विमल कुमार का आलेख 'राष्ट्रनिर्माण में तवायफ़ गायिकाओं की भूमिका'

 




किसी भी राष्ट्र के अपने विविध आयाम होते हैं। भौगोलिकता भले ही नक्शे पर एक राष्ट्र को प्रदर्शित कर देती है लेकिन उसकी निर्मिति में साहित्य, संस्कृति के साथ साथ कई नाम और अनाम लोगों का भी बड़ा हाथ होता है। तवायफ का नाम सुनते ही हमारे मन मस्तिष्क में एक वितृष्णा का भाव सहज रूप से जन्म ले लेता है लेकिन एक पल ठहर कर जब हम उन परिस्थितियों की तहकीकात करते हैं तब सिहरन ही नहीं होती अपितु अपने समय और समाज की संवेदना पर भी कोफ़्त होती है। गीत संगीत के उदय और विकास में इन तवायफों की एक बड़ी भूमिका रही है। आचार्य चतुरसेन शास्त्री की किताब 'वैशाली की नगर वधू' से भला कौन परिचित नहीं होगा। इस कड़ी में कई और रचनाएं भी दिखाई पड़ती हैं। इधर अब इन तवायफों की राष्ट्र निर्माण में भूमिकाओं के बारे में हुए शोध से कई नई एवम महत्त्वपूर्ण बातें सामने आ रही हैं। इतिहासकार  बेंगलुरु के विक्रम संपत ने 'गौहर जान : लाइफ एण्ड टाइम्स ऑफ ए म्यूजिशियन' नामक एक शोधपरक किताब लिखी है जो न केवल गौहर जान की एक सुंदर जीवनी है बल्कि जिससे इतिहास के कई अधूरे पहलुओं के बारे में भी जानकारी मिलती है। पंकज पराशर भी तवायफों के जीवन को ले कर महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं और बाकायदा एक यूट्यूब चैनल ”सुरीले दिनों की दास्तान” का संचालन कर रहे हैं। इसी शृंखला में कवि विमल कुमार की एक महत्त्वपूर्ण किताब आई है 'तवायफनामा'। विमल कुमार सुप्रतिष्ठित कवि हैं। अब तक उनके सात कविता संग्रह 'सपने में एक औरत से बातचीत', 'यह मुखौटा किसका है', 'पानी का दुखड़ा', 'बेचैनी का सबब', 'आधी रात का जश्न', 'जंगल मे फिर आग लगी है' और 'मृत्यु की परिभाषा बदल दो' ; एक कहानी सग्रह 'कालगर्ल' और एक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। 'चोर पुराण' उनकी बहुचर्चित व्यंग्य कृति है। यू एन आई से सेवानिवृत होने के पश्चात आजकल फेसबुक मैगजीन 'स्त्री दर्पण' का संचालन कर रहे हैं। विमल कुमार  की किताब 'तवायफनामा' की भूमिका को हम आलेख की शक्ल में ब्लॉग पर प्रकाशित कर रहे हैं। विमल कुमार ने इस किताब में तरतीबवार कुछ जरूरी तथ्यों को प्रस्तुत किया है जिससे तवायफों के इस पहलू पर जानने में मदद मिलती है। विमल कुमार का आज जन्मदिन भी है। पहली बार की तरफ से उन्हें जन्मदिन की ढेर सारी बधाई एवम शुभकामनाएं। आइए इस मौके पर आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं विमल कुमार का सुविचारित आलेख 'राष्ट्रनिर्माण में तवायफ़ गायिकाओं की भूमिका'।



'राष्ट्रनिर्माण में तवायफ़ गायिकाओं की भूमिका' 



विमल कुमार



हिंदी के प्रसिद्ध कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने अपनी एक कविता में लिखा है कि "देश कागज पर बना केवल नक्शा नहीं होता"। आज जबकि देश में राष्ट्र और राष्ट्रवाद की परिभाषा को ले कर बहस छिड़ी है, एक खास विचारधारा इन दोनों मसलों पर अपनी अलग उग्र व्याख्या कर रही है, राष्ट्रवाद और राष्ट्रनिर्माण के बारे में पुनर्विचार की अब आवश्यकता है क्योंकि कोई देश केवल भौगोलिक और ऐतिहासिक इकाई  नहीं होता है बल्कि  वह एक सांस्कृतिक इकाई भी होता है, जिसमें विभिन्न बोलियां भाषा, लोकचरण और कला, संगीत, नृत्य भी समाया हुआ है। तब यह सोचना स्वाभाविक है कि देश वाकई कागज पर बना एक नक्शा नहीं होता बल्कि देश उसमें रहने वाले लोगों से बनता है। उनकी आकांक्षाओं और स्वप्नों, संवेदनाओं से बनता है। यानी देश के निर्माण में जनता की भागीदारी होती है। बिना जनता के देश का निर्माण संभव नहीं है। लेकिन जब हम राष्ट्र निर्माण की बात करते हैं तो अक्सर उसके अवदान में राजनीतिज्ञों, उद्योगपतियों, वैज्ञानिकों, खिलाड़ियों और समाजसेवियों की चर्चा अधिक करते हैं। हम अक्सर क्रांतिकारी शहीदों के  योगदान को भूल जाते हैं खासकर महिला क्रांतिकारी और शहीदों को। ठीक उसी तरह हम यह भी भूल जाते हैं कि इस  राष्ट्र के  निर्माण में मजदूरों, किसानों, लोक कलाकारों शिल्पकारों, गायिकाओं ने भी भूमिका निभाई थी जिनमें से कई तो कोठे पर पैदा हुई तवायफें भी थीं और वे वहीं मर भी गयीं लेकिन उनके भीतर भी देश प्रेम था। आज़ादी का जज्बा था और उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में भाग लिया। 1857 से लेकर राष्ट्रीय आंदोलन में वे सक्रिय रहीं। यह अलग बात है कि वे गुमनाम रहीं।



क्या हम इस राष्ट्र निर्माण में तहजीब और संस्कृति के उसे हिस्से को अलग कर सकते हैं जिसमें इन तवायफों ने एक बड़ी भूमिका निभाई थी, शायद नहीं। लेकिन हमारे मुल्क का जो इतिहास लिखा गया है, उसमें ये तवायफ गायिकाएं इतिहास से बाहर कर दी गयीं। यहां तक कि कला की दुनिया में भी उन्हें वह तवज्जो नहीं मिली। वह सम्मान नहीं मिला जो अन्य कलाकारों को मिला क्योंकि वे तवायफ़ थीं। उन्हें संगीत और कला की मुख्य धारा में भी शामिल नहीं किया गया। यह अलग बात है कि इन तवायफ गायकों के 78 rmp रिकॉर्ड दर्ज हुए जिससे उनकी मौसिकी की एक झलक आज मिलती है पर उनकी ज़िंदगी और इतिहास के बारे कम जानकारियां मिलती हैं, क्योंकि इतिहासकारों ने उसे दर्ज करने लायक नहीं समझा। सन 1902 में पहली बार गौहर जान के 78 rmp रिकार्ड दर्ज हुए। अनुमान है उस दौर में करीब सौ एक गायिकाओं ने देश के विभिन्न इलाकों में मौसिकी की खुशबू और जादू बिखेरी थी। इन भूली बिसरी गायिकाओं में से कई के रिकॉर्ड तो आज भी उपलब्ध नहीं है। लेकिन जिनके उपलब्ध हैं उन्हें अगर आप सुनें, तो आपको खुद लगेगा कि हिंदुस्तानी संगीत की दुनिया में इन्हें हटा कर उसका इतिहास नहीं लिखा जा सकता है। यही नहीं भारत में स्त्री विमर्श का भी इतिहास उनके बिना संभव नहीं है।


अजीजन बाई 


भारत में विशेषकर हिंदी जगत में जो स्त्री विमर्श अब तक हुआ है, उसमें क्लारा जेटकिन्स  वर्जिनिया वुल्फ, सिमोन द बुवा, केट मिलेट टोनी मोरीसन जैसी अनेक पश्चिमी स्त्रीवादी विचारकों की चर्चा अधिक हुई है, अब नवजागरणकालीन स्त्री विमर्शकारों सावित्री बाई फुले, पंडित रमाबाई, फातिमा बीबी, महादेवी वर्मा आदि की भी चर्चा जोर शोर से होने लगी हैं, लेकिन इतिहास में भूली बिसरी नायिकाओं, गायिकाओं और महिला क्रांतिकारियों की चर्चा कम हुई जिन्होंने अपने जीवन में ज़मीनी तौर पर स्त्री सशक्तिकरण की मिसाल पेश क़ी। खासकर साहित्य, पत्रकारिता, कला और संगीत क्षेत्र से आने वाली महिलाएं क्यों न हों। उम्र में गांधी से एक साल बड़ी जोहरा बाई आगरेवाली, बड़ी मलका जान, गौहर जान, जानकी बाई छप्पन छुरी, छमिया बाई, हुस्ना जान विद्याधरी बाई, रतन बाई, मुश्तरी बाई, अख्तरी बाई आदि ने उस ज़माने में स्त्री सशक्तिकरण की जो मिसाल कायम की वह अद्भुत है। उन्होंने अपने हुनर, आत्मविश्वास, लगाव, लगन, प्रतिभा और काम के प्रति समर्पण भाव से स्त्री सशक्तिकरण का एक इतिहास ही रच दिया। इस स्त्री विमर्श का इतिहास लिखा जाना अभी बाकी है। इस पर विस्तृत शोध और अध्ययन तथा विश्लेषण  किया भी बाकी है।



बनारस के प्रसिद्ध तबलावादक एवम कण्ठे महाराज के शिष्य तथा संगीत  विशेषज्ञ कामेश्वर नाथ मिश्र ने “काशी की संगीत परंपरा” नामक पुस्तक में लिखा है कि बौद्ध जातक कथाओं के अनुसार काशीराज ब्रह्मदत्त के शासन काल में संगीत की शिक्षा के लिए शासन की ओर से संगीत शिक्षालयों की समुचित व्यवस्था थी और बौद्धकालीन नगरवधुओं में चित्रलेखा के अलावा श्यामा और सुलसा नामक राजनर्तकियाँ थीं।बौद्धकालीन साहित्य में “अट्टकाशी" नामक सुप्रसिद्ध वेश्या की एक रात्रि का मनोरंजन शुल्क एक हज़ार राजकीय मुद्रा थी। "श्यामा” वेश्या का शुल्क भी एक हज़ार राजकीय मुद्रा थी और उसके आवास पर पांच सौ दासियाँ काम करती थीं। वेश्याओं की देखभाल के लिए गणिकाध्यक्ष की व्यवस्था थी।

 


“मगध” में भी नगरवधुओं की परंपरा थी। ऐसी गणिकाओं को राजकीय सम्मान प्राप्त था। "अम्बपाली” ऐसी ही नगरवधू थी जिस पर आचार्य चतुरसेन ने “वैशाली की नगरवधु” नामक उपन्यास लिखा था तो रामबृक्ष बेनीपुरी ने “अम्बपाली” नाटक लिखा। जिस पर कभी राजकपूर फ़िल्म भी बनाना चाहते थे। बाद में “आम्रपाली” नामक एक अन्य  फ़िल्म बनी थी।संस्कृत में इन गणिकाओं के लिए अनेक शब्द प्रचलित भी थे। प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान राधावल्लभ त्रिपाठी का तो कहना है प्राचीन काल में “गणिका” शब्द का प्रयोग होता था और “वेश्या” का अर्थ prostitute नहीं होता है। वेश्या वेशभूषा धारण करने से बना है।” (एन. एस. डी. में भरत मुनि के नाट्य शास्त्र के हिंदी अनुवाद के विमोचन पर दिया गया उनका वक्तव्य) लगता है जो महिलाएं विभिन प्रकार की सुंदर वेशभूषा में नृत्य संगीत करती होंगी उन्हें शायद वेश्या कहा जाता होगा और कालांतर में यह देह व्यापार से जुड़ गया होगा पर तवायफ़ों का सम्बंध देह व्यापार से नहीं था। वे कोठे पर  नृत्य और संगीत ही प्रस्तुत करतीं थीं और वही उनकी आजीविका का साधन रहा होगा पर इन तवायफ़ों ने हिंदुस्तानी संगीत की आत्मा को बचाये रखा। यह कम बड़ी बात नहीं थी।


गौहर जान


इस तरह देखा जाए तो भारतीय समाज में गणिकाओं की लंबी परंपरा रही और उन गणिकाओं ने ही पहले नृत्य और संगीत की परंपरा को बचाये रखा। अगर ये गणिकाएं नहीं होतीं तो हमारे पास समृद्ध संस्कृति नहीं होती, उसकी विरासत नहीं होती। यह सच है कि पितृसत्ता के कारण उन्हें अपनी आजीविका के लिए यह पेशा अपनाना पड़ा पर उन्हें आमतौर पर समाज में सम्मान प्राप्त था, क्योंकि वे अंततः गणिकाएं ही थीं। समाज की मुख्य धारा से नहीं जुड़ीं थीं लेकिन हमारे पास कोई क्रमबद्ध इतिहास न होने के कारण उनके बारे में विशेष जानकारी नहीं मिलती है और उनके महती अवदान को इतिहास में रेखांकित नहीं किया जा सका। इतना ही नहीं भारत में प्रगतिशीलता की बहस में भी उन्हें जगह नहीं मिली और वामी इतिहासकारों ने भी उनको जगह नहीं दी। हमारे पास केवल गौहर जान की एक सुंदर जीवनी है जिसे बेंगलुरु के विक्रम संपत नामक इतिहासकार ने 15 साल पहले लिखी थी जिनकी नई किताब टीपू सुल्तान चर्चा में हैं, अन्यथा किसी तवायफ़ गायिका की कोई जीवनी तक उपलब्ध नहीं है। कुछ लोगों के छिटपुट लेख हैं पर अभी तक कोई बाकायदा इतिहास नहीं लिखा गया। ऐसे में उनके राष्ट्रनिर्माण में अवदान की चर्चा नहीं होती।



18 वीं उन्नीसवीं सदी में काशी की प्रसिद्ध गायिकाओं में चित्रा, इमामबन्दी, गुलबदन सुखबदन आदि का जिक्र अवध के नवाब के दरबार के “करम इमाम” की पुस्तक में मिलता है। महाराज चेत सिंह के दरबार में दुलारी, कज्जन, किशोरी, रुक्मणि, छित्तन बाई के नृत्य संगीत का हवाला मिलता है।



इस तरह काशी में तौकी बाई, शैल कुमारी दुर्गेशनंदिनी, चंपा, काशी बाई, सरस्वती, शिवकुंवर, गन्नो बन्नो, मैना देवी (सिद्धेश्वरी देवी की नानी जिनकी दो पुत्रियां राजेश्वरी देवी और श्यामा देवी थीं) राजेश्वरी (सिद्धेश्वरी देवी की मौसी) विद्याधरी, हुस्ना बाई, बड़ी मोती, सिद्धेश्वरी (उर्फ गोगो या गोना बचपन का नाम), रसूलन बाई, जेबुन्निसा, खैरुन्निसा, अनवरी, मलका बाई, हीरा देवी, टॉमी, कमलेश्वरी (राजेश्वरी देवी की पुत्री), तारा, छोटी मोती, राधा, कमला, जूही, पन्ना, रत्ना, मोहिनी, रति बाई, अनवरी बेगम, शाहजहां बेगम आदि ने भी संगीत की परंपरा को समृद्ध किया।


सिद्धेश्वरी देवी


इन गायिकाओं में कई स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ी थीं और गोपनीय ढंग से क्रांतिकारियों को मदद करती थीं। इस संबंध में विद्याधरी बाई के अनेक किस्से प्रचलित हैं। महात्मा गांधी की प्रेरणा से “वेश्या संघ” की स्थापना हुई और हुस्ना बाई इसकी प्रथम अध्यक्ष निर्वाचित हुईं। लखनऊ में भी “वेश्या संघ” बना था और उसकी अध्यक्ष थीं। बनारस में जब गांधी जी आये तो हुस्ना बाई से उनक़ा संवाद हुआ और हुस्ना बाई ने गांधी जी से तीखे सवाल किए क्योंकि गांधी जी ने उन्हें कोठे का जीवन त्याग कर चरखा चलाने की सलाह दी। इस पर हुस्ना ने वेश्याओं के अस्तित्व और आजीविका का सवाल उठाया था। गांधी जी चाहते थे कि तवायफें भी आंदोलन में भाग लें पर पहले वे कोठे का जीवन त्याग दें क्योंकि उनके माथे पर वेश्या होने के कलंक का टीका  लगा था। गांधी जी ने कोलकत्ता में  गौहर जान से 1920 में स्वराज फण्ड के लिए चंदा इकट्ठा करने के वास्ते एक समारोह करने का अनुरोध किया था। गौहर उस समय गायिकी की बुलंदियों पर थी। उसने गांधी जी के सामने एक शर्त रखी कि उन्हें गाना सुनने आना होगा। किन्हीं कारण वश गांधी जी नहीं आ सके तो गौहर नाराज़ हो गईं।



उसने गांधी जी पर वादाखिलाफी का आरोप लगाया और टिकट से हुई 24000 रुपए की आय में से आधा यानी 12000 रुपए ही शौकत अली को दिए जिन्हें गांधी जी ने पैसे लेने के लिए गौहर के पास भेजा था जो आजकल  के हिसाब से करोड़ों रुपए हुए। 

 


गांधी जी ने बनारस में विद्याधरी से अनुरोध किया कि वे अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ गीत की रचना कर देशवासियों को जागृत करें। विद्याधरी ने गांधी जी के इस अनुरोध को सहर्ष स्वीकारा और देशभक्ति गीतों की रचना की थी।


अख्तरी बाई फैजाबादी (बेगम अख्तर)


लेकिन इन तवायफ़ गायिकाओं को भारतीय समाज मे उपेक्षा ही नहीं मिली बल्कि उनके खिलाफ एक सामाजिक आंदोलन भी खड़ा हुआ और उन्हें बहिष्कृत करने की मांग की गई। उन्हें रेडियो पर कार्यक्रम देने की मनाही थी। उन पर प्रतिबंध लगाया गया जबकि इन तवायफ़ों ने मौसिकी को बचाया ही नहीं बल्कि उन्होंने उसे बुलंदी तक पहुंचाया। चाहे ध्रुपद, ख्याल, ग़ज़ल, ठुमरी, दादरा, चैती, कजली और भजन आदि क्यों न हो। बेगम अख्तर ने, जिन्हें हम अख्तरी बाई उर्फ बिब्बी के नाम से भी जानते हैं, ग़ज़ल गायिकी को उत्कर्ष पर पहुंचाया और वह गौहर जान तथा जानकी बाई छप्पन छुरी की तरह  बीसवीं सदी में एक आइकन बन गईं, जो 1934 में इस दुनिया से कूच भी कर गयीं। बेगम अख्तर तो इतनी लोकप्रिय हुईं कि वह ग़ज़ल गायिकी का पर्याय बन गईं। उनकी जन्मशती पर भारत सरकार ने एक सिक्का भी जारी किया। यह सम्मान आज तक किसी कलाकार को नहीं मिला। बेगम अख्तर की तवायफ़ माँ मुश्तरी बाई (इस नाम से कई गायिकाएं थीं जिनमे एक  मुश्तरी बाई आगरे में भी हुई जो बरसात फ़िल्म की हीरोइन निम्मी की मौसी थी) ने अपनी बेटी को कलकत्ते में संगीत की तालीम गौहर जान से भी दिलवाई। मुश्तरी बाई और उनकी बेटी अख्तरी बाई को संघर्ष भरे दिन देखने पड़े और उनकी दास्तान भी कम दर्दनाक नहीं है। जब उनके शौहर ने छोड़ दिया और अख्तरी को बेटी मानने से मना कर दिया। अख्तरी बाई को 1934 में बिहार में आये भूकम्प की राहत के लिए कोलकत्ता में आयोजित संगीत समारोह में बुलाया गया जहां उन्होंने पहली बार मंच पर आ कर सरोजिनी नायडू के सामने गाया और उस ज़माने में अगले दिन अखबारों में खूब वाहवाही मिली। पारसी थिएटर की एक कम्पनी में उन्हें उस ज़माने में 700 रुपए की नौकरी मिली। सन 1933 में उन्होंने ”एक दिन का बादशाह” फ़िल्म से कैरियर शुरू किया और सत्यजीत रे की फ़िल्म “जलसाघर” में भी काम किया। महबूब खान की 1942 में बनी फिल्म “रोटी” में उन्हें गाने के लिए 25 हज़ार मिले थे जो बहुत बड़ी रकम थी। कोलकत्ते में ही जद्दन बाई ने गौहर जान से संगीत की तालीम ली। उनक़ा भी जीवन बहुत संघर्षमय था क्योंकि अपनी तीन तीन नाकाम शादियों के कारण उन्हें जिंदगी में बहुत तकलीफें उठानी पड़ीं। पर वे हार नहीं मानीं बल्कि वह फिल्मों में पहली महिला संगीतकार बनीं तथा अपनी बेटी नरगिस को महान अदाकारा बना दिया जो राज्यसभा की पहली मनोनीत महिला सदस्य बनीं। जद्दन बाई की मां दलीपा बाई मोती लाल नेहरू की समकालीन थीं और कहा जाता है कि इलाहाबाद में उनके कोठे पर मोती लाल नेहरू भी संगीत सुनने जाते थे। नर्गिस की नानी ही नहीं बल्कि नूतन और सायरा बानो की नानियाँ रतन बाई और छमिया बाई भी अपने ज़माने की मशहूर तवायफ़ गायिकाएं थीं। रतन बाई तो तीस चालीस के दशक की अभिनेत्री भी थी। शोभना समर्थ जैसी स्टार अभिनेत्री की मां। इसी तरह छमिया बाई की बेटी नसीम बानो अपने समय की मशहूर अभिनेत्री बनी।


जानकी बाई छप्पन छुरी 


भारतेंदु ही नहीं अयोध्या प्रसाद खत्री और जयशंकर प्रसाद के संपर्क में भी ये तवायफ़ गायिकाएं थीं। प्रसिद्ध कलाविद राय कृष्ण दास ने हुस्ना बाई और भारतेंदु के बीच पत्राचार की पुष्टि की है। रायकृष्ण दास के संपर्क में गौहर जान भी थी। उन्होंने अपने जमाने में जिन गायिकाओं को देख सुना उन्हें संस्मरण में दर्ज किया है। प्रसिद्ध लेखक अमृतलाल नागर ने अपनी मशहर किताब “ये कोठेवलियाँ” में उस ज़माने की कुछ मशहूर गायिकाओं का जिक्र किया है। अयोध्या प्रसाद खत्री के साथ भी हुस्ना बाई के संबंधों की बात कही जाती है। मैना बाई के कार्यक्रम में भारतेंदु जाते थे। मैना बाई को बहुत सम्मान प्राप्त था। उनकी पुत्री की संतान सिद्धेश्वरी देवी की बेटी सविता देवी, जो दिल्ली यूनिवर्सिटी के दौलत राम कालेज में पढ़ाती थीं, ने भी काफी यश कमाया। बड़ी मोती की तरह एक छोटी मोती भी थीं जिनकी भतीजी पद्मा खन्ना फिल्मों में मशहूर हुई। काशी की निर्मला अरुण भी प्रसिद्ध गायिका रही जिनके बेटे गोविंदा मशहूर अभिनेता बने।



ये गायिकाएं केवल बनारस में ही नहीं बल्कि दिल्ली, लाहौर, कराची, मुम्बई, ढाका, इलाहाबाद, आगरा, लखनऊ,  कोलकत्ता, पुणे, पटना, गया, मुजफ्फरपुर, बीकानेर, टीकमगढ़, मुंगेर, आरा, भागलपुर में भी थीं। उस समय की अनेक रियासतों जोधपुर, जयपुर, पटियाला, बड़ौदा, रायगढ़, दरभंगा, ग्वालियर के अलावा रामपुर के नवाब और कलावन्त सेठ हुकुम चंद जैसे लोगों ने इन तवायफ़ गायिकाओं को अपने दरबार मे संरक्षण दिया। पटना के प्रसिद्ध संगीत समीक्षक एवम विशेषज्ञ गजेंद्र नारायण सिंह ने 'महफ़िल' पुस्तक में इन गायिकाओं की महफ़िल और जलसे के अनेक रोचक किस्से लिखे हैं जिससे पता चलता है कि स्वामी विवेकानंद से लेकर टैगोर और नेहरू तक सब संगीत के दीवाने थे। विवेकानंद ने तो खेतड़ी के महाराज की एक महफ़िल में गायिका का गाना सुन कर उसके पाँव छू लिए और माँ कह कर संबोधित किया। इस गायिका की आंखों में आंसू आ गए। टैगोर तो मुशरती बाई का गाना सुन कर भाव विभोर हो गए। भारतेंदु भी मैना बाई के नृत्य पर भाव विभोर हो गए थे। नेहरू जी तो विलायत खान के सितार में इतने डूब गए कि वे एक बार एक विदेशी मेहमान को हवाई अड्डे पर  लेने नहीं गए बल्कि उन्होंने अपने किसी मंत्री को हवाई अड्डा भेज दिया।


जोहरा बाई आगरेवाली


इन तवायफ़ों को 1857 की क्रांति, राष्ट्रीय आंदोलन और हिंदी उर्दू के विकास के समानांतर भी देखा जा सकता है। अजीज़न बाई, धर्मंन बाई, करमन बाई के राष्ट्रप्रेम और 1857 की क्रांति में उनकी भूमिका को देखा जाए तो कहा जा सकता है कि इन गायिकाओं ने साझी संस्कृति के राष्ट्रवाद और स्त्री नवजागरण को आंच दी। क्योंकि 1857 के बाद ही हिंदी का समुचित विकास हुआ और खड़ी बोली का विस्तार हुआ। जोहरा बाई आगरेवाली का जन्म 1868 में हुआ। इस तरह देखा जाए तो ये सभी बड़ी गायिकाएं 1857 के बाद 1900 के बीच जन्मीं और 1947 तक आते-आते उनमें से अधिकतर का निधन हो गया।


आज से करीब 15 साल पहले प्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका विद्या शाह ने दिल्ली के इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के “माटी घर“ कला कक्ष में 32 भूली बिसरी शास्त्रीय गायिकाओं की एक प्रदर्शनी लगाई थी जिसमें जोहरा बाई आगरेवाली,  गौहर जान, जानकी बाई छप्पन छुरी से ले कर असगरी बाई जैसी अनेक गायिकाएं थीं जिनके एचएमवी रिकार्ड उस ज़माने में निकले थे और जिनके गानों ने धूम मचाई थी। मेरी जानकारी में दिल्ली में इस तरह की वह पहली प्रदर्शनी थी। शायद ही देश के दूसरे शहरों में ऐसी प्रदर्शनी लगी होगी। उन्हीं दिनों 8 अप्रैल 2010 को प्रसिद्ध इतिहासकार  के. विक्रम संपत की पुस्तक “My Name Is Gauhar Jaan” का विमोचन तत्कालीन उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने किया था। तब उन दोनों समारोहों की रिपोर्टिंग करने मैँ अपने दफ्तर की ओर से गया था क्योंकि उन दिनों मैं एक संवाददाता के रूप में संस्कृति मंत्रालय भी कवर करता था। मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि उससे पहले मैं गौहर जान का केवल नाम भर सुना था उनके  बारे में विस्तार से कुछ भी नहीं जानता था और 32 भूली बिसरी गायिकाओं में से अधिकतर का नाम  तो मैंने सुना भी नहीं  था। लेकिन उस प्रदर्शनी और किताब को पढ़ने के बाद मेरी दिलचस्पी इन गायिकाओं में पैदा हुई और “आउटलुक” में भी मैंने एक विस्तृत रिपोर्ट अलग से लिखी थी। उसी समारोह में विक्रम संपत से भी मिला था। उन्होंने मुझे खुद बताया था कि वे खुद गौहर जान को नहीं जानते थे। वे जब “Splendours of Royal Mysore  : The untold story of Wodeyars” पर किताब लिख रहे थे तब वहां के अभिलेखागार के दस्तावेज से उन्होंने जाना कि 1928 में गौहर जान की मैसूर के राजा के दरबार की गायिका के रूप में नियुक्ति हुई थी और उसकी मृत्यु 1930 में  मैसूर के एक अस्पताल में ही हुई थी। विक्रम संपत की दिलचस्पी गौहर जान में इतनी बढ़ी कि उन्होंने उस विलक्षण गायिका की एक शानदार जीवनी लिख डाली जो निसंदेह एक ऐतिहासिक किताब है। किसी शास्त्रीय गायिका पर आज तक इतनी अच्छी कोई किताब मेरी नज़र में  नहीं आयी। इस किताब ने मेरे भीतर भी इन गायिकाओं के प्रति  जिज्ञासा पैदा किया और मेरी उत्सुकता इन भूली बिसरी गायिकाओं को जानने में बढ़ती चली गयी जिसका नतीजा यह हुआ कि इन भूली बिसरी गायिकाओं के बारे में खोज-खोज कर पढ़ने लगा। कभी कुछ हाथ लगता कभी कुछ नहीं लेकिन मेरी खोज जारी रही। लेकिन मैंने कभी इस बात की कल्पना नहीं की थी कि मैं इन 32 भूली बिसरी गायिकाओं पर कभी इतनी कविताएं लिखूंगा। दरअसल मुझे इन कविताओं को लिखने के लिए प्रेरित नहीं बल्कि उकसाने का काम संजय लीला भंसाली के “हीरा मंडी” ने किया। “हीरा मंडी” में तवायफ़ों की ऐसी छवि पेश गयी जो उनकी ज़िंदगी की हक़ीक़त से मेल नहीं खाती थी। लीला भंसाली पहले भी 'देवदास' फ़िल्म के साथ ऐसा सलूक  कर चुके हैं। दरअसल उन्होंने इन तवायफ़ों को पर्दे पर बेचने की कोशिश की है। उनके दुःख दर्द की जगह उनके वैभव उनके ग्लैमर को अधिक हाईंलाइट किया गया। इस वाकये से मेरे भीतर बहुत आक्रोश भी उत्पन्न  हुआ और उस आक्रोश ने मुझे दो माह के भीतर ये कविताएं लिखवा लीं। यह कैसे हुआ मैँ नहीं जानता लेकिन इसके पीछे पंकज पराशर के यूट्यूब चैनल “सुरीले दिनों की दास्तान” ने भी मुझे प्रेरित किया। वह एक अद्भुत सीरीज है उसे जरूर देखना जानना  चाहिए। उस सीरीज से भी  मुझे कई जानकारी मिली। इन भूली बिसरी गायिकाओं के बारे में “बाज़ानामा” किताब के लेखक अमरनाथ शर्मा, सांस्कृतिक पत्रकार यतीन्द्र नाथ मिश्र और बनारस के कामेश्वर नाथ मिश्र की किताब से भी बहुत जानकारियाँ मिली। इस बीच ज्योति सिन्हा ने भारतीय उच्च शोध संस्थान शिमला से शोध कार्य किया जिसकी एक पुस्तक 'बनारसी ठुमरी की परंपरा' आयी। डॉक्टर मनीष कुमार मिश्र और डॉक्टर उषा आलोक की किताब “तेरे अंजाम पे रोना आया” से भी मदद मिली। बेगम अख्तर पर तो कई किताबेँ आ चुकी हैं।


जद्दन बाई


प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक प्राण नेवली की बहुचर्चित पुस्तक पहले से मैंने पढ़ रखी थी। इस बीच सबा दीवान की पुस्तक “Tawaifnama” भी आई लेकिन हमने पाया कि अभी तक देश के विभिन्न भागों में रहने वाली इन गायिकाओं का कोई प्रामाणिक और मुक्कमल इतिहास नहीं लिखा गया है। छिटपुट जानकारियां सभी किताबों में  मिलती रहती हैं। जिस तरह विक्रम संपत ने गौहर जान पर किताब लिखी उसी तरह अन्य  तवायफ़ गायिकाओं पर नहीं लिखी गयी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी की प्रोफेसर नीलम शरण गौड़ ने जानकी बाई छप्पन छुरी पर अंग्रेजी में एक उपन्यास ही लिख डाला जिस पर उन्हें 2023 में साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी मिला। वह भी पहले जानकी बाई को बहुत अधिक नहीं जानती थीं जबकि बनारस में 1880 में जन्मी इस गायिका के जीवन का एक हिस्सा इलाहाबाद में ही बीता था। लेकिन सच है कि हिंदी में इन गायिकाओं पर न तो कोई  किताब लिखी गयी, न ही उपन्यास  लिखा गया और न ही उनक़ा इतिहास लिखा गया। जानकी बाई और गौहर जान ने दिल्ली दरबार के समय  ब्रिटेन की महारानी के सामने गाया था जिसमें उन्हें ढेर सारी अशर्फियाँ दी गईं। इलाहाबाद में इन दोनों  का एक साथ जलसा हुआ था। पटना में एक रईस के विवाह में भी दोनों ने गाने गाए थे, जिनकी बाई का एक किस्सा है कि जब उन्होनें एक कार्यक्रम किया तो चांदी के सिक्कों की बरसात हो गयी और 14 हज़ार 7 सिक्के बरसाए गए। लेकिन उसी शहर में वह गुमनाम रहीं।



बौद्धकालीन राजनर्तकी अम्बपाली पर आचार्य चतुरसेन की चर्चित पुस्तक 'वैशाली की नगरवधू' और बेनीपुरी जी के नाटक 'अम्बपाली' के पाठ्यक्रम में लगने के कारण उत्तर भारत के लोग इन राजनर्तकियों के बारे में जरूर जानने लगे पर वैसा प्रयास गौहर जान या मलका जान पर नहीं हुआ। यद्यपि लिटिल दुबे ने एक नाटक गौहर जान पर खेला। अब तो गौहर पर एक फ़िल्म भी बनी है। गौहर जान देश की पहली महिला गायिका थी जिनका ग्रामोफोन कंपनी ने गाना 10 तथा 11 नवम्बर 1902 को कोलकत्ता में  फ्रेडरिक गाइसबर्ग ने 78 आरपीएम का रिकार्ड बनाया पर उससे एक दिन पहले उसने  कोलकत्ता के हडसन रोड पर शोशिमुखी और फणीबाला का गाना रिकार्ड किया था पर पहली गायिका होने का श्रेय गौहर को ही मिला। गौहर ने हिंदी, संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी, गुजराती समेत दसियों भाषां मे गाया था। उन्होंने अंग्रेजी में My love is little bird गाना गया था।


मलका जान आगरेवाली


इन 35 गायिकाओं में से कई के रिकार्ड फोटो और जीवन के ब्यौरे भी उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए उनके बारे में प्रामाणिक जानकारी नहीं है और भ्रम की स्थितियां भी हैं। किसी किसी का जन्म वर्ष तो किसी की पुण्यतिथि, विवाह, संतान, आदि का भी जिक्र नहीं मिलता। लेकिन इतना पता चलता है कि मलका जान, गौहर जान, मुशरती बाई आदि नाम की एक नहीं, बल्कि कई गायिकाएं थीं। प्रसिद्ध नाट्य आलोचक वीरेंद्र नारायण ने नवभारत टाइम्स में 1980 में एक लेख में पटना की मिस गौहर जान का जिक्र किया है लेकिन उस गायिका के बारे में अभी तक विशेष जानकारी नहीं मिली। अमर नाथ शर्मा ने बाज़ानामा में आगरे की नन्ही जान, हैदराबाद की नूनी जान, उम्दा जान, बदायूं की सुन्दर जान लखनऊ की शमीम जान और दिल्ली की ज़ेबा जान (झझर) का भी जिक्र किया जिनके गाने रिकार्ड हुए थे। इनमें से अधिकतर गायिकाएं नूरजहां, सुरैया, लता मंगेशकर और शमशाद बेगम के ज़माने से पहले की थीं जब पारसी थिएटर का जमाना था और बोलती फिल्में शुरू नहीं हुई थीं। इनमें कई अच्छी शायरा भी थीं और उनके दीवान भी निकले थे। बड़ी मलका जान का 1886 में एक दीवान भी निकला था। यह देखते हुए इन गायिकाओं ने स्त्री सशक्तिकरण की एक मिसाल पेश की और अपनी पहचान बनायीं। बुलंदियां हासिल की और अपने हुनर से धन दौलत भी कमाया। लेकिन इतिहास में अकादमिक जगत में उन्हें जगह नहीं मिली। भारत में कोई भी स्त्री विमर्श इनके बिना अधूरा है।



प्राण नेवली, विक्रम संपत और अमर नाथ शर्मा की किताबें आने के बाद से देश विदेश के बौद्धिक जगत में इन गायिकाओं की तरफ ध्यान गया है। ये कविताएं भी उसकी प्रयास का एक हिसा हैं ताकि लोगों की दृष्टि उनकी तरफ जाए। ये कविताएं कल्पना और तथ्यों के मेल से बनी हैं लेकिन इसे इतिहास के रूप में न देखा जाए और इनमें तथ्यों की खोज न की जाए बल्कि इन्हें एक काव्यात्मक प्रतिक्रिया या टिप्पणी के रूप में देखा जाए क्योंकि इन कविताओं का उद्देश्य इन गायिकाओं के जीवन संघर्ष को रेखाँकित कर उन्हें विस्मृति से निकालना है ताकि इनका सम्यक मूल्यांकन हो सके। इनके बिना भारतीय स्त्रीवाद का विमर्श अधूरा है।



संदर्भ


1 My name is Gauhar jaan-Vikram Sampath Rupa publications, Delhi, 2010.

2. Bazaanamaa : Amar Nath sharma kathachitra Prakashn, Indira Puram, Lucknow, 2012.

3. Tawaifnama, Saba Devan, 2020.

4. Dance to freedom  : A. K. Gandhi 

5. Nautch Girls Of RaJ : Pran Nevile, Penguin, 2009.

6. Requiem in Raga Janki : Neelam Sharan Gaur, Penguin.

7. ये कोठेवलियाँ : अमृत लाल नागर

8. बनारस की संगीत परंपरा : कामेश्वर मिश्र, भारत बुक सेंटर, लखनऊ।

9. महफ़िल : गजेंद्र नारायण सिंह, बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी,  1997

10. गिरिजा देवी : यतीन्द्र मिश्र, वाणी प्रकाशन, दिल्ली।

11. तेरे अंजाम पे रोना आया : डॉ. मनीष कुमार मिश्र, डॉ. उषा आलोक दुबे, आर. के. पब्लिकेशन्स मुम्बई।

10. यतीन्द्र मिश्र के अंग्रेजी में छपे लेख।

11.  बनारस की ठुमरी परंपरा की चुनौतियां और उपलब्धियां- डॉक्टर ज्योति सिन्हा, भारतीय उच्च संस्थान, शिमला।

12. समालोचन - पंकज पराशर का लेख।

13. पंकज पराशर का यूट्यूब चैनल - ”सुरीले दिनों की दास्तान”.

14. कोठागोई : प्रभात रंजन।







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