नरेन्द्र तिवारी का आलेख 'ख़राब कविताओं की एनाटॉमी'





सम्पादकीय टिप्पणी


न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन से सद्य: प्रकाशित “ऋष्यशृङ्ग की ख़राब कविताएँ” नामक कविता संग्रह ने विश्व पुस्तक मेले से दस्तक दी है। अपने विलक्षण शीर्षक और कथ्य से इस पुस्तक ने वरिष्ठ कवियोँ और समर्थ आलोचकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। इस संग्रह की भूमिका प्रतिष्ठित आलोचक अम्बुज पाण्डेय ने लिखी है जो कि अनुनाद के ‘अक्टूबर-दिसम्बर २०२४’ के अंक में प्रकाशित हुई।

वरिष्ठ कवि रुस्तम सिंह का कहना है- “ये कविताएँ तंज़, व्यंग्य, कटाक्ष और विद्रूप से भरी हुई हैं और ऐसी कविताएँ मैंने हिन्दी में पहले नहीं पढ़ीं।“

वरिष्ठ कवि कृष्ण कल्पित ने इस पुस्तक पर टिप्पणी की है - “नक़ली और ख़राब कविताओं के इस बेहद ख़राब दौर में सच्ची ख़राब कविताओं का एक अद्भुत कविता-संग्रह प्रकाशित हुआ है : ऋष्यशृङ्ग की ख़राब कविताएँ! ... किताब की भूमिका क्या है, समकालीन हिन्दी कविता की एक निर्मम शल्य-क्रिया है । यह नई आलोचना है नई भाषा में। संग्रह की कविताएँ और भूमिका इतनी एकमेक है कि पता ही नहीं चलता कि पहले भूमिका लिखी गई हैं या कविताएँ। जो भी हो बहुत दिनों पर हिंदी भाषा में कोई कल्पनाशील, प्रयोगशील, साहसयुक्त, वक्रोक्ति और वेदना से भरी हुई कविता की किताब आई है। समकालीन हिन्दी कविता की इकसार दुनिया में ऋष्यशृङ्ग की ये ख़राब कविताएँ एक नया इंद्रधनुष है। झिलमिलाता हुआ।... जो पाठक समकालीन हिन्दी कविता से निराश हो चले हैं, उन्हें कविता की यह किताब ज़रूर पढ़नी चाहिए।“

इसी क्रम में हम ऋष्यशृङ्ग की ख़राब कविताओँ के सन्दर्भ मेँ पढ़ते हैं प्रतिभाशाली समीक्षक नरेन्द्र तिवारी का आलेख।



'ख़राब कविताओं की एनाटॉमी' 


नरेन्द्र तिवारी


ठुकरा रही है दुनिया

हम हैँ कि सो रहे हैँ

बर्बाद हो चुके थे

बर्बाद हो रहे हैँ 


– गीतकार : केदार शर्मा, गायक : कुन्दन लाल सहगल,  संगीतकार- खेमचन्द्र प्रकाश, चित्रपट : भँवरा (1944)


कविता क्या है नामक प्रश्न बहुत प्राचीन होते हुए भी अति नवीन है, जिस तरह आज तक यह नहीं जाना जा सका है कि जीवन क्या है या जीवन क्यों है? उसी तरह साहित्य में कविता को ले कर तमाम तरह की निष्पत्तियों के बावजूद यह नहीं जाना जा सका है कि कविता क्या है?


तो जब हम यह नहीं जान सके हैं कि कविता क्या है? फिर अच्छी कविता या ख़राब कविता के बारे में कैसे जान सकते हैं।


चूँकि मनुष्य की जिज्ञासा तब तक शांत नहीं होती जब तक उसे किसी प्रश्न का उत्तर न मिल जाये! इसलिए जब कविता या अच्छी कविता पर तमाम तरह की बहसें हो चुकी हैं तो क्यों न खराब कविता पर भी कुछ टीकाएँ, कुछ टिप्पणियाँ लिखी जाएँ! उसी क्रम में ऋष्यशृङ्ग की ख़राब कविता के बहाने से खराब कविता क्या बला है उसकी पूरी पड़ताल करने की एक पहल है यह ख़राब कविता संग्रह।


वैसे इस संग्रह की कविताओं के लिए कहा जा सकता है कि यह ख़राब समय को और ख़राब करने के लिए ख़राब कवि की ख़राब कविताएँ हैं।


बहरहाल कविताएँ भले ख़राब हैं लेकिन इस संग्रह की भूमिका ख़राब कविताओं की एनाटॉमी है। इस संग्रह से यदि कुछ संग्रहित करने लायक है तो इसकी भूमिका। इस भूमिका को ख़राब कविताओं का मैग्नाकार्टा कह सकते हैं। यह भूमिका ख़राब कविताओं की प्रस्तावना है। यह भूमिका ख़राब कविताओं के लिए आईना है।


सहमी हुई हैँ देखो

इस बाग़ की बहारेँ 

सहमी हुई हैँ देखो

इस बाग़ की बहारेँ

फूलोँ को रौँद कर

फूलोँ को रौँद कर

हम काँटोँ को बो रहे हैँ


सोशल मीडिया के इस युग मे एक शब्द सबसे ज्यादा प्रयोग किया जाता है वह है फॉलोअर्स। जिसके जितने फॉलोअर्स हैं इस युग मे वह उतना ही बड़ा और महान है। लेकिन यदि फॉलोअर्स का हिंदी अनुवाद किया जाए तो वह ऐसा शब्द ग्रहण कर लेगा कि उसका अर्थ अपने आप मे एक अलंकार है। अब आप ही देखिए फ़ॉलोअर्स को यदि पिछलग्गू कहा जाए तो यह व्यंग्य कितना कठोर है कोई भी पिछलग्गू हो कर नहीं जीना चाहेगा लेकिन ख़राब कविताओं की बढ़ोतरी के लिए यदि कोई सबसे ज्यादा जिम्मेदार है तो वह यही पिछलग्गू कौम है ।


ख़राब कविताओं का यदि पोस्टमार्टम किया जाए तो जो एक बात सामने निकल कर आती है वह यह कि अभिजात्यवाद जिसे आजकल ब्राह्मणवाद कहा जा रहा है उसके विरोध में एक संस्कृति सदैव जन्म लेती ही रही है वह भद्र के विरोध से जन्म लेकर अभद्र हो जाती है लोक उसे भद्द कह कर तिरस्कृत करता है पर एक समय आता है जब लोग-बाग समाज उसे सहज स्वीकार तो नहीं कर पाता पर उससे बच भी नहीं पाता। वही आज कल हर जगह हो रहा है। हिन्दी साहित्य उससे बच नहीं सकता न ही उसे दरकिनार कर सकता है। भद्द का वैभव रचने वाले या उसे खड़ा करने वाले भी हमारे ही लोग हैं। इसे आप 'क्रिंज कल्चर' कहते ही जान जाएँगे। लेकिन समझ जाएँगे यह मुश्किल है। यह भद्द वैभव ख़राब कविताओं के लिए किसी देवता का दिया हुआ आशीर्वाद बन गया है। 


ये वक़्त है कि मिल कर

बिगड़ी हुई बना लेँ

ये वक़्त है कि मिल कर

बिगड़ी हुई बना लेँ

यह वक़्त कीमती हम

यह वक़्त कीमती हम

झगड़ोँ में खो रहे हैँ


यूँ तो कविता के इतिहास में ख़राब कविताओं का दौर आता रहा है लेकिन जिस तरह ऋष्यशृङ्ग ने यह संग्रह हमारे सामने प्रस्तुत किया है उससे हमें याद करना चाहिए कि आख़िर निराला जी ने 'कुकुरमुत्ता' कविता क्यों लिखी? 'पकौड़ी' कविता मंच से क्यों सुनाई उन्होंने? यह इस विमर्श का हिस्सा है लेकिन मुझे लगता है हिंदी समाज को विमर्श नहीं करना होता है बस कौआ कान ले गया करना होता है और कौवे के पीछे दौड़ना होता है।


एक प्रश्न यह भी कि आखिर क्या हुआ है जो ये वालजयी  कविताएँ अपना पैर पसार रही हैं? आखिर कला का कौन सा बोध है जो ये रील्स, पॉडकास्ट, फ़िल्म, संगीत साहित्य की दुनिया में दखल दे चुका है?


तमिल के एक भुला दिए गए कवि मुरुगनार ने राष्ट्रकवि दिनकर से एक बात कही थी - "कविता भी साधना का एक मार्ग है। इससे भी मन का परिष्कार होता है।"


इस ख़राब कविताओं के दौर में क्या ख़राब कविता की कोई साधना चल रही है या कहीं ख़राब कविताएँ किसी और साध्य की ओर संकेत तो नहीं कर रही हैं।


अभी अभी कोविड नामक महामारी से हम उबरे हैं लेकिन इन ख़राब कविताओं की मारामारी और महामारी से हमें कौन उबारेगा? कहीं ऋष्यशृङ्ग की ख़राब कविता और उसकी भूमिका इस महामारी से लड़ने वाली वैक्सीन तो नहीं?


ग़ैरोँ से न शिकायत

ग़ैरोँ से न गिला है

ग़ैरोँ से न शिकायत

ग़ैरोँ से न गिला है

हिन्दोस्ताँ की नाव

हिन्दोस्ताँ की नाव

हिन्दी मेँ बो रहे है


हिंदी के बड़े कवि देवी प्रसाद मिश्र ने एक इंटरव्यू में कहा था कि :- "हिंदी कविता हमेशा से विलम्ब से पहुँचने वाली एक स्त्री है, जिसका प्रेमी जा चुका है।" यह वक्तव्य किस संकट की ओर संकेत कर रहा है? कहीं यह ख़राब कविताओं के आगमन का संकेत तो नहीं था? फिलहाल यह कविताएँ ख़राब कविता आन्दोलन का सूत्रपात करती है। यह देखने लायक होता है कि इसी तर्ज़ और इसी जोश से कितनी और ‘ख़राब’ कविताएँ हमारे सामने आती हैं। 



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नरेन्द्र तिवारी का परिचय


परिचय :- वैसे तो देने लायक नहीं है

फिर भी कुछ तो होगा:- हाँ, पिता जी का दिया हुआ सब।कुछ है उन्हें भगवान ने दिया है ऐसा उनका मानना है।

नाम:- आधार कार्ड पर नरेंद्र कुमार तिवारी लिखा गया है।

क्या करते हैं:- नौकरी छोड़ कर बाकी सब।

कहाँ रहते हैं:- पिता जी की घर में उन्हीं की मर्जी से।

शहर कौन सा है:- सारा शहर इसे गोण्डा के नाम से जानता है।

बाकी:- बाकी सब ठीक



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अम्बुज पाण्डेय का परिचय


अम्बुज पाण्डेय ने स्नातक और स्नातकोत्तर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से पूर्ण किया है। वहीं से पत्रकारिता में पीएच-डी पूरी की। शोध कार्य के दौरान सांस्थानिक पत्र-पत्रिकाओं पर उल्लेखनीय काम। आलोचना, मधुमती, हिमांजलि और लमही समेत अन्य पत्रिकाओं में समय-समय पर आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। इन दिनों हिन्दी विभाग, के. बी. पी. जी. कालेज,  मीरजापुर में सहायक प्रोफेसर के पद पर कार्यरत।


डॉ. अम्बुज कुमार पाण्डेय

असि. प्रो. हिन्दी विभाग,

के.बी.पी.जी. कॉलेज मीरजापुर

उ.प्र. 231001

mailtoambuj@gmail.com


ऋष्यशृङ्ग का परिचय

ऋष्यशृङ्ग ने कुछ अनुल्लेखनीय गद्य लिखा जिससे उनका परिचय सम्यक रूप से नहीँ मिलता। इसलिए अपनी साहित्यिक 'पहचान' बनाने के लिए उन्होंने युग चेतना से संयुक्त हो कर ख़राब कविताएँ लिखने का 'गाढ़ा' परिश्रम किया है। ऋष्यशृङ्ग का मानना है कि कवि का परिचय उसकी रची कविता से हो सकता है और हर कविता कवि के नाम से पहचानी जा सकती है, पर ऐसा पहचाना जाना आस्वादन के लिए अनिवार्य नहीँ है। अगर यह पुस्तक न होती तो इक्कीसवीँ सदी के पाँचवे दशक के आलोचक हेतुहेतुमद् भूत मेँ रह जाते कि ख़राब कविता अपने विशेषण समेत सार्वजनिक रूप से प्रकट होती तो सम्भवतया तीसरे दशक की जड़ता और विद्रूपता कुछ कम होती। तत्प्रयोजको हेतुश्च समकालीन सामूहिक मूर्खता से सज्जित घोर निरर्थकता में यह पुस्तक हवि के रूप में प्रस्तुत है।



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