इरानाथ श्रीवास्तव की कविताएं
इरानाथ |
कार्ल मार्क्स ने कभी समाज को दो भागों शोषक और शोषित वर्ग में विभाजित करते हुए बताया था कि इनके बीच एक द्वंद्व सतत चलता रहता है। लेकिन समाज का एक और वर्ग ऐसा भी है जो प्रायः हर जगह होते हुए भी हर किसी से शोषित रहता आया है। यह वर्ग उन स्त्रियों का है जो अपने शोषक के साथ ही आजीवन रहने के लिए मजबूर होती हैं। पितृसत्तात्मक समाज की स्थापना के पश्चात स्त्रियों के साथ पुरुष ने जो वर्चस्ववादी व्यवहार अपनाया, वह कमोबेश आज भी जारी है। स्त्रियों ने अपने लेखन में इस वर्चस्ववादी संस्कृति को उजागर करते हुए अपना प्रतिरोध दर्ज कराया है। इरानाथ की कविताएं स्त्री विमर्श के बने बनाए सांचे को अतिक्रमित करती हुई कविताएं हैं। रोजमर्रा की जिन्दगी के कुछ बिम्ब ले कर वे अपनी कविता में मानीखेज बात कह डालती हैं। इसकी बानगी उनकी एक छोटी कविता 'रीढ़' में मिलती है। यह कविता इस रहस्य को उद्घाटित करती है कि जिनके दम पर घर परिवार खड़ा रहता है कैसे वह महिला खुद उस तरह खड़ी नहीं हो पाती, जिस तरह उसे होना चाहिए थे। यह कविता देर तक उद्वेलित करती रहती है। आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं इरानाथ श्रीवास्तव की कविताएं।
इरानाथ श्रीवास्तव की कविताएं
स्कूल से घर लौटती लड़कियां
स्कूल छूट गया है
लड़के खुशी से चीखते हुए
हुड़दंग करते लौट रहे है घरों को
लड़कियां चुप है
वे आपस में चुहल नहीं कर रही
सर झुकाएं, नजरें नीची किए
वे चल रही है झुंड में
उन्हें आभास है
अगले मोड़ पर
फिर खड़ा मिल सकता है
वह आदमी
पैंट की चैन पर हाथ फेरता
शर्ट से झांकते सीने को
हाथों से दबाता
गंदे इशारे करता
लड़कियां
पढ़ाई छोड़ना नहीं चाहती
इसलिए तय किया उन्होंने
वे घर पर कुछ नहीं बताएंगी
उन्होंने तय किया
मिल कर रोज उस जगह को
तेज कदमों से पार करना
और जरूरत पड़ने पर
मिल कर वार करना।
कोई विधान है क्या
स्त्रियों द्वारा जने गए
काफी इंसान
अब इंसान नहीं रहे
हैवान हो गए है
स्त्री जिनके लिए
मात्र एक तन है
योनि है और स्तन है
मन नहीं
और मान तो कतई नहीं
इसलिए स्त्रियां मारी पीटी जाएं
बलात भोगी जाएं
और सर-ए-आम निर्वस्त्र घसीटी जाएं
ऐसा वे समूह में सोचने और करने लगे हैं
स्त्रियां भगवान नहीं जनती
तो ऐसे में संदेह होता है उन्हें
कि वह है भी कहीं???
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के किसी भी कोने में
तैंतीस करोड देवी देवताओं में से कोई एक भी
भगवान जो इन स्त्रियों के
अधिपतियों और अपत्यों की
लंबी सुरक्षित आयु के बदले
स्त्रियों की दिन भर की भूख प्यास
अपने पास गिरवी रखता है
उस भगवान के घर
स्त्रियों की रक्षा का क्या विधान है?
घुसपैठ
दो कमरे के उस मकान में
निजता के नाम पर मेरे पास थी
चार बाई ढाई की एक स्टडी टेबल
जिस पर थी मेरी किताबें
मेरे रंग, ब्रश, कलम
दराज में इत्र की एक शीशी, कंघा
और कुछ कृत्रिम आभूषण
तब जबकि
मेरे किसी भी सामान को
हाथ लगाया जाना
किसी पड़ोसी मुल्क की
घुसपैठ जैसा संगीन मसला होता
छुपाई थी मैंने सबसे
मेरी मेज पर तुम्हारी घुसपैठ
कुछ और रख सकने लायक नाकाबिल जगह के बीच
मेज पर सजाया था
तुम्हारा दिया फोटो फ्रेम
और मेज की दराज में
बिछे हुए अखबार के पीछे
छुपा कर चिपकाई थी तुम्हारी तस्वीर।
ब्रेल
तुम्हें जानती ही कितना हूं मैं
सुबह तुम्हारी फरमाइशों को तो
पहचानते हैं मेरे कान
मेरे हाथ बनाते है तुम्हारे लिए चाय
निकालते हैं कपड़े, परोसते है ब्रेकफास्ट
पकड़ाते है तुम को ब्रीफकेस
और जाते वक्त करते है तुम्हें 'बाय'
शाम गए मेरे हाथ
फिर बनाते है तुम्हारे लिए चाय
परोसते है डिनर
और सहेजते है तुम्हारा बिस्तर
रात तुम्हारे हाथों का स्पर्श
महसूस करता है मेरा बदन
हाथ होते है आलिंगनबद्ध
पांच सात मिनट की आपाधापी को
तुम कहते हो प्यार
और सो जाते हो बेखबर
मेरे कानों तक पहुंचते हैं
बस तुम्हारे खर्राटे
मैं देर तक देखती हूं तुम्हें
पढ़ना चाहती हूं तुमको
पर बहुत अंधेरा है
और तुम्हारी वाली ब्रेल मुझे आती नहीं
जो तन के स्पर्श को पढ़ती है प्यार।
मुस्कुराती हुई स्त्री
तुम तब मुस्कुराई कैसे थी मोनालिसा
तब तो जागते हुए यूरोप ने
खुल कर पूरी अंगड़ाई भी नहीं ली थी
बीवी, वैश्या, नन या नौकरानी से अधिक
स्त्री कुछ भी नही थी
तुम्हारी मां ने तुमको
उड़ना भी नहीं सिखलाया होगा
कैसे सिखलाती
वह खुद कभी उड़ी ही नहीं होगी
पिता से तुमने अपनी हदें जानी होंगी
और पति की हर बात मानी होगी
जिसे विंची ने पोर्ट्रेट किया
वह असल में तुम्हारा सच नहीं था
तुम तो उस उनींदी भोर में भी
मरी हुई अभिलाषाएं लिए
नींद की चादर पर टके सपनों की
बखिया उधेड़ने में लगी होगी
उठी तो तुम्हारे पति ने
विंची को तुम्हारा पोर्ट्रेट बनाने
और तुमको थोड़ा सा मुस्कुराने की
इजाजत दी होगी
तब तुम जीती कहां थी लीज़ा
बस सांसे लेती रही होगी
पर चित्र का खाका मुकम्मल होने तक
तुम्हें जब मुस्कुराने की इजाजत मिली
तो तुम भी थोड़ा जी ली थी
और सच कहूं तो
तस्वीर मुकम्मल होने पर
पहली बार एक साथ सबको
यूं सार्वजनिक रूप से
मुस्कुराती हुई स्त्री अच्छी लगी थी।
रीढ़
झुकी ही रही
कभी तनी नहीं रीढ़
उनकी जिन्हें सख्त हिदायत थी
घूंघट मुंह तक खींच कर रखने की
जिन्हें फूंकने थे चूल्हे, पालने थे बच्चे
और रहना था ड्योढ़ी के भीतर
वो जो खुद रीढ़ थी घर की
वो कभी तनी नहीं।
तुम्हारी औरतें
लौट कर ये तुम्हें
वही मिलेंगी
जहां इन्हें छोड़ कर
चले जाते हो तुम
दफ्तर, क्लब
घूमते हो देश, विदेश
या रमते हो
कोठों या कैलाश पर
तब जब
इनके और तुम्हारे बीच
नहीं बचता कुछ भी शेष
तब भी
लौट कर ये तुम्हें
वही मिलेंगी
क्योंकि तुम्हारे पल्ले बांधते वक्त
रटाया जाता है इन्हें
अब यही तेरे सर्वस्य
यही तेरे प्राणेश।
वो काम आती रहेगी
सपने, चाहते, आसक्तियां
उसने यौवन चढ़ते ही
नसीहर्ता के लीपे गए उबटन के साथ
रगड़ रगड़ कर उतार दी थी
घर परिवार बाल बच्चे
सबकी जरूरों की नाव
पतवार बन उस पार की थी
अब उपहार में मिली
जिम्मेदारियों का
दिखने लगा असर है
कमान हुई कमर में
चुभते दर्द के शर है
पर वो सफ़र में है अभी
दरख्त संबंधों के जो बोए है
कुछ छांव तो देंगे
वो जो नए कल्ले फूटे है
कुछ भाव तो देंगे
चलो पर्तों को
कुछ और हरा होने दो
नए नीड़ बांधते पंछी है
उन्हें सपने सजोने दो
अपनी अस्थि, मांस मज्जा से
अपनत्व का सत पहुंचाती रहेगी
जब तक व्यापार है सांसों का
वो काम आती रहेगी।
(ब्लॉग में प्रयुक्त फोटोग्राफ्स इरानाथ ने ही उपलब्ध कराया है।)
सम्पर्क
ई मेल : iranath79@gmail.com
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