राजेन्द्र शर्मा का आलेख 'एक गजल से नवाज देवबंदी के मुरीद हो गये थे जगजीत सिंह'

 

जगजीत सिंह 


जगजीत सिंह के नाम से भला कौन ऐसा होगा जो वाकिफ नहीं होगा। उनकी मखमली आवाज़ किसी का भी मन मोहने के लिए पर्याप्त थी। जगजीत सिंह जितने ख्यात गजलकार थे, उतने ही विनम्र व्यक्ति और उसूलों के पक्के व्यक्ति भी थे। युवा शायर नवाज देवबंदी की एक गजल उन्हें इतनी प्रिय लगी कि उन्होंने उसे बिना पूछे ही अपनी आवाज में कंपोज कर दिया। लेकिन जब एच एम वी के एल्बम के लिए इस गजल को देने की बात आई, तब जगजीत सिंह ने उस समय के अनाम से शायर नवाज देवबंदी से इजाज़त मांगी। देवबंदी पहले ही कव्वाल अज़ीज़ नाजॉ को अपनी इस गजल के लिए जुबान दे चुके थे। खैर जब उन्होंने अज़ीज़ नाजॉ से इस सन्दर्भ में जब बात की तो उन्होंने सहज ही अपना प्रस्ताव खारिज करते हुए यह गजल जगजीत सिंह की आवाज में जाने की सहमति दे दी। तो ऐसे सहज और विनम्र व्यक्ति थे जगजीत सिंह। आज आठ फरवरी को उनके जन्मदिन पर 'पहली बार' विशेष तौर पर उनकी स्मृति को नमन कर रहा है। इस विशेष मौके के लिए कवि राजेन्द्र शर्मा ने एक आलेख लिखा है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं राजेन्द्र शर्मा का आलेख 'एक गजल से नवाज देवबंदी के मुरीद हो गये थे जगजीत सिंह'।



जगजीत सिंह के जन्मदिन पर विशेष


'एक गजल से नवाज देवबंदी के मुरीद हो गये थे जगजीत सिंह'


राजेंद्र शर्मा


क़िस्सा लगभग चालीस साल पहले का है। मुम्बई तब बुम्बई थी, हाजी मस्तान का दौर था, टी वी चैनल नहीं थे, तब दूरदर्शन ही था जो 'हम लोग', 'नीम का पेड़', 'बुनियाद' जैसे सार्थक सीरियल बना रहा था। ऐसे ख़ुशगवार दिनों में हाजी मस्तान ने डॉ. मलिक जादा मंजूर अहमद, जो लखनऊ यूनिवर्सिटी में उर्दू के हैड आफ दी डिपार्टमेंट के साथ अंग्रेज़ी के विद्वान के रूप में ख्‍यात थे और मुशायरों के संचालन के उस्ताद माने जाते थे, को एक बेहतरीन मुशायरे का आयोजन बुम्बई के धोबी तालाब पर करने की ज़िम्मेदारी सौंपी।


हाजी मस्तान मुशायरा करा रहे थे, लिहाज़ा पैसे की क़िल्लत नहीं थी लेकिन डा. मलिक जादा मंजूर अहमद साहब की दिक़्क़त यह थी कि हाजी मस्तान हिंदुस्तान के बड़े से बड़े शायर की उपस्थिति के साथ उन जवान और नये शायरों की भी मुशायरे में शिरकत चाहते थे, जिनके कंधों पर अगले पचास बरसों में हिंदुस्तानी शायरी का दारोमदार होगा।


दिक़्क़तों का निदान करना मंजूर साहब को आता था। दूर दूर तक नज़रदौड़ाई, शायरो को बुलावा भेजा। धोबी तालाब पर मुशायरा हुआ। उस दौर के मुशायरो के तमाम जगमगाते शायर अली सरदार जाफ़री, कैफी आज़मी, हसरत जयपुरी, खुमार बाराबंकवी, वसीम बरेलवी, बशीर बद्र के साथ दुबला पतला सा, चश्मा लगाये सफ़ेद कुर्ते पाजामे में बेहद संजीदा सा एक नौजवान शायर भी मुशायरे में शिरकत कर रहा था। जूनियर था, लिहाज़ा मुशायरो की परम्परा के अनुसार उसे अपना कलाम पढ़ने के लिये दूसरे नंबर पर आवाज़ दी गयी। नौजवान शायर ने डाईज सँभाला और अपने कुछ शेरों से माहौल को बांधते हुए ग़ज़ल सुनाई -


वो रूला कर हंस न पाया देर तक,

जब मै रो कर मुस्कराया देर तक।

भूलना चाहा कभी उसको अगर,

और भी वो याद आया देर तक।

खुद-ब-खुद बेसाख्ता मैं हंस पड़ा

उसने इस दर्जा रूलाया देर तक।

भूखे बच्चों की तसल्ली के लिये

माँ ने फिर पानी पकाया देर तक।

गुनगुनाता जा रहा था एक फ़क़ीर

धूप रहती है ना साया देर तक।

कल अंधेरी रात में मेरी तरहा

एक जुगनू जगमगाया देर तक।


नवाज़ देवबंदी 


पंडाल में तालियाँ ही तालियाँ। हैरत की बात यह कि श्रोताओं में पहली क़तार में बतौर श्रोता अभिनेता दिलीप कुमार, धर्मेन्द्र, बलराज साहनी, प्राण, ओम प्रकाश, महमूद विराजमान थे जो खालिस एक्टर कभी नहीं रहे, अपनी बेहतरीन फ़नकारी के अलावे अदब के प्रति गहरे लगाव के लिये भी जाने जाते रहे। बेहिसाब तालियाँ बयां कर रही थी कि इस नौजवान शायर ने मुशायरा लूट लिया है। उस मुशायरे को लूटने वाले और उम्र के साथ अपने तजुरबें के दम पर सात समंदर पार तक अपनी शायरी से मुशायरे को रोशन करने वाले मक़बूल शायर थे जनाब नवाज़ देवबंदी।


मुशायरा ख़त्म होने पर नवाज़ साहब जैसे ही मंच से उतरे, एक श्रोता जो उस समय शराब के नशे में धुत्त थे, ने नवाज़ साहब को घेर लिया। वाह, वाह, वाह... फ़रमाते हुए कहा कि मैं इस ग़ज़ल को कंपोज़ करूँगा, बस आप इजाज़त दे दीजिये। देवबंद जैसे छोटे क़स्बे का यह नौजवान शायर वक्त की धड़कनों को बखूबी समझना सीख गया था। जनाब की हालत को देख संजीदगी से कहा कि इस समय थका हुआ हूँ, आँखों में नींद पसरी है, इस समय क्या कहूँ।


वह जनाब तो नवाज़ साहब की ग़ज़ल के दीवाने हो चुके थे, कहा कि कहाँ ठहरे हैं? 


साहिल होटल। 


ठीक है, कल सुबह मिलते है।


भोर होने तक नवाज़ साहब बिस्तर के आग़ोश में पहुँचे। ज़ाहिरा तौर पर सुबह देर तक सोये। साहिल होटल के जिस कमरे में ठहरे थे, ग्यारह बजे उसकी बेल बजी। दरवाज़ा खोला तो वही जनाब सामने खड़े थे जो मुशायरा ख़त्म होने के बाद मिले थे। जनाब का स्वागत किया। फ़रमाया कि आप मुझे जानते है? जवाब मिला कि नहीं। तब जनाब ने फ़रमाया कि “मैं क़व्वाल अज़ीज़ नाजॉ हॅू। आपकी ग़ज़ल ने दिल जीत लिया। इसे कंपोज़ करना चाहता हूँ, बस आपकी मंज़ूरी चाहिए।” उस समय क़व्वाल अज़ीज़ नाजॉ अपनी गायी कव्‍वाली 'झूम बराबर झूम शराबी' से खासे चर्चा में थे। नौजवान शायर के लिये बुम्बई मुशायरे का इससे बड़ा ईनाम क्या हो सकता था कि उस दौर के नामचीन क़व्वाल उसकी ग़ज़ल को कंपोज करने की मंज़ूरी चाहें। मंज़ूरी दे दी गयी, मंज़ूरी पा कर अज़ीज़ नाजॉ इतने खुश कि नवाज़ देवबंदी साहब को अपने घर ले गये। दोपहर का भोजन अपने दौलतखाने पर कराया।


अजीज़ नाजॉ


नवाज़ साहब इस खुशी के साथ देवबंद वापिस लौटे कि उनके लिक्खे को इतने बड़े क़व्वाल ने सर माथे लिया है। क़व्वाल अज़ीज़ नाजॉ की कंपोजिंग का इंतज़ार हो ही रहा था कि एक दिन 'मुस्लिम फंड ट्रस्ट, देवबंद', जहां नवाज देवबंदी साहब मुलाजिम थे, के लैंडलाइन टेलीफोन की घंटी बजी। फ़ोन रिसीव किया गया तो उधर से आवाज़ आई कि नवाज देवबंदी साहब से बात करनी है। फ़ोन का चोगा नवाज़ साहब के सुपुर्द किये जाने पर आवाज आई कि “मैं जगजीत बोल रहा हूँ, आपने जो ग़ज़ल बुम्बई मुशायरे में सुनाई थी, वह मेरे पास है, एच. एम. वी. से मेरा नया एल्बम आ रहा है, उसमें इस ग़ज़ल को शामिल करना चाहता हूँ, आपकी मंज़ूरी की ज़रूरत है।" नवाज़ साहब सपकपाये। जगजीत सिंह कंपोज़ करने की मंज़ूरी माँग रहे हैं जब कि इस ग़ज़ल को कंपोज़ करने की मंज़ूरी वह पहले ही क़व्वाल अज़ीज़ नाजॉ को दे चुके है, क्या किया जाए। विनम्रता से जबाब दिया कि इस ग़ज़ल को कंपोज़ करने की मंज़ूरी वह पहले ही किसी को दे चुके हैं। 


जगजीत सिंह अवाक, फिर जोर दे कर कहा कि “मैं ग़ज़ल सिंगर जगजीत सिंह बोल रहा हूँ।" 


जी, मैं समझ रहा हूँ। पर जिस गजल की बात आप कर रहे है, उसे कंपोज़ करने की ज़ुबान किसी ओर को दे चुका हूँ। 


उधर से फिर आवाज़ आई कि “नवाज़ साहब, ये ग़ज़ल इतनी ख़ूबसूरत है कि मैं इसे कंपोज़ कर चुका हूँ, एच. एम. वी. को नये अल्बम के लिये दे चुका हूँ, ज़रूरी औपचारिकता के लिए आपकी लिखित मंज़ूरी की ज़रूरत है।”


सदी का महान ग़ज़ल सिंगर एक नौजवान शायर से याचक की मुद्रा में बात कर रहा हो, इससे हसीं लम्हा देवबंद जैसे छोटे से क़स्बे के नौजवान शायर के लिये क्या हो सकता है, पर किया क्‍या जाये। शायर नवाज़ को बुलंदियों तक पहुँचने के लिये उसूलों से किनारा करना गवारा नहीं, उसूल ही नहीं तो काहे की शायरी। अपने आप को सँभालते हुए जवाब दिया कि एक-दो दिन का समय दीजिये, कोशिश करता हूँ।


अगले दिन नवाज़ साहब ने सारा क़िस्सा क़व्वाल अज़ीज़ नाजॉ को बताया। अज़ीज़ नाजॉ ने सारी बात समझी। कमाल का बड़ा इंसान। नवाज़ साहब को जबाब दिया कि “आपने दिल पर छा जाने वाली गजल लिखी है, इसे जितना बेहतर एक ग़ज़ल सिंगर गा सकता है उतना क़व्वाल नहीं, आप मुझे दी गयी मंज़ूरी को ख़ारिज करते हुए जगजीत सिंह को मंज़ूरी दे दीजिये।" अदब की दुनिया में इतने बड़े दिल के लोग भी हुआ करते थे, ताज्जुब होता है।


बहरहाल, क़व्वाल अज़ीज़ नाजॉ की सलाह मान जगजीत सिंह को टेलीफोन पर मंज़ूरी दे दी गयी। इस जिज्ञासा के साथ कि आप तो बुम्बई मुशायरे में आये नहीं थे तब यह ग़ज़ल आप तक कैसे पहुँची। जगजीत सिंह ने जिज्ञासा का समाधान करते हुए बताया कि “उनकी एक कोर टीम है, जो मैं क्या गाऊँ, इस पर सलाह देती है। इसी कोर टीम में मशहूर क़व्वाल अख़्तर आजाद भी हैं जिन्होंने बुम्बई मुशायरे में आपकी यह ग़ज़ल सुनी, नोट की और मुझे बताया कि देवबंद के नौजवान शायर की यह ग़ज़ल है। ग़ज़ल मैंने पढ़ी और मैं आपका आशिक हो गया।”


टेलीफोन पर हुई बातचीत के बाद जगजीत सिंह ने मंज़ूरी की लिखित औपचारिकता का निर्वाह करते हुए पेपर्स भिजवाये, जिन्हें साईन कर भेजा गया। एच. एम. वी. से लाँच किये गये जगजीत सिंह के अल्बम 'क्राई फार क्राई' में इस बेहतरीन ग़ज़ल को जगजीत सिंह ने अपनी सुरमई आवाज़ बख्शी, जिसे ग़ज़ल के दीवाने आज चालीस बरस बाद भी गुनगुनाते हैं।


इसके बाद तो नवाज़ देवबंदी की अनेक ग़ज़लों को जगजीत सिंह के स्वर से नवाजने का लंबा सिलसिला है। इस प्रसंग से यह तय कर पाना बहुत मुश्‍किल है कि अदब की दुनिया के तीन सितारे नवाज़ देवबंदी, क़व्वाल अज़ीज़ नाजॉ और सदी के बेहतरीन ग़ज़ल सिंगर जगजीत सिंह में से ज़्यादा उसूलदारी किसने निभाई।


राजेन्द्र शर्मा 


लेखक राजेन्‍द्र शर्मा उत्‍तर प्रदेश वाणि‍ज्‍य कर विभाग में वाणि‍ज्‍य कर अधिकारी के पद पर मुजफफरनगर में कार्यरत हैं। नौकरी में आने से पूर्व वर्ष 1984 से 1986 तक नवभारत टाईम्‍स, जनसत्‍ता, दिनमान के लिए पत्रकारिता। कला और संगीत में रुचि। कला और संगीत विषयक लेख विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।



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टिप्पणियाँ

  1. ज़िन्दाबाद
    क्या कहें आंख भर आई
    मीर का एक शेर ही मौज़ू है
    मत सहल हमें जानो फिरता है फलक बरसों
    तब ख़ाक के परदे हे इंसान निकलते हैं।
    ये वही लोग थे।

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  2. बहुत खूब। नवाज़ देवबंदी साहब के बारे में और जानने का मौका मिला।

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