चितरंजन भारती की कहानी 'सरकार तुम्हारी आँखों में'
चितरंजन भारती |
लोकतंत्रात्मक सरकार के बारे में अब्राहम लिंकन की एक उक्ति हमेशा उद्धृत की जाती है - 'जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए'। लेकिन सत्ता का शायद यह चरित्र ही होता है कि वह मद पैदा कर देता है। जनता द्वारा चुने गए रहनुमा उन्हीं तौर तरीकों को अपनाने लगते हैं जो कभी राजा और सामंत लोग किया करते थे। यह अलग बात है कि जनता चुनावों के माध्यम से सरकारों को अपनी शक्ति का अहसास करा ही देती है। चितरंजन भारती ने अपनी कहानी के माध्यम से सरकारी विद्रूपता को उजागर करने का प्रयास किया है। चितरंजन जी इन दिनों पटना में रहते हुए अपना लेखन कार्य कर रहे हैं। इनके अब तक चार कहानी संग्रह और एक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं चितरंजन भारती की कहानी 'सरकार तुम्हारी आँखों में'।
'सरकार तुम्हारी आँखों में'
चितरंजन भारती
एम. एल. ए. फ्लैट्स के विशाल फाटक के पास जैसे ही मेरा स्कूटर धीमा हुआ, वह दौड़ती हुई मेरे पास पहुँच गई। आने के साथ ही वह मेरे स्कूटर के सामने खड़ी हो कर बोली- "आज मछली-भात खाने का बहुत मन कर रहा है कृष्णा बाबू।"
मुझे नथुनी सिंह ने साढ़े नौ का समय दिया था, सो मैं जल्दी में था। इसलिए उसे दस का नोट पकड़ा कर चलने लगा, तो वह मुँह बिचका कर बोली- "अरे ई नथुनिया के घर का क्या चक्कर लगा रहे हो! इसके पास कुछ नहीं मिलेगा। वह फिर मन्तरी नहीं बनेगा, तुम देख लेना।"
मेरे साथ आया अवधेश झुंझला कर बोला- "अरे कृष्णा भाई! किस पागल के मुँह लगते हो! चलो-चलो, मामा जी समय के बड़े पाबंद हैं। यह पागल क्या जाने सियासी मसलों को। यहाँ की पुलिस भी जाने क्या करती रहती है, जो इन पागलों को छुट्टा छोड़ देती है।"
मैं उसे क्या बताता कि जिसे वह पागल बता रहा है, वह एक जमाने में विधायक रह चुके दिलावर सिंह की पत्नी थी और उनकी राजनीति को यही दिशा-निर्देश करती रही थी। और जिसे वह भिखमंगी बता रहा है, वह रामपुर जैसे नामी-गिरामी जमींदार घराने की बहू रह चुकी है।
सचमुच नथुनी सिंह तनाव और हड़बड़ी में थे। हमारी उनसे कोई खास बात हो नहीं पाई। अवधेश उनकी लल्लो-चप्पो करता रहा। नथुनी सिंह उसके दूर के किसी रिश्ते से उसके मामा लगते थे। मगर जब उन्होंने उसके ज्यादा बक-बक पर डाँटा, तो वह झेंप गया। मंत्रिमंडल में फेर-बदल होने वाला था। इस बार उम्मीद थी कि नथुनी सिंह मंत्री बनाए जाएँगे। मगर उनका चेहरा पता नहीं क्यों उड़ा हुआ था। मुझे जब अपने अखबार के लिए कोई काम की बात नहीं मिली, तो हम वापस लौट चले।
वह फाटक के पास फिर पान चबा रही थी! मुँह और ओंठ सुर्ख लाल हो रहे थे। उसे देख कर कोई भी कह सकता था कि यह कोई सस्ती, चालू किस्म की औरत तो नहीं! हमें देखते ही वह खिलखिला कर हँसती हुई बोली- "मिल आए न! मूड खराब था न? मैं जानती थी कि इस बार फिर नथुनी गच्चा खा जाएगा। अरे, उसे कुछ मालूम भी है राजनीति के बारे में। कितनी बार कहा कि भइया, मुझसे राजनीति सीखो। मैंने ही दिलावर को राजनीति सिखाई थी। अरे, मैं पागल ही सही, मगर मुझे राजनीति की अच्छी समझ है। मगर नहीं माना और गया काम से.... बेचारा!"
"सुचित्रा जी, अगर नथुनी सिंह मंत्री नहीं बनेंगे, तो फिर कौन बनेगा?” मैंने पूछा।
“सजीवन पांडे।” वह फिर ठठा कर हँसते हुए बोली- "अरे, वही करियट्ठा! तुम नहीं जानते उसे, मगर मैं उसे अच्छी तरह से जानती हूँ। वही मन्तरी बनेगा।"
"अरे, चलो भी यार!" अवधेश मुझे खींचता हुआ सा बोला- "अब क्या पत्रकार लोग भी पागलों से सूचनाएँ पाने लगे?"
मैंने स्कूटर का रुख शहर की ओर कर दिया।
दूसरे दिन मैं अपने अखबार के कार्यालय में बैठा एक लेख देख रहा था, तभी मुँह लटकाए अवधेश आ गया। मैंने पूछा- “क्या हुआ... खैरियत तो है!"
"खाक खैरियत है" वह झुंझला कर बोला- "वह पगली ठीक कह रही थी। मामा जी इस बार भी मंत्री नहीं बन पाए। वैसे तुमने अखबार नहीं पढ़ा क्या?"
अखबार के मुखपृष्ठ पर ही छपा था- नथुनी सिंह का पत्ता साफ! संजीवन पांडे मंत्रिमंडल में शामिल।
अब मैंने ध्यान दिया कि कार्यालय में भी इसी मंत्रिमंडल के फेर-बदल की बात चल रही थी। इस बीच अवधेश वहाँ से कब गया, मुझे पता नहीं चला। ... और मैं उस तथाकथित पागल भिखमंगी औरत के बारे में सोचने लगा।
एम. एल. ए. फ्लैट्स के चक्कर लगाना कोई नई बात नहीं थी मेरे लिए। यह कोई बीसेक वर्ष पूर्व की बात है। जब मैं छोटा था और अपने चाचा जी के साथ उनके एक विधायक मित्र रामानुज मिसिर के पास पहली बार एम. एल. ए. फ्लैट्स के उनके विधायक निवास में आया था। वैसे भी वह हमारे ही क्षेत्र से विधायक थे।
उन दिनों मैं दसवीं कक्षा में पढ़ता था और राजनीति में खूब रूचि रखता था। जे. पी. आंदोलन की धूम थी उन दिनों और मैं उसमें हल्का-फुल्का भाग भी लेने लगा था। मेरी राजनीति में रुचि को देख कर मेरे घर वाले, खासकर पिता जी मुझसे विशेष तौर पर नाराज रहते थे। वह मुझे अपनी ही तरह डॉक्टर बनाना चाहते थे। वैसे भी उन्हें राजनीति से सख्त चिढ़ थी और उसे वह गंदे लोगों को खेल बताया करते थे। मगर मेरा तर्क था कि जब राजनीति में अच्छे लोग जाएँगे नहीं, तो वहाँ गंदे लोग रहेंगे ही। खैर जो हो, वह मुझे इससे दूर रखना चाहते थे। उनकी चिंता इस बात की थी कि उनका सबसे बड़ा बेटा इसमें रुचि रख रहा है।
एक दिन मैं थोड़ी देर से घर लौट रहा था। सो वह मुझे आते ही लताड़ने लगे। उसी वक्त कहीं से रामानुज मिसिर हमारे घर आ गए। उन्होंने ही बीच-बचाव किया। मैं मैट्रिक की परीक्षा में साधारण अंक ले कर ही पास हो सका था। इससे पिता जी पहले ही मुझसे बहुत नाराज थे। कारण कि मेरा किसी कॉलेज में नामांकन नहीं हो पा रहा था। मगर रामानुज मिसिर ने इसका जिम्मा स्वयं ले लिया। फिर उन्हीं के प्रयास से मैं राजधानी के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में नामांकन करवाने में सफल रहा। लेकिन अब मैंने विज्ञान विषय छोड़ कर, कला विषय को लिया था। और इसमें भी राजनीति-शास्त्र प्रमुख था।
दरअसल इस मेहरबानी के पीछे मिसिर जी का अपना स्वार्थ था। वह इस बार का चुनाव हार चुके थे। अगली बार वही जीतें, इसके लिए अभी से तिकड़म भिड़ाना आवश्यक था। जे पी आंदोलन के दौरान वह मेरी क्षमता आंक चुके थे। उन्हें अब मुझ जैसे कार्यकर्ताओं की सख्त जरूरत थी। इसलिए उन्होंने मुझ पर एक अहसान लाद सा दिया और मैंने भी उन्हें निराश नहीं किया। अगली बार के चुनाव में उनके लिए जमकर काम किया। काफी दौड़-धूप भी की। सौभाग्यवश वह जीत गए और पुनः एम. एल. ए. फ्लैट्स में आ गए। मैं वहीं राजधानी में पढ़ रहा था, सो उनके यहाँ आना-जाना लगा रहा।
उनके पड़ोस में ही विधायक दिलावर सिंह रहते थे। वह तब अपना चुनाव हार चुके थे। मगर चुनाव में धांधली का आरोप लगा कर अदालत से 'स्थगन आदेश' लिए हुए थे। इसी आधार पर उन्होंने अपना विधायक निवास खाली नहीं किया था। उन पर इसके लिए कई बार दबाव पड़ा, नोटिस मिला। मगर वह टस से मस नहीं हुए। वैसे भी वह एक दबंग और अपराधी प्रवृत्ति के व्यक्ति के रूप में जाने जाते थे। सो उन पर बल प्रयोग करने का साहस किसी को था नहीं। और इस प्रकार वह विधायक निवास में जमे हुए थे।और इन्हीं की दूसरी पत्नी थीं- सुचित्रा सिंह।
उस समय तक मैं नहीं जानता था कि वह उनकी दूसरी पत्नी होंगी। वैसे यह सुना था कि दिलावर सिंह पर उनका बड़ा जबर्दस्त प्रभाव है। दिलावर सिंह ने अपनी पहली पत्नी को गाँव में ही रख छोड़ा था। उससे उनका संपर्क नहीं के बराबर था। उन लोगों की चर्चा अक्सर ही रामानुज मिसिर के यहाँ चलती रहती थी। मुझे भी उत्सुकता होती कि कैसी होंगी, दिलावर सिंह की दूसरी पत्नी!
मगर यह अवसर मुझे मिसिर जी की बेटी के विवाह के अवसर पर ही मिल सका। भारी-भरकम बनारसी साड़ी और पुराने जमाने के फैशन के स्वर्णाभूषणों- हाथों में कंगन, बाहों में बाजूबंद, गले में चंद्रहार और लंबी झूलती जंजीर के अलावा कमर में करधनी, कानों में कंधों तक झूलते झुमके पहने वह सभी के आकर्षण का केंद्र बनी हुई थीं। लगता था कि दिलावर सिंह ने अपनी पहली पत्नी से यह सब छीन कर उन्हें दे डाला था। मुझे लगा जैसे मैं पुराने जमाने की किसी फिल्मी राजरानी को देख रहा होऊँ! हालाँकि आज के इस दौर में ये पुराने फैशन के जेवरात कुछ जँच नहीं रहे थे। तिस पर खद्दरधारी, स्थूलकाय, श्वेत केश वाले दिलावर सिंह के बगल में बैठी वह और अजीब लग रही थीं। दिलावर सिंह तो हास्यास्पद ही लग रहे थे। मगर इससे किसी को क्या! वह बीच-बीच में उठकर चहकतीं-बोलतीं, लोगों को निर्देश देतीं, कार्यकर्ताओं को डाँटतीं, तो ऐसा लगता मानो उनके घर में ही बारात आने वाली हो। इन्हीं कुछ बातों से उनके रौब-दाब का पता चलता था। मजाल कि कोई उनकी बात अनसुनी कर दे अथवा टाल जाए।
दूसरी बार मैंने उन्हें तब देखा, जब दिलावर सिंह के घर को खाली कराने के लिए पुलिस आई हुई थी। दिलावर सिंह कहीं बाहर गए हुए थे। और सुचित्रा रणचंडी बनी, साँप सी फूँफकारती हुई, दारोगा के हर सवाल का तीखा जवाब देते हुए उन लोगों के नाम गिना रही थीं, जो अब विधायक तो नहीं रहे थे, फिर भी विधायक निवास पर कब्जा जमाए बैठे थे। मगर पुलिस शायद हर संभव तरीके से उनका घर खाली करवाने पर तुली थी। मैंने दारोगा के इरादे को भाँप कर कि अब शायद वो उनका सामान बाहर फिंकवाए, उससे कहा कि दिलावर सिंह की अनुपस्थिति में यह जबर्दस्ती ठीक नहीं। फिर भी जब वो नहीं माना, तो मैंने रामानुज मिसिर के घर से आरक्षी अधीक्षक को फोन कर दिया। एस. पी. ने तुरंत वहीं फोन पर दारोगा को बुलवाया और वापस लौटने का निर्देश दिया। और इस प्रकार उनका घर खाली होने से बच सका।
उस दिन उन्होंने मेरा काफी सत्कार किया। फिर बाद में तो यह भी होने लगा, कि जब भी मैं रामानुज मिसिर के यहाँ जाता, तो उनके घर भी जाना जरूरी पड़ने लगा। दिलावर सिंह भले ही अब विधायक न रहे हों, मगर अब भी विधायकों, मंत्रियों आदि का उनके घर में आना-जाना लगा रहता था। उन्हीं दिनों मैंने जाना कि ये तथाकथित राजनीतिज्ञ भले ही एक-दूसरे को कोसते-गरियाते हों, मगर इनका आपस में याराना बना ही रहता है।
एक दिन ऐसे ही बात चली, तो सुचित्रा जी बोलीं- "अरे भाई, सरकार को या तो आँखें होती नहीं.... और अगर होती भी हैं, तो उनमें स्वार्थ का तिनका पड़ा रहता है...।" इस बात पर सभी ठठा कर हँस पड़े थे और सत्ता पक्ष के एक मंत्री खिसियानी हँसी हँस कर रह गए थे।
इसके बाद एक लंबा अंतराल आ गया था। बी. ए. करने के बाद पत्रकारिता का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए मैं दिल्ली चला आया था। और जब वहाँ से वापस लौटा, तो यहीं के एक दैनिक अखबार में सह-संपादक की नौकरी मिल गई थी। तब तक काफी परिवर्तन आ चुके थे। विधायक रामानुज मिसिर अब एम. एल. ए. नहीं रहे थे और मैं दिलावर सिंह और उनकी पत्नी सुचित्रा को भूल ही चुका था।
एक दिन अचानक ही मुझे समाचार संकलित करने के लिए एम. एल. ए. फ्लैट्स में आयोजित समारोह में जाना पड़ गया। वहीं मुझे अस्त-व्यस्त हालत में बाल बिखेरे, बक-झक करते, झुंझलाते हुए एक औरत दिखी। मैं उसे याद करने की कोशिश करने लगा कि उसे कहीं देखा तो है, मगर कहाँ, मालूम नहीं। मैंने स्मृतियों पर बहुत जोर दिया। मगर वहाँ कुछ भी दृष्टिगोचर हो नहीं हो सका।
अचानक ही उसकी नजर मुझसे मिली, तो वह तेज कदमों से हुए मेरे पास आ गई और बोली- "अरे कृष्णा बाबू! ऐसे क्या देख रहे हो? भूल गए क्या मुझे? अरे मैं दिलावर सिंह की औरत हूँ! अरे, याद नहीं आ रहा, जब तुमने एस. पी. को फोन कर मेरे घर में से दारोगा को भगाया था!" इतना कहने के साथ ही वह जोर-जोर से हँसने लगी।
मैं जिस विधायक नरेंद्र चौधरी के घर में आयोजित समारोह के सिलसिले में आया था, संयोगवश उन्हें वही घर मिला था, जिसमें कभी दिलावर सिंह रहते थे। वहाँ की खिड़की से मैं उस विशाल फाटक की ओर देखने लगा, जहाँ वह खड़ी हो कर एक सिपाही से बहस कर रही थी। वहाँ कई ढाबेनुमा दूकानें थीं, जिनमें सब्जी, फल, मिठाई, चाय-पान आदि बिकती थीं। कुछ होटल भी थे। तभी विधायक नरेंद्र चौधरी आ गए और मुझसे पूछने लगे- "उस पगली ने कुछ कहा क्या आपको?"
"नहीं तो!" मैं आश्चर्यचकित होते हुए बोला- "क्या वह पागल है? वैसे उनके बारे में थोड़ा-बहुत जानता हूँ। मगर यह इतना बड़ा परिवर्तन हुआ कैसे....? कहाँ वह रानियों सी रहने वाली सुचित्रा..... और कहाँ यह.....”
"पागल....भिखमंगी।" उन्होंने बात पूरी की। फिर एक गहरी साँस भर कर बोले- "यह सब समय का खेल है कृष्णा बाबू! शायद आपको पता नहीं... कोई पाँचेक वर्ष पूर्व दिलावर सिंह की हत्या कर दी गई थी। इसके थोड़े दिनों बाद ही उनके रिश्तेदार और उनकी पहली पत्नी से हुए दोनों पुत्र आए और इसके कीमती कपड़े जेवर ही नहीं, सारा सामान उठा ले गए। हमारा कानून दूसरी पत्नी को 'पत्नी' नहीं मानता। सो रामपुर की वह बड़ी हवेली, जमीन, और अन्य सारी चल-अचल संपत्ति से वह स्वयमेव वंचित हो गई। यहाँ तक कि वे इसे साथ रखने तक को तैयार नहीं हुए। उल्टे मारपीट कर वहाँ से भगा दिया। मायके में कोई था या नहीं, नहीं पता। और एक दिन पुलिस आई और इसी विधायक निवास से उसे दूध में गिरी मक्खी की तरह बाहर निकाल फेंका।"
"मगर वह पागल कैसे हो गई?”
"अजीब सवाल करते हैं, आप भी!" वह बोले- "अरे, जिसने हरदम दोनों हाथ रुपए लुटाए हों.... अच्छा खाया और अच्छा पहना हो.... जिसके इर्द-गिर्द कभी चमचे-चाटुकार मँडराते रहे हों... जिसका रौब-दाब हो समाज पर.... वह एकाएक दाने-दाने को मोहताज हो जाए, तो वह पागल नहीं होगा, तो और क्या होगा?
"शुरू-शुरू में तो उसने स्वयं को सँभालने की बड़ी कोशिश की। राजनीतिज्ञों से थोड़ी बहुत जान-पहचान तो थी ही। सो उसने राजनीति में ही घुसने का प्रयास किया। मगर आज की राजनीति धन-जन-बल हीन व्यक्ति को घास नहीं डालती। धीरे-धीरे उसे अहसास हुआ कि वह पुरुषों का खिलौना भले बन जाए, राजनीति उसके बस का रोग नहीं। और तभी से उसका दिमाग खराब होना शुरू हुआ। अब तो वह खुलेआम फाटक के पास या सड़कों-चौराहों के पास खड़ी हो कर विधायकों-मंत्रियों आदि का कच्चा चिट्ठा जनता के सामने प्रस्तुत करती रहती है।
"स्वाभाविक ही पहले जो विधायक या मंत्री उसे अपने यहाँ आने देते थे, कभी-कभार सहायता भी कर देते थे, अपनी पोल-पट्टी सार्वजनिक स्तर पर खुलते देख कर अपने यहाँ से उसे भगाने लगे। और वह यहीं फाटक के सामने के छोटे-छोटे ढाबेनुमा दूकानों में बर्तन माँज कर, झाडू लगा कर अथवा किसी-किसी से माँग-छीन कर भी खा लेती है, और इधर ही कहीं किसी कोने में रह लेती है।"
अतीत की घटनाओं की कथा जान कर पता नहीं क्यों उसके प्रति मेरे मन में और सहानुभूति उमड़ आई थी। उस दिन के बाद तो अक्सर ही ऐसा होता कि जब भी मैं उधर जाता, तो वह मुझे देखते ही दौड़ कर आ जाती और कभी कुछ, कभी कुछ खाने-पीने की फरमाइश कर बैठती थी। मैं उसे उसकी मनपंसद वस्तुएँ खिला-पिला दिया करता था। उसकी बच्चों की तरह मचलने की आदत सी हो गई थी, जिसे देख कर मन कचोट सा जाता था। वैसे उसकी एक विशेष खराब आदत यह थी कि जहाँ पेट भरा नहीं, कि उसका बकवास शुरू हो जाता था। इसके बाद वह यहाँ-वहाँ एम. एल. फ्लैट्स के आगे-पीछे, चौराहों, सड़कों आदि पर स्वच्छंद रूप से घूमने-फिरने लगती। वह जिस किसी मंत्री या विधायक के घर में निर्भय रूप से घुस जाती थी। वैसे भी यह ऐसी जगह थी, जहाँ प्रांतीय-राष्ट्रीय स्तर की राजनीति के चर्चे हमेशा चला करते थे। और वह उन बातों के आधार पर ऐसे-ऐसे निष्कर्ष निकाल लेती थी, कि दाँतों तले उँगलियाँ दबाने को जी चाहता था। क्योंकि अक्सर ही उसके निष्कर्ष सही सिद्ध होते थे।
मैंने उससे कई बार कहा कि वह भी सामान्य जीवन क्यों नहीं जीती! अभी भी तुम्हारी इतनी जान-पहचान है। दिलावर सिंह जिस पार्टी में थे, अभी उसी की सरकार है। तुम चाहो, तो तुम्हें उससे सहायता मिल सकती है। हक मिल सकता है। अभी सारा जीवन पड़ा है तुम्हारा! फिर उसे यूँ ही बरबाद करने से क्या फायदा?
इस पर पहले तो वह ठहाके लगाती, फिर मायूस हो कर कहती- "किस सरकार की बात कर रहे हो कृष्णा बाबू! सभी एक जैसे ही तो हैं। मैं तो शुरू से यही मानती रही हूँ कि सरकार की आँखें नहीं होतीं। और अगर होती भी हैं, तो उनमें स्वार्थ का, लूट-खसोट का तिनका फँसा रहता है। इसी सरकार के एक विधायक दिलावर ने मुझे धोखा दिया। मैं उस वक्त क्या जानती थी कानून को कि वह मेरी दुर्गति कराएगा। दिलावर तो मर गया। मगर मुझे घुट-घुट कर मरने को छोड़ गया! अभी उसी का तो एक भतीजा विधायक है। मगर सहायता करना तो दूर की बात, मुझे कई बार परेशान कर चुका है। वह तो मैं ही थी, जो जीती रही....।”
अचानक ही मुझे जैसे झकझोर गया, तो मैं जैसे चौंक कर उठा। सामने सतीश खड़ा था। मुझे देखते हुए मुस्करा कर बोला- "क्यों, क्या हुआ... कहाँ खोए हुए थे?"
"नहीं.... बस ऐसे ही..."
"अरे, तुम्हें कुछ मालूम भी है?"
"क्या...?"
"क्या यार! तुम काम करते हो अखबार के कार्यालय में और तुम्हें दीन-दुनिया के बारे में कुछ मालूम भी नहीं रहता? खैर, उस एम. एल. ए. फ्लैट्स के पास एक हादसा हुआ है। वहाँ कोई एक पागल सी औरत रहती थी, जो इधर-उधर घूमती-फिरती रहती थी। सुनते हैं कि वह किसी विधायक की रखैल थी। उसे कोई ट्रक कुचल कर भाग गया। ऐसा सुना है कि वह दुर्घटना नहीं, बल्कि एक षड्यंत्र है। उसे किसी एक अवैध धंधे और उसमें शामिल लोगों के बारे में जानकारी हो गई थी। और जैसा कि उसकी आदत थी, सुनते हैं, वह सबको बताती फिरती, इसलिए.... "
"तो क्या वह मर गई ?" मैं चौंक कर पूछ बैठा।
"ट्रक से कुचल कर भी कोई जिंदा बचता है?" सतीश झुंझला कर बोला- "उसको तो मरना ही था। मगर एक बात बताओ। तुम तो ऐसे पूछ रहे हो, जैसे उसे वर्षों से जानते हो? जानते थे क्या उसे?"
"हाँ, बहुत अच्छी तरह से...।"
"यह तो बहुत अच्छा हुआ" वह जैसे चहक कर बोला- "मैं तो यहाँ-वहाँ भटकने से बच गया। चलो चलें, एक सच्ची कथा तैयार हो जाएगी। मैं उसमें तुम्हारा भी नाम दे दूँगा।"
मेरा मन बुझ सा गया। मेरे कानों में सुचित्रा की आवाज गूंजने सी लगी- "या तो सरकार के आँखें नहीं होतीं.... और अगर होती भी हैं, तो उनमें स्वार्थ का, लूट-खसोट का तिनका फँसा होता है... उसमें कोई क्या कर सकता है... कुछ नहीं कर सकता है...”
"अब क्या सोचने लगे?" सतीश फिर बोला- "चलो न!”
"जाने भी दो यार!" मैं बोला- "वह औरत पहले ही बहुत तकलीफ सह चुकी थी। अब उसके मरने के बाद उसकी आत्मा को तो मत तकलीफ दो।"
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
चितरंजन भारती
फ्लैट सं.- 405, लक्ष्मीनिवास अपार्टमेंट
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मोबाइल- 7002637813, 9401374744
ईमेल- chitranjan.2772@gmail.com
वर्तमान राजनीति में वास्तविकता की जीती-जागती प्रस्तुति 👌👍💞 अत्यंत सुन्दर चित्रण
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर आदरणीय
जवाब देंहटाएंआज की राजनीति की जीवंत प्रस्तुति के लिए चितरंजन भारती जी को बधाई।
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