सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कहानी 'कला की रूप-रेखा'

 

निराला जी



महाकुम्भ एक विशिष्ट और बड़ा आयोजन है। इसमें बेहतर लोग तो आते ही हैं, कुछ संकीर्ण प्रवृत्ति के लोग भी आते हैं जो अपनी ओछी हरकतों से बाज नहीं आते। मेले में आए लोग ठगी के शिकार भी होते हैं। कुछ लोग अपना मालो असबाब गंवा बैठते हैं। कुछ ऑटो रिक्शे वाले मौके का बेहिसाब फायदा उठाते हैं और मनमाना किराया वसूल करते हैं। मनुष्य का यह स्वभाव भी है और ऐसा हमेशा होता रहा है। महाप्राण निराला ने एक संस्मरणात्मक कहानी लिखी है जिसमें वे एक मद्रासी व्यक्ति के सब गंवा बैठने का जिक्र करते हैं और अन्ततः अपने स्वभाव के अनुरूप ठंड से बचाने के लिए उसे अपनी चादर दे देते हैं। कहानी में कुम्भ का यह संक्षिप्त जिक्र मिलता है लेकिन एक आयाम की तरफ इशारा तो करता ही है। यह कहानी निराला जी के संकलन "सुकुल की बीबी" में संकलित है जो लखनऊ से प्रकाशित होने वाले 'माधुरी' मासिक के नवम्बर 1936 में प्रकाशित हुआ था। यह कहानी हमने 'निराला रचनावली' के भाग 4 से साभार लिया है। तो आइए आज महाकुम्भ विशेष के अन्तर्गत पहली बार पर हम पढ़ते हैं महाप्राण निराला द्वारा "मद्रासी" कुम्भ यात्री को दिये गये "महादान" की कथा।




महाकुम्भ विशेष : 13


महाप्राण निराला द्वारा "मद्रासी" कुम्भ यात्री को दिये गये "महादान" की कथा


प्रस्तुति : पंकज मोहन 


'कला की रूप-रेखा' 

(सत्य घटना)


सूर्यकांत त्रिपाठी निराला 


प्रयाग में था, लूकरगंज में, पण्डित वाचस्पति पाठक के यहां। लीडर प्रेस में निरुपमा बेचने गया था। जाड़े के दिन, 1936 का प्रारंभ। चाय पीने की लत है। चाय के साथ हिंदू मिठाई, फल, टोस्ट वगैरह खाते हैं। मैं अंडे खाता हूं। बायल्ड,  हाफ बायल्ड या पोच। समय रहा तो आमलेट, अंडे बत्तख के नहीं मुर्गी के। पाठक की मां मुर्गी का पर देख लें, तो मकान छोड़ दें, लिहाजा सुबह उठ कर स्टेशन जाता था एक मुसलमान की दुकान में, पाठक देखते थे, मैं खाता पीता था।


आते जाते रास्ते में बातचीत होती थी पाठक मुझसे ग्यारह बारह साल छोटे हैं इस समय अट्ठाईस और चालीस की पटरी बैठ सकती है उसे समय जब पाठक पांच के थे और मैं 17 का था, अवश्य कोई साम्य न रहा होगा। आज इंग्लैंड की निगाह में भारत जितना समझदार और शक्तिशाली है, मेरी निगाह में पाठक उतने भी ना रहे होंगे। मैं 'जूही की कली' का कवि था और पाठक पहली किताब के पाठक। लेकिन पहले पहल जब मेरी पाठक से मुलाकात हुई काशी में मैं तीस का और पाठक अट्ठारह के। वह मेरे घनिष्ठ कवि प्रिय मित्र हो कर मिले। मेरी विशेषता मेरे काशी जाने से पहले पहुंच चुकी थी। इसलिए अपने एक मित्र के यहां जिन्होंने एक वेश्या को पत्नी रूप में रख कर सामाजिक श्रेय  प्राप्त किया है - बड़े भगवत भक्त हैं। मुझे मछली पका कर खिलाई।

एक रोज़ लूकरगंज से हम लोग स्टेशन की तरफ़ चले। उन्होंने मुझसे पूछा "कला क्या है?"


मैंने कहा "कुछ नहीं"। 


पाठक उड़ी निगाह से मुझे देखने लगे। मालूम नहीं, क्या सोचा। मुमकिन, जैसा सब सोचते हैं, उन्होंने भी सोचा हो।


मैंने फिर कहा "जो अनंत है, वह गिना नहीं जा सकता। इसलिए 'कुछ नहीं' कहा। इसका बड़ा अच्छा उदाहरण है। कला उसी तरह की सृष्टि है जैसा आप सामने देखते हैं। बल्कि, यही सृष्टि लिखने की कला की जमीन है। अनादि काल से अब तक सृष्टि को गिनने की कोशिश जारी है, पर अभी तक यह गिनी नहीं जा सकी, अधिकांश में बाकी है। यह एक-एक सृष्टि, एक-एक कला है। फलतः कला क्या है, यह बतलाना कठिन है। अद्वैतवाद में, सृष्टि के गिनने की असमर्थता के कारण सृष्टि का अस्तित्व ही उड़ा दिया गया है। इसीलिए कहा, कला कुछ नहीं है। कला के दो-चार, दो-चार सौ, दो-चार हजार, दो-चार लाख, दो-चार करोड़ रूप ही बतलाए जा सकते हैं। पर इससे कला पूरी-पूरी न बतलाई गई। पर एक बोध है, उसका स्पष्टीकरण किया जा सकता है। जैसे ब्रह्म के अलग-अलग रूपों की बात नहीं कही गई, केवल 'सच्चिदानंद' कह दिया गया है। इसी को साहित्यिकों ने सत्यम शिवम और सुंदरम कह कर अपनाया है। बोध वह है, जैसी कला हो उसके विकास क्रम का वैसा ज्ञान। इसके लिए प्राचीन और नवीन परंपरा भी सहायक है। और स्वजातीय और विजातीय ज्ञान के साथ मौलिक अनुभूति और प्रतिभा भी।"


फिर हिन्दी के भिन्न-भिन्न अङ्गों की बात-चीत होती रही। हिन्दी-भाषियों का मस्तिष्क दुर्बल है, रूढ़िग्रस्त होने के कारण। वहाँ नवीन विचारधारा जल्द नहीं प्रवेश पाती, यद्यपि भारतीय साहित्य का इतिहास समस्त प्रकार की मौलिकता लिये हुए है। हिन्दी का समाज-संस्कार अनुरूप न होने के कारण उपन्यास उच्चता तक नहीं पहुँच रहे - बहुत जगह भविष्य-समाज की कल्पना कर लिखा जाता है। काव्य, कहानी, प्रबन्ध, नाटक, इन सबका लेखक जो मनुष्य है, वह अनेक रूपों में अभी विकसित नहीं हुआ। बड़ी कमजोरियाँ हैं। फलतः साहित्य अभी साहित्य नहीं हो सका। मैं कहता गया, ये सब नाई हैं अपनी बारात में ठाकुर बने हुए। कुछ नाम भी गिनाये, कलकत्ते से लाहौर तक। तब तक स्टेशन आ गया। मेरा मुसलमान दूकानदार आदर की दृष्टि से मुझे देख कर अंडे फोड़ने चला। अंडे उबाले हुए रक्खे थे; मैं बैठ गया, पाठक वहीं दो-चार क़दम इधर-उधर टहलते रहे। कुछ और भी चाय-पीने वाले मुसलमान सज्जन थे।


एक दुबले-पतले प्रायः पचास साल के मुसलमान सज्जन गौर से मुझे देखते रहे। उनकी आँखों के आश्चर्य का मैं चुपचाप आनन्द लेता रहा। अन्त तक उनसे न रहा गया, पूछा -


"जनाब पंजाबी हैं?"


मैंने सोचा, जितनी कम मिहनत हो, अच्छा है; कहा- "जी"।


उन्होंने पूछा- "कारोबार करते हैं?"


मैंने कहा- "जी"।


उन्होंने पूछा- "यहीं?”


मैंने कहा- "नहीं, लखनऊ में।" मैं अंडे वाला प्लेट उठा कर काँटे से खाने लगा। प्रश्नकर्ता को अभी पूरी-पूरी दिलजमई न हुई थी।


पूछा- "काहे का कारोबार करते हैं?"


मैंने बिना विचार किये कह दिया- "रेशम का।"


ज्यों मुसलमान सज्जन का आश्चर्य बढ़ा, त्यों ही मैंने भी सोचा, “यार, पंजाब में रेशम की पैदावार कहाँ होती है, कारखाने कहाँ हैं, यह तो नहीं मालूम; उधर से पश्मीने आते हैं, जानता हूँ; पेशावर, काश्मीर वगैरह के पश्मीने मशहूर हैं। बदल कर बोला- “लेकिन मैं स्वीटजरलैंड से रेशम मंगाता हूँ।” यह कह कर मैं गम्भीर भाव से अंडे खाने लगा। सोचा -


स्वीजरलेैंड एक सुन्दर देश है, वहाँ रेशम जरूर बनता होगा, ओर न भी बनता हो तो क्‍या? मियाँ खत-व-खाल से मालूम देते हैं, उन्होंने स्वीटज़रलैंड का नाम पहले-पहल सुना है।”


"जनाव का इस्मशरीफ?"


एक बार इस 'इस्मशरीफ' शब्द से बड़ा धोखा खाया था; सोचा था, वह 'दौलतखाने' का पर्यायवाची है, लेकिन जैसा धोखा मैंने खाया, जबाव सुन कर वैसा ही पूछने।वाले ने। मेरे विशुद्ध संस्कृत में दिये स्थान-परिचय को उन्होंने नाम-परिचय समझा। तब मैं मेदिनीपुर में रहता था। जानता था, 'पुर' कहूँगा तो मेरी तरह ये संशय में न रहेंगे। कहा-' मेदिनीदल'। उन्होंने 'जुझारमल' की तरह का एक नाम यह भी होगा, सोच लिया।


इस बार जल्दी-जल्दी मुसलमानी नाम याद करने लगा तो एक भी नाम न आया। पेट में, 'महम्मद महम्मद' हो रहा था, लेकिन कहने की हिम्मत नहीं पड़ती थी; बंकिमचन्द्र की याद आई, उन्होंने अपने एक हिन्दू-पात्र से 'महम्मद' के नाम एक प्रेम-पत्रिका शाही कैम्प में भिजवाई है, इस निश्चय से कि इस नाम का कोई सैनिक अवश्य होगा। वहाँ कई महम्मद निकले, एक दूसरे से लड़ने लगे। नाम बताने में जरा भी देर शंका पैदा करती है। मुझे नाम तो न याद आया, पर समझ ने साथ न छोड़ा। मुँह का अंडा निगला जा चुका था, पर मैं मुसलमान सज्जन की ओर मुँह किये विराट रूप से मुँह चलाये जा रहा था, सिर हिलाता हुआ उन्हें आश्वासन दे रहा था कि जरा देर ठहर जाइए। फिर भी नाम न आया। अन्त में बड़ी मुश्किल से एक शब्द याद आया। पर वैसा नाम मैंने स्वयं कभी नहीं सुना। उधर मियाँ का धैर्य छूट रहा था- मेरी पागुर बन्द नहीं हो रही थी।


मैंने कहा- "जनाब, मुझे वकूक हुसेन कहते हैं।" मियाँ उसे और मुलायम करके बोले..."उकूफ हुसेन?"


मैंने कहा - "जी"।


मियाँ बढ़े। मैंने चाय पीना शुरू किया। पाठक पीछे थे। शायद सामने से ज्यादा हँसी आती थी।


जब चाय पी कर दाम दे कर चला, तब, रास्ते में, पाठक ने मुझ से कहा -  "आपने 'वकूफ़' शब्द का एक अक्षर छोड़ क्यों दिया?"


मैंने बैसवाड़ी में कहा- "तुम थे, इसलिए।"





अभी हम लोगों ने स्टेशन का अहाता पार नहीं किया था। अहाते में मद्रासियों का एक दल बैठा हुआ देख पड़ा। मैंने सोचा, शायद ये लोग कुम्भ नहाने आये थे। इतने ही में कि उनमें से एक आद‌मी, उम्र पैंतालीस के लगभग, भौंरे का रंग, खासा मोटा तगड़ा, एक लँगोटी से किसी तरह लाज बचाये हुए, उतने जाड़े में नंगा बदन, दौड़ा हुआ मेरे पास आया और एक साँस में इतना कह गया कि मैं कुछ भी न समझा। मैंने फिर पूछा। टूटी-फूटी हिन्दी में पूरे उच्छ्‌वास से वह फिर कहने लगा। इस बार मतलब मेरी समझ में आया। वह यात्री है, मद्रास का रहने वाला, कुम्भ नहाने आया था, यहाँ चोर उसके कपड़े-लत्ते, माल असबाब उठा ले गये, गठरियों में ही रुपये पैसे थे, अब वह (अपने आदमियों के साथ) हर तरह लाचार है, दिन तो किसी तरह धूप खा कर भीख माँग कर पार कर देता है, पर रात काटी नहीं कटती। जाड़ा लगता है। वह एक दृष्टि से मेरा मोटा खद्दर का चादर देख रहा था। मैं विचार न कर सका, उतार कर दे दिया। वह मारे आनन्द के दौड़ा हुआ अपने साथियों के पास गया और इस महादान की तारीफ़ करने लगा मेरी तरफ़ उँगली उठा कर बतलाता हुआ ।


पाठक संसार के चक्रान्त की बातें सोच रहे थे--देश दुर्दशाग्रस्त है, इसलिए कितने चक्कर रोज देशवासियों को खाने पड़ते हैं। कितने लोग उन्हें छलते रहते हैं। मुझसे बोले- "आखिर आपने अपना बतलाया नाम यहाँ सार्थक कर दिया न? यह अभी दोपहर को, गुदड़ी बाजार में, चार आने में, यह चादर बेचेगा।"


मैंने कहा- "धोखा भी हो सकता है और इसकी बात भी सच हो सकती है। यह मद्रास से यह सोच कर तो चला नहीं होगा कि गुदड़ी बाजार में कपड़ा बेचेगा।"


पाठक अप्रसन्न हो कर बोले "मैं आपके देने का विरोध नहीं करता, लेकिन-"


मेरे पास कपड़े कम रहते हैं, कम थे, 'लेकिन' के बाद वह इसी भाव की पूर्ति करना चाहते थे, पर रुक गये।


हम लोग लूकरगंज आये। धीरे-धीरे दो महीने बीते। लखनऊ कांग्रेस के समय सत्ताइस मार्च को वह मेरे साथ लखनऊ आये ओर मेरे मकान में ठहरे। धीरे-धीरे कांग्रेस का समय आया। उनके दो मित्र, जो मेरे भी मित्र हैं, आ कर ठहरे। जहाँ तक बिना टिकट के देखा जा सकता था, मैंने घूम-फिर कर कई रोज़ देखा। दो-तीन रुपये प्रदर्शनी देखने और महात्मा जी के व्याख्यान सुनने में खर्चे किये। प्रदर्शनी के कवि-सम्मेलन में नहीं जाता, यहाँ भी नहीं गया। 


जो कुछ हुआ संवाद मालूम कर लिया। सब्जेक्ट कमेटी की बैठक देखने की इच्छा थी, पर वह दृश्य अप्सराओं के नृत्य देखने से भी महंगा था। पाठक बोले, "मेरा पास ले कर देख आइए।" मैंने कहा "वहां बहुत से लोग होंगे जो मुझे पहचानते होंगे। फिर प्रेस रिपोर्टरों की जगह मुझे कोई अपने पास से भी कुछ दे कर बैठने के लिए कहे तो मैं न बैठूं।"


पाठक लड़ने लगे। बोले, वह सबसे बढ़िया जगह होती है। कहा, "होगी। मैं ना जाऊंगा।"


कांग्रेस शुरू हुई। पहले दिन मैं न गया। आगे भी जाने का विचार न था। कारण, प्रेस रिपोर्टर की हैसियत से जाना मुझे पसंद ना था और तीन दिन तक दाम खर्च कर जाने में अड़चन थी। प्रयाग से ढाई सौ रुपए ले आया था। प्रायः सब खर्च हो चुका था। कई महीने के बाकी मकान किराए और भोजन के खर्चे में।


दूसरे दिन जब कांग्रेस की बैठक शुरू होने को हुई, मेरे मकान से लोग चलने को हुए, तो मैं सोने का सुबीता करने लगा।


जो मारवाड़ी सज्जन आए हुए थे उन्होंने कहा, "निराला जी, मैं कई दिनों से देख रहा हूं आप सोते बहुत हैं। 


मैंने कहा "हां, यह तो है। पर जब जागता हूं, तब पन्द्रह-पन्द्रह रात लगातार नहीं सोता।" 


मारवाड़ी सज्जन हंसे। बोले, "चलिए"। 


मैं बड़े संकट में पड़ा, कैसे कहूं, मेरे पास खर्च की कमी है। कहा, "कांग्रेस में बड़ी गर्मी है।"


"हां, पर हवा बड़ी अच्छी चलती है।" मारवाड़ी सजन बड़े मजेदार आदमी मालूम दिए। मैं उनके उत्तर पर मुस्कुरा रहा था। तब तक एक पच्चीस रुपए का टिकट निकाल कर उन्होंने कहा यह टिकट आपके लिए है।





मैं चला। मैं और मारवाडी सज्जन एक ही जगह पर थे। वह जगह कुछ ऊंची थी। कुछ दूर पर बड़े-बड़े नेता ओर नेत्रियाँ देखा। एक-एक छोटी मेज़ के पीछे प्रेस रिपोर्टर बैठे थे। पं० दुलारे लाल भार्गव, ठाकुर श्रीनाथ सिंह आदि-आदि परिचित-अपरिचित। श्रीमती कमला चट्टोपाध्याय को मैं ग़ौर से देख रहा था। उन्हें पहले ही पहल देखा था। कभी-कभी श्रीमती सरोजिनी नायडू से बातें करती थीं, उठ कर, उनके पास जा कर। रह-रह कर उस 'समर्पंण की याद आ रही थी, जो मिस्टर चट्टोपाध्याय ने अपने एक अंगरेज़ी-पद्य संग्रह का किया है, इस तरह का -- To K, the first sunshine of my life.  (मेरे जीवन की प्रथम सूर्य-किरण “क” को)। फिर इस राजनीतिक जीवन के घोर परिवर्तन पर सोच रहा था, जहाँ दोनों एक दूसरे के काव्य के विषय नहीं--जीवन के अन्तरंग नहीं, स्पर्धा के विषय हो गये  हैं।


शाम को बाहर निकला। एकाएक एक ऊँची आवाज़ आई। देखा, एक स्वयंसेवक दौड़ा आ रहा है, स्वयं सेवक की वर्दी पहने हुए। मुझे देख कर दोनों हाथ उठा कर फिर उसने हर्षध्वनि की। मुझे ऐसा मालूम देने लगा जैसे उसे स्वप्न में कभी देखा हो। मुझे पहचानता हुआ न जान कर उसने आनन्दपूर्ण लड़खड़ाती हिन्दी में कहा- "मैं वही हूँ, जिसे आपने चादर दिया था।" 


मुझे कला का जीवित रूप जैसे मिला। प्रसन्न आँखों से देखता हुआ मैं तत्काल कुछ कह न सका। संयत हो कर बोला - "आप कांग्रेस में आ गये, अच्छा हुआ।" उसने कहा- "फिर मैं यहाँ स्वयंसेवकों में भरती हो गया।"


प्रसन्न-चित्त बाहर निकल कर मन में मैंने कहा- "पाठक मिलें तो बताऊँ, कैसे गुदड़ी बाजार में इसने चादर बेचा।"


कई दिन हो गये। कांग्रेस खत्म हो गई। पाठक वगैरह चले गये। मैं शाम को कैसर बाग़ में टहल रहा था कि वह मनुष्य मेरी ओर तेज क़दम आता देख पड़ा में खड़ा हो गया। मेरे पास आ कर उसने कहा- "अब गरमी बहुत पड़ने लगी है। देश जाना चाहता हूँ। रेल का किराया कहाँ मिलेगा? पैदल जाना चाहता हूँ।"


मैंने बीच में बात काट कर कहा- "क्या कांग्रेस के लोग आपकी इतनी सी मदद नहीं कर दे सकते?"


उसने कहा - "नहीं, कांग्रेस का यह नियम नहीं है। मैं मिला था। मुझे यह उत्तर मिला है। खैर, मैं भीख माँगता-खाता पैदल चला जाऊँगा। पर "- (अपने) पैरों की ओर देख कर कहा, "गरमी बहुत पड़ती है, पैर जल जाते हैं, अगर एक जोड़ी चप्पल आप ले दें।”


मुझ पर जैसे वज्रपात हुआ। मैं लज्जा से वहीं गड़ गया। मेरे पास तब केवल छः पैसे थे। इससे चप्पल नहीं लिये जा सकते। अपने चप्पल देखे, जीर्ण हो गये थे । लज्जित हो कर कहा- " आप मुझे क्षमा करें, इस समय मेरे पास पैसे नहीं हैं।”


उसने वीर की तरह मुझे देखा। फिर बड़े भाई की तरह आशीर्वाद दिया और मुस्करा कर अमीनाबाद की ओर चला। मैं खड़ा-खड़ा उसे देखता रहा, जब तक वह दृष्टि से ओझल नहीं हो गया।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि अजामिल जी की हैं।)

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