पंखुरी सिन्हा की कविताएं
इतिहास के साथ एक बड़ी दिक्कत यह है कि यह हमें कई ऐसे अटपटे तथ्य बताता है, जो हमारे विरुद्ध ही खड़े हो जाते हैं और हमें मुंह चिढ़ाते हैं। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि हम लाख कोशिशें करें, अतीत को बदल नहीं सकते। (हां, उस पर विचार कर भविष्य को सुखद बनाने के लिए वैसी पुनरावृत्ति से जरूर बच सकते हैं जो हमें उलझनों में डाल सकती है।) खासकर भारतीय परिप्रेक्ष्य में, जहां समय समय पर कई राजवंश स्थापित हुए, जहां अलग अलग तरह की शासन व्यवस्थाएं संचालित होती रहीं। लेकिन राजनीति मानती कहां है। वह अक्सर इतिहास के साथ उलझ जाती है। उसे बदलने की ताकीद करती है। आप बने बनाए ढांचे को तो तोड़ सकते हैं। आप तथ्यों को तो मरोड़ सकते हैं लेकिन तथ्यों को बदल नहीं सकते। किसी भी जागरूक कवि को अपने समय ही नहीं बल्कि अपने अतीत से भी टकराना पड़ता है। पंखुरी सिन्हा ने भी ताजमहल के हवाले से 'जब आंचल रात का लहराए' शीर्षक से महत्त्वपूर्ण कविता लिखी है जिसे वर्तमान परिस्थितियों के आलोक में पढ़ा और देखा जा सकता है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं पंखुरी सिन्हा की कुछ नई कविताएं।
पंखुरी सिन्हा की कविताएं
जब आंचल रात का लहराए
इतना रुमानी है, तुम शमा
जला कर ताज महल में
आ जाना, वाला गाना कि
मोहब्बत का स्मारक
समझी जाने वाली
इमारत के आगे खड़ा कर
देती है, हर प्रेमी युगल को!
जो मौका मिलते ही
जा पहुंचता है
ताज के कंगूरे को
मोर की कलंगी सा,
पकड़ लेने
अपनी चुटकी में
अपनी उंगलियों के बीच!
ताज की आगोश में
खाई कसमें, कभी खाली
नहीं जाती!
पूरे हो कर रहते हैं
ताज के साए में देखे गए
सपने!
फिर ऐसे कौन से 22
दरवाज़े हैं, मुमताज महल
की इस कब्र के भीतर
कि जिनको खोल कर
देखा जाना है इतना ज़रूरी?
क्या देवी देवता हैं
उन दरवाजों के पीछे?
जो खुद उन्हें खोल कर
आ भी नहीं सकते बाहर?
और आयें तो क्यों?
उनके आते ही बेघरों
और भूखों की चीखों से
हो जाएगा उनका जीना
मुश्किल! आखिर, ईश्वर होना
आसान तो नहीं!
और क्या हुआ अगर न हुआ
ईश्वर उनके पीछे?
कोई देवी देवता नहीं?
अस्त्रों के कारखाने हुए
पुराने? या पुराने कागज़ात
हथियारों की खरीद बिक्री के?
अभी हाल हाल तक
हथियारों के बिचौलिये
हुआ करते थे सुर्खियों में!
मौजूदा सरकार और
फ्रांसिसी कंपनी
रफायल के बीच की
खरीद फरोख्त, सारे
विनिमय, व्यापार पर
मचे हो हल्ले से हटाने के लिए
ध्यान ही, लगता है
सरकार के अपनों ने
डाली ताज पर पेटिशन!
पर, याद कीजिये
बोफ़ोर्स का हल्ला!
और मुमकिन है बहुत हद तक
सच हो इस शोर गुल में!
आखिर, यों ही तो नहीं कि
इस हद तक हथियार
खरीदने वाले देश के
आधे से अधिक लोग
रहते हैं मिट्टी के कच्चे घरों में
जो गिर जाता है किसी के
एक मुक्के से, बह जाता है
हर बाढ़ में!
कमाल है कि ये लोग
कभी नहीं होते सुर्खियों में!
भले गिराने वाले की मुट्ठी
बहाने वाली बाढ़ हो खबरों में!
बेचैनी और घर वापसी
रहने दी थोड़ी सी बेचैनी
आगे अपने साथ की बातों के लिए
रचने के लिए एक भयमुक्त दुनिया
उड़ेला उसे शब्दों के अंदाज़
और अनुपात के साथ
और इस तरह बनायी मैंने
किस्सों, कहानियों, दोहों
छंदों, कविताओं
तस्वीरों के साथ साथ
घर लौटने की पक्का पुख्ता राह
कम से कम योजना उसकी
और इस तरह बनाया मैंने
एक पुल, कल्पना की दुनिया से निकल कर
वास्तविक चट्टान सरीखी दुनिया तक जाता हुआ
पुराने घर के नशेमन के इर्द गिर्द ही नहीं
समूचे उस विदेशी शहर में
जिसका यों इस्तेमाल हुआ
देने में मुझे देश निकाला बना कर घर वहां
खामखाह खड़ी की गयी सरहद
कंटीली, नुकीली, धारदार
कि जिसके पार से मैं लौट न पाती घर
जिसे यों सजाया, संवारा
जिसकी दराज़ों में रखे रह गए
समूची गृहस्थी के नए सामान
थाई मसाले, श्रीलंकन चाय
दक्षिण और उड़िया सिल्क साड़ियां
लेवाइज़ के शॉर्ट्स और पीले टैंग टॉप्स
जिन्हें पहनने पर
जाने कितनों की चढ़ती हों त्योरियां
जिम और लाइब्रेरी के मेम्बरशिप कार्ड्स!
प्रायद्वीप से खत्म नहीं होता प्रेम
खत्म ही नहीं होता किस्सा यह
यह जिसे एकबार शुरू किया गया
किस्से की तरह !
उससे पहले वह ज़िन्दगी थी केवल !
जी जाती हुई!
आखिर क्यों नहीं
लौट जाया जा सकता है
वहीं, ज़िन्दगी जीते हुए के लम्हे में
कि हुआ ही नहीं हो
हादसा यह सब
यह इमीग्रेशन, यह नागरिकता की लड़ाई
बस लौट जाना शुरुआत
की शुरुआत में, जान लेने के बाद
इतना सब कुछ!
मेरे ही हिस्से क्यों आती है रात
मेरे ही हिस्से क्यों आती है रात
क्यों मेरे ही हिस्से अँधेरा?
दिन भर की उनकी माथा पच्ची के बाद
बाद कुतर्कों के जंजाल के
बाद बेकार बातों, बहसों के माया जाल के
धीरे धीरे निकालती हूँ अपना गुस्सा
समझी जाने लायक दलीलों के निर्माण में
लुहार सा, कहार सा कठिन काम है
अनर्गल को बदलना सार्थक में
पहनाना आक्रोश को
विनीत शब्दों का चोगा
पिघलता है गुस्सा ज़रा ज़रा
अक्षर दर अक्षर
धीरे धीरे
बीत जाता है दिन
ढल जाता है सूरज
टंग जाती है रात
गहराती है रात
बीतती है
अक्षरों से गढ़ते वाक्य
वाक्यों से सम्पूर्ण अर्थ
क्योंकि इतनी लम्बी, जटिल बात
कैसे कही जाए
केवल एक ही वाक्य में
कितनी बातें, कितने लोग
कितने किस्से, सदियों से दबा
एक वर्ग विशेष का प्रतिरोध
स्त्रियों की चीखें
किन्तु प्रतिशोध तो नहीं लिया जा सकता उनसे?
जिनके पूर्वजों ने किया हो दमन !
सभ्य, सुसंस्कृत बातों से
बदलनी होती है उनकी दृष्टि
वैसे ही, जैसे एक बड़े होते बच्चे को
सिखाना होता है कि
स्त्रियों के वक्ष की ओर
मत देखो!
वे जिन्होंने उतार दिये हैं
बुर्के, चादर, दुपट्टे, आँचल वाली साड़ियां, परदे के उसूल
उतर आयी हैं मर्दों के लिबास में
अपने अपने काम की दुनिया में
उनकी कमीज़ और कुर्ते के उभारों
और बटन की फांक को
मत घूरो!
लिखनी होती हैं कवितायें
इस बावत भी
सिर्फ उन्हीं के लिए नहीं
जिन्हें स्कूल जाने का मौका नहीं मिला
बल्कि स्कूल जाते हुओं के लिए भी
और निपटते, निपटते
सारी हिंसा के त्रास से
बना रहता है एक स्थायी
रात का अँधेरा
और पूरी होते होते अपनी बात
होने को होती है सुबह
जबकि थका हारा कवि
थर्मा मीटर से झाड़ने की तरह बुखार
झाड़ता है अपना गुस्सा
और चलता है सोने
सारे दिन की उठापटक
रस्साकशी के बाद
आखिर, क्यों आती है
कवि के ही हिस्से
इतनी लम्बी रात?
क्यों बढ़ती जाती है
इस दुनिया की हिंसा?
क्यों चुप करा दिए जाते हैं लोग?
प्रदर्शनकारी? राह चलते राहगीर?
लम्बी दूरी के मुसाफिर?
या क्षेत्रीय लोग भी
क्यों कर दिए जाते हैं लाजवाब
इस तरह, गलत माध्यम से?
कोई कैसे चला जाए सोने
इस सब के घटित होते
बिना कुछ लिखे
कहे चुपचाप समय से
सोने कैसे चला जाए कवि
और कैसे मैं भी?
लेकिन, देखिये
कितना छोटा हो गया दिन मेरा
और कितनी लम्बी हो गयी रात!
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
ई मेल : nilirag18@gmail.com
बहुत सुन्दर रचनाएं |
जवाब देंहटाएंअत्यंत संवेदनशील रचनाएँ.. हार्दिक बधाई 🙏
जवाब देंहटाएं