सन्ध्या नवोदिता का आलेख 'भक्ति के रंग में रंगल गांव देखा'
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सन्ध्या नवोदिता |
कुम्भ के आयोजनों की एक महत्त्वपूर्ण विशिष्टता है इसकी निरंतरता। वर्ष 2019 में इलाहाबाद में अर्द्ध कुम्भ का आयोजन किया गया। इस आयोजन में भी जन सैलाब उमड़ कर आया। कवयित्री सन्ध्या नवोदिता ने इस आयोजन का हिस्सा बन कर अपने इस अनुभव को शब्दबद्ध किया है। इस आयोजन के विविध रूपों को इस संस्मरण में देखा जा सकता है। आम जनता की भागीदारी इस आयोजन को विराट तो बनाती ही है। विभिन्न तरह के साधु सन्त, अघोरी और नागा और इनका शाही स्नान इसे धार्मिक स्वरूप प्रदान करते हैं। आम जनता का कष्ट और परेशानियां भी इसका एक पक्ष है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था के तमाम अंध विश्वास और कुरीतियां भी इसकी एक सच्चाई है। महाकुम्भ विशेष के अन्तर्गत आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं सन्ध्या नवोदिता का संस्मरण जो 2019 के कुम्भ के आयोजन पर केन्द्रित है। तो आइए आज महाकुम्भ विशेष के अन्तर्गत पहली बार पर हम पढ़ते हैं 'भक्ति के रंग में रंगल गांव देखा'।
महाकुम्भ विशेष : 12
'भक्ति के रंग में रंगल गांव देखा'
संध्या नवोदिता
ई भक्ति के रंग में रंगल गाँव देखा
धरम में करम में सनल गाँव देखा,
एहू हाथे झोरा, ओहू हाथे झोरा
अ कान्ही पे बोरी, कपारे पे बोरा
अगल में, बगल में, सगल गाँव देखा
अमवसा नहाये चलल गाँव देखा।
लोक कवि कैलाश गौतम की ये पंक्तियाँ कुम्भ मेले को साक्षात करती हैं। चाहे जितनी वीवीआईपी व्यवस्था हो, कुम्भ का यह मेला 'दिव्य कुम्भ, भव्य कुम्भ' की चाशनी में पागा गया हो, इसकी आत्मा मेले में सबसे दूर बसाये गये कल्पवासी और गठरी मुठरी बांध कर धक्के खाते, शहर की उपेक्षा और पुलिस की धौंस सहते करोड़ों ग्रामीण हैं जो ट्रेनों के जनरल डब्बे में लद-फंद कर प्रयागराज पहुँच रहे हैं। उनका दुश्वार सफर यहीं खत्म नहीं है। स्टेशन से सामान सर पर लादे बच्चों की उंगली पकड़े पैदल ही दस किलोमीटर चलेंगे या शायद और भी ज्यादा। तब संगम तक पहुंच पाएंगे या इन्हें गंगा या यमुना में ही स्नान करवा दिया जाएगा। क्योंकि भीड़ को संभालने के लिए गंगा और यमुना में भी स्नान के घाट बना दिये गए हैं। कल्पवासियों का भी कोई पुरसाहाल नहीं, जबकि वे ही हैं जो इस भव्यता की विदाई होने के बाद भी गंगा तट को अंत तक गुलजार रखेंगे।
इसी मेले में सेवन स्टार इन्द्रप्रस्थम है। सिर्फ वीवीआइपी लोग ही इसे अफोर्ड पायेंगे जिनसे कुम्भ भव्य बनता है। इनके बरक्स वे आम श्रद्धालु हैं जो गंगामैया का जयकारा लगाते हुए भवसागर की वैतरणी पार करने आये हैं। वीवीआईपी की तरह इनके लिए इसी जगत में स्वर्ग नहीं है, इनके स्वर्ग का रास्ता इनकी मान्यता के अनुसार खुद इन्हीं के पापों ने रोक रखा है। उम्र ऐसे ही ज़िन्दगी को घसीटते बीत जाती है पर पाप नहीं कटते। ये भोले भाले लोग कठिन तकलीफ सह कर आ रहे हैं कि गंगा मैया इनके सब दुख हर लेंगी।
आस्था से सराबोर यह जनसैलाब स्नान पर्व पर विशेष रूप से उमड़ता है। खासकर मौनी अमावस्या और वसंत पंचमी पर बसों, ट्रेनों, सड़कों, गलियों, फुटपाथों, चाय की दुकानों, रेलवे स्टेशनों, खुले मैदानों, पीपे के पुलों से ले कर नैनी, झूँसी और अरैल तक बस यही जनसैलाब उमड़ता दिखाई देगा। इसे देखना, इसका हिस्सा बनना एक खास अनुभव है।
पेशवाई की शान
हम नैनी पुल से हो कर अरैल जाने की राह पर हैं। दोपहर तीन बजे का समय। यमुना से संगम जाने वाली सड़क पर दोनों तरफ हजारों स्त्री, पुरुष, बच्चे जमा हैं। सड़क के समानांतर चलते नए यमुना पुल पर भी ऐसी ही भीड़ दिख रही। सब इंतज़ार में हैं। अभी उदासीन अखाड़ा की पेशवाई निकलने वाली है।
पुलिस हर मोड़, हर चौराहे, हर सड़क पर सक्रिय है। पेशवाई निकलने का रास्ता खाली कराया जा चुका है। वाहनों को इस रास्ते से डायवर्ट किया जा रहा है। मिनटों में वाहनों की लम्बी कतारें लग गयी हैं। वे एक पल भी रुकने को तैयार नहीं। पर पुलिस व्यवस्था चौकस है। वाहन कतारों में लगे फड़फड़ाते हैं। पेशवाई से महाराष्ट्र में चल रहा नवी पेशवाई के खिलाफ अभियान दिमाग में कौंध जाता है। दरअसल हर काल में शासक धार्मिक उत्सवों में भागीदारी करते रहे हैं। यह जनता में अपनी स्वीकार्यता को बढ़ाने का तरीका रहा है। अखाड़े सनातन धर्म का मान्यता प्राप्त केंद्रबिंदु रहे हैं। इनके समर्थन का अर्थ है आस्थावान सनातनधर्मियों का शासक को समर्थन मिलना। मोह माया त्याग चुके इन सन्यासियों का शाही स्नान करना या पेशवाई निकालना धर्म में राजसी सुविधाओं का मेल है। अखाड़ों की शान भी राजाओं से कम नहीं होती। सोने चाँदी के हौदों में हाथियों की सवारी, चाँदी के छत्र, चँवर का इस्तेमाल, सेना की तरह तलवारबाजी। पेशवाई निकालना अखाड़े का भव्य प्रदर्शन है, जिसकी जबरदस्त तैयारियां की जाती हैं। ये अखाड़े संख्या में तेरह हैं।
अखाड़े में ट्रांसजेंडर
हम किन्नर अखाड़े में हैं। जूट से बना द्वार और परिसर के भीतर जूट और चटाइयों से बने टेंट। जहाँ अन्य अखाड़े अपनी विशिष्ट और वैभवी साज सज्जा से चकित करते हैं वहीं यह अखाड़ा अपनी सहजता में अनोखा है। अंदर काफी बड़ा पंडाल हैं, जहाँ अखाड़ा प्रमुख दर्शन देती हैं. उत्सुक लोगों का जमावड़ा है। अचानक हमारे पास से पीली साड़ी और सुंदर पगड़ी में लाल दुशाला कंधों पर डाले पवित्रा अवतरित होती हैं। वे इतनी शालीन और गरिमामय हैं कि सब उनके पाँव छूने और आशीर्वाद लेने बढ़ जाते हैं। स्त्रियां और पुरुष दोनों। हमें अखाड़ा प्रमुख की प्रतीक्षा है। ज़रा ही देर में पंडाल में हलचल होने लगती है। कई किन्नर संतों के साथ अखाड़ा प्रमुख लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी पीली साड़ी में पंडाल में प्रवेश करती हैं। वे सामने मंच पर अपनी सहयोगियों के साथ बैठ जाती हैं। उपस्थित जनसमूह उन्हें देख कर हतप्रभ सा खड़ा रह जाता है। उनकी आवाज़ गूँजती है - बैठिए। और लोग मंत्रमुग्ध से बैठ जाते हैं।
किन्नर सभा का यह दृश्य विशेष है। यहाँ के वातावरण में उनके लिए सम्मान है। यहाँ कोई मुँह दबा कर हँस नहीं रहा, न कोई घटिया कमेंट। अगर कुछ हो रहा है तो वह है चरण वंदन और आशीर्वाद प्राप्ति की कामना। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हर रूप में बेहद उपेक्षित, अपमानित और किनारे धकेले गए किन्नरों का यह बेहद प्रभावी अवतार है। हालाँकि किन्नरों ने राजनीति में भी अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज कराई है। कोई भी लड़ाई उनके लिए आसान नहीं रही है। बदले समय में एलजीबीटीक्यू की मानव गरिमा और बराबरी के हक की लड़ाई सुर्खियाँ बनने लगी है। समाज के अन्य संवेदनशील तबके उनके साथ खड़े हुए हैं। खासकर महिला संगठनों ने इनके मुद्दों को अपने एजेंडे में शामिल करना शुरू किया है।
लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी उस उच्च वर्गीय समाज से आती हैं जहाँ तमाम बोल्डनेस के बावजूद किन्नर होने की स्वीकार्यता नहीं है। वे अंग्रेज़ी बोलती हैं, भरतनाट्यम सिखाती हैं, और उच्च वर्ग से ले कर बेहद सामान्य वर्ग तक को एक साथ साधने की क्षमता रखती हैं। वे अपने समुदाय के सम्मान और हक की एक बुलन्द आवाज़ बन चुकी हैं।
किन्नर अखाड़े ने अपनी शोभा यात्रा को देवत्व यात्रा का नाम दिया। यह इतना भव्य और शानदार प्रदर्शन था जिसकी मजबूती और धमक सभी अखाड़ों ने महसूस की। यह कुम्भ किन्नर अखाड़े के लिये इतिहास रच गया। महामंडलेश्वर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी का प्रभाव इतना बढ़ा कि सबसे बड़े अखाड़े जूना ने इन्हें अपने भीतर शामिल किया और साथ में शाही स्नान का गौरव दिया।
शाही स्नान की रात
पूरे मेले में चहल पहल है। सवेरे तीन बजे से अखाड़ों के पहले शाही स्नान की प्रक्रिया शुरू होनी है। रात भर जोर-शोर से शाही स्नान की तैयारियाँ चल रही हैं। पालकियाँ सजाई जा रही हैं। उन पर चांदी के सिंहासन रखे गये हैं। पूरे वाहन को फूलो की लड़ियों से सजाया जा रहा है। रात का एक बजा है। कुम्भ नगरी जागी भी है और सोई भी। रेत की नमी भी सोख रही है और अलाव भी ताप रही है। यह जीवन की प्रतिकृति है। जीवन का छोटा रूप।
रात चल रही है। लोहे के रास्ते नरम हुए पड़े हैं। विभिन्न स्थानो से अलग-अलग समय पर रेलगाड़ियां प्रयागराज पहुँच रही हैं, उसी अनुसार स्नानार्थी भी कुम्भ क्षेत्र में आते जा रहे हैं। वे सोने की जगह और नहाने के लिए नजदीक स्नान घाट, दोनों एक साथ तलाश रहे हैं। सेक्टर बारह से होती हुई मैं काली घाट तक चली आई हूँ। यहाँ ठंडी और नम रेत में लोग लेटे हैं, ऊपर शीत बरसाता खुला आसमान । क्या विश्वास है जो इन्हें यहाँ तक खींच लाता है। यह जो शीत बरस रहा इसे भी ये बिना शिकायत के अमृत की तरह ग्रहण करते हैं। कोई ठण्ड या असुविधा की बात नहीं कर रहा। बस स्नान हो जाए सब ठीक है। भोपाल से एक परिवार रेत में बैठा ठिठुर रहा है। चार स्त्रियाँ हैं और दो बच्चियाँ। साथ में एक पुरुष। किसी परिचित के बुलावे पर सेक्टर 16 में आ गये हैं। परिचित इनकी व्यवस्था शायद किसी पंडाल में करा दो तीन घंटे हो गये भटकते, ये लोग अभी परिचित को ही नहीं खोज पा रहे। मैंने बहुत सारे पंडाल आज देखे हैं, सब भरे हुए हैं, रत्ती भर जगह नहीं।
विशाल पंडालो के घेरे के बाहर बहुत से छोटे छोटे तम्बू तन गये हैं। एक तम्बू के बाहर तीन साधु डंडो की मदद से रेत खोद कर एक यज्ञ कुंड जैसा बना रहे हैं। यहाँ आग जलेगी और कम वस्त्र पहने इन जटाधारियो की रात थोड़ी नरम हो जाएगी। रेत के इस नगर में रेत सा ही जीवन है। रेत के घरौंदे हैं, रेत की दुकानें। सब मिट्टी है। जो छूटेगा सब मिट्टी में मिलना है। जैसे यही अंतिम दर्शन हैं। कई पंडालो में कॄष्ण लीला चल रही है। जागते ऊंघते श्रद्धालु बीच-बीच में जयकारे से सचेत हो उठते हैं - बोलो बांके बिहारी की जय! फिर भजन शुरू हो जाता है-
तुम अपनी हस्ती मिटा कर तो देखो
ये दुनिया है एक झूठा सपना
नजरों से पर्दा उठा कर तो देखो
मैं पैदल चल रही हूँ। चकर्ड प्लेटों से बने ये फोरलेन रास्ते हैं। रेत न उड़े और लोहे के इन रास्तों पर जम कर उन्हें जाम न कर दे। इसलिए समय समय पर पानी का छिड़काव हो रहा है। मोटे पाइप से बौछार फेंक रहा लड़का घुटनों तक पैंट उठाए है, वह नंगे पैर है। लोहे का रास्ता घाट तक ले आया है। थाना अखाड़ा पीछे छूट चुका है, अब थाना गंगा प्रसार क्षेत्र है और अंतिम महिला थाना झूँसी। इसके दूसरी तरफ विशाल और अद्भुत ऐरावत द्वार। शानदार सफेद हाथियों की प्रतिमाएं हैं। दाईं ओर लगातार गंगा प्रवाहमान है। प्रवाह के ठीक ऊपर आधा चाँद है। पीला पड़ा हुआ। उसका ऊपरी आधा हिस्सा जैसे झटके से काट दिया गया हो। मुझे राहु केतु का कटना याद आ जाता है। चाँद ने ही तो उनकी तरफ इशारा किया था।
हम अखाड़ों से हो कर तीन किलोमीटर लम्बे शास्त्री पुल पर चढ़ आये हैं। यहाँ से कुम्भ नगरी का विहंगम दृश्य नजर आता है। पुल के दोनों तरफ रोशनियों का जगमग समुद्र लहरा रहा है और बीच में लाल रंग का विशालकाय कुम्भ रखा है।
यहाँ सबका अपना अपना मोक्ष है। कोई पाप काटने आया है कोई पुण्य कमाने। किसी को यह सब एक विशाल निर्माण ठेका लग रहा है। किसी के लिये अपना दायरा और प्रभाव बढ़ाने का मौका है। किसी के लिये कौतूहल और उत्सुकता है, किसी के लिये एडवेंचर या विशुद्ध पर्यटन।
ये रातें अनोखी हैं, अद्भुत हैं। यह विशाल नगरी कुछ समय के लिए ही सही रात और दिन का भेद मिटा देती है। यहाँ रातें दिन की तरह जगमग हैं। रात में भी खूब दूर तक देख सकते हैं जैसे दिन में देखते हैं। रात में स्त्रियां भी बराबर दीख रही हैं। सन्त समाज में भले स्त्रियों की संख्या कम है लेकिन श्रद्धालुओं में वे पुरुषों से भी ज्यादा हैं। वे हर उम्र की हैं। उनकी उपस्थिति बेहद आश्वस्तिकारी है। इतनी बड़ी संख्या में स्त्रियां जिस जगह जिस वक्त भी उपस्थित हो जाएं वह जगह कितनी सुरक्षित, सहज और बिल्कुल अपनी सी लगने लगती है। धर्म उनको घर से बाहर ले आया है और धर्म ही उन्हें घर में कैद भी कर देगा। इसी समय मुझे सबरीमला याद आ रहा है। बहरहाल, यहाँ हर उम्र की स्त्रियाँ हैं। क्योंकि गंगा नदी ही नहीं माँ भी हैं। माँ के पास तो कोई कभी भी आ सकता है।
यह मेला गंगा के लिए है, यह मेला उस अमृत कुम्भ के लिए है जो यहीं कहीं छलका था। मेले में बहुत से होर्डिग लगे हैं 'दिव्य कुम्भ, भव्य कुम्भ', 'चलो कुम्भ चलें', लेकिन गंगा का कोई होर्डिंग नहीं दिख रहा। इस समय गंगा यमुना में पानी भी खूब छोड़ा गया है। फिलहाल पानी साफ भी है हालाँकि स्थानीय अखबार गंगा में गन्दे नालों के गिरने की तस्वीरें भी लगातार लगा रहे हैं। यही समय है जब गंगा यमुना की सफाई मुद्दा बनना चाहिए। आखिर लाखों साधु-संतों का यह जमावड़ा गंगा के लिए ही तो है। जीवनदायिनी माँ गंगा। हर हर गंगे। लेकिन किसी शिविर में ऐसे कोई बात होती नहीं नज़र आ रही। यहाँ राम लीला है, कृष्ण लीला है, भजन कीर्तन हैं, यज्ञ, हवन, पूजन है, पर गंगा की चिंता नहीं है। ठीक इसी समय यमुना अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। गंगा का जल कहीं भी पीने लायक नहीं रह गया है। हम अक्सर एक गीत गाते हैं 'गंगा बहती हो क्यों'! मुझे यह गीत एक कुछ न कर पा रही देवी की अभ्यर्थना जैसा लगता है जिसके सामने निर्बल जनों के साथ बुरा किया जा रहा है, उत्पीड़ित जन मदद की गुहार लगा रहे हैं कि हे गंगा इस अन्यायी व्यवस्था को अपने तेज बहाव में बहा लो, युगों-युगों से इस अत्याचार को गंगा देख रही है पर कुछ कर नहीं पाती।
यहाँ भारी भरकम विशालकाय पंडाल हैं, जिनकी शानदार कारीगरी इमारतों का सा भ्रम देती है। कितने तो द्वार हैं धनुष द्वार, त्रिशूल द्वार, शंख द्वार, ऐरावत द्वार आदि। और विश्वकर्मा ने क्या रचा होगा, ऐसा ही स्वर्ग न! ऐसा ही मायालोक। यह भव्यता मंत्रमुग्ध करने वाली है, यह सब कुछ ऐसे ही अस्थाई है जैसे हमारा जीवन। मार्च में अंतिम स्नान होगा। उसके साथ ही यह मायालोक विलुप्त होना शुरू हो जायेगा। जून के बाद मानसूनी बाढ़ इस इलाके को अपने विराट जलीय बाजुओं में समेट लेगी। गंगा इन इसे अपने साथ ले जाएगी। आज जहाँ यह मेला है, वहाँ जल ही जल होगा। यह जैसे जीवन और प्रलय और फिर जीवन के सत्य का प्रदर्शन है। मेले के बाद एक विराट खालीपन भी छायेगा जब यह नगरी जल समाधि लेगी। यही जीवन है। यही जीवन रस है।
'पेंट माइ सिटी' और पेड़ों का विनाश
दो साल से एक मंथन शहर में भी चल रहा। अब इस मंथन के पुरस्कार दिखने लगे हैं। धूल-मिट्टी के अम्बार के मध्य से सुन्दर चौराहे प्रकट हो रहे हैं। हर चौराहे पर आर्ट के बेहद आकर्षक डिजाइन रखे हैं। भारद्वाज ऋषि की विशाल प्रतिमा आकर्षण का केंद्र बन गयी है।
शहर में कोई जगह ऐसी नहीं जहाँ जम कर घर, दुकान नहीं तोड़े गए। चौड़ीकरण के लिए हजारों की तादाद में हरे भरे और बहुत पुराने पेड़ों की बेदर्दी से बलि चढ़ा दी गयी। पेड़ों के नीचे कितनों की रोजी-रोटी उजड़ी, पेड़ चले गए पर उन जगहों पर उनकी अदृश्य छायाएँ आज भी रहती हैं। इस दर्द की अलग दास्तान है।
शहर में इन बचे हुए पेड़ों पर बहुत सुंदर पेंटिंग बनी नजर आती हैं। अरैल मार्ग पर हर पेड़ कैनवास में बदल गया है। 'पेंट माई सिटी' के तहत पूरे शहर की दीवारों पर रंग बिखर गये हैं। इतनी जीवन्त और शानदार पेंटिंग्स हैं जिन पर अलग से एक लेख लिखा जा सकता है। पूरा शहर ही एक सुंदर कला वीथिका बन गया है।
कुम्भ का एक चेहरा यह भी
यह सेक्टर 15 के नाले का किनारा है। सफाईकर्मियों का ठिकाना यहॉ है। नाले के पास भयानक बदबू है। क्योंकि एक तो नाला दूसरा यहाँ लाइन से सैकड़ों शौचालय खड़े हैं। इसमें पानी की कोई व्यवस्था नहीं। नतीजा ये वन टाइम यूज़ जैसे हो कर रह गए हैं। गन्दगी से भरे, भयानक गन्ध मारते। नजदीक से निकल जाएं तो उबकाई आ जाए। यहीं पर स्वास्थ्य विभाग ने अपने ठेका मजदूरों को बसा दिया है। बसेरे के नाम पर प्लास्टिक तिरपाल दिया है, और सबको एक एक गड्डा पुआल। पानी की टंकी एक जगह लगी है। पीने नहाने, शौचालय सब के लिए यहीं से पानी लीजिये। यहाँ सैकड़ों तिरपाल तने हैं। भीतर मामूली सी जगह। पूरा मेला क्षेत्र जगमगा रहा है, पर यहाँ एक बल्ब भी नहीं है। तिरपालों की नन्हीं दुनिया अँधेरे में डूबी है।
इसी अँधेरे, बदबू, और सीलन वाली जमीन चार दिन पहले आशा जन्मी है। उसके पिता और माँ यहाँ काम करने आये हैं। आशा की माँ उसे गोद में लिए खाना बना रही है क्योंकि अब वह कुछ दिन काम पर नहीं जा पाएगी पर पिता को तो काम पर जाना पड़ेगा। यहाँ जच्चा को कोई छुट्टी नहीं, कोई एम्बुलेंस, कोई डॉक्टर नहीं। क्योंकि इन गरीबों के मुँह में जुबान नहीं, हाथ में पैसा नहीं।
295 रुपये रोज की मजदूरी की आस में आये इन मजदूरों को सवा महीने से एक पैसा नहीं मिला है। पैसा नहीं मिल रहा तो गुजारा कैसे हो रहा, क्या खाते हैं। पूछने पर सब चुप्पी साध जाते हैं। इस चुप्पी के पीछे का सच व्यथित करता है। आपने ओम प्रकाश वाल्मीकि का 'जूठन' उपन्यास पढ़ा होगा। उसके दृश्य यहाँ सजीव होते हैं। यह देखना झकझोर देता है कि कैसे ये मजदूर जूठन बटोर कर लाते हैं और चावल पूड़ी आदि को अलग अलग कर सुखाते हैं। सूखने के बाद इनका चूरा बनाते हैं। अपने भले बुरे दिनों में इसी चूरे में नमक या चीनी मिला कर पानी में घोल कर खाते हैं। आपको शायद यह पढ़ कर मितली आ जाए। पूरे कुम्भ की गंदगी अपने हाथों से साफ करते इन मजदूरों की हैसियत इस सबसे शानदार, मेगा कुम्भ में भी बेहद तकलीफदेह है।
इसी कुम्भ में ठण्ड से एक सफाई कर्मी की मृत्यु हो गयी। पिछ्ले दिनों एक साधु की बाल्टी सफाईकर्मी से छू गयी, तो साधु ने लाठी मार कर उसकी बाँह तोड़ दी। साठ साल के गरीब मजदूर मातादीन एक खपच्ची बाँधे पड़े रहे। मध्य प्रदेश से आए इन वृद्ध मजदूर को कमाई तो दूर उल्टा इलाज खर्च गले पड़ गया। यह भी कुंभ मेले का एक चेहरा है।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त फोटोग्राफ्स सन्ध्या नवोदिता ने उपलब्ध कराए हैं जो 2019 के महाकुम्भ के हैं।)
सम्पर्क
मोबाइल : 09839721868
महाकुंभ 2019 का संध्या नवोदिता जी ने जो वर्णन किया , उससे कई जानकारियाँ मिली। अच्छा आलेख।
जवाब देंहटाएंअद्भुत अद्भुत मार्मिक लिखा है आपने!
जवाब देंहटाएंआपका पद्य तो सलोना है ही, आपका गद्य भी प्रियंवद और उतना ही सलोना है। सबसे महत्त्वपूर्ण है, जीवन को उसकी सम्पूर्ण विविधता में देख लेने की क्षमता.. आकुंठ राग से प्रदीप्त वैराग्य तक.. सब कुछ।
-डा. आनंद कुमार शुक्ल