स्वप्निल श्रीवास्तव का आलेख 'महाकुम्भ – आस्था का विराट जन समुद्र'

 

स्वप्निल श्रीवास्तव


इलाहाबाद का महाकुम्भ भीड़ की दृष्टि से अब तक का सबसे बड़ा आयोजन साबित हुआ है। अभी तक की जानकारी के अनुसार लगभग छप्पन करोड़ लोगों ने इस महाकुम्भ में स्नान किया है। इस तरह यह आस्था का विराट जन समुद्र अनवरत लहरें ले रहा है। इस बार के महाकुम्भ की खासियत यह है कि इसमें दो तरह के स्नानार्थी शामिल हुए। पहले किस्म के स्नानार्थी वी आई पी हैं जिन्हें संगम स्नान करने में कोई दिक्कत नहीं हुई। जिन्हें सारी तरह की सुविधाएं प्राप्त हुई। ये ऐसे स्नानार्थी हैं जिनके लिए कायदे कानून कोई मायने नहीं रखते।  दूसरे तरह के वे स्नानार्थी हैं जो सामान्य जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्हें तमाम तरह की असुविधाओं का सामना करना पड़ा। बीसों किलोमीटर पैदल चलना पड़ा। इन्हें कहा गया कि जहां नदी मिले वहीं संगम समझ कर नहा लें। जाम लगने पर स्नानार्थियों से कहा गया कि भीड़ के मद्देनजर वे वापस अपने घरों को लौट जाएं। कवि स्वप्निल श्रीवास्तव कुम्भ मेले में गए थे और अपनी आपबीती को एक आलेख में व्यक्त किया है। महाकुम्भ विशेष के अन्तर्गत आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं स्वप्निल श्रीवास्तव का आलेख 'महाकुम्भ – 'आस्था का विराट जन समुद्र'।



महाकुम्भ विशेष : 18


'महाकुम्भ – आस्था का विराट जन समुद्र' 

    

स्वप्निल श्रीवास्तव 

   


जल में कुम्भ है कुम्भ में जल है 

बाहर भीतर पानी

फूटा कुम्भ जल जलहि समाना 

यह तथ कहयो ज्ञानी 


महाकुम्भ को देखना एक दुर्लभ आध्यात्मिक घटना है। हमने समुद्र का विस्तार देखा है लेकिन विशाल जन समुद्र को देखना हमें चकित करता है। देश के विभिन्न भागों जैसे असम त्रिपुरा, राजस्थान, पंजाब से यहाँ लोग पवित्र स्नान के लिए के लिए आते हैं, उनके रंग बिरंगे पोशाक और बोलियाँ हमें आकर्षित करती हैं। ऐसा क्या है  कि लोग जीवन के जरूरी काम छोड़ कर यहाँ आते हैं। इसके कारण हमारे पुरा–पुराणों में मौजूद हैं। यह बताया जाता हैं कुम्भ में स्नान करने से जन्म जन्म के पाप  धुल जाते हैं । कई अश्वमेध का फल मिलता है। सुदूर क्षेत्र से लोग असुविधाएं झेल कर आते हैं लेकिन उनके उत्साह में कोई कमी नहीं आती उनके चेहरे पर चमक बनी रहती है। लोग कुछ भी कहे उनकी आस्था अडिग रहती है, उन्हें कोई चुनौती नहीं दी सकती। जो आस्था के विरुद्ध होगा उसे नास्तिक मान लिया जाता है। इस तरह आस्था उनके लिए जीवन मूल्य बन चुकी है।

    

धर्माचार्य उन्हें दिव्य स्नान के लिए प्रेरित करते रहते हैं और उसका महत्त्व बताते रहते हैं। कभी-कभी मुझे लगता है कि नदियों को पुरा कथाओं से इसलिए जोड़ दिया गया होगा कि इसी बहाने लोग घर से बाहर निकल कर पर्यटन कर सके। चार धाम की परिकल्पना संभवत: इसी आधार पर की गयी होगी। इधर खूब हिन्दुत्व का बिगुल बज रहा है, जैसे कि हिंदू राष्ट्र बनने के बाद जीवन की तमाम समस्याएं दूर हो जाएगी, सतयुग का प्रारंभ हो जाएगा। हर सरकार की अपनी प्राथमिकताएं होती हैं। हिंदुत्व इस सरकार की मुख्य आयोजन है। लोग धर्म–कर्म में उलझे रहें और वे यह न सोच पाएं कि उनके जीवन की वास्तविक समस्या क्या है। सत्तायें जानती हैं कि किस तरह जनता के ध्यान को भटकाया जाए और उनके दिमाग को बदल दिया जाए। जिस समय दुनिया में राजतन्त्र की व्यवस्था थी, तो जनता को  यह समझाया जाता था कि सम्राट देवावतार हैं। जनता इसलिए गरीब है कि उसने पूर्व जन्म में पाप किया है, इस तथ्य को  धर्माचार्य पुष्ट  करते रहते हैं। फ्रांस की क्रांति के पूर्व यह स्थिति बनी हुई थी लेकिन क्रांति के बाद इस स्थिति में मूलभूत परिवर्तन हुआ।

  

समय का पहिया थोड़ा पीछे घूम गया है, विश्व के अनेक शासक अपने भीतर देवत्व की कल्पना करने लगे हैं। उनके लिए धर्म एक अचूक हथियार है। उसके भीतर अणु से ज्यादा मारक  क्षमता है। इस वैज्ञानिक युग में प्राचीन समय के प्रतीक खोजे जा रहे हैं। उसका उपयोग सत्ता के स्थायित्व के लिए किया जा रहा है।  मीडिया और अखबारों में सनातन की धुन बज  रही  है।

  

मेले नदियों के किनारे लगते हैं और नदी का दर्जा माँ के बराबर है। यह बात अलग है कि हम जिन नदियों की पूजा करते हैं उसे अपने कर्म से मलिन करते रहते हैं। नदियों का उपयोग मृत्यु संस्कार और मूर्ति विसर्जन के लिए किया जाता है। जिस गंगा नदी को हम पवित्र मानते हैं, उनकी विमलता में मिलावट पायी गई है। हमनें बचपन में नदियों के किनारे देखे हैं। इन मेलों को धार्मिकता के साथ जोड़ा गया है, नदी के किनारे कोई न कोई मंदिर और उसके देवता के चमत्कार होते हैं।




  

लंदन की टेम्स नदी को एक समय में 'डेड रिवर' कह दिया गया। उसमें मछलियाँ मर जाती थीं। आज वह दुनिया की सबसे धवल नदी है। इस नदी को जागरूक सरकार और नागरिकों ने बचाया। सीवेज से नदी में जो पानी गिर रहा था, उसे प्लांट लगा कर स्वच्छ किया गया। यह लंदन शहर के बीचोंबीच बहती है। हमारे देश में नदियां पूज्यनीय हैं लेकिन उनके साथ जो व्यवहार किया जाता हैं, उससे वे लगातार प्रदूषित होती जा रही हैं।

  

प्रयागराज तो नदियों का संगम है। देश की दो  पवित्र नदियां, गंगा और यमुना तथा अदृश्य सरस्वती का यहाँ मिलन होता है। यमुना का जल सांवला और गंगा का रंग उज्ज्वल होता है। ये नदियां मिल कर एक रंग हो जाती हैं। सरस्वती नदी दिखाई नहीं देती लेकिन उनकी चर्चा कम नहीं होती। नदियां अपने धार के साथ नहीं, मिथक के साथ आती हैं। नदियों के बिना कोई नगर पूर्ण नहीं होता है, इस संबंध में प्रयाग एक सम्पूर्ण नगर  है, वहाँ अनेक तरह की दिव्य कथाएं प्रचलित हैं।

  

इस बार यह भी प्रचारित किया गया कि यह महाकुंभ 144 वर्ष बाद आयोजित किया जा रहा है। इस तथ्य को बहुप्रचारित किया गया। यह भी अवगत कराया गया कि इस महाकुभ में कई ग्रह नक्षत्र एक साथ एकत्रित हैं। इस महाकुंभ का बड़ा महातम है। लोगों ने सोचा कि महाकुंभ स्नान जीवन के दिव्य अवसर के रूप में आया है। इस कार्य में सरकार ने खूब सहयोग किया  लोगों को पहुँचने के लिए ट्रेन और बसों की  सुविधा दी गयी। इस मेले का क्षेत्र चालीस वर्ग किलोमीटर है  जिसमें 41 सेक्टर बनाए गये थे। इसे एक जनपद का रूप दिया गया है। करोड़ों लोगों के लिए यह जगह बहुत कम है। रेत के किनारे बने हुए नगर में, जिसमें मुश्किल से कुछ लाख लोग आ सकते हैं। उसमें किसी महानगर की आबादी आ जाए तो यह बड़ी समस्या होगी। उसका प्रबंधन कठिन होगा। कुम्भ मेले के  अधिकांश स्थान धर्माचार्यों और सरकारी अमलों के लिए आरक्षित हैं। हर प्रांत की सरकारों के अपने-अपने प्रदर्शन स्थल हैं, जिसमें अपनी संस्कृतियों और उपलब्धियों के बखान हैं। देश भर के धर्माचार्यों के अपने पंडाल और शिविर हैं। वहाँ अविरल धार्मिक संगीत बजता रहता है। जगह-जगह अन्न क्षेत्र हैं, जिसमें भोजन और प्रसाद वितरित होता रहता है। इन धार्मिक संगठनों को अकूत दान मिलता है। जनता में वे लोकप्रिय हो इसलिए वे लंगर चलाते रहते हैं।

   

महाकुम्भ के परिसर में बेला कछार में बसों और गाड़ियों का अस्थायी अस्तबल सा बनाया गया है।  बस या कारों से उतर कर एक तरफ 15-20 किलोमीटर का रास्ता तय करना पड़ता है। चारों तरफ के रास्तों पर कई किलोमीटर तक जाम लगा रहता है। लोग  कारों के कैद हो जाते हैं। जो रास्ता आठ दस घंटों में तय हो जाते थे अब उसे पार करने  में दुगुना तिगुना समय लग जाता है।

    

प्रायः कुम्भ में मध्य वर्ग के लोग ज्यादा आते थे लेकिन इधर के कुछ वर्षों में नौजवान श्रद्धालुओं की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। यही वह वर्ग है जो कावड़ यात्रा में सम्मिलित होता है, उस पर पुष्प वर्षा की जाती है। बाजार उसके लिए पीत पोशाक के आधुनिक वस्त्र तैयार करता है। नौजवानों का यह तबका कुम्भ में जयश्री राम को उद्घोष करते हुए आगे बढ़ता रहता है। किस तरह सत्तायें इस वर्ग का इस्तेमाल अपने उपयोग के लिए करती रहती हैं, यह तथ्य सार्वजनिक हो चुका है। ये बेरोजगार युवक अपने नौकरी की चिंता नही करते, धर्म के नशे में पागल होते रहते हैं। इन्हें बेरोजगारी के विरुद्ध आंदोलन करते हुए नही देखा गया है, वे यथास्थिति को बदलने के लिये कोई उद्योग नहीं करते।




   

जबसें धार्मिक स्थलों का आधुनिक और राजनीतिक विकास हुआ है, वे पर्यटन स्थल बने हैं, अभिजात वर्ग की रुचि इस तरफ बढ़ी है। उनके लिए इन जगहों पर पाँच सितारा जैसी सुविधाओं वाले आवास बनाये गये हैं। आस्था उनके लिए दूसरे नंबर पर है। पहले नंबर पर क्या है यह उनके जीवन शैली से  सहज जाना जा सकता है। धर्माचार्य, राजनेता, नौकरशाह कुम्भ के प्रथम श्रेणी के नागरिक हैं। वे अपनी गाड़ी से मेले में घूमते रहते हैं, उन्हें कोई नही रोकता। उनके कार पर वी आई पी नंबर दर्ज रहता है। सारी असुविधाएं आम श्रद्धालुओं के लिये हैं। पुलिस बूथ पर अव्वल कोई नही होता है। अगर होता भी है तो ठीक से कोई जानकारी देता। इसका अनुभव मुझे मिला। मुझे सेक्टर-6 में एक आश्रम में जाना था। मेरे पास मुकम्मल पता था लेकिन किसी पुलिस कर्मी ने नही बताया। मुझे आश्रम को फोन कर किसी व्यक्ति को बुलाना पड़ा।

   

वरिष्ठ नागरिकों के लिए कोई अलग से सुविधा नही है, वे रेंगते हुये मेले की तरफ बढ़ते हैं। वे भीड़ का हिस्सा बनने को मजबूर हैं। उन्हें किसी तरह का सहकारी सहयोग नहीं मिलता, दुकानदार उन्हें खूब ठगते हैं। बाइकर्स और टैंपो वालों की ब्लैकमेलिंग  अलग है, वे थोड़ी दूर के लिए चार–पाँच सौ रुपये चार्ज करते हैं। मेले में हर तरह की अराजकता है। राजनेता उड़न खटोले से उतरत्ते है और किसी विशिष्ट घाट पर स्नान करते हैं और टी वी चैनल को बताते हैं कि सरकार ने मेले की उत्तम व्यवस्था की है। काश वे मेले में घूम कर देखते कि सामान्य श्रद्धालु किस स्थिति में हैं।

  

जब से अयोध्या में राममंदिर का निर्माण हुआ, यह स्थान अचानक महत्वपूर्ण हो गया जिस नगर में हजारों लोग आते थे अब उनकी संख्या लाखों और करोड़ों में हो गयी है। जो भी अयोध्या आता है वह काशी और प्रयागराज जरूर जाता है। इस तरह धार्मिक स्थल का त्रिकोण बन गया है। इन नगरों में अक्सर भीड़ दिखाई देती है लेकिन जब कोई पर्व आता है भीड़ का सैलाब बढ़ जाता है। नगर की व्यवस्था बिगड़ जाती है। सारे रास्ते बंद कर दिए जाते हैं। अयोध्या का अनुभव हमारे पास है, वहाँ बेशुमार महंगे होटल बन गये हैं। लोग अपने घरों के एक हिस्से को  होम स्टे में तब्दील कर रहे हैं। धर्म को धंधे में बदलने के तमाम आयोजन किये जा रहे हैं। धर्म का यह रथ हमें रौद कर आगे बढ रहा हैं।



सम्पर्क 


स्वप्निल श्रीवास्तव 

510 – अवधपुरी कालोनी  

अमानीगंज 

फैजाबाद – 224001 


मोबाइल – 9415332326

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