त्रिलोचन के महाकुम्भ से जुड़े कुछ सॉनेट्स
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त्रिलोचन |
त्रिलोचन के कविता संग्रह 'अरघान' में ऐसे सॉनेट हैं जो महाकुम्भ की मुकम्मल कहानी बयां करते हैं। हम क्रमिक रूप से इन सॉनेट्स को यहां पर प्रस्तुत कर रहे हैं। इससे धर्म कर्म के प्रति जनता की आस्था, कुम्भ मेले की भीड़, कुम्भ मेले में भगदड़ और लोगो का मरना, कुम्भ से लौटते हुए मुसाफिरों द्वारा मेले और मेले के हादसे का जिक्र करना और कुम्भ मेले में वी आई पी कल्चर के बारे में सिलसिलेवार पता चलता है। त्रिलोचन के अलावा शायद ही किसी कवि ने महाकुम्भ को इस नजरिए से अपनी रचनाओं में विशद रूप से व्यक्त किया हो। ये सॉनेट्स अपने आप में शोध का विषय हो सकते हैं। महाकुम्भ विशेष के अन्तर्गत हम आज त्रिलोचन के महाकुम्भ से जुड़े इन सॉनेट्स को प्रकाशित कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं त्रिलोचन के महाकुम्भ से जुड़े कुछ सॉनेट्स।
महाकुम्भ विशेष : 11
त्रिलोचन के महाकुम्भ से जुड़े कुछ सॉनेट्स
कुम्भ नहान
सतुआ और पिसान बाँध कर कुंभ नहाने
नर नारी घर पुर तज कर प्रयाग आए थे;
संगम की धारा में अपने पाप बहाने
की इच्छा रखनेवालों का हल लाए थे।
तितली के भी पेड़ तले अशंक छाए थे,
गीत नारियाँ गंगा मैया के गाती थीं,
और नरों ने योग यज्ञ के फल पाए थे
कथा कहानी कहते सुनते थे। आती थीं
पछुआ की लहरें, पूरब को बढ़ जाती थीं,
कोई इन पर पल को ध्यान नहीं देता था;
अन्तर्हित इच्छाएँ अभिव्यक्ति पाती थीं
काय-क्लेश में देखा जीवन रस लेता था।
देखा कोटि संख्य जनता सामने पड़ी है,
गंगा यमुना की धारा के साथ अड़ी है।
पावन मंसूबा
पंडा रामप्रसाद ने कहा, धर्म जगा है,
धर्म विरोधी देखें, धर्म नहीं डूबा है,
गंगा यमुना के घाटों पर ठाट लगा है
सहज विरागी भी विराग से अब ऊबा है।
धर्म कर्म का बढ़ने वाला मंसूबा है
संगम, महाकुंभ फिर तीर्थराज ये तीनों
अलग अलग भी दुर्लभ हैं, पावन दूबा है
अभिषेचन के लिए। उमंग से भरे दीनों
के दल पर दल आते हैं। अवमानित, हीनों
के जीवन प्रसून खिलते हैं। सब नर नारी
भूले हुए चले आते हैं, पथ पर बीनों
को छेड़ कर गा रहे हैं, बिसरी लाचारी।
धर्म न होता तो वह दुनिया कैसे होती,
पुण्य न होता तो प्रवृत्ति क्या ऐसे होती।
कुम्भ नगर
कहीं यज्ञ होता था, कहीं पाठ होता था,
कहीं दान होता था, कहीं कथा होती थी,
कहीं कुचाल देखकर हृदय काठ होता था,
कहीं अनीति देख कर मर्म व्यथा होती थी,
कहीं इष्ट की पूजा यथा-तथा होती थी,
कहीं लाभ के लिए लूट सी मची हुई थी,
कहीं ठगी छल बल से नई प्रथा होती थी,
कहीं किसी की सेज काँट की रची हुई थी,
कहीं सरलता भोलेपन में बची हुई थी,
कहीं किसी को कोई जन ललकार रहा था,
कहीं किसी की कोठी धन से हची हुई थी,
कहीं अभागा करमकटा झख मार रहा था,
कहीं विमान रवाते थे या घहराते थे,
कुंभ नगर के नभ में झंडे फहराते थे।
कुम्भ काण्ड में जन नेता
चमत्कार है, दावत होने पर दुर्घटना
नेताओं को ज्ञात हुई। फिर कारें दौड़ी
दौड़ी इधर से उधर पहुँची, यों ही खटना
पड़ता है अवसर पर, सजी-सजाई चौड़ी
सड़क दहल-सी उठी। भीड़ थी मानो गौड़ी
रीति पृष्ठ की पंक्ति में कसी-कसाई
हो। बन गई सड़क पल में बंदर की पौड़ी
जननेता आसीन दिखे, इस तरह रसाई
उन की दिखी। जहाँ फूटन थी वहाँ टसाई
बातों से करते थे, सचमुच घाव बड़ा था
नहीं धूल से ढँक देते पर सभा बसाई
थी रेती पर, कितना टेढ़ा काम पड़ा था।
अज्ञ कहाँ सर्वज्ञ कहाँ हैं ये जननेता,
कुंभकांड कहता है, लेखा लेता-देता।
कुम्भ काण्ड में पुलिस
पुलिस कहाँ थी, नेताओं के पीछे-पीछे
व्यस्त भाव से चलती थी, यह शान बढ़ाने
की कुछ नई कला थी। अगर काल ने बीछे
इसी बीच कुछ सौ सिर फिर लग गया मढ़ाने
लोगों की नज़रों से तो फिर फूल चढ़ाने
में पुलिस के दस्ते भी क्यों पीछे रहते,
गज़ब न हो जाता, अधिकारी लोग पढ़ाने
लगते नए पाठ। सारी कठिनाई सहते
कैसे बेचारे, किस से अपना दुख कहते।
जनता का क्या, यह तो मर-मर कर जीती है
अधिकारी की ठोकर से पक्के घर ढहते
हैं, जनता रहती है, कौन अमृत पीती है।
प्रभुओं की भौंहे ताके या भीड़ सँभाले
दुर्घटना रोके पुलिस क्या-क्या कर डाले।
वे साहित्यकार हैं
लाशों की चर्चा थी, अथवा सन्नाटा था
राज्यपाल ने दावत दी थी, हा हा ही ही,
चहल-पहल थी, सागर और ज्वार-भाटा था।
जो सुनता था वही थूकता था, "यह। छी-छी।
यह क्या रंग-ढंग है। मानवता थोड़ी सी
आज दिखा दी होती।" "वे साहित्यकार हैं",
कहा किसी ने। औरत बोली झल्लाई सी-
"बादर होइँ, पहाड़ होइँ, आपन कपार हैं ।"
पति ने कहा, "होश में बोलो।" "धुआँधार हैं
उन के भाषण संस्कृति पर।" "कोई तो स्याही
जा कर मुँह पर मल देता।" "ये भूमिहार हैं..."
"कर की कालिख़ आप पोत ली है मनचाही।"
भय का कंपन आज वायु में भरा-भरा था,
छाती पर जो घाव लगा था, हरा-हरा था।
अधिकारी छाए थे
इन्द्र वरुण कुबेर से अधिकारी छाए थे,
शिविर सजे थे, धूलि कहाँ उन को लगती थी,
ख़ुद आए थे, अपनी ऐंठ अकड़ लाए थे,
कुंभ नगर में श्री इन के कारण जगती थी।
तीर्थराज की रेणु जाहिलों को ठगती थी,
इन के स्पर्शों से पल-पल पवित्र होती थी,
होता था छिड़काव, बात रस में पगती थी
इन लोगों की। बेचारी जनता सोती थी
कल्पवास के श्रम पर, स्वेदबिंदु बोती थी
बंजर में, आसरा कर्म का ताक रही थी,
अलग-अलग भी धरती पर किस की गोती थी
गंगा कल-कल कल-कल कहती बीच बही थी।
जनता में कब होगा जनता का अधिकारी,
कब स्वतंत्र होगी यह जनता टूटी-हारी।
सहस्रशीर्ष पुरुष
जनता का समुद्र वह, देखा शीश झुकाया,
तभी सहस्रशीर्षापुरुष: याद आ गया,
उन आँखों को देखा सहस्राक्ष: गाया।
चरणों को देखा तो सहस्रपात छा गया
प्रतिबिम्बित होकर मानस में। मुझे भा गया
वह विराट दर्शन। मैंने विश्वास पा लिया,
वह विश्वास जो विजय के नवगान गा गया।
गान के स्वरों से मैंने आकाश छा लिया,
जहाँ जहाँ जीवन को देखा वहाँ जा लिया,
मेरे स्वर जीवन की परिक्रमा करते हैं।
गाता जाऊंगा, गाता हूँ, अल्प गा लिया,
भूल चूक छोड़ो भी, गीत क्षमा करते हैं।
महाकुम्भ में देखा मैंने मानव कानन,
मानचित्र था भारत का रेखांकित आनन।
जाड़े की घनमाला
क्षितिज नील, तदुपरि बैंगनी, और फिर नीला,
महाकाश को घेरे जाड़े की घनमाला,
गंगा बीचोबीच, पार झूसी का टीला,
संमुख कुंभनगर, दिन का साँवला उजाला,
आड़ी, सीधी, टेढ़ी राजमार्ग की माला
पहने हुए बस्तियाँ क्रम में चली गई हैं,
तंबू, कुरिया, टाट-चटाई-टिनों वाका
आट-ठाट छाजन का, एकाकार कई हैं,
भिन्न कई हैं, अपनी-अपनी चाल गई हैं,
साज-बाज दिखलाती हुई नवीन बस्तियाँ,
नर-नारी की धाराएँ आनंदमयी हैं,
और कहाँ ये चुहल, यह लहर और मस्तियाँ,
जहाँ श्वेत चमकीले बादल जैसा रेता
था, अब वहाँ ध्यान-लोचन दर्शक है देता
पर्वत की दुहिता
आने दो, आने दो, जनता को मत रोको,
पर्वत की दुहिता है, कब रुकने वाली है,
पथ दो, प्याऊ बैठा दो, चलते मत टोको,
बलप्रयोग देख कर कब झुकने वाली है,
हार थकन से क्या ये धुन चुकने वाली है,
रेल कसी है, बसें भरी हैं, बैलगाड़ियाँ
लदी फंदी हैं; सिद्धि कहाँ लुकने वाली है
गिरि गह्वर कन्दरा गहन वन झाड़ झाड़ियाँ
सर सरिता निखात सागर का सार खाड़ियाँ
कहाँ मनुष्य नहीं पहुँचा है; पृथ्वी तल में
खान खोद कर जा पैठा, दुर्गम पहाड़ियाँ
उसे सुगम हैं, सारा व्योम नाप दे पल में।
आने दो यदि महाकुम्भ में जन आता है,
कुछ तो अपने मन का परिवर्तन पाता है।
सहनशीलता
'आगे राह बंद है। 'पीछे-पीछे जाओ,
'लोग बाँध पर अटे पड़े हैं'। 'भीड़ बड़ी है'।
'अपने मन में थोड़ी सहनशीलता लाओ'।
'स्नान आज कल कर लेना, क्या यही घड़ी है'।
देख लिया जाने वालों की भीड़ खड़ी है
मानो सोच रही है वह आने वालों की
बात मान ले क्या। मेला है, यहाँ पड़ी है
सबको अपनी-अपनी। फिर खाने वालों की
ओर लखे भूखा यों समझाने वालों की
ओर खा। कुछ लौटे, कुछ ने पाँव बढ़ाए
कतरा कर। धुन अपनी सुन पाने वालों की
आँखों ने देखा कि, एक जन लाँग चढ़ाए
कीचड़ में लथपथ आता है, चिल्लाता है-
'लाशों पर चढ़ कर मानव आता जाता है।
आँखें देख नहीं पाती थीं
आदमियों की वह मछेह, वह भीड़ ठसाठस,
उठती हुई गनगनाहट, आगे का रेला,
पीछे का दबाव, चारों ओर की कसाकस,
आदमियों के सिर ही सिर, ऐसा था मेला।
सरसों छींटो भूमि तक न जाए वह ठेला-
ठेली थी, आँखें कुछ देख नहीं पाती थीं,
कान सुन नहीं पाते थे, मिट्टी का ढेला
ही मनुष्य था यदि साँसें बाहर जाती थीं
तो फिर अंदर फिर कर कभी नहीं आती थीं,
'हाय', 'मरा' 'देख कर' 'बचाओ' 'पैर तो गया'
'कहीं खड़ा हो पाता तो' 'चक्कर खाती थीं'
'रमिया-बुधिया उधर', 'महेसर कहाँ खो गया।'
दब पिच कर कितने ही जन दम तोड़ रहे थे,
माया, ममत, माल मता सब छोड़ रहे थे।
जुलूस का जलसा
नागों का वह नंगा नाच और वह चिमटा
भाँजते हुए जाना, फिर तान कर डराना
जनसाधारण को, समूह जिन का था सिमटा
आसपास कौतूहल से, भयभीत कराना
और भगाना, प्रेतरूप से उन्हें छराना,
हौदा कसे हुए हाथी, सजे हुए घोड़े,
ऊँट, वेश रचना, पैंतरे, नवीन तराना,
वह विरागियों के जुलूस का जलसा, थोड़े
में इंद्र का अखाड़ा, कोई पी कर छोड़े
जिसे नहीं वह मद पल पल में छलक रहा था,
लोग भभर कर भागे, कितनों ने दम तोड़े
वेश बनाए निशाचरी छल ललक रहा था।
लानत है, लानत, विराग को राग सुहाए,
साधू हो कर मांस मनुज का भरमुँह खाए।
सुलफे का दम
कुंभ नगर के नागरिकों की बस्ती देखी
भोर, दोपहर, संझा और रात की बेला
सजे एक से एक अखाड़े मस्ती देखी।
"'सब के दाताराम'-अर्थ क्या है," यह चेला
पूछ रहा था; बोले गुरू, देख आ मेला
बैरागी रागी है और माल खाते हैं
मूढ़, विधाता का है यह छोटा सा खेला
देख कुली मज़दूर वस्तु ढो कर लाते हैं
मज़दूरी के पैसे पर धक्के पाते हैं
साधु-संत सोते हैं सुखी पाँव फैलाए
कितने ही लखपती पास उन के आते हैं
चरणधूलि लेते हैं, वहीं स्वर्ग से आए।
बमभोले शंकर गाँजे का, सुलफ़े का दम
लिया गुरू ने; लहर उठी, फिर बोले, बम बम।
बिजली के खंभे पर
बिजली के खंभे पर, आई बुद्धि, जा चढ़ा
उस को देखो। भीड़ ठाँव पर झूम रही है
बँधे हुए हाथी सी। ऊँचे बाँध से बढ़ा
एक हुलुक्का, एक दरेरा, घूम रही है
भीड़। भीड़ पर भीड़ दूसरी रूम रही है।
अस्फुट अगणित कंठों की ध्वनि की धारा
महाकाश में मँडराती है, बूम रही है
मरणसिंधु में मग्नप्राय मानवता। हारा
कोई अपने लड़के को दे रहा, सहारा
खंभे वाला उसको दे दे, ले लेता है
वह भी बच्चे को, भीड़ की लहर ने मारा
खंभे को, क्या करे, फेंक उसको देता है।
कल जिस छाती में पौरुष का पार नहीं था,
आज उसी के प्राणों का उद्धार नहीं था।
महाकाल था
पलक मारने में जो उमड़ा भीड़ भड़क्का,
बाँध के शिखर से सरका, पट गया वह गढ़ा
जो नीचे था और अनवरत धक्कम धक्का
निगल गया सैकड़ों को। महाकाल था चढ़ा
अपने दल बल से, फँसने वाला नहीं कढ़ा।
जिनकी साँस चल रही थी वे सब अचेत थे
और मृतों की हत्याओं के पाप से मढ़ा
था जैसे उनका चेतन स्तर, कटे खेत थे
मानो भीषण नाट्य के लिए, बचे प्रेत थे
आसपास जो घूम रहे थे, चौवाई है
जैसे नदी किनारे हिलते हुए बेंत थे,
कुछ ऎसे थे जैसे उन्हें टक्कबाई है।
मृत्यु अकेली भी तो बेध बेध जाती है,
सामूहिक से छाती छलनी बन जाती है।
लाशों की प्रदर्शनी
लाशों की प्रदर्शनी देखी कुंभ नगर में
आज दूसरा दिन था। देखा, उमड़ रहा था
झुंड दर्शकों का। चर्चा थी डगर डगर में,
मानव ने यह असहनीय आघात सहा था।
मुर्दे पड़े हुए थे, मुँह नाक से बहा था
काला और पनीला रुधिर। गंध का लहरा
हलका हलका उठता था। पुत्र ने गहा था
हाथ पिता का, वेग आँसुओं का था गहरा
'बाबू, तुम्हें हो गया क्या, आशा मेम ठहरा
मैं डेरे पर रहा कि तुम जब आ जाओगे
तब हम गाँव चलेंगे।' सारा मेला थहरा,
कहा पुलिस ने, 'अब रोने से क्या पाओगे।'
करुणा का सागर था वहीं कुतूहल भी था,
किरणों का उत्ताप जहाँ था मृगजल भी था।
महाकुम्भ का लेखा
रामलाल, देखो कोई अपना भी है क्या,
ट्रक में भर भर आज गंज शव का आया है
उकस पुकस करते हो, कुछ बेचैनी है क्या,
लाशों का सुखवन पुलीस ने फैलाया है,
इसी के लिए तो उसने पैसा खाया है
सुप्रबंध का कहना ही क्या है, कमाल था,
समाचारपत्रों ने गली गली गाया है
पहले दिन तक ऊपर सब का लगा टाल था;
जल्दी थी, क्या क्या कर लेते, बुरा हाल था;
अब पंक्तियाँ बिछी हैं संख्याबद्ध कर दिया।
तीर्थयात्रियों का जो कुछ भी माल जाल था
उस पर अब सशस्त्र पहरा सन्नद्ध कर दिया।
लोग कुतूहल से, भय से, देखा करते हैं,
महाकुंभ की फूटन का लेखा करते हैं।
विद्यार्थी भीड़ में
चुप्पी तोड़ी, विद्यार्थी ने भी मुँह खोला,
"उसी भीड़ में बुरी तरह मैं फँसा हुआ था।
लाख छटपटाया, हाथों ने किंतु न तोला
एक बार भी तन को, जैसे धँसा हुआ था
सुग्राही दलदल में। संमुख डँसा हुआ था
एक व्यक्ति भीड़ के नाग का, बदन खुला था
दाँत दीखते थे, मानो शव हँसा हुआ थ
निखिल परिग्रह संग्रह पर, वायु में घुला था
महामरण का भय, प्रिय जीवन विवश तुला था
क्रूर काल के हाथों, हाहाकार खो गए
सिर पर चढ़ा ख़ून, आँसू से नहीं धुला था,
दबे हुए बात की बात में बिदा हो गए।
पत्नी कहीं रो रही थी, पति कहीं विकल था,
पुत्र कहीं पछाड़ खाते थे, नाश अचल था।"
व्यर्थ लड़ गया
शंकर, शंकर, शंकर, यह तो नहीं बोलता।
यह क्या, किस के ऊपर मेरा पाँव पड़ गया।
बड़ा पसीना छूट रहा है, बटन खोलता,
यदि थोड़ा फोंफर पा जाता। व्यर्थ लड़ गया
पास खड़े मुर्दों से। वह आवेश झड़ गया।
धक्के आकर इधर उधर कुछ ठेल रहे हैं।
मेरे पाँवों को यह किसका पेट गड़ गया।
भीड़ नहीं है, दल राक्षस के खेल रहे हैं।
चरणों के आघात अभागे झेल रहे हैं।
आग, फेफड़े फड़क रहे हैं, हवा कहाँ है।
छूटी भूमि, भयानक धक्के रेल रहे हैं।
अब कंधों पर हूँ, व्याकुलता यहाँ वहाँ है।
प्राण बच गए, जीवन, तू कितना प्यारा है
हाथ, अदेख काल के आगे तू हारा है।
दबाव
भीड़ कस उठी थी, पच्चर से लोग बन गए,
वह दबाव था, जौ भर किसी तरह हिल पाना
अब असाध्य था। खड़े लोग निरुपाय तन गए।
जो छूटा, छूटा; अब मुश्किल था मिल पाना।
आगे पीछे अगल बगल का बल झिल पाना
छाती के बस के बाहर था। लोग मर चले।
जो प्रसून खिलने को थे, उनका खिल पाना
क्रूर काल को नहीं सुहाया, और झर चले।
क्या करने आए थे क्या क्या असहाय कर चले,
धराधाम से गए । तीर्थ का यही फल मिला;
अपने घर की जगह विवश काल के घर चले;
कल्या चाहने वालों को कल नहीं छल मिला।
भीड़-भाड़ में सकल व्यक्तिबल खो जाता है,
महावीर भी तृण प्रवाह का हो जाता है।
प्रण
त्रेता में खर दूषण भी दावत करते थे,
मुनियों की हड्डी का एक पहाड़ बन गया,
विकट चक्र था, फँस कर वीतराग मरते थे,
शांत तपोवन बेचारों का भाड़ बन गया
अनायास सामूहिक वध खिलवाड़ बन गया,
प्रभुता के मदमत्तों का। यह बात राम से
छिप न सकी, हिंसन कब तिल का ताड़ बन गया;
"राक्षस जब तक नहीं जाएँगे। धरा धाम से
तब तक चैन न लूँगा"; अपने दिव्य नम से
दक्षिण भुजा उठा कर यह प्रण किया और फिर
लगे कार्यसाधन में, केवल इसी काम से
तन मन जोड़ा, रहे इसी के हित स्थिर अस्थिर।
महाकुंभ में हत निरीह प्राणों की पीड़ा
कौन समझ कर बढ़ता है लेने को बीड़ा।
यात्री चंचल
अभिनायक शर्मा बोले, "मुझ को पीना था
कुछ दिन और गरल जीवन का तभी बच गया।"
अभिनायिका माधुरी बोल उठीं, "छीना था
प्राण आपने क्रूर काल से। जभी रच गया
मन अपने आदर्श लगन से, सभी जच गया
नया पुराना एक दृष्टि में। भावना जगी
कुछ कर जाने की, गरिष्ठ शोक भी पच गया।"
कतवारू बोला, "मुखार से वचन से सगी
विपदा मुझे आपकी लगती है। कहाँ लगी
थी अजगरी भीड़ वह जिस ने कवर बनाया
नर, नारी, बूढ़े, बच्चे का, कुछ नहीं डगी।"
"संगम पर ।" कोई बोला, "सब झूठ बताया।"
रेल दौड़ती हुई, बात से यात्री चंचल,
मन को मोड़ा, देखा विंध्याचल का अंचल।
सुना करें किस किस की आहें
जहाँ राष्ट्र के पेड़ अनेकानेक गिरे थे
आज वहीं से कार राष्ट्रपति की निकली थी,
दो ही लोचन लोचन-वन में घिरे-घिरे थे
भीड़-भाड़ में अतुल त्वरा गति की निकली थी,
कहीं खो गई जो आभा मति की निकली थी,
कानों में संगीत भरा था, वहाँ कराहें
कैसे जातीं। चिट्ठी सी यति की निकली थी
दौड़ रही थी, दौड़ रही थी। दावत चाहें
तो गति कुछ ऐसी हो जिस को देख सराहें
दर्शक जन। दुनिया है, लोग मरा करते हैं,
भला राष्ट्रपति सुना करे किस-किस की आहें
इन आहों से दुर्बल हृदय डरा करते हैं।
ऐसा हो राष्ट्रपति कि जीमे, फिर डकार ले,
'दुर्घटना से मुझे दुःख है' यह सकार ले।
प्रभुता के मद का विध्वंसक कोप
कलकत्ता बंबई हेठ थे उस के आगे,
कुंभ नगर था भी क्या, दो दिन का मेला था।
पथिक दूर से आए, ठहरे, रम कर भागे
मेले ने कुछ तो चिंताओं को ठेला था,
महामरण का चंड गदाभिघात झेला था
मूक देश ने दुःशासन का। याद आज भी
हूक जगा देती है, पाँव तले ढेला था
कड़ा नुकीला मानो। अगर स्वतन्त्र राज भी
जनता की जीवन-रक्षा का प्रथम काज भी
न कर सके तो किस मतलब के लिए राज है?
जैसा घोड़ा हो वैसा चाहिए साज भी
शासन का प्रमाद बिल्कुल कोढ़ की खाज है।
कुंभ नगर माया का पुर था, लोप हो गया,
प्रभुता के मद का विध्वंसक कोप हो गया।
महाकुंभ के अद्भुत सीनेट हैं ये। इन्हें पढ़वाने के लिए आभार। नेहरू जी इस महाकुंभ में आये थे। उसी समय यह दुर्घटना घटी थी। गोपीनाथ बल्लभ पंत उन दिनों उत्तर प्रदेश के राज्यपाल थे। इस आपदा के बाद राजभवन में राष्ट्रपति के सम्मान में दावत दी गई थी। इसका भी उल्लेख करते हुए हृदयहीन राजनेताओं पर पैना व्यंग्य किया है त्रिलोचन जी ने। महाकुंभ के उस समय के पूरे परिदृश्य को जिस सहजता और विशदता के साथ त्रिलोचन जी ने सॉनेट में उतारा है, अद्भुत है। रोला छंद में रचे लाजवाब सॉनेट हैं ये जो हिन्दी कविता की धरोहर है।
जवाब देंहटाएंजितेन्द्र धीर, कोलकाता
मेरी टिप्पणी में कृपया सीनेट की जगह सॉनेट और गोविंद नाथ की जगह गोविंद बल्लभ पंत पढ़े। टाइपिंग की भूल के लिए खेद है।
जवाब देंहटाएंजितेन्द्र धीर
यथार्थ बयान करते सोनेट हैं। पढ़वाने के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंअद्भुत।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा किया आपने। 26 तारीख़ से पढ़ रहा हूँ पर आलस्य वश टाइप नहीं कर पाया । लिंक साझा कर रहा हूँ ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा किया आपने। 26 तारीख़ से पढ़ रहा हूँ पर आलस्य वश टाइप नहीं कर पाया । लिंक साझा कर रहा हूँ ।
जवाब देंहटाएंसदानन्द शाही
आभार
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