कुमार वीरेन्द्र का आलेख "अतीत-आतुरता से मुक्त ‘आज के अतीत’"

 




आत्मकथा लिखना किसी भी लेखक के लिए एक चुनौती की तरह होता है। इस विधा में लेखक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह वस्तुनिष्ठ हो कर अपने बारे में, अपने लेखन के बारे में बात रखे। इस क्रम में उसे आत्म-मोह से अलग हो कर आत्म-आलोचना की राह पर चलते हुए लेखन करना पड़ता है। प्रेमचन्द ने 1932 में अपनी पत्रिका ‘हंस’ का आत्मकथांक निकाला, जो काफी चर्चित हुआ। इन लेखकों को अपने जीवन से जुड़े गोपन प्रसंगों या वर्जित विषयों पर खुल कर लिखने-बताने में कोई भी झिझक नहीं हुई। इन प्रसिद्ध आत्मकथाओं में महात्मा गाँधी की ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’, हरिवंश राय बच्चन की ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ और पांडेय बेचन शर्मा उग्र’ की ‘अपनी खबर’ आदि प्रमुख हैं। भरत सिंह और कुमार वीरेन्द्र के सम्पादन में हाल ही में लोकभारती, इलाहाबाद से एक महत्त्वपूर्ण किताब आई है 'आत्मकथा के इलाके में'। इस किताब में कुमार वीरेन्द्र का भी एक आलेख है जो भीष्म साहनी की आत्मकथा 'आज के अतीत' पर केन्द्रित है। इस महत्त्वपूर्ण आलेख को हमें टाइप फॉर्म में अवनीश यादव ने उपलब्ध कराया है। हम उनके प्रति आभार व्यक्त करते हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं कुमार वीरेन्द्र का आलेख "अतीत-आतुरता से मुक्त ‘आज के अतीत’"



"अतीत-आतुरता से मुक्त ‘आज के अतीत’"


कुमार वीरेन्द्र


निर्वैयक्तिकता का गुण होने के कारण ‘आत्मकथा’ अन्य गद्य विधाओं की अपेक्षा थोड़ी कठिन विधा है। बनारसी दास जैन ने ‘अर्धकथा’ (1641) में लिखा कि ‘गर्भित कथा कहौं हिय खोल।’ छिपाए जाने वाले या कहें कि गोपन प्रसंगों को भी दिल खोल कर अथवा खुल कर बताना आत्मकथा को प्रसिद्धि दिलाता है, निर्वैयक्तिक बनाता है। आत्मकथा चर्चित विधा है और आत्मकथा-लेखन की एक समृद्ध परम्परा है, लेकिन यह आलोचना से परे विधा हो, ऐसा भी नहीं है। बाबू बनारसी दास चतुर्वेदी ने आत्मकथा लेखक की पात्रता का सवाल उठाया था। चतुर्वेदी जी ने ‘जागरण’ में यह सवाल उठाया था कि आत्मकथा किसे लिखनी चाहिए। भाव यह था कि आत्मकथा किसे नहीं लिखनी चाहिए। उनकी मंशा आत्मकथा लेखक होने के लिए पात्रता या शर्तें तय करने की थी। हालाँकि उनके द्वारा तय की गई शर्तों पर आगे लोगों ने आत्मकथा लिखी, ऐसा भी नहीं है। जब प्रेमचन्द ने ‘हंस’ का आत्मकथांक (1932) निकाला तो नन्द दुलारे वाजपेयी ने यह कह कर विरोध किया था कि इससे आत्म-विज्ञापन का भाव बढ़ेगा जो कि हिन्दी के हित में नहीं होगा। ‘​हंस’ का आत्मकथा अंक निकला, चर्चित हुआ। इसमें हिन्दी के तमाम सक्रिय और चर्चित लेखकों ने आत्मकथात्मक आलेख लिखे। इसी अंक में प्रेमचन्द ने अपना ‘जीवन-सार’ लिखा। प्रेमचन्द ने जयशंकर प्रसाद से भी आत्मकथात्मक निबन्ध या आलेख लिखने का आग्रह किया था। प्रसाद ने आलेख तो न दिया, पर प्रेमचन्द का दिल रखने के लिए एक आत्मकथात्मक कविता भेजी, जिसे प्रेमचन्द ने अंक के प्रारम्भ में ही लगाया था, जिसमें प्रसाद ने लिखा कि 


‘छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ?

क्या यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?’ 


भाव यही कि आत्मकथा लिखना क्या जरूरी है? जिन आत्मकथा लेखकों को गोपन से गोपन प्रसंगों या वर्जित विषयों को खुल कर लिखने-बताने में तनिक झिझक न हुई, उनकी आत्मकथाएँ अत्यन्त प्रसिद्ध हुईं। ऐसी प्रसिद्ध आत्मकथाओं में महात्मा गाँधी की ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’, हरिवंश राय बच्चन की ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ और पांडेय बेचन शर्मा उग्र’ की ‘अपनी खबर’ आदि प्रमुख हैं। 


आत्मकथा एक ऐसी विधा भी है जिसमें संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त मिले हुए रहते हैं। यूँ तो संस्मरण और मात्रा वृत्तान्त स्वतन्त्र विधाएँ है, लेकिन इनकी आवाजाही आत्मकथा में देखने काे मिल जाती है। भीष्म साहनी की आत्मकथा ‘आज के अतीत’ में यह आवाजाही प्रबल है। ‘आज के अतीत' में 'अतीत’ नॉस्टेल्जिक नहीं है। नॉस्टेल्जिया या अतीत-आतुरता या अतीत-मोह को आत्मकथा का निकटस्थ शत्रु माना जाता है। सम्भव है कि अतीत-आतुरता आत्मकथा लेखक को दिली सुख, आत्मिक सुख, गौरवानुभूति प्रदान करे, लेकिन पाठक के वर्तमान को वह जोड़ न पाये तो फिर क्या मतलब? भीष्म साहनी के अनुभव में अतीत तो है पर उसकी आतुरता नहीं है, उनके अनुभव में समय-सार्थकता है, जो कि पाठकों को सहज स्वीकार्य है। भीष्म साहनी की आत्मकथा में समय-सार्थकता ने अतीत-बन्धन से मुक्ति के मार्ग तय किए हैं। इसलिए सन् 2003 में प्रकाशित ‘आज के अतीत’ महत्त्वपूर्ण आत्मकथा की श्रेणी में परिगणित है। 


संस्मरण में तो नहीं, पर आत्मकथा में आत्मालोचना की गुंजाइश रहती है। आत्मालोचना आत्मकथा को ‘मैं-पन’ से मुक्त कर वस्तुपरक बनाती है। ‘आज के अतीत’ में यह तत्त्व है। एक अंश देखिए- ‘‘यह भी मेरी मानसिकता का अंग बनता जा रहा था- बेसुध हो कर अन्य व्यक्तियों की विशिष्टता से प्रभावित होना। जिस अनुपात में मैं अन्य व्यक्तियों की विशिष्टता से प्रभावित होता, उसी अनुपात में मैं अपने को नगण्य समझने लगता’’ (पृ. 48)। ऊनी कपड़े के वितरण का अधिकार हासिल करने के लिए उन्हें टेक्सटाइल कमिश्नर ने दिल्ली बुलाया था। दफ्तर में उनकी मुलाकात सहायक टेक्सटाइल कमिश्नर मि. मुखर्जी से होती है, हाथ मिलाते हैं, पुलकित होते हैं, घर लौटते हैं। कुछ दिनों के बाद उनके एक रिश्तेदार ने सहायक टेक्सटाइल कमिश्नर को दस हजार रुपये रिश्वत देने को कहा। उन्होंने रिश्वत नहीं दी, तो वितरण के कागज का अधिकार भी कभी घर के पते पर नहीं पहुँचा। इस घटना के सन्दर्भ में वह पिता का, समाज का और अपना पक्ष रखते हैं। ‘आत्मालोचन’ की आवश्यकता किसे है, यह भी मायने रखता है। दोषी कौन और दोष किसके मत्थे? साहनी लिखते हैं- ‘‘कुछ देर बाद जब (पिता जी) मुझसे मिले तो अपने ही ढंग से बोले : कुत्ते के मुँह में हड्डी दे देते तो क्या बुरा था?’’ 


असल में एम. ए. तक की पढ़ाई करने के बाद ऐसा काम करने में भीष्म साहनी के मन में उत्साह नहीं होता था। वह तो भाई बलराज साहनी के घर छोड़ जाने के बाद बड़ी तत्परता के साथ अपने पिता के व्यापार-कार्य में योग देने लगे थे ताकि उनके पिता को बलराज साहनी की अनुपस्थिति का भास न हो। भीष्म साहनी तो बाजार के क़ायदे-कानून से भी अपरिचित थे। उनका मुख्य काम बाज़ार से नमूने दिखा कर आर्डर लेना था। एक तरह से वह केवल कमीशन एजेंट थे, नमूने दिखा कर बाज़ार से आर्डर लेते और जब माल आ जाता और व्यापारी बैंक में अदायगी कर के माल छुड़ा लेता तो वह कमीशन के हक़दार बन जाते। अपनी कमजोरी को वह छुपाना नहीं चाहते, व्यापार कार्य में अपनी नासमझी का वह जिक्र करते हैं- ‘‘मुझे चाहिए था कि नमूने दिखाने का काम दलाल पर छोड़ देता और जब यह बुनियादी काम हो जाता तो आर्डर लेने के लिए दुकानदार के पास स्वयं पहुँच जाता’’ (पृ. 94)। असल में उन्होंने अपने पिता को आश्वस्त करने के लिए अत्यधिक उत्साह दिखाया था, पर बाजार-व्यापार की दुनिया हृदय और भावना से दूर-दूर तक ताल्लुक नहीं रखती। फिर उन्हें विलायती माल बेचने से भी चिढ़ थी। 


भीष्म साहनी की ​जिंदगी का काँटा तब बदला जब उन्होंने भाई बलराज साहनी के सुझाव पर ऑर्नल्ड रिडले के नाटक ‘घोस्ट ट्रेन’ का हिन्दी अनुवाद किया और उसका मंचन रावलपिंडी के उसी कॉलेज में किया, जहाँ से उन्होंने इंटरमीडिएट की पढ़ाई की थी। नाटक से विद्यार्थियों का जुड़ाव हो और साहनी को भी लड़कों का सहयोग मिले, इसका ख़्याल करते हुए प्राचार्य जसवन्त राय के सुझाव पर उन्होंने इस कॉलेज में दो-दो घंटे रोज अवैतनिक अध्यापन करना शुरू कर दिया। दो घंटे पढ़ाने के बाद अपने व्यापार-कार्यस्थल पर जाना और शाम को नाटक का रिहर्सल कराना, यह उनके लिए सन्तोषजनक स्थितियाँ थीं। एक और दृष्टि से नाटक की प्रस्तुति निर्णायक साबित हुई। नाटक देखने वालों में शीला भी थीं, अपने पिता के साथ नाटक देखने आई थीं। साहनी लिखते हैं-‘उसे नाटक कैसा लगा, यह तो मैं नहीं जानता पर उसके पिता जी को मैं जरूर पसन्द आ गया। और इस तरह मेरे भावी जीवन का रास्ता भी साफ होने लगा। नाटक देखने के बाद जरूर पिता ने अपनी बेटी से पूछा होगा, ‘‘तुम्हे नाटक कैसा लगा?’’ और बेटी ने कहा होगा, ‘‘अच्छा लगा है’’ और इसी को पिता ने उसकी स्वीकृति मान लिया होगा। कम से कम बाद में शीला मुझे ऐसा ही कुछ बताया करती थी- ‘‘मैंने तो कहा था मुझे नाटक पसन्द आया। न जाने उन्होंने कैसे समझ लिया कि मुझे तुम पसन्द आए हो।’’ वह कहा करती’ (पृ. 99)। 




भीष्म साहनी के जीवन में उत्साह बढ़ा और उन्होंने अपनी ‘रुचियों के सूत्र में से एक सूत्र’ साहित्य को फिर से पकड़ा, शरत्-साहित्य को पढ़ा, महादेवी की ‘यामा’ को पढ़ा, ‘अतीत के चलचित्र’ को पढ़ा। वह गाहे-बगाहे लिखने भी लगे। उन्होंने ‘विशाल भारत’ और ‘सरस्वती’ में लिखा। 


श्रेष्ठ आत्मकथा में गुण होना चाहिए कि वह जीवन की रणनीति बताए, मनुष्य की अपराजेयता में विश्वास जगाए, प्रेरणा प्रदान करे। यह गुण भीष्म साहनी की आत्मकथा में है। इससे सम्बद्ध एक दृष्टान्त या उदाहरण देखिए- ‘‘मैं रेलगाड़ी में इलाहाबाद से बैठा था। दिन का सफर था, डिब्बे में दो-तीन ही और मुसाफिर थे, मैं आराम से बैठ कर एक उपन्यास पढ़ता आ रहा था। डिब्बे में मेरे अतिरिक्त दो सिख सरदार और मुसाफिर थे, एक बड़ी उम्र का, दूसरा जवान। वे दोनों बड़े खुशमिजाज जान पड़ते थे, बड़े मगन हो  कर तरह-तरह की बातें कर रहे थे, जिनमें अक्सर जंग के किस्से ही थे। बर्मा की लड़ाई में अंग्रेज फ़ौजों को मुँह की खानी पड़ रही थी, वे इसकी चर्चा करते हुए खिल्ली उड़ा रहे थे, और भी तरह-तरह की बातें कर रहे थे। एक और मुसाफिर ऊपर की बर्थ पर लेटा सो रहा था। बस डिब्बे में इतने ही मुसाफिर थे। एक और मुसाफिर बन्द गले का कोट और सिर पर चुस्त सी पगड़ी बाँधे एक ओर को बैठा था पर वह कुछ देर बाद गाड़ी से उतर गया था। लम्बे सफर के बाद गाड़ी रावलपिंडी स्टेशन पर पहुँची और मैं गाड़ी से उतर आया। गाड़ी में और सवारियाँ भी चढ़ती-उतरती रही थीं, वे सरदार भी कहीं उतर गए थे, मैंने ध्यान नहीं दिया’’ (पृ. 111)। अब आगे भीष्म साहनी के साथ जो होता है और जो वह करते हैं, वह मनुष्य की अपराजेयता में विश्वास जगाने वाला है, चुनौतियों से मुकाबले के लिए हौसला अफ़जाई करने वाला है। जब साहनी सफर समाप्त कर घर लौटे तो महीने भर बाद पुलिस की ओर से एक आदमी आया और एक पर्चा हाथ में दिया। पर्चे में उपर्युक्त रेल यात्रा का जिक्र था कि जिस डिब्बे में साहनी सफर कर रहे थे उसमें दो सरदार भी बैठे थे और वे सारा वक्त ब्रिटिश सेना की खिल्ली उड़ाते रहे थे और बर्मा के महाज़ (युद्ध के मोर्चे) पर ब्रिटिश फ़ौजी टुकड़ियों की बुज़दिली की चर्चा करते रहे थे। पुलिस का आदमी इस ब्यौरे की तसदीक के लिए आया था। साथ ही यह भी कहा कि, ‘टुँडला रेलवे स्टेशन पर, फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट की अदालत में यह मुकदमा चल रहा है। दोनों सरदार हिरासत में हैं। आप गवाह की हैसियत से अमुक दिन वहाँ पहुँचें। सरकार आपको सेकेंड क्लास का रेल किराया और भत्ता देगी’ (पृ. 111)। यह सही था कि दोनों सरदार फ़ौजी महाज़ की चर्चा करते रहे थे और हँसते, खिल्ली उड़ाते रहे थे। पर साहनी ने तसदीक करने से इनकार कर दिया। साहनी ने यह तो स्वीकारा कि वह रेलगाड़ी के उसी डिब्बे में सफ़र कर रहे थे, जिसमें  दोनों सरदार भी थे, लेकिन वे क्या बातें कर रहे थे इसकी जानकारी होने से उन्होंने  इनकार कर दिया। डिप्टी सुपरिंटेडेंट ने बुलाया, समझाया, धमकाया, पर उन्होंने फिर से इनकार कर दिया। बकौल साहनी ‘‘फिर उस अफसर ने मेरी वह खिंचाई की, मुझे ऐसी-ऐसी धमकियाँ दीं कि अल्लाह मालिक है। उस अनजान रेलवे स्टेशन पर, जनाना वेटिंग रूम में जहाँ हम दोनों अकेले बैठे थे, वह कभी धमकाता, कभी समझाता, कभी चिल्लाता, कभी मेरा हाथ गीता पर रखता रहा। मेरा गला सूख रहा था, पर मैंने अपनी ‘गरदान’ नहीं छोड़ी। लगभग घंटे भर बाद वह उठ खड़ा हुआ और बड़बड़ाता-धमकाता हुआ बाहर निकल गया (पृ. 113)।’’ फिर मजिस्ट्रेट ने भी यह कह कर गवाही नहीं ली कि "We have nothing to do with those who are against the interests of His Majesty's Court". (पृ. 113-114) चूँकि साहनी के सिवाय कोई गवाह नहीं था और साहनी ने उस पुलिस अधिकारी की बातों में आ कर कह दिया होता कि हाँ, मैंने सरदार को ब्रिटिश फौज की खिल्ली उड़ाते सुना है तो बदअमनी फैलाने के जुर्म में न जाने उसे और कितनी सजा दी जाती। कई बार न्यायप्रियता की दुहाई देने वाली व्यवस्था वास्तव में क्रूरता और नृशंसता की हदें पार कर जाती है। कितना हैरतजनक है कि कोई सरकार इतनी निष्ठुर भी हो सकती है कि कोई साधारण नागरिक ब्रिटिश सेना की किसी टुकड़ी के खदेड़ दिए जाने की बात करे और वह उस पर मुकद्दमा ठोंक दे, महीनों तक जेल के अन्दर रखे। साहनी की रणनीति, तसदीक न करने का साहस भरोसे का भाव बढ़ाने वाला था। इनसान होने और इनसान के साथ होने के इस उदाहरण से आत्मकथा लेखक की दृढ़ता, वैचारिकता और दृष्टि का पता मिलता है। 


‘आज के अतीत’ को आप ऐसी आत्मकथा कह सकते हैं जो निबन्धात्मक भी है और कथात्मक भी। निबन्ध-सी व्यक्तिनिष्ठता, विचारप्रवणता, विषयनिष्ठता और कथा-सी परस्परता, रोचकता, औत्सुक्य आदि इसमें समाविष्ट हैं। इसमें डायरी, संस्मरण, यात्रा-वृत्त आदि विधाओं की आवाजाही भी मिलती है। देश के अन्दर और देश के बाहर की यात्राओं और परिवेश को साहनी ने अपने अनुभवों में जिस तरह से जगह दी है, वह वर्णन योग्य है। 


सन 1970 के आस पास भीष्म साहनी अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के कार्यकलाप में भी भाग लेने लगे थे। इस दौरान उन्हें अफ्रो-एशियाई लेखक समुदाय के लिए निकट आने, उनके साहित्य से परिचय प्राप्त करने और उनके जीवन की धड़कनों को महसूस करने का मौका मिला। इस दौरान वह मशहूर शायर फ़ैज अहमद फ़ैज, फिलिस्तीनी कवि महमूद दरवेश, दक्षिण अफ्रीका के ऐलेक्स ला गूमा, अंगोला के आगस्टीनो नेटो आदि के सम्पर्क में आए। अपने-अपने देश में औपनिवेशिक दासता के विरुद्ध संघर्ष करने वाले ये लेखक जेलों में रह कर शासन की यातनाएँ झेल चुके थे, पर झुके नहीं थे, ओजस्वी साहित्य रचने में लगे हुए थे। 


इस क्रम में उन्होंने अनेक अफ्रो-एशियाई देशों की यात्राएँ कीं-मिस्र, ट्यूनीसिया, सीरिया, यूनान, अफ़गानिस्तान, मोजाम्बीक, अंगोला, मेडागास्कर, टर्की, वियतनाम, कम्पूचिया, उत्तरी कोरिया आदि। इन देशों में औपनिवेशिकता के चिह्न अभी भी जगह-जगह उन्हें देखने को मिले- हाकिमों के नाचघर, शराबनोशी के बार और नाइट क्लब। इन देशों में बहुत कुछ ऐसा था जो प्रेरणाप्रद और अविस्मरणीय था। इस दृष्टि से वियतनाम की यात्रा को साहनी ने तीर्थयात्रा की संज्ञा दी है। उन्होंने वियतनाम के परवर्ती शासकों के विलासगृह देखे, साइकिलों पर सवार असंख्य आम नागरिकों को देखा, देश के महान नेता हो ची मिन्ह की ‘पर्णकुटी’ देखी और उस ‘पर्णकुटी’ के भीतर हो ची मिन्ह की छड़ी, छाता, टोपी और लबादा भी देखा। 


साहनी लेखकों के दल के साथ वियतनाम के पड़ोसी देश कम्पूचिया जाते हैं। बस में सवार हो कर नॉमपेन्ह शहर के बाहर स्थित संग्रहालय देखने जाते हैं। संग्रहालय जाने के रास्ते और संग्रहालय के बनावट का उल्लेख जिस भाषा में करते  हैं, वह रोंगटे खड़ी करने वाली है। वृत्तान्त का एक टुकड़ा दखिए- ‘कुछ ही कदम बढ़ाए होंगे कि मेरे पाँव किसी चीज़ से उलझ जाते हैं। मैं झुक कर देखता हूँ, फटा-पुराना कोट है, धूसर रंग का, जर्जर, पर उसका कुछ हिस्सा अकड़ा हुआ है और बदरंग हो रहा है, लगता है यह भाग ख़ून से सना रहा होगा जो बाद में सूख कर अकड़ गया है। कुछ क़दम और आगे बढ़ता हूँ तो जगह-जगह बिखरी हड्डियों से पाँव टकराते हैं। फिर तो आगे बढ़ने पर यही कुछ बार-बार देखने को मिलता है-हड्डियाँ, कहीं फटे-पुराने कपड़े, कहीं टोपियाँ, कहीं बूट, चिथड़े, हड्डियाँ... ये इनसानों की हड्डियाँ हैं, मौत के घाट उतारे गए बेगुनाह, कम्पूचिया वासियों की, जिन्हें उन्हीं के देश के शासकों, पॉल पॉट के उग्रपन्थी शासकों ने हजारों-हजारों की संख्या में मरवा डाला था।’ और संग्रहालय भी क्या था?’ अस्थि-पंजरों का संग्रहालय कम्पूचिया निवासियों के ही अस्थि-पंजरों का। संग्रहालय की बाहरी दीवारें काँच की बनी थी, शायद यह सोच कर बनाई गई थीं कि दर्शक इसके अन्दर जाने की हिम्मत न जुटाने पायें, बाहर से ही अन्दाजा हो जाए कि अन्दर क्या है और क्यों है? साहनी के इस रेखांकन से कम्पूचिया या कहें कि शासन और जनता के सम्बन्ध और युग को समझने में सहायता मिलती है। इतिहास के ऐसे प्रसंगों से हमें स्वयं अपनी संवेदना और अपनी प्रवृत्तियों को समझने का विवेक उत्पन्न होता है, हमारी मूल्य-दृष्टि का विकास होता है और एक नैतिक आधार का सृजन होता है। किसी सहयात्री की टिप्पणी मायने रखती है- ‘‘अब ऐसे ही संग्रहालय देखने को मिलेंगे। मैं जर्मनी में Auschwitz के अग्निकुंड देख चुका हूँ जहाँ हज़ारों-हज़ार यहूदियों को गैस-चैम्बरों में मारा गया था। हिटलर ने भी अपने ही देशवासियों का नर-संहार किया था।’’ इस पर एक अन्य सहयात्री की पूरक टिप्पणी द्रष्टव्य है- ‘‘अब ऐसी ही सैरगाहों की यात्रा करने को मिलेगी।’’ 





साहनी एक अन्य संग्रहालय का जिक्र करते हैं। वास्तव में जिसे अब संग्रहालय के रूप में प्रदर्शित किया जा रहा है, वह लड़कियों की पाठशाला हुआ करती थी। पॉल पॉट के शासन काल में इसे यातनागृह का रुतबा हासिल था। कक्षाएँ, यातनाकक्षों में बदल दी गई थीं। अब इतिहास में की गई क्रूरता के निशान शेष हैं, चीत्कारें टूटती-बिखरती ध्वनियों के साथ हवा में उपस्थित हैं। फिर एक संग्रहालय की चर्चा करते हुए भीष्म साहनी लिखते हैं कि ‘यदि पॉल पॉट जैसे शासक किसी देश को मिलें तो उस देश में संग्रहालय-ही-संग्रहालय देखने को मिला करेंगे।’ विडम्बनाओं से भरी इस नगरी के जिस एक अन्य संग्रहालय का जिक्र साहनी करते हैं, वह भिन्न है। संग्रहालय में बुद्ध की सोने से निर्मित खड़ी मूर्ति है। जिस देश में यातना के चिह्नों वाले संग्रहालय हों, वहाँ बुद्ध की मूर्ति, मानो सौम्यतापूर्वक दर्शकों-पर्यटकों से यह पूछती हुई शान्त खड़ी है कि- ‘देख आए अपनी सभ्यता के अवशेष? क्या मुझे भी अवशेष मान कर ही देखने आए हो?’ यह आत्मकथा लेखक की विशेषता है कि वह संरचना के भीतर देखता है, अपनी स्थिति और मनुष्य-कर्म को देखता है। साहनी इतिहास-लेखक होते तो संरचना के बाहर, मूर्ति-निर्माण शैली आदि देखते, लेकिन वह आत्मकथा-लेखक हैं, आत्मकथा-लेखक की संवेदना उन्हें भीतर तक मथती है, सभ्यता-समीक्षा करने की दृष्टि देती है। 


एक आत्मकथा-लेखक अपनी पक्षधरता स्पष्ट कर सकता है। साहनी ने भी किया है। साहनी की पक्षधरता मनुष्यता के पक्ष में है, किसी भी क्रूरता के खिलाफ। देश बँटवारे के बाद पत्रकारिता करने वाले साहनी ने ‘आज के अतीत’ में उन संघर्षों को भी याद किया है, जिनसे जूझ कर वे आगे की ओर बढ़ते गए। इप्टा नाटक मंडली में काम, बम्बई में बेकारी, अम्बाला में तथा अमृतसर में अध्यापन, फिर दिल्ली विश्वविद्यालय के जाकिर हुसैन कॉलेज में साहित्य के प्राध्यापन के दौरान के खट्टे-मीठे अनुभवों को बिना किसी दुराव-छुपाव के उन्होंने प्रकट किया है। अपनी आत्मकथा में उन्होंने मास्को में बिताये गए दिनों, लगभग दो दर्जन रूसी पुस्तकों के किए गए अनुवाद, तकरीबन ढाई साल ‘नई कहानियाँ’ के सौजन्य-सम्पादन, प्रगतिशील लेखक संघ और अफ्रो-एशियाई लेखक संघ से अपने सम्बन्धों आदि के हर पक्ष को उन्होंने उद्घाटित किया है। भाई बलराज साहनी से अपने गहरे सम्बन्धों की पोटली, वह बार-बार पाठकों के सामने खोलते हैं। वह रेखांकित करते हैं कि कॉलेज की हॉकी टीम के सदस्य बने, फिर हॉकी खेलना छोड़ दिया, बड़े भाई बलराज साहनी की नीयत पर कॉलेज बोट क्लब के अध्यक्ष प्रो. मैथाई द्वारा शक किए जाने पर बलराज साहनी ने बोट क्लब से इस्तीफा दिया और भाई के पदचिह्नों पर चलते हुए भीष्म साहनी ने हॉकी टीम से इस्तीफा दिया। पर ग़ालिब का शेर है न कि 


‘गालिब छुटी शराब पर अब भी कभी-कभी

पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में।’ 


ग़ालिब कहते हैं कि अब उन्होंने शराब पीना छोड़ दिया है। लेकिन कभी-कभी जब आसमान में बादल छा जाते हैं या जिस रात चाँद अपने पूरे शबाब पर होता है तो पी लिया करता हूँ। भीष्म साहनी लिखते हैं- ‘‘आज भी कभी-कभी नींद में अपने को सपने में हॉकी खेलते देखता हूँ। इतना बढ़िया खेलता हूँ कि सपने में स्वयं ही अश-अश कर उठता हूँ। ऐसे दाँव खेलता हूँ कि ध्यान चन्द क्या खेलता रहा होगा’’ (पृ. 83)। 


रवीन्द्र नाथ टैगोर, महात्मा गाँधी, जवाहर लाल नेहरू, मुंशी दया नारायण निगम आदि से अपनी मुलाकातों का जिक्र करनेबीवाले भीष्म साहनी ने अपनी तमाम कृतियों, मसलन- 'तमस', 'हानूश', 'क​बीरा खड़ा बाज़ार में', 'माधवी', 'मय्यादास की माड़ी' आदि की रचना-प्रक्रिया अत्यन्त सरल अन्दाज में पाठकों से साझा करते हैं और पाठकों को सब कुछ बता देना चाहते हैं, बता देते हैं। इस कदर वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी पाठकों से जुड़ते हैं और जोड़ते हैं। सब कुछ कह चुकने के बाद महाकवि निराला ने ‘सरोज स्मृति’ के अन्त में कहा था-


‘दुख ही जीवन की कथा रही

क्या कहूँ आज जो नहीं कही?’ 


साहनी सब कुछ कह चुकने के बाद अन्त में कहते हैं- ‘‘जिन्दगी से कुछ हासिल कर पाने की अपेक्षाएँ तो अब दिल में नहीं उठतीं, वे दिन तो बीत गए, पर जीवन प्रवाह पर, चलती सड़क पर हमारी आँखें लगीं रहें यह उत्कट इच्छा बनी रहती है। यादों का सिलसिला तो कभी खत्म नहीं होता, पर जिंदगी की रफ़्तार धीमी पड़ गई है।’’ फिर भी वह दम लगा कर ​के जिंदगी के अखाड़े में बने रहना चाहते हैं-‘क्या खोया, क्या पाया, इसका भी लेखा-जोखा करता रहूँगा, अपने भाग्य को सराहता-कोसता भी रहूँगा, साथियों-सहकर्मियों के साथ उलझता भी रहूँगा, ताकि किसी-न-किसी तरह जिन्दगी के अखाड़े में बना रहूँ। ऐसा ही मन करता है’’ (पृ. 311)। इस कदर जिन्दगी के अखाड़े में बने रहने की चाहत साहनी को सहज बनाए रखती है और उनकी आत्मकथा को आम आदमीपन की संवेदना से लैस किए रखती है।






सम्पर्क 


मोबाइल : 9955971358

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