शर्मिला जालान की कहानी 'प्रेम कथा में प्रेम कथा की भूमिका'
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शर्मिला जालान |
प्रेम वह गहनतम अनुभूति है जो सही मायने में इंसान को इंसान बनाती है। यह दुनिया का सबसे खूबसूरत चेहरा है। दुनिया में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जब प्रेम के लिए कई लोगों ने पद प्रतिष्ठा तक को ठुकराने में तनिक भी देर न लगाई। ढाई आखर का यह प्रेम सचमुच अनूठा है। यह जबरन नहीं उपजता बल्कि खुद ब खुद हो जाता है। और एक बार जब कोई प्रेम में पड़ जाता है तो फिर अपने प्रेमी या प्रेमिका के साथ एकाकार हो जाता है। वह कुछ भी करने के लिए उद्यत हो जाता है। चौदह फरवरी हरेक वर्ष दुनिया भर में 'वेलेंटाइन डे' के रूप में मनाया जाता है। वस्तुतः यह प्रेम दिवस के रूप में मनाया जाता है। आज जब दुनिया भर में चारो तरफ नफरत और घृणा का आलम है तब प्रेम की उपादेयता समझ में आती है। इस विशेष अवसर पर आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं शर्मिला जालान की कहानी 'प्रेम कथा में प्रेम कथा की भूमिका'। यह कहानी 'बनमाली कथा' पत्रिका के हालिया अंक में प्रकाशित हुई है।
'प्रेम कथा में प्रेम कथा की भूमिका'
शर्मिला जालान
दक्षिण कोलकाता के उस इलाके में एक बस्ती हुआ करती थी। यह बस्ती मुख्य सड़क से दिखाई नहीं देती थी और ना ही गली में प्रवेश करते ही फैली-गंधाती, बिखरी-पसरी और दिन-रात पनपती-पसरती मौजूद नजर आती थी। यह बस्ती तो एक सँकरी गली के अंदर जाने के बाद खुलती थी। जहाँ दोनों तरफ एक-दूसरे से सटे छोटे-छोटे कमरे में लोग रहा करते थे।
उन दिनों उस बस्ती में तेरह बंगाली और बिहारी परिवार हुआ करते थे। जिनमें पुरुष प्रायः दर्जी, ड्राइवर, घरेलू सहायक आदि पेशे से जुड़े हुए थे तो महिलाएँ झाड़–पोंछ, आयरन और चौका-बर्तन का काम आस-पास के इलाकों रिची रोड, गरचा रोड पांडित्य में करती थीं। कुछ साल पहले इस बस्ती से चार परिवार, जिनकी आय बढ़ गई, टॉलीगंज और हावड़ा चले गए। फिर धीरे-धीरे और भी परिवार निकल गए। उन कमरों में बांग्लादेश से आए परिवार रहने लगे और आस-पास के घरों में काम करने लगे।
यह कहानी उन तेरह परिवारों में से एक की है और हर परिवार की कथा अमूमन कुछ ऐसी ही करवट लेती है। कभी छटांक भर कम, तो कभी ज्यादा।
एक घर इस बस्ती में ऐसा था जहाँ के कपाट पर मनीप्लांट बंदरवार की तरह फैला–सजा रहता था। घर में प्रवेश करने पर एक ऊँची खाट पर लाल रंग का चादर डाला हुआ रहता और सामने एक तिपाई पर टेलीविजन चलता दिखाई-सुनाई पड़ता था। छोटी सी रसोई उस कमरे से सट कर थी, जिससे अभी पकी मसूर दाल की गंध हवा में फैली रहती। खिड़की के पास तुलसी का छोटा गमला सजा रहता। ऐसा साफ-सुथरा घर की कोई आए तो वहां से जाना ही नहीं चाहे। यह घर जानकी का था। उसे लोग माँ जी कह कर पुकारते।
आज से कोई पंद्रह साल पहले माँ जी अपने घर से निकल मध्यवर्गीय इलाके में गायत्री भाभी के यहाँ काम करने आई थी। उनके कूबड़ था और पीठ झुकी हुई। भाभी ने उन्हें देख सोचा – ‘क्या काम करेगी!’ पर उनकी सहेली सुलोचना ने कहा – “बहुत अच्छा बर्तन माँजती हैं। स्टील के बर्तन को चांदी की तरह चमका देती हैं।” भाभी ने रख लिया। पूरे पांच साल माँ जी ने काम किया। फिर काम छोड़ दिया। उसके बाद वे नहीं रहीं।
माँ जी के नहीं रहने के बाद उनकी छोटी बेटी मिष्टी कभी-कभार भाभी से मिलने आती थी। मिष्टी को माँ जी ने कभी भी काम पर नहीं भेजा।
एक दिन भाभी के यहाँ भोजन पकाने वाली मिनती ने बताया, “भाभी, मैंने मिष्टी को ‘मोहन सुनार शॉप’ पर देखा है।” भाभी चौंकी। “कुछ दिन पहले तो वह मुझ से पैसे ले कर गई थी, कह रही थी कि उसका पति गिर गया है, चोट लग गई है, उठ नहीं सकता, खाने और घर भाड़े के लिए पैसे नहीं हैं और वह सुनार की दुकान पर घूम रही है!”
मिनती ने कहा, “भाभी वह परेशान थीं। नाइटी में थी!... नाइटी में सुनार की दुकान पर क्या कर रही थी? यह उसकी ख़राब आदत है नाइटी में पूरे दिन रहने की।” भाभी अपने काम में व्यस्त हो गईं। दो दिन बाद, मिनती ने फिर बताया, “भाभी, मिष्टी आज भी शॉप पर थी।”
“क्या हुआ उसे? नाइटी में वह रोज-रोज सुनार की दुकान पर क्यों जाती है?”
“भाभी, आज तो वह सलवार-कमीज में थी। कुछ बेचने आई थी। मुझे अपने घर ले गई। उसके साथ एक हादसा हो गया।”
“क्या हो गया?” भाभी ने पूछा।
“भाभी, उसका पति... दिलीप दा...”
“हाँ, बोलो ना, क्या हुआ उसको?” भाभी ने जल्दी से पूछा।
“उसका पति अब... उसका पति नहीं रहा।”
“क्या हुआ! दिलीप दा... उसने उसकी सहेली को सिंदूर पहना दिया है।”
“सिंदूर पहना दिया? किसको?” भाभी हैरान रह गईं।
“अरे भाभी, वही बेला... नाटी और मोटी। डमरू जैसी। जो मिष्टी की सहेली थी। उसने दुर्गा पूजा के दिन उसकी माँग में सिंदूर भर कर घुमाया।”
“क्या बोल रही हो, मिनती? मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा।”
“हाँ, भाभी, मैं भी बहुत डर गई हूँ। मिष्टी कह रही थी कि उसने उससे शादी कर ली है। अब उसका क्या होगा? कैसा उजाड़ उसके जीवन में आ गया।”
“ओह! दिलीप दा ने ऐसा किया! उसके कारण मिष्टी ने अपनी बहनों-भाइयों और भाभी से झगड़ा कर लिया। पूरा परिवार उससे विमुख है।”
भाभी कहीं खो गईं, मिनती को बताया, “तुम नहीं जानती मिष्टी को, मैं पिछले पंद्रह वर्षों से उसे जानती हूँ। जब हम इस इलाके में आए, उसकी माँ ने हमारे घर में चौका-बर्तन किया। वह काम तो धीरे-धीरे करती थी पर चाँदी की तरह चमका देती थी बर्तनों को। झुक कर चलती थी, मेरे घर में किसी सामान को देख उनका मन होता कि उसके घर में भी वह चीज़ आनी चाहिए। अक्सर मुझे कहती, ‘भाभी, यह साड़ी मुझे दो। भाभी, यह चादर भी।’ मुझे बुरा नहीं लगता था। मैंने उसको बहुत सारी साड़ियाँ, और बहुत चीजें दीं। ऐसे ही मिष्टी भी थी, मुझसे चीजें माँगती, मैं दे देती।”
“पर मैं दूसरी बात बोलने वाली थी। बात यह थी कि मिष्टी को एक बार कोई बीमारी हुई और जानकी ने उसका ऑपरेशन करवाया। हार्ट का ऑपरेशन हुआ, बड़ी बीमारी, ऐसा जानकी हमेशा बताती। मैंने जानकी से कई बार कहा, ‘मिष्टी को मेरे यहाँ काम पर रखवाओ,’ पर वह हमेशा कहती, ‘नहीं भाभी, वह काम नहीं कर सकेगी।’ मिष्टी की माँ ने अपनी बेटी को हमेशा हथेलियों पर रखा, जैसे पान के पत्ते पर रखना होता है, हिफाज़त से।”
“अपनी तीनों बेटियों की शादी देख चुकी थी जानकी, बस मिष्टी की शादी का डर था कि उससे शादी कौन करेगा! मिष्टी हमेशा अपने ननिहाल बैरकपुर जाती थी। वहाँ पर, पड़ोस में एक दरजी था। दिलीप दा। मिष्टी अक्सर उसे देखती रहती थी, वह भी उसे देखता था। साल भर बाद मिष्टी ने कहा, ‘माँ, मुझे उससे ब्याह करना है।’ जानकी ने दिलीप दा को अकेले में कहा, ‘मिष्टी माँ नहीं बन सकेगी, उसका हार्ट का बड़ा ऑपरेशन हुआ है और उसे देख-रेख में रखना होगा। मेरी बेटी को व्याधि है।’ दिलीप दा ने कहा, ‘मैं उसके बिना रह नहीं सकता। आप फिक्र न करें। मिष्टी को कुछ नहीं हुआ है। वह बहुत सुंदर है, बिल्कुल स्वस्थ!’ दोनों ने शादी कर ली। शादी के बाद जानकी अपने घर में मिष्टी और बैरकपुर में रहने वाले जमाई को भी ले आई। उस घर में जो उसके पति ने आज से चालीस साल पहले भाड़े पर लिया था और जानकी चौका-बर्तन करके उसका भाड़ा चुकाती थी।”
“मिष्टी शादी से पहले बहुत झगड़ा करती थी, शादी के बाद उसने कलह छोड़ दी। अब वह खूब साज-सिंगार करने लगी, साफ-सुथरी रहने लगी, एकदम नई लगने लगी।”
“मैं अक्सर जब हाजरा रोड की तरफ जाती, देखती कि वहाँ पर कई औरतें वट वृक्ष के नीचे पूजा करती दिखाई देतीं। वे औरतें व्रत रखतीं, मंदिर में कीर्तन-आरती करतीं। मिष्टी भी उनमें पीली साड़ी पहने, अलता लगाए, नाक से माँग तक नारंगी रंग का सिंदूर भरे हुए दिखाई देती। मैं मिष्टी को दूर से देखती, मुझे अच्छा लगता कि चलो संसार बस गया। इस संसार को बसाने के पीछे और भी कथा है। जब मैं कहती हूँ ‘और भी कथा है’, तो मिनती, तुम जानती नहीं हो जानकी ने क्या-क्या सहा है।”
“जब अपने जमाई को जानकी अपने घर में ले आईं, तो उसकी दो बड़ी बेटियाँ और उनके पति जानकी से झगड़ा करने लगे। बोले, ‘तुमने अपना घर इसके नाम कर दिया, इसमें हमारा भी हिस्सा है।’ जानकी ने कहा, ‘तुम लोगों का घर बस गया है, तुम अपने-अपने घर में खुश रहो। मिष्टी को कौन देखेगा? वह बेचारी रोग से घिरी हुई है। कोई तो हाथ पकड़ने वाला मिला।’ जानकी और उनकी दूसरी बेटियों और दामाद में काफी झगड़ा हुआ और हाथापाई भी हुई और जानकी गिर पड़ीं। उसको हार्ट अटैक आ गया और एक दिन शिशुमंगल अस्पताल में रहने के बाद वह चल बसी। जानकी ने मरते हुए अपने दिलीप दा से बोला, ‘मिष्टी को छोड़ना मत। साथ निभाना। उसके साथ कोई नहीं है।’ दिलीप दा ने माँ जी को वचन दिया, ‘माँ, मिष्टी की चिंता मत करना, मैं हूँ ना।”
“जानकी के देहांत के बाद मिष्टी की कोई खबर मुझे नहीं मिली। एक दिन अचानक शाम के समय वह आई और उसने कहा, ‘भाभी, माँ का दो दिन के बाद श्राद्ध है, मुझे कुछ पैसे देना।’ मैंने कहा, ‘ज़रूर।’ मुझे वह खुश लगी। मैंने उससे कहा, ‘कभी-कभी आया करो।’ फिर वह कभी-कभी आने लगी।
अक्सर आती तो मैं उससे कहती, ‘मेरे बर्तन माँज दो।’ वह बर्तन माँज कर कुछ देर बैठती और चली जाती। इस तरह दो-तीन साल निकल गए। फिर एक दिन उसने कहा, ‘भाभी, अगर आप मुझे काम पर रखें तो मैं रह लूंगी।’
मैंने कहा, ‘तुम्हारी माँ ने तुम्हें कभी भी काम पर नहीं रखवाया। हो सकता है तीन-चार दिन तुम कर लो, लेकिन फिर पांचवें दिन बैठ जाओ। इससे अच्छा है कभी-कभी जब मुझे ज़रूरत पड़े तब आ कर कर दिया करो, तुम्हें कुछ पैसे मिल जाया करेंगे।’ वह खुश हो गई।
मैंने उसे अपने पुराने कपड़े दिए। वह और उसकी माँ दोनों कपड़ों और सामान बहुत एहतियात से रखती थीं। मेरे दिए कपड़े जब वह पहन कर आती तो लगता था कि वे नए हो गए हैं, उनकी उम्र बढ़ गई है। मैंने उसकी और बहनों को तो नहीं देखा, लेकिन जानकी और मिष्टी दोनों में समान को सहेजने का अद्भुत गुण था।
दिवाली के दिन नजदीक आने वाले थे, गायत्री भाभी को अपने घर की सफाई करनी थी। भाभी ने मिनती से कहा, ‘अपनी बहन को भेज देना, रसोई की सफाई करवानी है।’ सफाई का काम होने लगा। इसी बीच एक दिन मिनती बोली, ‘भाभी, मिष्टी फिर मिली थी। कह रही थी वह आपके पास आएगी।’
“अच्छा!”
मिनती बोली, “कोई एक दो दिन पहले हाजरा रोड पर मिल गई और मुझे पकड़ कर अपने घर ले गई। चाय और मैरी बिस्कुट दिया और बोली, ‘शाम को अकेली बोर हो जाती हूँ, जानती तो हो कि मैं ज्यादा काम नहीं कर पाती और इस बस्ती में ज्यादा लोगों से मिलती-जुलती भी नहीं हूं। आजकल बस्ती के तीन परिवार यहाँ से निकल गए हैं। कोई टॉलीगंज चला गया, कोई हावड़ा, तो कोई बैरकपुर। तेरह परिवारों की यह बस्ती धीरे-धीरे खाली हो गई है और मैं जिन लोगों को जानती थी उनमें बुजुर्ग महिलाएँ एक-दो नहीं रहीं और बेटियाँ ब्याह कर दूसरे घर चली गईं। जो नए बच्चे हैं, स्कूल चले जाते हैं, और बहुएं भी काम पर निकल जाती हैं। यहाँ बिहारी और बंगाली मिले-जुले परिवार हैं।
जब से मैंने दिलीप से ब्याह किया है, मेरे परिवार के लोग अब मुझसे बात नहीं करते। मैं अकेली शाम को बैठी रहती थी। पड़ोस में अपनी मौसी के पास रहने वाली एक औरत बेला को भी अकेले बैठे हुए देखती। वह भी मुझे देखती। फिर मैंने एक दिन उसे बुला लिया और हम बातें करने लगे। कब शाम के पाँच से आठ बज गए, मुझे नहीं पता। मेरा मन लग गया। फिर मैं कभी-कभी बेला को बुला लेती थी, कभी-कभी बेला खुद ही आ जाती थी। कभी दिलीप भी आ जाता। कभी बेला खाना बना देती। इस तरह धीरे-धीरे दिन कट रहा था। मेरा पति मछली लाता। मैं नहीं बना पाती, पर बेला माछ भात बहुत अच्छा बनाती थी। फिर मैं बीच में बीमार पड़ गई। दिलीप अस्पताल ले जाता, हर सप्ताह दवा ला कर देता। पर धीरे-धीरे वह बदल गया। एक दिन जब मैंने दवा के लिए दिलीप से पैसे माँगे, तो उसने कहा, “नहीं है।” मुझे कुछ ठीक नहीं लगा। पैसे तो थे, उसने क्यों नहीं दिए? मुझे समझ में आया, वह सारे पैसे तो बेला को देने लगा है। बेला को क्यों देता है! कहता, “तुम तो बीमार रहती हो, तो फिर घर कौन संभालेगा? साग-सब्जी कौन लाएगा? खाना कौन बनाएगा?”
भाभी मिनती की बात सुन बोलीं, “पर कुछ महीने पहले की बात है। मैंने एक दिन फोन किया था मिष्टी को और कहा था, ‘आ जाओ, काम करने। क्या रात में रह सकती हो?’ मिष्टी तैयार हो गई। पर दिलीप दा ने फोन किया और कहा, ‘भाभी को बोलो, मैं नहीं आ सकती। रात में मेरे पांव में मरोड़ होता है। किसी तरह से दिलीप मुझे संभालता है। मैं रात में नहीं रुक पाऊंगी।’ मुझे यह सुन कर अच्छा लगा कि दिलीप दा उसकी इतनी परवाह करता है।
भाभी ने मिनती को यह भी बताया, “जानती हो मिनती, एक बार कुछ महीनों पहले मिष्टी मेरे पास आई थी और फिर रात दस बजे गई। उसके बाद कई महीने तक उसकी कोई खबर नहीं मिली। मैं बीच में दो-तीन बार फोन करती रही। एक दिन दिलीप ने फोन उठाया और कहा, ‘भाभी, अभी आप उसको फोन मत कीजिए। उसको मानसिक बीमारी है। मैं उसे डॉक्टर को दिखा रहा हूं। आप बुलाती हैं, तब वह ना नहीं कह पाती। जब ठीक होगी, तब आएगी।’ फिर पांच महीने के बाद वह आई और कहा, ‘भाभी, कोई काम है तो मैं कर दूंगी।’ मैंने उससे हल्का काम करवाया। बीच में मेरा पुराना घर का सेवक शंकर बीस दिनों के लिए घर चला गया। तब मैंने मिष्टी से कहा, ‘कोई चौका-बर्तन वाली को रखवा दो।’ तो उसने कहा, ‘मेरे पास एक औरत आ कर बैठी रहती है, उसे कहूंगी।’ और वह बेला को लेकर आ गई। बेला ने आना तय कर लिया, पर फिर दूसरे दिन आ कर उसने कहा, ‘भाभी, उसको मत रखना।’ मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया। और अब तुम कह रही हो वह वही औरत है जिससे उसका पति लगा हुआ है।
मिनती, एक दिन मिष्टी मेरे पास आई और काम करने के बाद मैंने कहा, ‘घर चली जाओ।’ तो बोली, ‘मैं नहीं जाऊंगी, मैं थोड़ी देर पार्क में बैठूंगी।’ मैंने कहा, ‘अकेली बैठेगी? इससे अच्छा मेरे पास बैठो।’ वह कई घंटे बैठी रही, पर उसका दिलीप दा लेने के लिए नहीं आया।
आज धनतेरस है। आज एक दीपक की पूजा होगी। माँ लक्ष्मी के सामने चौमुखी दीपक बना कर उसकी पूजा करेंगे और फिर उस दीपक को गेट के बाहर दहलीज पर रख देंगे। उसमें एक कौड़ी डालेंगे, काल भैरव का दीपक। कल रूप चौदस है। शाम माँ लक्ष्मी के सामने सात दीपक की पूजा होगी। भाभी इन बातों को याद कर रही थी, तभी मिष्टी आ गई। मिष्टी ने कहा, “मेरे साथ यह क्या हो गया!” उसने उसे सिंदूर पहना कर दुर्गा पूजा में घुमाया और चला गया। “भाभी, उसने उसे शाखा-पोला पहना दिया, बिछिया और पायल भी पहन ली। भाभी, मैं कहीं की नहीं रही। जानती हो भाभी, उसने घर किराया एक साल से नहीं दिया है। मैं महिला समिति के पास जाना चाहती हूं। मैं क्या करूं?” मिष्टी प्रलाप करने लगी।
“इस दुख का क्या करूं? मेरे ठाकुर किसे पुकारू! कोई नहीं। ठाकुर, मेरे दुख को पार लगाओ। मैं मर जाऊंगी। कौन देगा मेरे मुँह में आग? वही, जो मेरा पति है, जिसने जाना ही नहीं पत्नी क्या होती है। कैसा रहा यह जीवन! दुख ही दुख क्यों नजर आ रहा है? बाहर कैसी धूप तप रही है! सन्नाटा छाया हुआ है। गली में कुत्ते भौंक रहे हैं। नल से पानी के गिरने की आवाज आ रही है। पंखे की आवाज गूंज रही है। दूर कहीं विसर्जन का ढाक बज रहा है।
दिलीप ने कहा था, “कितनी सुंदर दिखती हो। कैसा सुंदर गाती हो। सुबह-सुबह मैं आस-पास घूम आती थी और घूमते हुए भीगी रहती। वह कौन सी बारिश थी जिसमें मैं भीगी रहती थी? वह मेरा रूप-रंग, वह मेरा हंसना, कोई श्रृंगार नहीं, पर ऐसी चमक, मैं अपने में खुश थी। मैं घंटों बैठी रहती थी धूप में। मुझे धूप नहीं लगती थी। मेरी पीठ तप जाती। चेहरा झुलस जाता था। मुझे पीठ की तपन शीतल लगती थी। मुझे चेहरे की झुलसन से लगता था चेहरे की चमक बढ़ गई है। क्यों बैठी हो धूप में, माँ पूछती? मैं क्या बताती माँ को? दिलीप के होने का एहसास होता है। इसलिए यह तपन और धूप मुझे अच्छी लगती है। दिलीप बिना छाया के धूप में कपड़े सिलता था। यही है जीवन। इसको ही जीवन समझा। पर जीवन कुछ और था। छल को नहीं समझा।
अब जीवन में धूप और तपन ही रह गई, मैं झुलस गई। पूरी तरह मर गई। ये कठिन दिन! कितनी कठोर बनी हूं, कितनी पत्थर, मेरे सिवा कौन जानता है।
उसके साथ के दिन कितने छोटे रहे। दिलीप अब एक अजनबी पुरुष है। मतलबी। कठोर। व्यवहारिक इंसान। जो नाप-तोल कर कदम रखता है। समझ-समझ कर बढ़ता है। सोच-सोच कर चलता है। मिष्टी ने अपना जीवन भावनाओं में ही बिताया है। सुख को खोजा। वह सुख आया और जीवन भर की पीड़ा बन गया।
मिष्टी को विकलता ने घेर लिया। जीवन में सिर्फ कुछ ही समय के लिए एक खास दौर में खुशियों को पाया। जैसे फूल ही फूल हैं आस-पास। बगिया महक रही है। चेहरा आलोकित है। ओंठो पर हल्की मुस्कान है। अंदर ही अंदर हंसी है। वह उन दिनों कितनी हल्की थी। पर अब चारों तरफ छल है।
“मैं यह घर छोड़ कर कहीं चली जाऊंगी।”
“कहां चली जाओगी?”
“मुझे नहीं पता। पर मैं कहीं चली जाऊंगी।”
“ऐसे बोलने से होता है क्या? दिवाली के दिन तुम इस तरह की बातें यहां कर रही हो। किसी के नहीं होने से कुछ नहीं होता है, तुम्हें अपने को मजबूत बनाना होगा। तुम मेरा काम करो।”
“भाभी, मुझसे नहीं होगा।”
“नहीं होगा मतलब काम नहीं करोगी? तो क्या उसके इंतज़ार करोगी? वह तुम्हें छोड़ कर जा चुका है। वह अपने मतलब से आएगा अगर आएगा तो। तो तुम क्या ऐसे ही रहोगी, भूखी-प्यासी, बिना नहाए? यह कैसा रूप बना रखा है तुमने? ऐसे जीवन नहीं चलता। चलो, खाना खाओ। मेरे यहाँ काम करो और जा कर नहा लो।”
“भाभी, मुझसे नहीं होगा।”
“तुमसे क्या नहीं होगा? कुछ नहीं होगा, सब कुछ होगा। मैंने कहा, ‘तुम पहले मेरे बर्तन माँज दो।”
भाभी ने उसे अपने यहाँ काम दिया और बोली, “सुबह मेरे पास आ जाना। सुबह से शाम यहाँ रहोगी तो मन लगा रहेगा। खाने-पीने की, पहनने की कोई कमी नहीं होगी। मेरी बात ध्यान रखना, अपने को मारना नहीं है।”
मिष्टी चली गई। भाभी को उम्मीद नहीं थी कि वह दूसरे दिन आएगी, पर वह दूसरे दिन आ गई। दिवाली की पूजा की सामग्री राजवंशी यादव की दुकान से लेने के लिए भाभी मिष्टी को लेंसडाउन मार्केट ले गई। भाभी ने रेशमी वस्त्र, आभूषण, सुपारी, जनेऊ, दीपक आदि सामग्री लिए और मिष्टी को कहा, “मिष्टी, झोला पकड़।” पर वह सुन ही नहीं रही थी। उसके हाथ में सिंदूर कोटा (सिन्दूर दान) था। यह बंगाली शादी में दुल्हन अपने ससुराल जाने तक पकड़े हुए रहती है। भाभी ने मिष्टी को टोका, “क्या हुआ मिष्टी, वहाँ क्यों खड़ी हो?” “नहीं भाभी, कुछ नहीं।” वह बोली, “इस सिंदूर से उसने मेरी माँग भरी है और उस बेला की भी।” भाभी ने उसे डांटा, “यह सब छोड़ो। दिन भर यही सोचती रहोगी तो जिंदगी कैसे कटेगी? चलो, जल्दी करो।” मिष्टी ने घर जा कर अपना सिंदूर कोटा नदी में विसर्जित कर दिया।
बड़ी दिवाली का दिन था। घर में काम ही काम। पूजा घर की सफाई करनी है, दीपक सजाने हैं, दीवाली के व्यंजन बनेंगे, मेहमान आएंगे। मिष्टी काम में लगी रही। मिष्टी का मन लग रहा था। एक के बाद एक दिन बीतते गए। कब भैया दूज आया, कब दिवाली निकल गई, कब छठ पूजा आई। मिष्टी के धीरे-धीरे भाभी के यहाँ आने से उसकी आँख के आँसू सूख गए। वह अपने घर में ताला लगा देती और भाभी के पास आ जाती और पूरे दिन यहीं पर रहती। फिर रात को चली जाती।
भाभी ने कहा, “मेरे यहाँ जो पाती हो उससे घर का किराया चुका देना। अपना घर किसी को मत देना। जिंदगी बहुत बड़ी है, उसे यूं ही मत गंवाना।”
कुछ दिनों के बाद खबर मिली दिलीप दा अपनी दुकान में ही सोता है। बेला को सिंदूर तो डाल दिया पर न तो उसके घर में रहता है और मिष्टी तो पूरे दिन भाभी के यहाँ रहती है, रात घर लौटती है। एक बार वह आया था तो मिष्टी ने उसे घर से निकाल दिया।
दो साल पहले उस बस्ती की जगह को रियल स्टेट के मालिक ने खरीद लिया और आज वहाँ बीस तल्ला इमारत खड़ी है। मिष्टी भाभी के यहाँ रात दिन रहती है। गायत्री भाभी की बहू के बच्चा होने वाला है, वह सब कुछ संभाल रही है। दिलीप दा सिलाई करके इतने पैसे जुगाड़ नहीं कर सका कि अपना कोई घर ले सके तब वह कोलकाता छोड़ बैरकपुर चला गया, वहीं एक कारखाने में मजदूरों के बुशर्ट सिलता है। बेला ने जब देखा कि दो साल के बाद भी दिलीप दा अपनी एक खोली (कमरा) भी नहीं ले सका है तो रहने की भारी दिक्कत के कारण अपने पहले पति के पास लौट गई।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
परिचय
शर्मिला जालान (बोहरा)
कृतियाँ:
उपन्यास:
1. शादी से पेशतर (2001, राजकमल प्रकाशन)
2. उन्नीसवीं बारिश (2022, सेतु प्रकाशन)
कहानी संग्रह:
1. ‘साख’ वाणी प्रकाशन, 2025
2. माँ, मार्च और मृत्यु (2019,सेतु प्रकाशन)
3. राग विराग और अन्य कहानियाँ (2018, वाग्देवी प्रकाशन सेअब सेतु प्रकाशन के पास)
4. ‘बूढ़ा चांद’ (2008, भारतीय ज्ञानपीठ से, अब वाणी प्रकाशन के पास)
उपलब्धियाँ:
“बूढ़ा चांद” पर बार मुंबई, पटना आदि जगहों पर मंचन
सम्मान:
भारतीय भाषा परिषद युवा पुरस्कार (2004)
कन्हैयालाल सेठिया सारस्वत सम्मान ।
सम्पर्क
ई मेल : sharmilajalan@gmail.com
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