केतन यादव की रपट “इलाहाबाद में कविता का पुराना गौरवशाली समय लौट रहा है”
इलाहाबाद में साहित्यिक संगोष्ठियों की अपनी समृद्ध और पुरातन परम्परा रही है। रचनाकारों के घर पर गोष्ठियों के आयोजन को भला कौन भूल सकता है। इन गोष्ठियों में लम्बी चौड़ी बहसें होती थीं। हिन्दी साहित्य की कई महत्त्वपूर्ण रचनाकारों की चर्चित रचनाएं इन गोष्ठियों के चलते ही प्रकाश में आई। इस क्रम में इलाहाबाद के युवा रचनाकारों ने एक नई पहल के अन्तर्गत कुछ नए शिल्प में गोष्ठियों का आयोजन आरम्भ किया है। विगत 6 दिसम्बर 2024 को इलाहाबाद के रसूलाबाद घाट पर एक अनूठी गोष्ठी हुई। इस गोष्ठी की एक रपट युवा कवि केतन यादव ने उपलब्ध कराई है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं यह रपट। रपट में प्रयुक्त चित्रों को हमें केतन ने ही उपलब्ध कराया है।
“इलाहाबाद में कविता का पुराना गौरवशाली समय लौट रहा है” - हरीश चंद्र पांडेय
प्रस्तुति : केतन यादव
दिसंबर की पाँच तारीखें बीत चुकी थीं। छ: दिसंबर तमाम इतिहास समेटे उग रहा था। वही छः दिसंबर जिस दिन बाबासाहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर ने आखिरी साँस ली थी। और उसी छः दिसंबर को इस देश की सांप्रदायिक ताकतों ने अपने असंवैधानिक मनसूबों के कारण खून से लाल कर दिया था। छ: दिसंबर केवल 1992 में ही घटित नहीं हुआ था वह उसके बाद बार-बार घटित होता रहा। 2002 में भी, 2013 में भी, 2020 में भी और इस समय-अंतराल में बार-बार। भर्तृहरि कहते हैं “कालो न गच्छति” वह काल बीत कर भी कहाँ बीत रहा वह तो विकराल होता जा रहा है। छ: दिसंबर की उस घटना का प्रतिकार तबके कवियों ने भी किया था और आज भी किया जाएगा। छः दिसंबर को संविधान के शिल्पकार को याद करते हुए इलाहाबाद की वरिष्ठ और युवतम् कवि पीढ़ी रसूलाबाद घाट पर अंतर्संवाद करने के लिए इकट्ठा हुई। इस आयोजन का विषय था — ‘नदी और कविता’।
एक शृंखला के रूप में शुरू की यह गोष्ठी सबसे पहले कड़ी के रूप में लगभग वर्ष भर पहले यानी इसी 2024 के 17 जनवरी के दिन आयोजित की गई थी जिसका नाम था — ‘आग और कविता।’ इलाहाबाद की सबसे सर्द रात थी वह और मेरे राजापुर स्थित रूम पर छत पर हम कुछ युवा साथी इकट्ठा थे। ठंड ने बहुतों का संबल हिला दिया था फिर भी हम पाँच साथी - आदर्श, प्रतीक, प्रज्ज्वल, सत्यम और मैं उपस्थित थे। हमनें रात भर गोष्ठी की। पहला सत्र कविता पर था जो कि खुले आसमान के नीचे अलाव के सामने रात 8.30 से से शुरू हो कर एक बजे तक चला। बीच में चाय और जलपान का ब्रेक भी था। हम सब ने कंबल से खुद को ढक कर आग के सामने अपना पहला सत्र पूरा किया था। सबसे पहले हिंदी कविता के इतिहास में आग से संबंधित तमाम पुरखा कवियों की कविताओं को सबने पढ़ा फिर अगले चरण में सबने अपनी कविताएं पढ़ीं। रात क़रीब एक बजे पहला सत्र समाप्त हुआ और अगला सत्र विचार गोष्ठी का था जो कि सुबह क़रीब चार बजे तक चला। जिसमें सबने तमाम विषयों पर खूब बहसें कीं। सबको निर्धारित विषयों में से चुनाव करके पर्चा पढ़ना था फिर उस पर सबने बात रखी। विषय थे — ‘समकालीन हिंदी कविता में छंदबद्धता एवं लयात्मकता पर विचार’, ‘कविता बनाम विचारधारा, कवि कर्म बनाम सोशल एक्टिविज्म’, ‘समकालीन कविता की नयी वैचारिक जमीन दिशा एवं दशा', ‘विचारधारा का अंत, बाजारवाद, भूमंडलीकरण, नव उदारीकरण, उत्तर आधुनिकता, उत्तर संरचनावाद का समकालीन कविता पर प्रभाव।’ मैंने जो सोच कर यह गोष्ठी शुरू की थी उसमें काफ़ी हद तक सफल भी रही। इलाहाबाद में इसकी चर्चा भी हुई। कड़ाके की ठंडी रात में यह आइस ब्रेकिंग जैसा कुछ था। हमारी पीढ़ी जो नये मीडिया माध्यम और सूचना के बमबारी के समय में अपनी रचनात्मकता की खोज कर रही है; जिस पर संवादहीन होने का आरोप लगता रहा है; मेरी चिंता और सरोकार में यह विषय हमेशा से रहा कि हम सब बार-बार मिलें, बातें करें। इलाहाबाद में बहसों, सहमति-असहमति की पुरानी परंपरा रही है। जिसके विषय में तीन वर्षों में मैं परिचित हो चुका था।
17 जनवरी 2024 ‘ आग और कविता ’ गोष्ठी का चित्र
इस बार हम सब नये विषय के साथ इकट्ठा थे। ज़ाहिर है यह गोष्ठी नदी के तट पर ही करनी थी। हम सूचनाओं के नाममात्र के आदान-प्रदान के लिए एक व्हाट्सएप ग्रुप बनाए हुए हैं जिसका नाम — ‘रचनात्मकता की खुराक के निमित्त’ है। इस बार की गोष्ठी में मुझे कवि मित्र आशुतोष प्रसिद्ध का काफी सहयोग मिला। इस बार की गोष्ठी की संरचना में भी थोड़ा परिवर्तन था। पिछली बार जहां केवल युवा साथी थे इस बार हमने इलाहाबाद की वरिष्ठ कवि-पीढ़ी का भी साथ लिया। मुझे इस बात का डर था कि क्या सुबह साढ़े सात बजे सभी उपस्थित हो पाएंगे? लेकिन सात बजे से ही कवियों ने घाट पर जमावड़ा शुरू कर दिया था। वही घाट जिसका एक दिन पहले नाम ‘चंद्रशेखर आज़ाद घाट’ था हम उसे उसके लोकप्रिय वास्तविक नाम रसूलाबाद घाट के नाम से ही बुला रहे थे। गोष्ठी में वरिष्ठ साहित्यकारों में प्रो. राजेन्द्र कुमार, हरीशचंद्र पांडेय, अनीता गोपेश, अजामिल, यश मालवीय मौजूद थे और युवा साथियों में आशुतोष प्रसिद्ध, आंशी अग्निहोत्री, प्रज्ज्वल चतुर्वेदी, शिवम् चौबे, शिवांगी गोयल, पूजा और कुछ अन्य साथी उपस्थित थे। कैमरे के माध्यम से नीतीश भाई पूरे आयोजन को संग्रहित कर रहे थे।
कविता का विषय भले नदी हो पर आस-पास के सभी दृश्य अपने आप कविता के पुराने विषय थे। जिस घाट पर हम बैठे थे उसके ठीक सामने साहित्यकार 'सहकार न्यास' था जिसे महीयसी महादेवी ने साहित्यकारों के लिए ठहर कर सृजन करने के उद्देश्य से बनाया था। घाट के सामने शीतल मन्द गति से बहती गंगा और पीछे पाकड़, बरगद, पीपल के सघन वृक्ष थे। पास ही में एक ओर रसूलाबाद के श्मशान गृह पर लाशें जलनी शुरू हो गई थीं तो दूसरी तरफ घाट से सटे तमाम मंदिरों में प्रातः आरती और पूजा-पाठ शुरू हो गया था। मंदिर की घंटियां व्यवधान न बन कर एक सांगीतिक वातावरण बना रही थीं। हालांकि वातावरण पड़ो की सरसराहट, चिड़ियों के गुंजन, गंगा की कलकल और कवियों की कविताओं की ध्वनियों से संयुक्त मिल कर बन रहा था। अंतिम संस्कार के लिए लाए गये सरसों आस-पास छींटने के कारण उग आए थे और सरसों की एक नाममात्र की फसल भी अपना पीलापन बिखेर रही थी। नदी से सट कर नाँव सुस्ता रहे थे। दूर क़र्ज़न ब्रिज खड़ा मॉर्निंग वॉक के लिए राह बुहार रहा था। प्रातःकालीन स्नान के लिए तमाम लोग घाट पर उपस्थित भी थे। और हम सब एक ओर घाट के। करीब आठ बजे चाय और नमकीन के साथ हमारी गोष्ठी शुरू हो गई थी।
आयोजन की शुरुआत वरिष्ठ कवि आलोचक प्रो राजेन्द्र कुमार ने एक संक्षिप्त उद्बोधन के साथ किया। फिर क्रमशः सबने नदी पर अन्य कवियों की एक-एक और फिर अपनी कुछ कविताएं पढ़ीं। हरीश चंद्र पांडेय जी ने 'अयोध्या', 'महराजिन बुआ' और 'यमुना इलाहाबाद में संगम होती हुई' पढ़ी तो शिवम् चौबे ने 'नदी' शीर्षक से कविता पढ़ी। अजामिल जी ने 'परिंदे', 'किन्नर', 'एक नाव की नोक पर' और 'जूते' शीर्षक से कविता पढ़ी तो प्रज्ज्वल ने 'दैन्यम च पलायनम् च' शीर्षक से कविता पढ़ी। पूजा ने 'आदर्श' शीर्षक से कविता पढ़ी तो शिवांगी गोयल ने 'मणिकर्णिका' और 'रोटियां' तथा आंशी अग्निहोत्री ने 'चेतना' और 'गुलमोहर' शीर्षक से कविताएं पढ़ी। आशुतोष प्रसिद्ध ने 'नैहर का मोह छूठता नहीं' नामक कविता पढ़ी और अनीता गोपेश जी ने नदी पर जॉन एलिया के खूबसूरत शे'र पढ़े। मैंने 'पहली प्रेमिका', 'यह किसका ईश्वर है' शीर्षक से कविताएं पढ़ी और गोष्ठी के समापन पर एक आत्मीय वक्तव्य के साथ प्रो राजेन्द्र कुमार ने 'चल रही है नाव', 'पहाड़ और नदी', 'साइबेरियन' शीर्षक से कविता पढ़ी। प्यारे गीत कवि यश मालवीय ने छोटे दिवंगत कवि भाई वसु मालवीय की एक कविता ‘आ गया बीच अपने छ: दिसंबर’ पढ़ी और उसके बाद अपनी —'नदी को देखे बहुत दिन हो गए', 'एक दिन ये नदी बोली', 'अनमने राम' शीर्षक से नवगीत का पाठ किया।
सब ठंडी हवाओं की कँपकँपी महसूस कर रहे थे पर कविता की ऊष्मा सबको गर्म रख रही थी। मैंने नोटिस किया कि जब-जब कोई कविता अपने चरम पर पहुंचती थी सब ध्यानस्थ हो कर उसमें डूब जाते थे। इस तरह यह परीक्षण भी हो गया। सभी बहुत संतुष्ट थे। अजामिल जी ने कहा कि इस तरह की गोष्ठी मेरे अनुभव में इलाहाबाद में पहली बार हो रही थी। राजेन्द्र कुमार जी एवं हरीश चंद्र पांडेय जी ने भी बहुत सारी आशाएं व्यक्त की। अनीता गोपेश जी ने कहा कि युवाओं का जोश नयी आशा भर रहा है तो यश मालवीय ने कहा कि ऐसी गोष्ठी की परिकल्पना ही अपने आप में कविता है। सबके चेहरे की संतुष्टि मुझे सुकून दे रही थी। इस शृंखला की आगे की अनूठी गोष्ठियाँ जारी रहेंगी। कविता पंक्षी, पेड़, पहाड़, जंगल और विभिन्न शहरों से हो कर आगे बढ़ेगी। कवि यश मालवीय ने घर जाकर एक गीत लिख कर भेजा उस आयोजन की स्मृतियों को संजोते हुए। उसकी कुछ पंक्तियाँ —
कविता जागी नदी किनारे
कविता जागी नदी किनारे
कुहरा कटा, कटे अंधियारे
किरन किरन पी गई सुबह की
गंगा के सब आंसू खारे
इस तट पर बैठा उजियारा
उस तट जाने कौन पुकारे
सम्पर्क
केतन यादव
मोबाइल : 8840450668
इस शानदार पहल के लिए युवा मित्रों का आभार और वरिष्ठ रचनाकारों का अभिनन्दन।।
जवाब देंहटाएंमन तृप्त हो रहा है,उम्मीद है यह क्रम अनवरत आगे बढ़ता ही जाएगा..
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार आयोजन था। ऐसे आयोजन एक नई उम्मीद दिलाते हैं कि आने वाला समय इलाहाबाद के साहित्यिक परिवेश के लिए अच्छा होने जा रहा है। आशा करता हूं कि यह यात्रा अनवरत जारी रहेगी। केतन ने अच्छी रिपोर्ट लिखी है।
जवाब देंहटाएंशानदार प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंशानदार प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रहा, पढ़ के ना शामिल हो पाने अभाव महसूस होता है!
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