अवन्तिका राय की लघु कथाएं
अवन्तिका राय |
कहावतें ऐसे ही जन्म नहीं लेती। इसके पीछे व्यापक अनुभव का संसार होता है। यह अनुभव संसार उसे विस्तृत आयाम प्रदान करता है। देखने में ये भले ही छोटी लगें लेकिन मारक होती हैं। डपोर शंख ऐसी ही परिकल्पना है जो हवा हवाई योजनाएं बनाने वालों के लिए लागू होती है। ये डपोर शंख हर जगह मिल जाते हैं। गांव से ले कर अंतरराष्ट्रीय मंचों तक। इनकी बातें लम्बी चौड़ी होती हैं। लेकिन वास्तविक काम में ये प्रायः फिसड्डी साबित होते हैं। अवन्तिका राय का जुड़ाव गांव की उस धरती से रहा है जो अपने मुहावरों, कहावतों और कथक्ककड़ी यानी गप्पों के लिए तौर पर समृद्ध रहा है। अपनी रचनाओं में वे इसका खूबसूरत प्रयोग करते हैं। इसी भाव भूमि पर आधारित अवन्तिका की पांच लघु कथाएं हम प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अवन्तिका राय की लघु कथाएं।
अवन्तिका राय की लघु कथाएं
ताकत
कहीं आपको इस नाचीज़ की आदत तो नहीं पड़ती चली जा रही। पर आपको यह जान लेना चाहिए कि आदत ख़ुद में कितनी बढ़िया और खतरनाक शय है। और वह भी किसी ऐसे इंसान की जो आपको पूरी तरह जान चुका हो। पर ज़नाब, खुदा की इनायत से कभी-कभी तो कोई कोई जिंदगी में ऐसा भी मिल सकता है जिसकी न छूटने वाली आदत लग जाती है और कभी कभी उसकी यादों और निशानियों के सहारे जिंदगी कट जाया करती है। कभी कभी तो उसकी कोई याद या निशानी बेहद मुश्किल हालात में डूबते को तिनके के सहारे की तरह हो जाती है और इंसान ख़ुद को इतना ताकतवर महसूस करने लगता है कि वह उस मुश्किल हालात से पार पा जाता है। और ख़ुदा न खास्ता यदि वह इंसान फ़रिश्ता हो तो वह इंग्लिश में क्या बोलते हैं कि मिरैकिल भी घट सकती है। पर यह नाचीज़ इस क़ाबिल कहां?
अब दूसरे किसी की बात क्या करना, अपने ऊपर बीत चुकी सुना कर ही मैं किस्सा ख़त्म करूंगा। अपने पिछले जन्म में मैं एक किसान था। सुबह गाय बैलों को सानी पानी दे खेत की तरफ़ निकल पड़ता। शाम तक पसीना बहाता और गोधूलि में उन्हें हांकता घर की तरफ लौट आता। बीबी जो भी खाना दाना देती खा कर गहरी नींद लेता। इस तरह मेरा जीवन चैन सुकून से कट रहा था।
बात उस दिन की है जब मैं जलती गर्मियों की एक दोपहरी में अपने खेत की पगडण्डी पर उस विशाल बरगद के नीचे अपनी पोटली से रोटियां निकाल कर खाने ही जा रहा था। तभी पीछे से उस फ़कीर ने मुझे पुकारा 'इस भूखे की भूख शांत नहीं करोगे?' मैंने उसे भी एक लिट्टी और चटनी दे दी। खा कर वह अपनी तुमड़ी से पानी पी वहीं बैठ गया। वह काले पोशाक में था। औसत डीलडौल, चेहरा लम्बोतरा और सख्त, बड़ी बड़ी आँखे और लंबी नुकीली नाक। कुछ देर बाद वह बोल पड़ा, 'तुम्हें तो और ताकत चाहिए!' मैंने सोचा कि यह तो मेरे मन की बात जान गया है, जरूर कोई पहुँचा हुआ फ़कीर होगा। फिर सोचा कि कहीं यह सब मेरे मन का वहम तो नहीं। पर क्या बताऊँ ज़नाब, उसने यह सब भी भांप लिया और बोला 'तुम उधेड़बुन में मत फँसो, तुम और ताक़तवर हो जाओगे।'
फिर तो वह हर जुम्मे के दिन दोपहर में उसी बरगद के नीचे मिलता और मैं उसे खिलाता फिर वह मेरी पीठ पर हाथ फेरता और चला जाता। पर कभी-कभी वह कोई लंबी कहानी सुनाने लगता और वक़्त चलनी में रखी हुई रेत की तरह फिसलने लगता। उस वक्त मैं एक जादुई सम्मोहन में जकड़ जाता। कभी-कभी वक़्त और इंसानी हालात पर अपना कोई नुक़्ता नज़र पेश करता और उसकी बात सटीक निकलती। ज़्यादतर वह चुप रहता और कभी-कभी मुझे खेत और दरिया घुमाने के लिए कहता। एक दफ़ा वह दरिया के किनारे लगी एक डोंगी में मुझे बैठा ख़ुद चप्पू चलाने लगा और न जाने किस भाषा में पूरे तरन्नुम में गाने लगा। उसकी आवाज चप्पूओ के नाद से मिल एक रूहानी पुकार में तब्दील हो गई, जैसे कोई दिल के अनन्त छोर से खुदा को आवाज़ दे रहा हो। इस तरह मैं छः दिन डंट कर काम करता और सातवें दिन उसका इंतज़ार।
अब क्या बताऊँ इसके बाद मैं सच में दूने जोशोखरोश से अपना काम करता और देखते देखते मेरे सितारे बुलंदियों को छूने लगे। धीरे-धीरे उस फ़कीर का आना कम होता गया और मैं हर समय उसकी याद में खोया रहने लगा। न जाने कितनी गर्मियां बीतीं और वह नहीं दिखा।
फिर तो कुछ ऐसा हुआ कि वह पूरे दस साल बाद आया। पर मेरा हर जुमे के दिन उसे लिट्टी ले जाने का सिलसिला कभी नहीं टूटा। अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि वह किस कदर मेरी ज़िंदगी का ज़रूरी हिस्सा बन गया था। इत्तफ़ाकन इस बार जुमे के दिन ही ईद पड़ी और वह दोपहरी में उस बरगद के नीचे आ मिला। उसे देखते ही मुझे अपने होने का एहसास ग़ायब हो गया। उसका चेहरा बिल्कुल साफ हो गया था और इस बार उसके चेहरे से सख़्ती ग़ायब थी। उस दिन मैं और घर वाली देर रात तक उसके साथ रहे और रात में उसने लिट्टी खाने के बाद एक ताबीज़ देते हुए कहा, ' इसे बक्से में रख लेना और जब हालात तुम्हारे वश से बाहर होने लगें केवल तभी इसे निकाल कर देखना। 'फिर वह कभी नहीं आया। केवल रह गयी मेरे पास उसकी यह ताबीज़ जिसे ले मैं इस जन्म से उस जन्म घूम रहा हूँ और अब सच बता दूँ सौ साल में एक बार मुझे इस बक्से को खोलने की जरूरत महसूस होती है और इस जनम में, इस वक़्त जब मैं खुदा के बंदों को दरबदर और ख़ुद अपने को खानाबदोशों सा पा रहा हूँ रह रह कर उस नेक फ़कीर की याद सता रही है और इस बक्से को खोलने का मेरा बार बार जी कर रहा है।
खेल
कस्बे में कहीं भी जीवन के लक्षण नहीं दिखते थे। सुबह से रात तक लोग अपने अपने धंधों में मशगूल रहते और नाना प्रकार के नशीले खाद्य ग्रहण कर बेसुध सोते रहते। पास के गाँव में गुड़ और शीरे की बहुतायत थी जो इस नींद को हौलनाक बना देती।
कस्बा प्रमुख बड़ी बड़ी गाड़ियों के काफिले के साथ वहां अक्सर तब दिख जाता जब किसी दुकान या दुकाननुमा स्कूल, अस्पताल जैसी चीजों का उद्घाटन होना हो।
इसी बीच एक सरकारी अध्यापक स्थानांतरित हो अपने दो बच्चों के साथ उस कस्बे के एक घर में बतौर किराएदार आ कर रहने लगे। दोनों लड़के पढ़ने के साथ साथ फुटबॉल में भी अव्वल थे। पर यहां माजरा कुछ और था। कस्बे से लगा बड़ा पार्क प्रायः वीरान रहता या फिर गाँव के कुछ बच्चे वहां अनियमित रूप से क्रिकेट खेला करते। ज्यादतर वह पार्क शराबियों, मवालियों जुआरियों आदि की पनाहगाह था। कस्बे के बच्चे भारी-भारी बैग अपनी पीठ पर लादे भविष्य निर्माण योजना में लगे रहते।
कस्बे में आए नए माटसाब धीरे-धीरे कस्बे के होनहार बच्चों के बीच लोकप्रिय होने लगे। कारण यह कि वह जटिल से जटिल प्रश्नों को अत्यंत सरल ढंग से समझा देते। उनका मानना था कि संसार के लिए सरलता से बढ़ कर जटिल दुनिया की कोई दूसरी चीज नहीं।
माटसाब के दोनों खिलंदड़ बेटे उस पार्क को पा बहुत खुश हुए। पहले तो दोनों आपस में ही फुटबॉल का अभ्यास करते दिख जाते पर फुटबॉल वर्ल्डकप के बाद कुछ दूसरे बच्चे भी वहाँ उन्हें ललचाई नजरों से अभ्यास करते देखते। उन दोनों ने धीरे धीरे ऐसे बच्चों को आमंत्रित कर खेलते-खिलाते फुटबॉल की कई टीमें बनवा दीं। खेल के बाद वह सभी बच्चे आपस में गप्पें भी करते और इस तरह देखते देखते उस मुर्दा कस्बे में जिंदगियां किलकारी लेने लगीं। बच्चे तो साब बड़ों के भी आपस में जुड़ने का माध्यम बनते हैं।
फिर कस्बा प्रमुख और उन जिंदगियों के बीच शुरू हुई जंग की कहानी का आप सहज अनुमान लगा सकते हैं। अब इस जंग के किस्से के लफड़े में मैं नहीं उलझना चाहता। इस देश के किसी भी उम्दा यथार्थवादी उपन्यासकार की रचनाओं में यह सब मिल सकता है। मैं तो सिर्फ़ पोस्टनुमा कहानी या कहानीनुमा पोस्ट लिख मुक्त हो जाना चाहता हूँ। वैसे भी थोड़ा कहना ज़्यादा समझना। एक किस्सागो के नाते मैं सिर्फ़ यही कहना चाहूंगा कि प्रत्येक दशा में खेल चलते रहना चाहिए। शो मस्ट गो ऑन! और क्या?
डर का जुड़ाव
महानगर की एक कॉलोनी में एक पार्क था। वहां बच्चे फुटबाल खेला करते थे। पार्क उन बच्चों से सुबह शाम गुलजार रहता था।
कॉलोनी में रिटायर्ड, बेरोजगार और कुछ नौकरीपेशा लोग रहते थे। बसावट, मुख्य शहर से दूरी पर थी। पार्क के पास एक चतुर आदमी रहता था। उसकी नजर मंदिर के पुजारी पद पर थी। उसने एक बेरोजगार से कहा कि यदि इस पार्क में मंदिर बन जाए तो उसके साथ पूरे कॉलोनी का कल्याण हो जाएगा।
बेरोजगार ने अपने कुछ साथियों के साथ मंदिर बनाने का अभियान शुरू किया। चूंकि मामला भगवान का था इसलिए कुछ श्रद्धा और कुछ डर के मारे साथ हो लिए। यह बात दीग़र है कि डर ही श्रद्धा की भी जननी होता है।
कॉलोनी में कुछ विवेकशील लोग भी थे। उन्हें प्रथम दृष्टया यह मामला अवैधानिक लगता क्योंकि पार्क सरकारी जमीन पर था और उस पर किसी भी प्रकार के धार्मिक स्थल के निर्माण की अनुमति नहीं थी। दूसरे, वे बच्चों को खेल से वंचित होते नहीं देख सकते थे।
पहले तो बच्चों ने ही टिन्न फिन्न करना शुरू किया पर बड़ों ने भगवान के डर से उन्हें डरा कर शांत कर दिया।
विवेकशील लोग किसी चीज को कई कई एंगल से सोचते हुए पाए जाते हैं। यहाँ भी ऐसा ही हुआ। एक विवेकशील ने एक अन्य विवेकशील से कहा कि यदि हम बाकी लोगों से राब्ता नहीं रखेंगे तो ये लोग हमारे किसी सुख-दुःख में शामिल नहीं होंगे। एक अन्य विवेकशील ने समझाया कि कहीं हम धर्म विरोधी न मान लिए जाएं और लोग हमारा बायकॉट न कर दें। प्रायः कॉलोनी के विवेकशील लोग डरपोक थे। वैसे भी हमारे समाज में विवेक और साहस के मणिकांचन संयोग का अभाव है।
इस तरह सब आपस में जुड़े और सकुशल मंदिर निर्माण सम्पन्न हुआ।
पहला पन्ना
वह इस अक्टूबर की ही एक सुबह थी जब मैं उबर गाड़ी पर सवार हो दफ़्तर की तरफ जा रहा था। वातावरण में हल्की ठंड घुल चुकी थी और गाड़ी की अगली खिड़कियां आधी खुली हुई थीं। इस इलाके में सड़क के दोनों तरफ सघन जंगल हैं जिनसे छन-छन कर चेहरे से नर्म हवा स्पर्श कर रही थी और अनोखी ताजगी का एहसास हो रहा था।
ड्राइवर से बातचीत शुरू हुई। जैसी कि मेरी आदत है मैं हिंदी के कवि मुक्तिबोध की तरह हर आत्मा का इतिहास जान लेने को उत्सुक रहता हूँ। धीरे-धीरे ड्राइवर किताब की तरह खुलता चला गया। संवेदनशील और हंसमुख। पान मुंह में घुलाता बतरस का आनन्द ले ही रहा कि तभी वह घटना घटी।
गाड़ी कुछ यूँ ही नब्बे की स्पीड में भाग रही थी क्योंकि सड़क लगभग निर्जन थी। करीब पचास मीटर, कुछ कम या ज्यादा, की दूरी पर दो बच्चे सड़क क्रास करने की कोशिश में आसमान की तरफ देखते भगे आ रहे थे। उनके चेहरे पर उत्तेजना और रोमांच साफ-साफ पढ़ा जा सकता था। कुल मामला यह कि एक बड़ी कटी पतंग लगभग लहराते हुए आसमान से जमीन पर उतरने की दिशा में थी। उस रोमांच को वही महसूस कर सकता है जो पतंग के लिए कभी खुद पतिंगा बना हो। यह लक्ष्य से एकनिष्ठ हो जाने का मामला है, जनाब।
ड्राइवर ने आहिस्ता गाड़ी धीमी की और ठीक उनके सामने जा रोक दी। ऐन तभी डोर उन लड़कों के हाथ में आ गयी। हम चारों के चेहरों पर एक समान खुशी कोई अनायास पढ़ सकता था। वह इन चार अलग-अलग आत्माओं के इतिहास का शायद पहला पन्ना रहा होगा। बाद में ड्राइवर और मैं हाथ हिलाते उन लड़कों से विदा हुए। अब दफ़्तर की दूरी चंद लम्हों पर थी और मेरे सुबह की खुशी कई गुनी।
कहानी ढपोर शंख की
भारत के सुदूर उत्तर के एक राज्य में एक बाबा रहता था। उसमें पांडित्य तो था पर अब वह कालवाह्य हो चुका था। दूसरे देशों के ज्ञानियों ने ऐसे यन्त्रों और उपकरणों की खोज कर ली थी कि उस बाबा को अब कोई नहीं पूछता था। वह और उसके साथी उस समाज के सबसे प्रतिष्ठित वर्ग के थे। उस समय सबके दुर्दिन चल रहे थे।
उस राज्य के कुछ सेठ उनकी सर्वोच्चता के कायल थे। बाबा और उसके साथियों ने कालवाह्य चीजों और लोगों के गलत-सही विश्वासों को भुनाने वाले सेठों से सांठ-गांठ कर लिया था। पर इतने से बात नहीं बनने वाली थी। उन्हें एक शगुन बताने वाली शंख की दरकार थी। एक पुराने बाबा ने इसकी जिम्मेदारी उठायी और वह यात्रा करता दक्षिण के एक समुद्रतटीय राज्य में जा पहुंचा। उस राज्य में ऐसे गिनती के शगुन शंख थे। ये शंख ऐसे मनुष्यों की तपस्या का परिणाम थे जो अपने तपोबल से आर-पार देखने की शक्ति अर्जित कर चुके थे। यह भी कि ऐसे इने-गिने शंख सुपात्र लोगों के पास ही टिकते थे।
उस वयोवृद्ध बाबा ने येन-केन-प्रकारेण एक शगुन शंख प्राप्त कर लिया और खुश हो कर अपने राज्य की तरफ प्रस्थान किया। चलते-चलते वह शिथिल पड़ गया और एक आश्रम पर एक दो दिन बिताने की उसकी इच्छा हुई। आश्रम पर एक योगी रहता था। योगी के पास भी एक शंख था। बाबा ने योगी से उसके शंख के बारे में जानना चाहा। योगी ने बताया कि यह ढपोर शंख है। इससे जितने की कामना की जाती है यह उससे कहीं ज्यादा देने का संकेत बताता है। उसने यह भी बताया कि इससे चांदी की इच्छा करने पर सोने का संकेत करता है और सोने की इच्छा करने पर हीरे का संकेत करता है। बाबा को लगा कि यदि यह शंख उसके हाथ लग जाय तो उसके साथ उसके समूह के सब लोगों के दुर्दिन दूर हो जाएं। सो वह रात के तीसरे प्रहर में उस योगी के पास अपनी शगुन शंख छोड़ कर ढपोर शंख हस्तगत कर चलता बना।
जब बाबा वह ढपोर ले कर अपने समूह में पहुंचा और समूह को सारी बात बतायी तो वहां हर्ष की लहर दौड़ गयी। समूह का कोई व्यक्ति सोने की मांग करता तो ढपोर जोर-जोर से हीरा देने की बात करने लगता वह व्यक्ति खुश हो जाता पर हकीकत में उसे हीरा नहीं मिलता। शंख पर इतना विश्वास था कि कि लोग दिन, महीने, वर्ष बीतने पर भी उसके बताने पर अविश्वास नहीं करते। वे उसकी बातें सुन कर महीनों, बरसों इन्तजार करने लगे कि कि अब कुछ काम बनेगा, तब कुछ काम बनेगा। पर धीरे-धीरे वे निराश होने लगे।
लोभी लोगों को छोड़ कर अब करीब-करीब सबने यह देख लिया है कि ढपोर शंख विराट हो कर इस महादेश के रंगमंच पर छा गया है। कहानी तो यह मिलती है कि लालची बाबा ने उकता कर उस शंख को पश्चिम के समुद्र में फेंक दिया। देखना यह है कि इस महादेश की जनता ढपोरशंख के साथ क्या सलूक करती है।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
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मोबाइल : 09454411777
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