हरे प्रकाश उपाध्याय की टिप्पणी 'दामोदर दत्त दीक्षित का सर्जक व्यक्तित्व'

 





हिन्दी साहित्य में एक ऐसा भी दौर दिखाई पड़ता है जब कुछ प्रमुख रचनाकार रचनात्मक गतिविधियों के अतिरिक्त प्रकाशन का कार्य भी सहजता से किया करते थे। भीषण महंगाई और जोड़ तोड़ के आज के समय को देख कर लगता है जैसे अब वह समय बीत गया। आज गिने चुने रचनाकार ही ऐसे हैं जो प्रकाशन कार्य से जुड़े हुए हैं। हरे प्रकाश उपाध्याय हमारे समय के सुपरिचित कवि हैं। इससे इतर उनका एक और व्यक्तित्व प्रकाशक का भी है। वे लखनऊ से रश्मि प्रकाशन का संचालन करते हैं। इस प्रकाशन से उन्होंने कई जरूरी पुस्तकें प्रकाशित कर खुद को साबित किया है। प्रकाशन एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य है। इसमें दूरदर्शिता के साथ साथ तकनीकी समझ की भी जरूरत पड़ती है। एक बेहतर प्रकाशक में इस दृष्टि का होना आवश्यक तो होता ही है कि क्या प्रकाशित किया जाए, इससे अधिक यह जरूरी होता है कि क्या न छापा जाए। दोयम दर्जे की किताबें प्रकाशित करने से प्रकाशक की छवि धुंधली होती है। प्रकाशन के साथ साथ हरे प्रकाश ने सुपरिचित लेखक दामोदर दत्त दीक्षित के रचना संसार का चयन एवम सम्पादन भी किया है। इस सम्पादन के अन्तर्गत उन्होंने एक दीक्षित जी की रचनाधर्मिता पर महत्त्वपूर्ण टिप्पणी लिखी है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं हरे प्रकाश उपाध्याय की टिप्पणी 'दामोदर दत्त दीक्षित का सर्जक व्यक्तित्व'।


'दामोदर दत्त दीक्षित का सर्जक व्यक्तित्व'


हरे प्रकाश उपाध्याय


सुपरिचित लेखक दामोदर दत्त दीक्षित 25 दिसंबर, 2024 को अपने जीवन के पचहत्तर वर्ष पूरे कर रहे हैं। यह पुस्तक इसी उपलक्ष्य में सम्मानस्वरूप उनकी कृतियों के पाठकों व प्रशंसकों को एक विनम्र भेंट है। इस पुस्तक में उनकी रचनाओं और रचनाओं के समय-समय पर हुए मूल्यांकन, उन पर लिखी गई टिप्पणियों आदि से छाँट कर एक चयन तैयार करने की कोशिश की गई है। हालांकि रचनाओं की अधिकता और संसाधनों की सीमा के कारण कई महत्वपूर्ण रचनाएं, जिन्हें उनके पाठकों और सुधी आलोचकों ने महत्वपूर्ण माना है, उन्हें भी शामिल न कर पाने का अफसोस है। इसी विवशता में श्री दीक्षित के बारे में सुधी आलोचकों द्वारा लिखे गये अनेक महत्वपूर्ण लेखों और समीक्षाओं को भी छोड़ना पड़ रहा है। जो चीज़ें छोड़ दी गई हैं, वे शामिल की जा रही रचनाओं से किसी भी मामले में कमतर थीं, ऐसा कतई नहीं माना जा सकता। विविध-विस्तृत और विशाल रचनात्मक उपलब्धियों में से  यहाँ-वहाँ से कुछ-कुछ चीज़ें उठा कर इस पुस्तक में इस तरह संयोजित करने की कोशिश की गई हैं कि श्री दीक्षित की रचनात्मक प्रवृत्तियों का एक ऐसा कोलाज सामने आ सके, जो उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की झलक पेश करे। यहाँ शामिल रचनाओं को प्रतिनिधि या श्रेष्ठ मानना शायद बाकी रचनाओं के साथ अन्याय ही होगा। बहुत सारी चुनी रचनाएं तो अंतिम दौर में पृष्ठों की अधिकता के कारण मन मसोस कर हटानी पड़ीं। कुछ समीक्षाएं रोकनी पड़ीं। फिर भी आप देखेंगे कि यह पुस्तक कम भारी-भरकम नहीं है।

       

श्री दीक्षित ने तेइस-चौबीस वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया और लगभग इसी उम्र में उनकी पहली रचना अपने समय की सुप्रसिद्ध पत्रिका ‘धर्मयुग’ में 15 अप्रैल, 1973 के अंक में प्रकाशित हुई। इस हिसाब से देखें तो श्री दीक्षित को लिखते हुए भी पचास वर्ष से अधिक हो रहे हैं। उनकी पहली प्रकाशित रचना एक व्यंग्य रचना थी, जबकि उनकी पहली कहानी ‘सिपाही की ट्रेनिंग’ लखनऊ से प्रकाशित  होने वाले दैनिक समाचार पत्र ‘स्वतंत्र भारत’ में 6 जनवरी, 1974 को एक कहानी प्रतियोगिता के अंतर्गत प्रकाशित हुई। अब इस पहली ही कहानी की लोकप्रियता का अंदाज़ा आप इससे लगा सकते हैं कि शादी के बाद लेखक की पत्नी उस कहानी की अख़बार की कटिंग दिखाते हुए तस्दी़क़ करती हैं कि क्या आप वही व्यक्ति हैं, जिसने यह कहानी लिखी है। किसी रचना की लोकप्रियता का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि उसकी छपी प्रति को पाठक अपने पास किसी अमूल्य थाती की तरह संजो-संभाल कर रखे।   

       

श्री दीक्षित ने एक लंबा समय लिखते-पढ़ते हुए गुज़ारा है। हालांकि वे व्यस्ततम प्रशासनिक सेवा में रहे और एक ज़िम्मेदार पद पर काम करने के कारण उनका काफी समय सरकारी दायित्वों के निर्वहन में भी गुज़रा। अपने उन दायित्वों के प्रति भी वे काफी ईमानदार रहे और पूरी निष्ठा से संबंधित कर्तव्यों का निर्वहन उन्होंने किया। इस पुस्तक में उनके कुछ तत्कालीन विभागीय सहयोगियों के संस्मरण भी शामिल किये गये हैं। उनसे गुज़रते हुए आप पाएंगे कि श्री दीक्षित अपने प्रशासनिक दायित्वों के प्रति कितने निष्ठावान और समर्पित रहे। वे अपने विभाग के एक सख्त अफ़सर समझे गये। उन्होंने हर विभागीय कार्य को तय समय सीमा के अंदर, नियमपूर्वक और भरपूर दक्षता के साथ संपन्न कराने के संकल्प व गति के साथ काम किया। इसमें कहीं कोई ढिलाई उन्हें पसंद नहीं रही। बावजूद इसके अपनी संवेदनशीलता को उन्होंने छोड़ा नहीं। नियमों और कार्यों के प्रति सख्ती के साथ-साथ अपने सहयोगियों के अधिकारों और उचित देयों के प्रति भी वे संवेदनशील बने रहे और कर्मचारी हित की गतिविधियों में भरपूर रूचि ले कर अपने अधीनस्थों के समुचित देयों का नियमत: और समयत: भुगतान कराने का प्रयास किया। यह एक उल्लेखनीय बात है। 

       

समर्पित सरकारी सेवक होने के साथ ही श्री दीक्षित एक भरपूर पारिवारिक क़िस्म के भी व्यक्ति हैं। अपने सरकारी दायित्वों के दबाव और लिखने-पढ़ने के चस्के में परिवार की उन्होंने उपेक्षा कर दी हो, ऐसा बिलकुल नहीं है। जबकि ऐसा अक्सर देखने में आता है कि बाहरी संसार की परवाह करने वाले अपने ही परिवार के प्रति निरपेक्ष हो जाते हैं या कि निज परिवार की उपेक्षा कर देते हैं। अनेक उदाहरण हमारे सामने आते हैं कि कर्तव्यनिष्ठ समझे जाने वाले अफ़सरों या रचना व कला-संस्कृति की दुनिया में चमकने वाले सितारों का पारिवारिक जीवन त्रासद या कम से कम उदासीन होता है। पर इस पुस्तक से आप गुज़रेंगे तो आप पाएंगे कि श्री दीक्षित ने परिवार को भरपूर प्यार ही नहीं, भरपूर समय भी दिया है। श्री दीक्षित के परिवारी जनों ने अपने संस्मरणों में बताया है कि किस तरह वे परिवार के हर सदस्य की छोटी-छोटी ज़रूरतों और भावनाओं का ख्याल रखते हैं और रखते रहे हैं। अपने दोनों बेटों के लालन-पालन से ले कर उनकी स्कूली शिक्षा की छोटी-छोटी गतिविधियों तक में वे सहभागी रहे हैं और उनके पठन-पाठन के प्रति उन्होंने अत्यंत चौकसी व सजगता बरती है। उनकी जीवन संगीनी श्रीमती राधा दीक्षित जी का तो अत्यंत लंबा संस्मरण इस पुस्तक में है, जिससे गुज़र कर आप उनके सरस और सफल दाम्पत्य जीवन की झलक पा सकेंगे। सि़र्फ अपने परिवार के प्रति ही नहीं बल्कि तमाम पारिवारिक रिश्तों और निकट-दूर के रिश्तेदारों के प्रति भी श्री दीक्षित समर्पित व संवेदनशील रहे हैं और हैं, उनकी भावनाओं व ज़रूरतों का उन्होंने भरपूर ख्याल रखा है। यथासंभव जहाँ भी ज़रूरत पड़ी है, अवलंब की तरह खड़े रहे हैं। इस पुस्तक में उनके रिश्तेदारों के संस्मरण भी शामिल किये गये हैं, जो इन सब चीज़ों को बेहतर रूप में समझने में हमारी मदद करते हैं। पिछले कुछ दशक हमारे यहाँ संयुक्त परिवारों के बिखराव के दशक रहे हैं और हाल के वर्षों में तो एकल परिवारों के विघटन की भी प्रक्रिया शुरू हो गई है और समाचार माध्यमों से हमें रोज़ ऐसी अनेक घटनाओं की जानकारियाँ मिल रही हैं। छोटी-छोटी बातों को ले कर परिवारों में टूट-फूट हुई है और हो रही है। परिवार के बुजुर्ग सदस्यों और स्त्रियों के प्रति बरती जाने वाली उपेक्षा व यातना की कहानियाँ हमारे लिए नई नहीं हैं। ऐसे में श्री दीक्षित का पारिवारिक जीवन हमारे लिए मिसाल है। जिस दौर में लोग बेहद निकट परिवारी जनों की परवाह न कर रहे हों, उस दौर में दूर के रिश्तेदारों तक से निभा ले जाना, सचमुच अनुकरणीय भी है। हालांकि यह अनुकरण सरल नहीं है। श्री दीक्षित की यह क्षमता भी सराहनीय और सामाजिक रूप से प्रेरणास्पद है। 

       

श्री दीक्षित की साहित्यिक दोस्तियाँ तो बहुत लंबी-चौड़ी नहीं रही हैं, पर जो भी और जितनी रही हैं या हैं, वे ठोस हैं। ‘मुँह में राम, बगल में छुरी’ वाली तो कतई नहीं हैं। साहित्यिक दोस्तियों में आत्मीयता की परत के नीचे कैसा बजबजाता नाला बहता है, यह भी कोई बताने की चीज़ नहीं है। इससे अलग श्री दीक्षित की दोस्तियाँ भरोसे और परवाह की क़ायल हैं। दोस्तियों से सरोकार का पता चलता है। कोई व्यक्ति किस तरह के लोगों को पसंद करता है और उनकी कैसी फ़िक्र करता है, इससे उस आदमी की संवेदनशीलता और सोच की दिशाओं का आप बख़ूबी अनुमान लगा सकते हैं। हालांकि श्री दीक्षित ने साहित्य के बाहर के लोगों से, अपने कार्यक्षेत्र के सहयोगियों से अधिक सरोकार-संबंध रखे पर साहित्य में वे शैलेश मटियानी से सघन रूप से जुड़े रहे, उनके हर सुख-दुख में साथ बने रहे। हम जानते हैं कि मटियानी जी का जीवन कितनी त्रासदी और संघर्ष से भरा हुआ था। जिनका जीवन विकट होता है, उनके निकट कम ही लोग आते हैं, यह भी हम जानते हैं। सबसे अच्छी बात कि श्री दीक्षित इस निकटता को एहसान की तरह कहीं नहीं प्रकट करते। उन्होंने मटियानी जी की प्रतिभा और रचनात्मकता को हमेशा बहुत ही सम्मान दिया है। अन्यथा तो लोग साथ कम देते हैं, सम्मान का अपहरण ज़्यादा कर लेते हैं। यह एक उदाहरण हुआ। इसी तरह की दोस्तियाँ हैं श्री दीक्षित की। राजनीति में मेनका गाँधी उन्हें प्रिय हैं, वह इसलिए कि वे उन मूक परिंदों और चौपाये जीवों के लिए काम करती हैं, मनुष्य जगत जिनसे लाभ तो लेता है, मगर उनकी ज़िंदगी के सुख-दुख की बात सोचना भी गवारा नहीं समझता है। यह भी एक उदाहरण है और श्री दीक्षित के जीवन में दोस्तियों के ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं।

       

अब चलते हैं उनके लेखन की ओर।

       

हालांकि मैं विनम्रतापूर्वक स्वीकार कर लूँ तो कोई हर्ज़ नहीं कि श्री दीक्षित के जीवन और लेखन का मैं कोई मर्मज्ञ नहीं हूँ। न उनसे मेरा कोई बहुत सघन जुड़ाव रहा है। बहुत औपचारिक क़िस्म का ही संपर्क रहा है। यदा-कदा पढ़ता रहा हूँ। पर इस पुस्तक के सिलसिले में थोड़ी निकटता बढ़ी। उनकी सारी रचनाओं को तो नहीं कह सकता पर अधिकांश रचनाओं को बार-बार पढ़ा। रचनाकार कोई सर्वगुण संपन्न, सर्व शक्तिमान सत्ता नहीं होता। बल्कि सच कहें तो एक रचनाकार अपने अंतर्विरोधों से जूझता एक सजग जिज्ञासु होता है। मुझे लगता है, अंतर्विरोध न हो तो रचना क्या, जीवन की सहजता भी नष्ट हो जाएगी। इसलिए सहमति व असहमति के बिंदु बने रहते हैं। मुझे लगता है कि कोई रचनाकार अपनी पक्षधरता व संवेदनशीलता के कारण महत्वपूर्ण होता है। वह अपने शब्द किनकी चिंता में ख़र्च कर रहा है, किन लोगों के प्रति वह संवेदनशील है और यह संवेदनशीलता कितनी सघन है, ये प्रश्न किसी रचना को पढ़ते हुए रचनाकार के संबंध में पैदा होते हैं। कई रचनाकार तो शब्दजाल का ऐसा घटाटोप रच देते हैं कि उसमें सहमति और असहमति दोनों के ही बिंदु गायब हो जाते हैं। श्री दीक्षित ऐसा नहीं करते। वे अपनी रचना में साफ़ आवाज़ में बातें करते हैं। शब्दों को वे इस तरह रखते हैं कि उनके कुछ मा’नी हों, वे जीवन की कोई शै प्रकट करें।


दामोदर दत्त दीक्षित


पक्षधरता की बात पर आते हैं। श्री दीक्षित अपने एक आत्मकथ्य (‘बात-बात में बात’) में स्वीकार करते हैं कि ‘‘जहाँ तक मेरे सोच, मेरी विचारधारा का प्रश्न है, मैं अपने को विपन्न, वंचित, पीड़ित, असहाय और असमर्थ जनों के साथ खड़ा पाता हूँ। इस वर्ग के लोग किस जाति के हैं, किस धर्म के हैं, किस क्षेत्र के हैं, ये मेरी चिन्ता के विषय नहीं हैं। मेरे लिए वही नीति ठीक है, जो इस वर्ग के पक्ष में है। किसी भी नीति को परखने का यह मेरा अपना पैमाना है। इसे आप किस राजनीतिक या सामाजिक विचारधारा से जोड़ते हैं, यह आपकी मर्ज़ी है। विपन्न-वंचित-पीड़ित वर्ग के प्रति प्रतिबद्धता मुझे लेखकीय प्रतिबद्धता से कहीं बड़ी लगती है या यों कहा जा सकता है कि मेरी लेखकीय प्रतिबद्धता उसी वृहत् प्रतिबद्धता का अंग है।’’ कहना नहीं होगा कि श्री दीक्षित की कहानियों में ये ही विपन्न, वंचित, पीड़ित, असहाय और असमर्थ जन पात्र बन कर आते हैं और उनके जीवन संघर्ष की व्यापक अनुगूंजें वहाँ व्याप्त हैं। श्री दीक्षित एक किसान परिवार से निकल कर आते हैं। गाँवों से उनके त’अल्लुक़ात हैं। खेती-किसानी को उन्होंने देखा है। उसकी बारी़कियों और दि़क़्कतों को जानते हैं। सरकार व अधिकारियों का किसानों के प्रति क्या रवैया है, ये बातें श्री दीक्षित के लिए सुनी-सुनाई नहीं हैं। इस संबंध में उनके पास ‘फर्स्टहैंड’ अनुभव हैं। कृषक और श्रमशील समाज से जुड़ी दुनिया पर उनकी मास्टरी है। हालांकि दीक्षित जी ने अपनी नौकरी और पारिवारिक दायित्वों के बख़ूबी निर्वहन के दबाव में विपुल लेखन नहीं किया है, पर उनके लेखन के मूल में साधारण श्रमिक वर्ग और छोटे किसान अपनी समस्याओं के साथ प्रमुखता से दर्ज हैं। उनकी पीएच. डी. ही किसानों से संबंधित है। शोध की उनकी वह पुस्तक - ‘एग्रीकल्चर, इरिगेशन ऐण्ड हार्टीकल्चर इन ऐन्शिएण्ट श्रीलंका’ (भारतीय विद्या प्रकाशन, दिल्ली, 1986), जिसकी भूमिका तत्कालीन रक्षा मंत्री, जो बाद में देश के प्रधानमंत्री भी बने, श्री पी. वी. नरसिम्हाराव ने लिखी और उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की, वह विश्व के प्रमुख विश्वविद्यालयों की पुस्तकालयों में जगह बना चुकी है और शोधार्थियों के लिए उपयोगी बनी हुई है। 

       

श्री दीक्षित ने यूँ तो अनेक विधाओं में लेखन किया है। कहानी, व्यंग्य, उपन्यास, यात्रा-वृत्तांत, संस्मरण, लघुकथाएं, व्यक्ति चित्र और डायरी सहित और भी तरह का उनका लेखन है, पर प्रकाशित कृतियों के हिसाब से देखें तो वे मूलत: कथाकार और व्यंग्यकार ही हैं। कहानी और व्यंग्य इन दोनों ही विधाओं में उनके लेखन को पर्याप्त सराहा और स्वीकारा गया है। उनकी पहली प्रकाशित साहित्यिक कृति - ‘आत्मबोध’ (भाषा प्रकाशन, नई दिल्ली, 1984) व्यंग्य-संग्रह है और पहली प्रकाशित कथा-कृति, कहानी-संग्रह ‘दरवाज़े वाला खेत’ (विभा प्रकाशन, इलाहाबाद, 1985) है।


श्री दीक्षित ने अपने व्यंग्यों में सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार व सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े जनों के शोषण, उत्पीड़न का मुद्दा साहस के साथ बेबाक ढंग से उठाया है। समाज, राजनीति और व्यवस्था में व्याप्त झूठ, छद्म, दोमुँहापन, दायित्वहीनता, अकर्मण्यता, अहम्मन्यता, अनाचार और अंधविश्वास आदि दुष्प्रवृत्तियों को अपने व्यंग्यों को मूल कथ्य बनाया है। एक सरकारी अधिकारी होते हुए उन्होंने जैसे व्यंग्य लिखे हैं, उसे दुस्साहस ही समझा जा सकता है। व्यंग्य में उन्होंने कथा-शैली, निबंध-शैली और संवाद-शैली तीनों ही फार्म का इस्तेमाल किया है। उनके व्यंग्यों ने पाठकों के मन में जगह बनाई है और वे लोकप्रिय हुए हैं।

       

श्री दीक्षित के पहले कहानी संग्रह के शीर्षक से ही उनके कथा लेखन के सरोकार स्पष्ट हो जाते हैं। सि़र्फ शीर्षक ही नहीं, उनमें मौजूद कहानियाँ और उनके  बाद में प्रकाशित सभी कहानी-संग्रहों की भी कहानियाँ उनके किसान जीवन के प्रति गहरे सरोकार को प्रकट करती हैं। उनका उपन्यास ‘श्यामपुर चीनी मील’ भी किसानों के जीवन व समस्या पर ही केंद्रित है। श्री दीक्षित के कथा साहित्य से गुज़रते हुए हम देखते हैं कि उनकी चिंता के केंद्र में किसान, मज़दूर, मेहनत-मज़दूरी, छोटे-मोटे काम करते हुए कठिन जीवन गुज़ारने वाले तथा समाज व सत्ता के वर्चस्वशाली प्रभु वर्ग द्वारा शोषित-अपमानित, विस्थापित साधारण लोग तथा पितृसत्ता के विभिन्न रूपों के चक्रव्यूह में फंसी साधारण हैसियत वाली औरतें हैं। कथाकार की प्रतिबद्धता वंचना, दलन और अपमान को झेलते और इनसे जूझते लोगों के प्रति है। ऐसे लोग ही इनकी कहानियों में नायक बन कर उभरते हैं। श्री दीक्षित की एक कहानी - ‘मेरी बीड़ी कहाँ है’, बरबस और बार-बार याद आती है। वह एक कभी न भूलने वाली उनकी सिग्नेचर कहानी है, जिसमें एक मज़दूर नायक बनकर उभरता है और हमारे मन में बस जाता है। हालांकि वह श्रमिक वर्ग की समस्या पर कहानी नहीं है। कहानी है हमारे समाज में चलने वाली दबंगई, अनैतिकता व क्रूरता के ख़िलाफ़ साहस की। यह साहस जाहिर है, उन लोगों के पास नहीं है, जो भद्र, शक्तिशाली, प्रभु और पढ़े-लिखे लोग हैं। यह साहस एक निरक्षर, ग़रीब, दुबले-पतले मज़दूर के पास है, जिसके पास साधन-संसाधन के रूप में अपनी बीड़ी के खो जाने की भी बड़ी फ़िक्र है, पर जहाँ वह अत्याचार-अनाचार होते देखता है तो अपनी जान की भी फ़िक्र नहीं करता। एक ट्रेन यात्रा की कहानी है। ट्रेन की भरी हुई बोगी में खाये-अघाये परिवारों के मनबढ़े-मनचले लड़के मनमानी पर उतर आये हैं। एक लड़की से ज़्यादती की हद तक पेश आ रहे हैं, कोई नहीं हस्तक्षेप कर रहा है पर वह मज़दूर अपने को ज़ब्त नहीं कर पाता। वह अकेला प्रतिकार में उतरता है और उस लड़की को बचाता है। ज़्यादती के ख़िलाफ़ बोलने का साहस करता है। कहानी उसके छद्म मसीहाई की नहीं है, उसके साहस की है। जिस रूप में वह कहानी लिखी गई है। कहानी की सादगी, सहजता और कथा नायक की सरलता व साहस मन से विस्मृत ही नहीं होते। श्री दीक्षित ने और कोई भी कहानी नहीं लिखी होती, तो बस इस कहानी के लिए वे मेरे प्रिय कथाकार होते। 

       

किसान जीवन पर लिखी उनकी दो कहानियाँ मुझे बहुत प्रिय हैं - ‘दरवाज़े वाला खेत’ और ‘अण्डरवेटमेंट’। किसानों के नाम पर बहुत सारी योजनाएं लाई जाती हैं, पर उनकी भलाई के नाम पर बनी वे योजनाएं भी किस तरह उनके शोषण का औजार भर बनकर रह जाती हैं, इसका मार्मिक आख्यान प्रस्तुत करती है कहानी - ‘दरवाज़े वाला खेत’। किसान के लिए अपने खेत से बढ़ कर उसके जीवन में कुछ भी नहीं होता। ख़ासकर उन छोटे किसानों के लिए तो और भी, जिनके पास बहुत थोड़ी ज़मीन होती है और वही उनके जीवन का आधार होती है। उस ज़मीन को भी हड़प जाने के लिए समाज के सशक्त और प्रभावशाली लोगों से ले कर सरकार तक की गिद्ध दृष्टि उस ओर लगी होती है। यह एक बहुत त्रासद यथार्थ है कि जो कमजोर होता है, वह हर ओर से मार खाता है, उसको कहीं से न्याय नहीं मिलता है। हमारे समाज में जाहिर तौर पर छोटे किसान, मज़दूर और निम्न सामाजिक समूहों के लोग ही सबसे कमजोर हैं और हर ओर से सताये जाते हैं। इस विडंबना का मार्मिक वृत्तांत दामोदर दत्त दीक्षित की कहानियों में मिलता है। ‘दरवाज़े वाला खेत’ कहानी में कथाकार ने दिखाया है कि गाँव के समर्थ-शक्तिशाली लोगों ने किस तरह छोटे किसानों के हित में लाई गई सरकारी योजनाओं ‘चकबंदी’ और ‘सिलिंग’ का उनके ही खिलाफ और अपने हित में इस्तेमाल कर लिया। इसी तरह ‘अण्डरवेटमेंट’ कहानी गन्ना किसानों की दुर्दशा और शोषण को सामने लाकर पाठक के मन में सिहरन पैदा कर देती है, पर यह कोई बनावटी कहानी नहीं है, यह एक ज्वलंत हक़ीकत है, जैसे कि किसान शोषित होने के लिए ही अभिशप्त हो। एक किसान मौसम की मार, आर्थिक दुर्दशा और कठोर श्रम से जूझते हुए फसलें उपजाता है मगर फसल जब तैयार हो जाती है तो उसका लाभ बिचौलिये या बाज़ार पर पकड़ बनाये रखने वाले सेठ और मिल मालिक उठाते हैं। उल्टे बोनस के रूप में किसानों को अनेक जगहों पर अनेक रूपों में अपमान भी झेलने को विवश होना पड़ता है।

       

श्री दीक्षित ऐसी मार्मिक कहानियाँ इसलिए लिख पाये हैं कि उनका स्वयं का जन्म एक किसान परिवार में हुआ है, उनका लालन-पालन गाँवों में हुआ है और एक ऐसे महकमे में उन्होंने काम किया है, जो सीधे-सीधे किसानों और मज़दूरों से जुड़ा हुआ है। ‘श्यामपुर चीनी मिल’ जैसा उपन्यास ब़गैर जीवंत अनुभव के नहीं लिखा जा सकता। इस उपन्यास को पढ़ते हुए हम गन्ना किसानों और चीनी मिल के मज़दूरों के शोषण के विविध रूपों से परिचित होते हैं। गन्ना उपजाने वाले किसानों और चीनी मिल के मज़दूरों के श्रम पर टिका यह व्यवसाय जहाँ सेठों, अधिकारियों और यहाँ तक कि सरकार के लिए मिठास का सबब है, वहीं किसानों और मज़दूरों को इससे आमतौर पर कड़वाहट ही हासिल है। किसानों के जीवन पर यह एक उल्लेखनीय उपन्यास है, जो दिखाता है कि किसानों के शोषण की एक लंबी परंपरा ही रही है जो आज़ादी के बाद भी ख़त्म नहीं हुई। किसानों और मज़दूरों को कितनी आज़ादी मिल पाई है, यह उपन्यास उसकी पोल-पट्टी खोल कर रख देता है।

       

समाज के शोषित वर्ग की ज़िन्दगी के यथार्थ और उनकी यातना की परतों को उधेड़ती कई कहानियाँ दामोदर दत्त दीक्षित ने लिखी है, उनमें ‘धंधा’, ‘नया ज़माना’, ‘रम रम बोलो हइसा’, ‘शहर का सौंदर्य बोध’ और ‘दाल रोटी’ ख़ास तौर पर उल्लेखनीय हैं। ये कहानियाँ देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के सामने प्रश्नचिह्न लगा देती हैं।

       

स्त्री जीवन के हाहाकारों, अंतर्विरोधों और संघर्षों को लेकर भी दीक्षित जी ने कई कहानियाँ लिखी है। इन कहानियों से गुज़रते हुए हम परिवार और परिवार के बाहर स्त्री के सामने पेश आने वाली अनेक चुनौतियों से परिचित होते हैं। इन कहानियों की स्त्रियाँ कोई अपार महात्वाकांक्षी स्त्रियाँ नहीं हैं पर सामाजिक व्यवस्था उनके सांस लेने और पेट भरने तक की आज़ादी में जिस तरह रोड़े अटकाती है, उसका वृत्तांत झकझोर देने वाला है। प्रचलित स्त्री विमर्श के मुहावरे से अलग स्त्री जीवन की सीमा और शोषण को दीक्षित जी ने अनोखे और मार्मिक रूप में प्रस्तुत किया है। इस लिहाज़ से उनकी ‘संस्कार’, ‘सातवां शील’, ‘वहमी औरत’, ‘पिंजड़े की उड़ान’, ‘उस शहर से इस शहर तक’, ‘दग़ा’, ‘बहिरे’, ‘अगली हक़ीक़त’, ‘पंथ विस्मृत’, ‘अंधेरे में क्यों बैठी हो’, ‘छिपकली-कॉक्रोच से डरने वाली हसीन लड़की’, ‘दो बहिनिया’, ‘बहू बेटी’, ‘आस निरास’ और ‘धोखाधड़ी डॉट कॉम’ आदि कहानियों को पढ़ा जा सकता है। इनमें आधी आबादी का धुएं और कालिख से आक्रांत यथार्थ देखा जा सकता है। स्त्रियों पर नैतिकता, पुरुष वर्चस्व और धर्म का इतना बोझ लादा गया है कि वे सहजता से चल-फिर तक नहीं पा रही हैं। श्री दीक्षित की कहानियाँ शिल्प के स्तर पर भले न चौंकाती हों पर उनमें अभिनव यथार्थ है। ज़रूरी सवाल हैं। समय की अनुगूँज़ें हैं। ये बोलती कहानियाँ हैं। शिल्पगत प्रयोग की बात करें तो उनका लघुकथा संग्रह ‘विकटवन के विचित्र क़िस्से’ एक उल्लेखनीय कृति है जिसमें पंचतंत्र के रूपकों और व्यंग्यात्मक भाषा से उन्होंने एक अनूठा शिल्प गढ़ा है। वह भी एक उल्लेखनीय कृति मानी जा सकती है। अपने समय का तीखा पाठ उसमें है।

       

श्री दीक्षित ने अपने अध्ययन और अपनी यात्राओं से भी अपनी रचनात्मक अनुभवों की पूँजी बढ़ाई है। उन्होंने पड़ोसी देश पाकिस्तान की फ़ौजी हुकूमत के ख़िलाफ़ छेड़े गए लोकतांत्रिक आंदोलन और लोकतंत्र की स्थापना की ज़द्दोजहद को ले कर ‘धुआँ और चीखें’ जैसा एक महत्वपूर्ण उपन्यास लिखा है। वे दुनिया भर की महत्वपूर्ण सामाजिक-राजनीतिक हलचलों के प्रति सजग संवेदनशील बने रहते हैं। वे इतिहास के विद्यार्थी रहे हैं। अमेरिका, यूरोप और एशिया के कई देशों को उन्होंने घूमा है। कुल मिला कर उनके पास अनुभवों और जानकारियों का बहुत बड़ा ख़ज़ाना है। उनके तीन उल्लेखनीय यात्रा-वृत्तांत हैं - ‘अटलान्टिक-प्रशांत के बीच’ (अमेरिका प्रवास की डायरी), ‘रोम से लंदन तक’ (यूरोप यात्रा), ‘जापान, फिर अमेरिका’ (यात्रा-वृत्त)। उनकी रचनात्मक उपलब्धियों से पाठक स्वयं ही इस पुस्तक से गुज़र कर परिचित हो सकेंगे।

       

श्री दीक्षित अभी भी लेखन में पूरी तरह सक्रिय हैं। वे लंबी सर्जनात्मक और स्वस्थ उमर पायें, इन्हीं शुभकामनाओं के साथ।

                                                                

    




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