बिखर रही है। गलियों सड़कों का कोलतार से सिंगार हो रहा है। गंगा पर पालटून पुल बांधे जा रहे हैं। धर्म ध्वजाएं लहरा रही हैं। आध्यात्मिकता से सराबोर है इलाहाबाद का चप्पा चप्पा। भजन कीर्तन के स्वर आसमान छू रहे हैं। हरसिंगार की सुगन्ध से भीगे हैं, अरैल से फाफामऊ तक के रास्ते। झूंसी, छिवकी, दारागंज इलाकों का भी काया-कल्प हो रहा है। दिन में कई कई बार तीर्थयात्रा पथ धोए जा रहे हैं।


प्रयागराज की दीवारें भी खिल उठी हैं, चित्र उकेरे जा रहे हैं उन पर। युवा कलाकार दिन उगते ही सड़क किनारे इकठ्ठे हो जाते हैं और कूंची और रंगों से शहर का अतीत एवं वर्तमान सजाया जाने लगता है, जिसमें आने वाले कुंभ के झिलमिलाते और जगमगाते भविष्य की शक्ल स्पष्ट देखी जा सकती है। ऋषियों मुनियों के चित्र देख कर कविवर सूर्यभानु गुप्त की एक चमकीली अभिव्यक्ति याद आ रही है, वो कहते हैं 


कंघियां टूटती हैं लफ़्ज़ों की

साधुओं की जटा है खामोशी।


यह मेला विश्व स्तर पर जन को जोड़ता रहा है। सारे संसार में कोई दूसरा ऐसा मेला नहीं लगता, जिसमें इतनी बड़ी जन भागीदारी होती हो। मेले के विशेष दिनों में इलाहाबाद की आबादी एक अच्छे खासे देश की आबादी के बराबर हो जाती है। आश्चर्य है कि इस मेले का अलग से कोई संयोजक या प्रायोजक नहीं होता, लेकिन दूरस्थ स्थानों से बिन बुलाए मेहमानों से शहर पट जाता है। वस्तुतः इन्हें मां त्रिवेणी ही टेर लेती है, आवाज़ दे कर बुला लेती हैं। भक्तों का रेला नैनी से चलता है तो सीधा संगम में आ कर सांस लेता है।




तंबुओं का शहर बसना जारी है। संत समागम शुरू हो गया है। एक विलक्षण पौराणिकता और मिथकीयता यहां सांस ले रही है। भारद्वाज मुनि का आश्रम टुकुर-टुकुर निहार रहा है और याद कर रहा है कि कैसे भगवान राम, लक्ष्मण और सीता के साथ यहां पधारे थे और केवट ने उनके पांव पखारे थे। हवाओं में महाकवि तुलसी की चौपाइयां तैर रही हैं। श्रृंगवेरपुर तक का मौसम सुहावना हो उठा है।


प्रयागराज गंगा यमुना के दोआब पर बसा शहर है। अगर शहर को ही एक शरीर मान लिया जाय तो गंगा और यमुना उसके शरीर पर यज्ञोपवीत सी ही लहराती हुई सी दिखती हैं। दुःख तब होता है जब आज भी गंगा में नाले-परनाले गिरते हुए दिख जाते हैं। आज का भगीरथ परेशान हो जाता है और सुधांशु उपाध्याय के शब्दों में कह उठता है -


इस युग के हम हुए भगीरथ 

अपनी यही कहानी 

आगे-आगे प्यास चल रही

पीछे-पीछे पानी।


'नमामि गंगा' की योजना परियोजना केवल काग़ज़ और फ़ाइलों में ही क़ैद हो कर रह गई है। गंगा आज भी मैली है, पापियों के पाप धोते-धोते। आनंद भवन अनमना है। युग-पुरुष नेहरू के नाम को ही इतिहास से पोंछ डालने की साज़िश रची जा रही है। दीवारों पर पटेल, सुभाष, दीन दयाल उपाध्याय तो दिख रहे हैं पर नेहरू, इंदिरा, राजीव कहीं नहीं हैं। कैलाश गौतम भी याद आ रहे हैं, फरमाते हैं 


दिन उगते ही ग्रहण लग गया

उग्रह होते शाम हो गई 

जब से मरा भगीरथ, गंगा

घड़ियालों के नाम हो गई।




ख़ैर, यह तो सिक्के का एक पहलू है। तीर्थराज प्रयाग तो प्रारम्भ ही से एक उत्सवजीवी शहर रहा है। वह पूरे मन प्राण से उत्सव की अगवानी के लिए तैयार हो रहा है। अपने फेफड़ों में भर रहा है मंत्र और प्रार्थनाएं। प्रतिवर्ष माघ मेला और छः और बारह वर्ष के अंतराल पर लगने वाले कुंभ और महा कुंभ मेले का यह बरसों बरस से साक्षी रहा है। हर बार मेले में यह कुछ और नया हो जाता है। यह जितना प्राचीन शहर है, उतनी ही नई हैं इसकी भंगिमाएं। हर साल यह बुज़ुर्ग शहर तरुणाई को मात देता है। कछार में मीलों मील सरसों के फूलों के मांगलिक आमंत्रण छप गए हैं। महीने भर के कल्पवास का मुहूर्त भी तय हो चला है। आधुनिक पीढ़ी तो होटलों में भी कल्पवास करती है। होटलों में अभी से जगह फुल हो रही है। फ्लाइट के दाम गगनचुंबी हैं, ट्रेनों में सीट और बर्थ के लिए मारामारी पराकाष्ठा पर है।


अभी कल ही कुंभ क्षेत्र की परिक्रमा कर के लौटा हूं। नाव पर मल्लाह की नन्हीं पोती ने अपने बाबा से एक सवाल कर दिया था, बाबा ये बताओ गंगा मां अलग दिखती हैं, यमुना मां अलग दिखती हैं, मां सरस्वती क्यों नहीं दिखाई देतीं । सवाल सुन कर वह बूढ़ा मल्लाह वत्सल हो उठा था और उसे अपने पास खींच कर उसकी चुटिया खोल दी थी और बोला था, बिटिया जब तुम चोटी गूंथती हो तो तीन लरें होती हैं, पर जब चोटी बन कर तैयार होती है तो दो ही लरें दिखाई देती हैं। तीसरी कहीं इन्हीं दो लरों के बीच छुपी रह जाती है। इसी तरह से गंगा और यमुना के बीच सरस्वती भी कहीं छुपी रह जाती है। बाबा का सहज समाधान पा कर बिटिया का चेहरा फूल सा खिल उठा था । वास्तव में गंगा यमुना के शहर में सरस्वती ही संस्कृति की तरह उजागर हुई है। गंगा-जमुनी तहज़ीब और साझा संस्कृति की विरासत का मुहावरा भी यहीं से उठाया गया है। त्रिवेणी तट पर महाप्राण निराला, कविवर सुमित्रा नंदन पंत और महीयसी महादेवी की त्रिवेणी को भला कौन भूल सकता है। जनाब अकबर इलाहाबादी और फ़िराक गोरखपुरी की शायरी भी यहीं परवान चढ़ी। शाम गोधूलि के बाद, उतरते हुए अंधेरे में जब तंबुओं के शहर की बत्तियां जलती हैं तो रोज़-ब-रोज़ सैकड़ों दीपावलियां यहां साकार हो उठती हैं।


हर बार की तरह इस बार भी शहर एक बड़े मेले के लिए तैयार हो रहा है । इस तैयारी की भी एक लय है, एक छंद है और एक सजता हुआ सा संगीत है। विश्व बंधुत्व की ऐसी ज़िन्दा मिसाल है यह मेला कि संगम नगरी का कण-कण प्राणवंत हो उठता है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक का एक हो जाना देखना हो तो इस मेले में ज़रूर आइए, भारतीय संस्कृति की अंतराष्ट्रीयता आपको अभिभूत कर देगी। संगम समन्वय का ही संदेश देता है। कुंभ मेले का भी यही केंद्रीय भाव है, तभी तो एक कवि कहता है


दिया नदी में तैरता, लहर-लहर कचनार 

ना ऐसा मेला कहीं, ना ऐसा त्यौहार।।


दिशा-दिशा से साइबेरियाई पंछी जुड़ रहे हैं, रामदाना और लइया चुग रहे हैं। धूप, दीप, नैवेद्य, आरती की खुशबू से नहाया है परिवेश और पर्यावरण। रोली, अक्षत, दूब सज रहा है मंगल कलश पर। चंदन चर्चित हैं हमारे भाल। भीतर का कबीर पंडितों, पुरोहितों और दुकानदारियों को खुलेआम चुनौती दे रहा है।


पंडे डरे कबीर से, उठी धर्म की हाट।

बिक जाने से बच गया, गंगा जी का घाट।।





संगम तीरे पण्डित जसराज के स्वर में भैरवी गूंज रही है। आसमान सिलेटी हो रहा है। समानांतर रूप से भट्टी में आग दहकाई जा रही, जलेबी छनने की तैयारी भी शुरू हो गई है। जलेबी इलाहाबाद का राष्ट्रीय खाद्य है। एक नया कुंभ मेला करवट लेने जा रहा है। जगन्नाथ दास 'रत्नाकर' के 'गंगावतरण' के छंद आकार ले रहे हैं और कवि उमाकांत मालवीय के गंगा गीत का एक चरण बरबस होठों पर लरजने लगा है


गंगोत्री में पलना झूले, आगे चले बिकइयां 

भागीरथी घुटुरुवन डोले, शैल शिखर की छइयां 

भूखा कहीं देवव्रत टेरे, दूध भरी है छाती 

दौड़ पड़ी ममता की मारी, तज कर संग संगाती 

गंगा नित्य रंभाती बढ़ती जैसे कपिला गइया

सारा देश क्षुधातुर बेटा, वत्सल गंगा मइया।


व्यवस्था, अव्यवस्थाओं से लड़ने के लिए कमर कस रही है। वी. आई. पी. घाट का रंग और ढंग अभी से वी. वी. आई. पी. है। आम आदमी तो शायद इस बार भी दूर ही से संतोष करेगा, संगम तक पहुंच पाना उसके लिए टेढ़ी खीर ही रहेगा। फिर भी गुलब्बो की दुलहिन कुंभ मेला क्षेत्र में अपने साजो सामान के साथ पहुंच रही हैं, जिन्हें देख कर आज भी कवि कैलाश जी बनारसी और भोजपुरी रंग में जैसे लिख रहे हैं -


गुलब्बो की दुलहिन चले धीरे-धीरे

भरल नाव जैसे नदी तीरे-तीरे

बचावेलीं ठोकर, बचावेलीं धक्का

मनै मन छुहारा, मनै मन मुनक्का 


या फिर


मुंह पर उजली धूप

पीठ पर काली बदली है

रामधनी की दुलहिन 

नदी नहा कर निकली है।


कुंभ मेला लग रहा है और लग रहा है,सज रहा है और सज रहा है। सारा शहर अविकल प्रतीक्षा में है। इंतज़ार की अगरबत्ती जल रही है, सबके मन में एक आस पल रही है। कुंभ मेला हमें बहुत कुछ दे कर जाता है। हम कितने भाग्यवान हैं कि हम वहीं रहते हैं, जहां यह मेला जुड़ता है। यह पर्व हमें जीने की नई ऊर्जा से लैस करता है। काश हमें वही प्रयाग एक बार फिर से मिल पाता, जिसे हम अब तक जीते आए हैं और किसी कवि को यह न कहना पड़ता -


संतों में हम प्रयाग खोजते रहे

धुआं-धुआं वही आग खोजते रहे।


धुआं भी है, आग भी, संत भी हैं और प्रयाग भी, बस हमें उसी कुंभ मेले की राह देखनी है, जो हमें एक बार फिर से जोड़ने आ रहा है। आज-कल कुंभ से पहले इस कुंभ नगरी का बाँकपन देखते ही बन रहा है, रात में शहर में निकलिए तो लगता है सितारे ही ज़मीं पर उतर आए हैं और हज़ार-हज़ार आंखों से कुंभ मेले का इंतज़ार कर रहे हैं। मशहूर शायर मुनव्वर राना ने कहा भी है


तमाम जिस्म को आँखें बना के राह तको

तमाम खेल मोहब्बत में इंतज़ार का है।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि अजामिल के हैं।)



सम्पर्क 


मोबाइल : 6307557229

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