आदित्य पाण्डेय की कविताएं


आदित्य पाण्डेय 


लम्बी कविताएं लिखना हंसी खेल नहीं होता। यह अत्यन्त दुष्कर होता है। खासकर लम्बी कविता की प्रवाहमानता को कुछ इस तरह बनाए रखना कि वह संप्रेषणीय हो सके। युवा कवियों के लिए तो यह और भी मुश्किल होता है। आदित्य पाण्डेय युवा कवि हैं। उनकी कविताएं प्रायः लम्बी हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि उनके पास कहने के लिए बहुत कुछ है। ऐसा जो लम्बी कविताओं में ही कहा जा सकता है। उनकी नजर लगातार अपने समय और समाज पर है। राजनीति उससे भला अछूती कैसे रह सकती है। वरिष्ठ कवि आलोचक नासिर अहमद सिकन्दर उनकी कविताओं की तहकीकात करते हुए उचित ही कहते हैं कि 'अपनी इस कविता के माध्यम से आदित्य नीति के बरअक्स दुर्नीति एवं दुर्नीति के बरअक्स नीति की समकालीन समय में नई परिभाषा रचते हैं।'

हर महीने के दूसरे रविवार को हम 'वाचन पुनर्वाचन' शृंखला प्रकाशित करते हैं। 'वाचन पुनर्वाचन' शृंखला की तेरहवीं  कड़ी के अन्तर्गत हम इस बार आदित्य पाण्डेय की कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं। इस शृंखला में अब तक आप प्रज्वल चतुर्वेदी, पूजा कुमारी, सबिता एकांशी, केतन यादव, प्रियंका यादव, पूर्णिमा साहू, आशुतोष प्रसिद्ध, हर्षिता त्रिपाठी, सात्विक श्रीवास्तव, शिवम चौबे, विकास गोंड और कीर्ति बंसल की कविताएं पढ़ चुके हैं। 'वाचन पुनर्वाचन' शृंखला के संयोजक हैं प्रदीप्त प्रीत। कवि बसन्त त्रिपाठी की इस शृंखला को प्रस्तुत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। कवि नासिर अहमद सिकन्दर ने इन कवियों को रेखांकित करने का गुरुत्तर दायित्व संभाल रखा है। तो आइए इस कड़ी में पहली बार पर हम पढ़ते हैं आदित्य पाण्डेय की कविताओं पर नासिर अहमद सिकन्दर की महत्त्वपूर्ण टिप्पणी और कवि आदित्य पाण्डेय की कविताएं।



लंबी कविता की संभावना के कवि: आदित्य पाण्डेय


नासिर अहमद सिकन्दर 


महसूस करता हूँ कि चार लोगों के हंसने के लिए

पाँचवें को ठेस पहुँचाना जरूरी होता है


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ऐसे कुछ का. . . . . .

कि एकाएक कोई मुँह में चार तमाचे जड़ दे

और तुम्हारे रूआई आने से पहले,

विस्मृत अवस्था में तुम तमाचे मारने वालों की भीड़ में शामिल हो गये हो

तुम्हारी रूआई पर कब्जा करने वाले

तुम्हारे विस्मय पर कब्जा करेंगे

तुम्हारे हंसने रोने बतियाने पर

तुम्हारे आँखों के सामने दिखते दृश्य से दो-चार होते हुए

कहता हूँ

मुझे तुम्हारी आँंखों का डर है

तुम्हीं बताओ तुम्हे डर नहीं?


(दुर्नीति)


ये पंक्तियाँ आदित्य पाण्डेय की ‘‘दुर्नीति’’ शीर्षक कविता की हैं जो सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था तथा जनता के जुड़ाव के बीच बनी हुई दुर्नीति की परिभाषा को व्यक्त करती हैं। इस कविता के माध्यम से वे नीति के बरअक्स दुर्नीति एवं दुर्नीति के बरअक्स नीति की समकालीन समय में नई परिभाषा रचते हैं। कभी सामाजिक-राजनैतिक विडम्बनाओं के बीच नई कविता के कवि श्रीकांत वर्मा जी ने भी ‘मगध’ संग्रह में ‘तीसरा रास्ता’ कविता में यह परिभाषा रची थी-


मित्रों दो ही रास्ते हैं

दुर्नीति पर चलें

नीति पर बहस बनाए रखें


(तीसरा रास्ता, श्रीकांत वर्मा)


आदित्य अपने सम्पूर्ण अनुभवों को कविताओं में उकेरने वाले कवि हैं। वे यथार्थ तथा वैश्विक दृष्टिकोण को समझने वाले कवि भी हैं, इस लिहाज से वे लंबी कविता लिखने की भी सलाहियत रखते हैं। मसलन, इसी कविता में वे लिखते हैं-


तुम कौन सा न्यूज चैनल देखते हो?

कोरिया का तानाशाह हाइड्रोजन बम परीक्षण करने वाला है

या पाकिस्तान में गधों की आबादी कम हो रही है

उन खबरों के बीच ये पता चला?

कि फलां फलां भौगोलिक क्षेत्र में

बच्चों के खेलने भर किनारा, किनारे भर पानी नदारद हो चुका है


(दुर्नीति)


किसी भी कविता में कवि के व्यक्तिगत व सामाजिक अनुभव की अनुभूति महत्वपूर्ण होती है तथा फिर कविता के भीतर सामाजिक-राजनैतिक-वैश्विक दृष्टिकोण जुड़ जाए तो कहना ही क्या! आदित्य एक ऐसे ही कवि हैं जिनकी कविता के भीतर व्यक्त हुए अनुभवों पर अभिभूत हुआ जा सकता है, तनिक चकित और अचंम्भित भी। वो चाहें, ब्यौरों में व्यक्त हों अथवा ब्यौरात्मक बिंबों में। यहाँ प्रस्तुत उनकी कविता में अनुभवों की कलात्मक लड़ियाँ इतनी ज्यादा हैं कि वे एक शीर्षक को भी कई-कई टुकड़ों में व्यक्त करते हैं। इसीलिए आदित्य लंबी कविता लिखने की संभावनाओं के कवि भी हैं, जैसे अंधेरे में (मुक्तिबोध), पटकथा (धूमिल), लुकमान अली (सौमित्र मोहन), अथवा कंकावती (राजकमल चौधरी)। श्रीकांत वर्मा की ‘‘मगध’’ कविता संग्रह भी टुकड़ों में यथार्थ अथवा आठवें दशक की पेड़, चिड़िया, पहाड़ जैसे प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त यथार्थ भी टुकड़ों में ही व्यक्त हुआ है इसी तरह राजेश जोशी की ‘‘समरगाथा’’ जैसी लंबी कविता भी आई।


आदित्य की ‘‘बसंत’’ शीर्षक कविता तो सीधे-सीधे टुकड़ों में व्यक्त यथार्थ है। उनकी ‘‘दुर्नीति’’, ‘‘प्रवासेतर’’, ‘‘एक लंबे अंतराल के बाद’’ तथा ‘‘इक फर्जी बात’’ जैसी कविताएँ ब्यौरों और ब्यौरों की लड़ियों तथा काव्य भाषा के कारण खिल तो जाती हैं किंतु कथ्य का रास्ता अवरूद्ध सा हो जाता है जिसके कारण ये कविताएं टुकड़ों में व्यक्त यथार्थ लगने लगती हैं। दरअसल वे इन लंबे अनुभवों की कविताओं में यथार्थ रूपी आये वक्तव्यों का संयोजन कथ्य से जोड़ कर नहीं कर पाते हैं, शायद इसलिए कविताएँ टुकड़ों में व्यक्त होती हैं। पर ये कविताएं कथ्य से भटकती नहीं, कथ्य सम्मत ब्यौरों में बिखरती दिखाई देती हैं, हालांकि ‘‘राजकमल चौधरी के जन्मदिन पर’’, ‘‘दृश्यों के समायोजन पर टिकी है पृथ्वी’’, ‘‘हत्या विस्मृति’’, गुलाबी तेंदुआ’’ ‘‘भुमिजा’’ जैसी कविताएँ ब्यौरों के उचित समायोजन से कथ्य को संप्रेषित कर जाती हैं। वे अपनी कविताओं में अनुभूति (कथ्य) की प्रमाणिकता तथा समय समाज की गहरी जांच पड़ताल जैसी कई बातें भी प्रस्तुत करते हैं।


मोबाइल पर गड़ी आँखें मोबाईल के न रहने पर

कितनी बची रहेंगी

ये पता नहीं

लेकिन आदमी रहेगा किसी खोजी पत्रकार की तरह


गुफाओं में बने भित्ति चित्रों का रंग रोगन पीले और नारंगी रंगों में हो इसकी चौकीदारी करने के लिए और इसके लिए मैं इतिहास जैसी बकवास चीज पर तो भरोसा नहीं करूंगा


बरक्स इसके लाइक, डिस लाइक, हार्ट इमोजी की भाषा जिलाए रखी, ‘‘जो दिखेगा वो रहेगा’’


(दृश्यों के समायोजन पर, टिकी है पृथ्वी)


मेरे कमरे में सिर्फ कमरा शांत था

क्योंकि कमरे का साथ बिना सिगरेट के दिया गया था

रगो में बेचैनी दौड़ रही थी

काँपता ठंडा शरीर . . . . . . .

आँखें थीं कि खुलने भर की विनती स्वीकार नहीं कर रही थीं


(हत्या विस्मृति)


उसकी घड़ी ने उसकी हड़बड़ाहट के कारण

बीते तीन साल से धोखा नहीं दिया था

दिल की आवाज सुनना उसका पेशा था

और उसके साढ़े नौ वाले गुड मॉर्निग से

हास्पिटल के रिसेप्शन पर बैठी मारिया को

एक तरीके से प्यार था।


(भूमिजा)


पड़ोस की दुकानदारिन ने दुलराते हुए ज्यादा केमिकल वाले साबुन से की थी उसे मनाही

‘बिटिया ये नुकसान करेगा, तुम ई लो’

और ये बात सुन कर बड़की अम्मा ने कोसते हुए

कितनी बार उबार कर जराया था मर्चा-नमक

उसकी बहन उसे नहीं पहनने देती थी ऐसे कपड़े


(भूमिजा)


आदित्य दरअसल बेचैन कवि हैं, उनकी बेचैनी इतनी सघन है कि वे कथ्य को भूल कर ब्यौरों में उलझ जाते हैं तथा काव्य कथ्य से ब्यौरों का संयोजन भूल जाते हैं, उनकी कविताओं की काव्य भाषा कथ्यानुसार आँचलिक भी है, संचार माध्यम की भी है तथा समकालीन कविता से बिल्कुल भिन्न भी है। कथ्य के अनुसार ही ब्यौरों बिंबों का संतुलन यथार्थ के रूपांतरण में साध लें तो वे आने वाले समय में लंबी कविता के भी बड़े कवि होंगे।



नासिर अहमद सिकन्दर 



सम्पर्क 


मोगरा 76, ‘बी’ ब्लाक, 

तालपुरी, भिलाईनगर, 

जिला-दुर्ग, छ.ग.

490006


मोबाइल : 98274-89585



आदित्य पाण्डेय की कविताएं



दुर्नीति


एक सी कविताओं के मध्य 

एक सा खोया हर एक की तलाश करता हूं

कई के होने पर.. यूं कइयों सा हो जाता हूं..

आदमी को आदमी के द्वारा खा जाने की भूख अक्सर महसूस करता हूं।

महसूस करता हूं, कि चार लोगों के हंसने के लिए

पांचवे को ठेस पहुंचाना जरूरी होता है।


लोगों का क्रम, व्युतक्रम में तब्दील होना कोई खाकें खींचने वाली बात तो नहीं,

तुमने कभी दैनिक जीवन में ब्रेड दूध के हिसाब के अलावा भी कोई खाका खींचा है?

ऐसे कुछ का...

कि एकाएक कोई मुंह पे चार तमाचे जड़ दे 

और तुम्हारे रूआई आने से पहले,

विस्मित अवस्था में तुम तमाचे मारने वालों की भीड़ में शामिल हो गए हो।


तुम्हारी रुआई पर कब्जा करने वाले तुम्हारे विस्मय पर कब्जा करेंगे तुम्हारे हंसने रोने बतियाने पर


तुम्हारे आंखों के सामने दिखते दृश्य से दो चार होते हुए

कहता हूं

मुझे तुम्हारी आंखों का डर है

तुम्हीं बताओ तुम्हे डर नहीं?

कि जीभ पर रक्खा अदरक और कांख में दबाया उसका एक टुकड़ा,

एक स्वाद हो फिर भी तुम दोनों के बारे में कुछ ठीक नहीं जान पाते

क्योंकि तुम्हें अपनी जीभ पर कोई स्वाद मालूम नहीं

जबकि दूध अपनी गंध भूलने में माहिर हो।


मुझे आश्चर्य है, कि तुम ताली बजा बजा कर हंस पाते हो,

क्योंकि मैंने या तो ताली बजाई है या हंस पाया हूं।


तुम कहते हो, आदमी हो? 

फिर, आदमी हो जाओ..

हमेशा उकताए और  चिड़चिड़े  रहना, 

कोई अच्छी बात है?

मुझे समझ आता है- 

चोट्टा होना आदमी होने की पहली शर्त है।


तुम अपने पूछने की नहीं करोगे कोई प्रतिस्पर्धा

इस शर्त पर (चाहे अनमने मन से ही)

मेरे कुछ प्रश्न  सुनो- 

हमारे साथ होने के वक्त, हमारी एक पूरी पीढ़ी,

एक पूरी पीढ़ी की उबासी गठिया कर मनोरंजन हो जाने को आतुर हो गई है।


जब इस ग्लैमर इंडस्ट्री में विदूषकों और दर्शकों का समानुपातिक प्रतिनिधित्व एक होगा तो टीआरपी कितनी उत्तरोत्तर बढ़ेगी और वह क्या है जो इतना कम हो जाएगा?


जबकि एक मौलिक दुःख उसकी अपनी उपलब्धि है, उस साल बरसात में क्या उसके खेत पानी पायेंगे?

या काले मेघ उड़ते हुए दिल्ली भाग जायेंगे?


तुम कौन सा न्यूज़ चैनल देखते हो?

कोरिया का तानाशाह हाइड्रोजन बम परीक्षण करने वाला है,

या पाकिस्तान में गधों की आबादी कम हो रही है।

उन खबरों के बीच, ये पता चला?

कि फलां फलां भौगोलिक क्षेत्र में बच्चों के खेलने भर किनारा, किनारे भर पानी नादरद हो चुका है,

उनके पीठों पर छाले उभर आए हैं।

जिन्हें खरबोटने भर के सुख में उनका सुख बचा है,

उनके खिलौने तोड़ कर बिखेर दिए गए हैं और उन्हें जमीन में छितराए, अध धंसे टुकड़े बहारने बटोरने का काम मिल रहा है।

उनकी माएं रस्सियों से डरती हैं और बाप मांओं से

(यद्यपि उन्हें सांप का भय नहीं)


तुम्हें भी लगता है 

प्रश्नवाचक चिन्ह, प्रश्न की सत्ता पर कब्जा करने के लिए प्रयोग होता रहता है या सोच के सिहर जाना सिर्फ मुहावरा भर है?


जबकि मंगलकामनाएं, अमंगल के संकेतों पर उपजती रहीं हैं, कामनाएं श्रृंखलाबद्ध रूप में आई जानी हैं..

बधाई संदेशों पर किस प्रकार जवाबतलब होते हो?


हे मेरे परम व्यवहारिक, संभ्रांत, भद्र लकड़बग्घे मित्र! 

ऐसे में आते-जाते, मिलते-मिलाते

माफ करना!  लेकिन तुम्हें ये रोज़ रोज़ छीटाकशी कर नीचा दिखाने और कुछ भी साबित करने करवाने की कोई ज़रूरत नहीं।

इधर मुंह पर जो फुंसी फोड़े या दाग मुंहासे हैं उस तरह ठीक तुम्हारी पीठ पर होंगें।

तुम्हारी पेशाब में (कुछ ज्यादा..) मेरी आंखों जैसा नमक है

हम एक जैसे हैं, हमारी भूख एक जैसी है 

अब और देर नहीं 

हमारा भोजन एक हो जाने के लिए आतुर हो उठा है

और इसमें वेज नॉनवेज की बात नहीं।


यद्यपि मुझे भय है!

एक दिन हम एक दूसरे की छोटी बड़ी भूख को मिटाते, मौका बेमौका, खाते-खिलाते, इंच दर इंच, सुख दर सुख, दुख बदतर दुख!

हर बाहर के भीतर, भीतर के और भीतर...

एक साबित होंगे!


लेकिन, बात मानो- 

अब हमारा एक होना या एक जैसा होना,

दोनों बहुत खतरनाक बात बन चुकी है।


यद्यपि समुंदर के नदी होने के अनगिनत जस्टिफिकेशन हैं 

फिर भी जो काम पड़ने पर समुंदर और नदी हो जाने को तैयार रहे

वह मेरा तुम्हारा पानी नहीं है।


“सेकंडो की विस्मृति और युगों की सुध”

हमारी अपनी खोज है जिस पर स्वाभाविक है इठलाना।

इस दशक ने बड़े जतन से हमें बिना कहीं पहुंचने की चिंता किए,

जो चलना और चला देना सिखाया है

उसे व्यर्थ नहीं जाने देंगे

हम चमड़ा चीर कर कस्तूरी निकालेंगे और छींट आयेंगे मुर्गियों के झुंड में..


जब हममें से एक का भी रुकना सही नहीं,

हम चलते बनेंगे।



प्रवासेतर


बचपन से गंध के बारे में सीखना आसान रहा 

बकरियां और भेड़ चराने वाला 

महुआ बीनने वाली के हाँथ

लकड़ियां बिनती किंगरिन के चिपके बाल

नहर में मछरी मारने वाले के भीजे कपड़े 

गंधाते रहे 

लेकिन उन सबसे ज्यादा

वे जुराबें 

जो जूते उतारने के बाद चिपकी रही तलुओं से

इस पर भी

“सब कुछ सूंघ कर ही पहचाना जाता है”

ऐसा बहुत समय के लिए नहीं बना रहा।

आदमी सड़क पर बिना सूंघे,

आवाज़ पर यकीन रखता है 

और सूंघना अविस्मृत क्रिया हो जाती है

हॉर्न की पीं...पीं की आवाज जुटा ही लेगी ‘पुख्ता साक्ष्य’

और उछल कर ( न चाहते हुए भी)

रुकना होगा, थोड़ा उलटना, पलटना होगा

कभी कभी एकाएक दूसरे को सौंप कर भविष्य 

सन्न खड़े रह जाना हो सकता हो

सबसे पुख्ता उपाय सबसे पहले मालूम होंगे 

होने या न होने के बीच 

जनाई देंगे पेट पीठ तो कभी कोहनी या पैर 

उनके बीच धंसता-उभरता इनमें से कोई भी एक

उनके इतना सटने पर भी

एकदम से कुछ भी नहीं सटा,

सब कुछ दो हाथ आगे रहा

पैरों में ठोकर मारते पहिए,

आगे हो जाने के लिए रहे

इस ओर सड़क, आगे जाने के लिए रही

दूसरी ओर सड़क, 

उलट तरीके आगे होने के लिए रही

कभी भी कुछ रुका नहीं रहा 

सड़क रुकने के लिए नहीं रही

चमचमाते साइनबोर्ड, अपनी चमक में ये नहीं बताए कि 

“फलां सड़क, फलां फलां स्थान जा कर मर जाएगी” 

उन्होंने दो हाथ आगे जा कर कैलकुलेटेड भविष्य बताया कि,

“दुर्घटना घट जाने पर सड़क डायवर्ट कर दी जायेगी”

कई सवाल कभी पूछे जाने के लिए नहीं रहे

उनके जवाब बस मिल जाते ऐसे ही 

जैसे कि 

कमरा सील होने से पहले, कितनी प्रतिशत दुर्घटना हो गई होगी?

और घर, अकेले में कितना काटता होगा चबाने से पहले?

सच पूछो तो बाहर कभी फुरसत नहीं रही और घर ने 

कभी सहूलत दी ही नहीं

नहीं तो दीवारों में कान लगा कर सुनता, सैकड़ों हिस्सों में आत्मा की परत दर परत दरकने की आवाज़

या प्रोबेबेलिटी निकालता उन सभी सवालों की

जो लंबे वक्त से परेशान करते रहे हैं,

ठीक ठीक वैसी ही आवाजें जो प्रश्न 

या कभी कुछ और बनी,

बनीं रहीं हमेशा

पढ़ते समय ब्लैक बोर्ड पर चॉक घिसटने की तीखी आवाज 

तो कभी चर्राती कुर्सी के मात्र, खिसकने भर से

मुझे डर है कि

जिस किसी को भी अंत में आवाज़ को 

आवाज़ से खारिज़ करने के लिए 

बोलने की छटपटाहट होगी,

तब खीझ की वजह से 

हलक से कुछ नहीं निकल पाएगा।



एक लंबे अंतराल के बाद


ऊपर देखा और आश्वस्त हो गया कि मेरी छत सुरक्षित है।

और जैसे ही ऑन किया टी. वी., तो बाहर मोहल्ले के सबसे आलीशान मकान के कमज़ोर छज्जे से

कोई चिल्लाया कि 

“आसमान तो, लाल हो गया है।“

बरसों पहले बाबा के ज़मीन से उगी घास 

यकीनन लाल आसमान के नीचे छाया में 

कितनी सुंदर लग रही होगी।

गुनगुनाता “मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती..”

बाहर आया

क्षण भर में बारिश शुरू हुई

हरी भीगती पानी से सहलती घास के बारे में

सोचने भर से गुदगुदी हुई।

अहा, अब खुशी से दौड़ पडूंगा, पहाड़ से समुंदर तक

और रेत से वहां तक जहां एक नदी आराम करने जाती हो

देखा तभी..

उस बारिश में लड़कियां मुंह ढके

चीखते हुए, घरों में

कैद होती जा रही थी,

मैं घास घास चिल्लाता हुआ आसमान को गरियाने लगा

और ऐसा करते देख,

भीगा हुआ वो आदमी

जिसके पैर कीचड़ में धस चुके थे

तमतमाते हुए बोला..

उग आया घास के बीच,

सफेद छाते सा, "स्साले! कुकुर के मूते..”

लगभग रूआंसा, सकपकाया, ‌मैं घर की ओर भागा

देखा, मेरी छत ढहा दी गई थी

धरती से सोना और चांदी उगलने की चाहत में,

उसके निगलते हुओं को देख कर मैं 

क्रमवार अचंभित होता गया

आज रीमिक्स वर्ज़न में उस गाने का

कंपोजीशन,

एक विध्वंसक यंत्र की ठोकरें सेट कर रहीं थी।

उस बजती धुन के बीच, मैं अवाक रहा,

तभी मेरे बड़े से घर के उस मलबे के भीतर  से

पहाड़ सरीखे हमरे बाबा, लहर मारत निकलेन

धोबी पछाड़ दइके, 

कहेन ऊ मनइआ का

“काहे बरे एतना इतरात हैं, ससुरे कैपटलिस्ट!”





राजकमल चौधरी के जन्मदिन पर


तुम्हें पढ़ता रहा कुछ देर

कुछ देर तुम कहते रहे मेरा 

कवि कब तुम भूगोल का प्रारंभिक ज्ञान देते हुए कह गए 

कि छाती पर कटे सेब की चार फांके

कभी ज़रुरी तो नहीं लेकिन हमेशा काफ़ी रही हैं।


उतना ही जितना तुम रहे हो,


कितना तुम रहे हो?

कंकावती की उलझनों के सरीखे जलते हुए मकानों में 

कुछ लोगों को खींच या धकेल भर लेने की जद्दोजहद करने के बजाय तुम,

ननद भौजाई की ‘आसान परिभाषा’ 

कहते हुए व्यस्त थे

कभी फूंक कर देखा तुमने

किसी बूढ़ पुरखा का उबासी वाला झाड़ने का मंत्र

जो आंखो में पानी की बूंदे छोड़ता है 

कुछ भी टपकना याद नहीं

छूट भर जाना है।


बखानते रहे हो तुम 

पिरामिड सी शक्ल के तिमुहे सत्य को

तुम्हारा, मेरा और एक वो जो ढकेलता है हम दोनों को

वो जो जवान उचकती टांगों पर

फर्लांग मारने भर से ही 

कुछ कुछ कसके कसमसाता है

नाभि से कोसों दूर कहीं

जांघें उचकती हैं

सुदूर खामोश घाटियों में सांप लपेटे देख, ”उफ्फ” कहती उंगलियां पेज पलटती जाती हैं

कांच की दीवार टूटने से

प्रकाशक की प्रूफरीडिंग की अलमारी के कोने पर धूल फांकते पन्ने फड़फड़ाने लगते हैं

वहीं जमीन पर चमकते टुकड़े गड़ जाते हैं

एक आदमी गुस्से में 

टूटे चश्में की डंडी की टूटी चूड़ी पर पेचकश डोलाता, कुर्सी के नीचे थूकता दिखता है

जहां एक ओर की खिड़की में अकुलाई हैशटैग जेन ज़ी तीस सेकंड के

मेमोरी अपडेट चाहती है

और हर एसिटिक मलाई के लिए इंस्टा रिफ्रेशमेंट उपलब्ध है

रात के तीसरे पहर,

ऑडिट रिपोर्ट बनाते हुए

रोज काव्य मर्म और कवि कर्म 

चाय के प्याले में टूट कर गिरता है 

घोल कर पी जाता हूं

चश्में की डंडी टूटती है

जोड़ कर पहन लेता हूं

“अनायास ही सब कुछ होता है”

कैसे यह, दुनिया भर की

संभावनाओं की

हत्या से ज्यादा 

किसी ‘ट्रेजेडी का मोरल ऑफ द स्टोरी होता है’

किसी और का दुःख अपने दुःख से ज्यादा फैंसी दिखता है

और अपना दुःख… अपना सब कुछ मुहावरेदार उपस्थिति दर्ज़ करा कर रफूचक्कर हो जाता है

रोज़ जोड़ना तोड़ना खुद को महान दुख बनाने की सिस्टेमैटिक अप्रोच है।


इस बनी बनाई स्टैंडर्ड, फ्यूचरिस्टिक, लॉन्ग लास्टिंग स्टील लाइफ़ की चिक्कनदार जीभ पर बूटों के निशान कैसे दिखेंगे?

यहां पर खंडित विग्रह खंडित सदी से 

ज्यादा अशोभनीय है

यहां मुंह बंद रखना और चुप्प संजीदगी, 

आदमी को प्रीमियम जिराफ बनाती है

मत परेशान हो 

“चिल मारो कवि” 

यह जानते हुए की मुक्ति प्रसंग 

हमेशा से टाले गए हैं, रोज प्रासंगिक बने रहने के लिए।



इक फर्जी बात


जरुरी मौकों पर न जानें क्यों उभरा सब कुछ गैर ज़रूरी?

अख़बार के दूसरे तीसरे पन्नों पर

टंकित ख़बरों की तरह।

दियासलाई की एक तीली भर से जल जाता पन्ना,

अगर लिखने का दर्द न भोगता।

ले कर साजो-सामान जल जाना कहीं बेहतर है,

लगातार झूलते रहने से।

आख़िर क्यों छोडूं गुंजाइश,

इन दल्लों खातिर दर कमीनेपन की भी।


हज़ार हज़ार शब्दों से भर जाती छाती 

पेट में हाथ डाल निकाल लेता स्वर

पर नहीं.. क्या अब भी वही उधार की जिंदगी?

लिखने को लिख जाता,

रात तीन बजे समकालीन कविता का पहला ड्राफ्ट 

पर कौन बड़ा, 

लिखने का दर्द या न लिख पाने का?

अलहदा और सुंदरतम चयन के सामने कुछ कमतरी का प्रयास,

कम किताब, बहुत कम जगह, कमतर आवाज़ और 

कम पन्नों के तह छुपा रखी अपनी लाज।

पेन की नीब जो सुरक्षित बनी है ‘इस ढक्कन’ के भीतर

टूट भी सकती, यह लिख कर 

गेट वेल सून के जवाब में

हैंग टिल डेथ।






दृश्यों के समायोजन पर, टिकी है पृथ्वी


मोबाइल पर गड़ी आँखें मोबाइल  के रहने न रहने पर

कितनी बची रहेंगी

ये पता नहीं

लेकिन आदमी रहेगा किसी खोजी पत्रकार की तरह,

गुफाओं में बने भित्ति चित्रों का रंग रोगन पीले और नारंगी रंगों में हो इसकी चौकीदारी करने के लिए।

और इसके लिए मैं, इतिहास जैसी बकवास चीज पर तो भरोसा नहीं करूंगा।

बरक्स इसके लाइक, डिसलाइक , हार्ट इमोजीस की भाषा जिलाए रखी है, एक अमर वाक्य "जो दिखेगा, वो रहेगा।"


भेजता हूं ,एक रेड हार्ट 

और तुम्हारा जवाब इमोजी फीकी ऊपर ताकती दो आंखें भर..? 

तुम इतना तो करो न, कि डबल क्लिक न कर के अलग से दो हार्ट बनाओ और भेजो 

मुन्ना भैया की प्यारी भाषा में एक मीम 

"अभी इमिडीएट नहीं सोचे हैं पर सोचेंगे।"

तुमको नहीं पता ऐसा करते हुए तुम उन्हीं उर्दू, हिंदी, इंग्लिश, पर्शियन, जापानी सहित सैकड़ों भाषाओं को ठेंगा (लाइक इमोजी) दिखाओगी और बनाओगी उन्हें सुंदर।


हम दोनों के पास, हम दोनों न जाने कितने हैं?

कुछ एक सौ पैतीस, मैं तुम्हारे पास हूं,

और पांच सौ दो तुम मेरे।

और यह संख्या सिर्फ फोटोज़ की तो नहीं

ऐसे में डिफरेंट शेड के किसी अन्य में गोया मेरी ही पैदा की गई रिक्तता की तलाश, कौन सी बड़ी बात?

डेवलप होंगे वेब सत्य और हमारे अपने ग्रुप्स उनकी कम्यूनिटी,

तभी कुछ हालत सुधरेगी 

और एन. आई. आर. एफ. नंबर वन पर आ पाएगी हमारी बेहद ज़रूरी व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी।

अभी जिसपर एक 24 वर्षीय थोड़ा कंफ्यूज है तीन मिनट से कि डिलेवर्ड टू एवरीवन कारगर रहा,

या डिलीट फॉर मि।

और बिल्कुल कन्फर्म है इस विषय पर कि 

चोरकट थे, गांधी।


विश्राम.. सावधान और पहली पीटी प्रारंभ! 

से अधिक हमने समझा एक दूसरे के ‘हां… हम्म’ को

हमने एक दूसरे को थीला कल ही थाना थाया 

औल छुला कल ही छोए..

उनके लिए तो

“इतनी भर जबान में काम चलाते दूध-भात का इन्तजार करना बेहयाई है,

और यूं ऐसा करते, “सगलों ने बरसों मराई है।”



वे कहते हैं, “मुर्दे जिंदा होंगे, चैट्स से सरने की बू आयेगी।“

उनके “सबका कटेगा!” पर यह कैसा.. कि जो बढ़ेंगे उनका कटेगा..

कटने पर हम छिपकली की दुम फिर बढ़ेंगे।


उन्हें नहीं पता कि गर्भ से जो निर्वासित है और निवासी बन जाने का हुनर डेवलप हो जाने पर भी वह किसी काम का नहीं..

उनके लिए बी एन एस धारा 152 के तहत देशद्रोह तक का मुकदमा बहुत छोटी बात है।


एक जनता वो भी जिसे हद्दे जब्त के दो इंच नीचे तक

न कुछ लेना न कुछ देना है तनिक चुनौटी जस लेते-देते रहना है।

ये कौन सा देश है?

जिसकी नोटिफिकेशन कुत्तों के भूकने में तो छोड़ो, अब तो गाय के रंभाने पर भी सुनाई नहीं देती..

मिमियाना शर्म की बात तो है लेकिन हमें आता ही यही है।


डिस्क्रिप्शंस से डिस्क्रिमिनेशन की एक यात्रा प्रारंभ होती है 

जहां तत्समता पर आ कर अर्थ लुढ़कता है।



वसंत में कविताएं


(1)


अब वह उतना खिलता नहीं

वह सिकुड़ गया है

खिले पीले कनेर के फूलों को देख कर

जब उसकी उदासी दूर नहीं होती

तो वह ताकना शुरू करता है

फागुन के आखिरी दिनों में गिरते

पलाश के पत्तों को।

आश्चर्य है,

दो उदास लोग

उदासी बांट कर ही खुश हो सकते हैं।



(2)


कभी कोई पुकारा गया नाम या सपने में

दिखी जगहें

किसी दिन एकाएक टकरा उठें

विस्मृति के ज्वार को धकेलते हुए

तब मन के कोने पर विचरते,

कोई न कोई होगा

जो सामने से बोल देगा,

कई बातों के बीच 

कोई जाना पहचाना

‘शब्द’।


शब्द, 

जिनमें गिरते पत्तों ने सहेजा था अपने 

गिरने को

(अपने अस्पर्श से स्पर्श में)

इधर कुछ घड़ी से

उजाड़ शाखें टूट कर

गिर जाना चाह रही हैं।


अब की वसन्त में

उनके फूल की पंखुड़ियों की छुअन

घुन लगी शाखों को देने जाऊंगा

उन्हें अपना परिचय दूंगा, दे कर चला आऊंगा।



(3)


नदी से फिसल कर बालू मिल जाती है

सीमेंट हुए लोगों से

और चिपक कर

समतल हो कर वे घर बन जाते हैं।


एक दिन उगा हुआ चांद

उसी बालू के ताप से जल कर सूरज हो जाता है

तब उन रातों में तारे रूठ कर, काला आकाश छोड़ जानें

को कहते हैं

यह जानते हुए भी कि उनकी चमक डेहरी पर

दम तोड़ती रही है, 

अक्सर।


बिन देखे खूबसूरती कम तो नहीं होती,

बिन बोले हो जाती है क्या?

हो सकता है,

किसी को देखे बिना ही

बेला के फूल झरते हों

इस पर भी

उनके बिखरे चेहरे कभी 

गिरते नहीं देखे जाते।



(4)


उन्होंने बड़े सलीके से सजाया अपना मन

और पूरे साल चौबीसों घंटे हाथ पांव मारे 

करते रहे संचित इत्ता इत्ता प्रेम

हुहह… वो चींटिया होंगे, लेकिन मैं नहीं 

कभी नहीं..


जो भी मिला जब कभी

आगे बढ़ते हुए दोनों हाथ हवा में खोल कर उड़ाया,

कुछ नहीं बचा पाया

न जेब में

न मुठ्ठी में 

न किसी बर्तन में।

मेरी और उनकी सर्दियां एक जैसी हो भी सकती हैं

लेकिन मेरा उनका वसंत एक जैसा नहीं है

मैं वसंत का ठिठुरता टिड्डा हूं।



हत्या-विस्मृति


मेरे कमरे में सिर्फ कमरा शांत था,

क्योंकि कमरे का साथ बिना सिगरेट के दिया गया था।

रगों में बेचैनी दौड़ रही थी

कांपता ठंडा शरीर..

आंखे थीं, कि खुलने भर की विनती

स्वीकार नहीं कर रही थीं।

सांस जितनी भी भरो, बहुत कम सी पड़ रही थी,

होंठ सूख कर पपड़ी हो गए थे,

पपड़ी निकलने के बाद, बेचैनी होठों से निकल रही थी।

खून निकला लेकिन सीमित मात्रा में

काश.. सारा खून एकमुश्त निकल जाता,

हाथ सफेद थे, ज़्यादा सुंदर, क्योंकि लकीरहीन थे।

बूढ़ी आंखे, धुंधला कमरा

पंखे के तीन पत्ते, ‘ब्रह्मा ,विष्णु, महेश’

मध्य भाग ‘मोक्ष’ दिख  रहा था

मैने स्मृतियों की रस्सी बांधी मोक्ष के

हिस्से पर

भीतर से प्रेत निकाला

साथ निकली, भीतर बैठी वो,

बेचैनी के क्षणों में सुथरा बनाती और

जिसे सोचता रहा, अब तक कि 

वह खुशी के क्षणों तक सब कुछ ज़बान पर चख-चख कर फेंक देने की नीयत लिए बनी रहेगी..

मगर वो रही,

कंधा दे कर बिताती रही, बोझिल दिनों और उनींदी रातों को

आखिर तक जिसने भोगा सब कुछ साथ यह जानते हुए कि

कुछ भी पहला-आखिरी नहीं होता।

छाती‌ से जुड़े हम दोनों रोते रहे 

रूंधे गले से‌ उसने देखा, मानो पूछती हो

“अबकी कब लौटोगे फिर?”

मैं कुछ नहीं बोला यह जानते हुए कि,

कहां और कब, कुछ भी, ठीक- ठीक लौट सका?

या लौटना कहां तक ठीक रहा?

इतर जो बना रहा हमेशा, अबोला स्वप्न, अधूरी मनौती

या वे सब कुछ बन कर 

जिनमें कभी साहस नहीं था 

असल हो जाने का 

बीते रोज़ की तरह

जल्दी जल्दी उन्हे अपने कुछ कपड़े पहना कर

जिससे दुनिया को लगे कि आदमी ही था 

झुला दिया

झूलते वक्त, वे खुश थे

हंस रहे थे, क्योंकि उनका ध्येय पूरा हुआ

और मैं कोने में कायर बना बैठा,

विलाप कर रहा था..

मैं घंटों रोया लेकिन बस, फिर, नहीं रोया।

आगे जीवन, उन मुर्दों की बची-खुची, इधर-उधर पड़ी सफहों में दबी, धूल फांकती,

स्मृतियों संग बिताया।

इस बीतने वाली अंतिम घड़ी में, गिल्ट-रहित 

मैं सप्रेम सबको याद करता हूं,

जिन्होंने मतलब नहीं रखा तो जज करने की रत्ती भर नीयत भी नहीं रखी,

नमस्कार! जो बने रहे हमेशा बिना जकड़ने की कोशिश किए 

ठूंठ सरीखे गहरे और भयातुर।


(कुछ भी अलग हो जाने भर से, कहां कुछ अलग होता है?)





गुलाबी तेंदुआ 


गिरते हुए शाम.. गुलाबी गिरता है आसमान

पिघलना शुरू होता है पिंक सिटी की परछाईं नुमा सड़क पर उतर वह।

वह पिघलता, जगह-जगह अक्सर फैल जाता 

छिटक कर छूट जाता..

बेहयाई के साथ जिसे गिरना कहा जाता..

तफ़री के बीच लुट पुट गया ख़बर नहीं कहानी है, जो उसे उधारी चाय पीते पीते सुनानी है।


उससे कहा गया, गुलाबी रंग के साथ कैसे कर सकते हो,

अकड़ के बात...

खाने को जूता भी खाता.. बस अगर साथ रहे 

उसके साथ कुछ और खानें की उम्मीद,

कम से कम जो जूते, मुक्के और थप्पड़ों से तो ज़्यादा ही टेस्टी लगे।

‘टेक अ वे एंड मेक इट नेगलेक्ट’ के साथ 

नज़रें चुराना उसका पेशा..?

गर नहीं, तो कम से कम आदत रही,

जैसे हर समय बावन तरह के मुंह बनाना.. रोना-गाना,

जो बहुत कुछ नहीं तो कुछ-कुछ उसकी जरूरत थी।


अपनी बेइज़ती करवा के भी अटेंशन पाना उसकी आदत हो सकती है।

चुतियापे करने की शर्त पर भी उसे सिंपैथी चाहिए या इस तरह की सिंपैथी चाह कर भी ससुरे को चुतियापे ही करने होते होते हैं।

अत्यंत मामूली होने की हैसियत से आवाज़ में मौकापरस्त नरमी और बेहूदगी तो उसे जन्मजात मिली थी,

और इसी हैसियत से वह किसी को भी गरिया और हर किसी से गरियाया जा सकता था।

जिस पर न तो उसे उपेक्षा ही मिलती और न  नसीहत..


ये करे.. कि वो करे.. छिहत्तर काम इसलिए उसने अभी तक विशेष कुछ नहीं किया।

अब ऐसा भी नहीं कि एकदम.. कुछ भी नहीं,

पैंपलेट बांटने से ले कर, बभनई का भोजन हथियाने तक..

कुछ नहीं तो छठवीं के एक लड़के को टयूशन पढ़ानें जाए उसकी भी तीक्ष्ण बुद्धि से जला-कटा लौट आए...


करिया-गुलाबी, झोला, फुटपाथी बेंच के सम-प्रासंगिक 

अपने अंजुरी भर गुलाबीपन और तेंदुएपन को पकड़ सुस्ताता वह..

अभी वह अलग, कल उसकी बात अलग।

भूल कर मत पूछ लेना, अभी क्या करोगे आगे? वो भी की झूट्ठा है साला! और यह भी कि 

अभी उसे अपनी थिरकती तमन्ना के साथ म. फ़. मिलेनियर गाते एक सिगार पीनी है।



भूमिजा 

         

बिस्तर उठता था उसके साथ

खिड़की के बाहर चिड़ियां रात भर ठहरती

कि कब उसका उठान हो 

और बोल सके वे उसके कानों में कुछ ताजे बोल   

सुबह का सूरज जब खिड़की से पड़ने को होता उसकी आंखों पर, एडजस्ट करता अपनी ब्राइटनेस पहले

जब भी वो देखती.. शीशा,मुस्कुरा उठता उसे देख कर

कंघी की थी बस इतनी चाह कि वह छू सके उसके बालों की खुशबू..

वही जिन्हें हमेशा मजबूती से पकड़ी नहीं रह पाती जूड़े में खोंसी डंडी। 


गली का गुलमोहर दीवार की ओट से झुक।कर करता उसका इंतजार और कितना मलाल होता उसे जब नहीं गिरा पाता कुछ रंग उसके सफेद लिबास के लिए..

उसके जूते को पकड़, सलीके से चलाती रही सड़क

जिनकीआवाज़ पर गली का कोना गुजरती दो पहिया को धीमे करने की कोशिश में लग जाता।


पड़ोस की दुकानदारिन ने दुलराते हुए ज्यादा केमिकल वाले साबुन खरीदने से की थी उसे मनाही 

“बिटिया ये नुकसान करेगा, तुम ई लो”

और ये बात सुन।कर बड़की अम्मा ने कोसते हुए, कितनी बार उबार कर जराया था मर्चा-नमक। 

उसकी बहन उसे नहीं पहनने देती थी ऐसे कपड़े 

जिसका रंग आंखों को चुभे, न ही ऐसा कि उसका रंग दबे

उसे कभी समझ नहीं आया कि चुभने वाले रंग कैसे होते हैं या या कभी कभी तो ऐसे

यूं.. चुभना ही कैसा होता है?


झगड़ा अपना हो या किसी और का 

जरा सी भी ऊंची आवाज़ में रो पड़ती थी वो, और नहीं ही शांत होती, जब तक झगड़ने वाले न कर लें मेल मिलाप।

भाई ने ही कितनी मार खाई पापा से उससे झगड़ने पर

यह बात और है कि कितना उदास भी रहा उस दिन केवल उसके रोने पे।


वो बहुत खुश हो गई हो,

ऐसी कभी नहीं दिखी, पर रोतुड़ु चेहरा लिए फिरती हो, ये भी नहीं।

उसकी सहेलियां अक्सर हो जाती गुमसुम जब किसी दिन रहती वो शांत...

बहुत गुस्से में वो चुप्प हो जाती थी

फिर कुछ भी कहो एक बात का भी नहीं मिलता कोई जवाब, 

कभी कभी तो लगता जैसे उसे आवाज़ पर यकीं ही नहीं..

ये बात करना छोड़ देना एक मैथड भी था और इसी मेथड से, उसने छुड़वा दिया था अपने एक दोस्त की यूं बात-बात पर गालियां बकने की आदत को।


उसका बेहद शर्मीला प्रेमी घंटो रहता कंफ्यूज,

जब कभी खरीदने जाता, वह उसके लिए कोई गिफ्ट या और कुछ।

मन हो तो वह एक हेयरक्लिप को ही खुशी खुशी बहुत पसंदीदा बतला देती,

तो कभी चूज़ी इतनी कि कुछ भी ले जाओ सब पर उसका एक सा सिंपल रिएक्शन। 


उसकी घड़ी ने उसकी हड़बड़ाहट के कारण बीते तीन साल से धोखा नहीं दिया था।

दिल की आवाज़ सुनना उसका पेशा था और उसके साढ़े नौ वाले गुड मॉर्निंग से, हॉस्पिटल के रिसेप्शन पर बैठी मारिया को एक तरीके से प्यार था।


जब चिढ़ाने के लिए उसका प्रेमी कहता,

“डॉक्टरी का पेशा भी कोई पेशा है,जिसमें हमेशा चीर फाड़ हो।“

वह मुस्कुरा कर कहती “इसके लिए भी नीयत और हुनर चाहिए।“

उसका प्रेमी “आज का ज्ञान!” कह के हिहियाने लगता।


पुरनिया काकी कहती रहीं, “ए डाक्टरनी बिटिया तहके देख के सब दरद भुला जाला।"

हफ्ते भर से एडमिट रोहन तीन दिन से रोज पाता रहा दीदी से चॉकलेट।


………


लेकिन ये सब, कुछ साल पहले की कहानी है। 

रोहन अब बाइक चला कर कॉलेज जाने वाला लड़का है,

काकी मर चुकी हैं, 

प्रेमी परिवर्तित हो कर इधर बीच पति है और सहेलियां ब्याह कर माएं।


हॉस्पिटल का पता ठीक वही है और घर-परिवार का कुछ खबरों के बाद पता नहीं चला..


और आप का अंदेशा सही है कि कथ्य जिस पर केंद्रित लगता रहा, छिट-पुट घटनाओं के बाद, वह अब पूरी तरह से गायब है।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)




सम्पर्क 


आदित्य पाण्डेय

रामनगर, कुंडा,

प्रतापगढ़ 

पिनकोड: 230128


फोन नंबर: 9264902352 


ईमेल : adi.101sampurna@gmail.com


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