भास्कर चौधुरी का यात्रा संस्मरण 'आनंदवन में एक दिन'
भास्कर चौधरी |
समाजसेवा, खासकर कुष्ठ रोगियों की सेवा के लिए बाबा आमटे ख्यात रहे हैं। बाबा का पूरा नाम मुरलीधर देवीदास आमटे (26 दिसंबर, 1914 - 9 फरवरी, 2008) था। समाज से परित्यक्त लोगों और कुष्ठ रोगियों के लिये बाबा आमटे ने अनेक आश्रमों और समुदायों की स्थापना की। इनमें चन्द्रपुर, महाराष्ट्र स्थित आनंदवन का नाम प्रमुख है। इसके अतिरिक्त आमटे ने अनेक अन्य सामाजिक कार्यों, जिनमें वन्य जीवन संरक्षण तथा नर्मदा बचाओ आंदोलन प्रमुख हैं, के लिये अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। वरोडा (जि. चंद्रपूर, महाराष्ट्र) पास घने जंगल में अपनी पत्नी साधना ताई, दो पुत्रों, एक गाय एवं सात रोगियों के साथ उन्होंने आनंद वन की स्थापना की। यही आनंद वन आज बाबा आमटे और उनके सहयोगियों के कठिन श्रम से आज हताश और निराश कुष्ठ रोगियों के लिए आशा, जीवन और सम्मानजनक जीवन जीने का केंद्र बन चुका है। जीवनपर्यन्त कुष्ठरोगियों, आदिवासियों और मजदूर-किसानों के साथ काम करते हुए उन्होंने वर्तमान विकास के जनविरोधी चरित्र को समझा और वैकल्पिक विकास की क्रांतिकारी जमीन तैयार की। कवि भास्कर चौधुरी ने अरसा पहले 14-15 मई, 2005 को आनन्दवन की यात्रा की थी। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं भास्कर चौधुरी का यात्रा संस्मरण 'आनंदवन में एक दिन'।
'आनंदवन में एक दिन'
(14-15 मई 2005)
भास्कर चौधुरी
हाल ही में मैंने 'रीडर्स डाइजेस्ट' का सितम्बर 2005 का अंक देखा। आवरण पृष्ठ पर बाबा आमटे की तस्वीर छपी थी। वर्षों से बाबा आमटे के व्यक्तित्व एवं काम के बारे में जानने की इच्छा मन के किसी कोने में दबी पड़ी थी। मैंने जल्दी-जल्दी बाबा आमटे की तस्वीरों के साथ छपा छोटा सा लेख और उनका साक्षात्कार जिसे अशोक महादेवन और मोहन सिवानंद ने लिया था, पढ़ डाला और उसी वक्त तय किया कि रजत कृष्ण (मेरे अड़तीस वर्षीय मित्र जो पिछले 20-22 वर्षो से मसकुलर डिस्ट्राफी से पीड़ित हैं। रजत कृष्ण छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले के बागबहरा कस्बे में रहते हैं) के घर चार-पाँच दिन बिताने के बाद आनंदवन जाऊँगा।
चौदह मई की दोपहर एक-डेढ़ बजे करीब आनंदवन पहुँचा। यहाँ की व्यवस्था देख कर आँखें फटी रह गईं। ऐसा लगता है जैसे अनुशासन मिट्टी में रचा-बसा हो। मई माह की झुलसा देने वाली गर्मी में भी हर चीज जीवन्त। ये रजत ही हैं जिनसे मैंने जिजीविषा का पहला पाठ सीखा है। यहाँ कई रजत हैं, इसलिए नहीं कि वे आँखों से, ज़ुबान से या हाथ-पैर से अपंग है बल्कि इसलिए कि रजत की तरह ही जीवन से लबरेज़ हैं। ऐसा लगता है जैसे यहाँ मौजूद सभी प्राणियों का दिल उमंगों से भरा पड़ा है। पत्थरों से लेकर पानी तक हर जीवित-अजीवित चीजें जैसे जोर-जोर से जीवन का आह्नान कर रही हैं।
थोड़ी मुश्किल के बाद मुझे नहाने धोने और रहने की जगह मिल गई। ठंडे पानी और चाय ने मेरा स्वागत किया। लगभग चार बजे मैं निकल पड़ा आनन्दवन से आत्मीय परिचय पाने। सबसे पहले मैं मिला श्री ताजनेय सर से। वे एक पाठशाला चलाते हैं। जहाँ वे छात्र-छात्राओं को विद्युत और यांत्रिकी की तकनीकी बारीकियाँ सिखाते हैं। इस वक्त डाॅ. विकास आमटे, बाबा आमटे के बडे़ बेटे की अनुपस्थिति मेें वे प्रबंधन का काम भी देख रहे हैं। श्री ताजनेय के दोनों पैर, कमर के नीचे से बेकार हैं बावजूद इस विकलांगता के ताजनेय दिल और मस्तिष्क से ताज़ादम; नौजवानों को मात देने वाली उर्जा से भरपूर। ताजनेय जी से परिचय के बाद मैं मिला आनंदवन के मुख्य रास्ते पर सुधीर कदम से। लम्बे घने बालों वाले सुधीर बाइस-तेइस वर्ष के हैं। उनके दोनों पैर बचपन से पोलियोग्रस्त हैं। सुधीर पिछले छःं-सात वर्षों से आनंदवन का हिस्सा हैं। उन्होंने कहा डाॅ. विकास आमटे ने उनमें काॅन्फीडेन्स पैदा किया है। आज वे एक नामी एंकर हैं। यहाँ के कई कार्यक्रमों का उन्होंने संचालन किया है। वे कार्यक्रम का मुम्बई एवं अन्य जगहों पर सफलतापूर्वक प्रदर्शन कर चुके हैं। वे कहते हैं यहाँ हर प्राणी आनंदित हैं। कोई घर वापस जाना नहीं चाहता। सबके करने के लिए स्वयं की पसंद के काम हैं। सभी यहाँ आत्मनिर्भर है। सुधीर ने यहीं एक लड़की जो मूक-बधिर है, से शादी की। उनकी एक, एक साल की बिटिया है। उसके दोस्त कहते हैं वह बहुत चंचल है, सुन्दर है। उसे सभी प्यार करते हैं। सुधीर और उनके परिवार के लिए अलग से घर की व्यवस्था है। उनकी तरह के और भी जोड़े हैं यहाँ। उन्होंने बताया यहाँ कम से कम खर्चे में शादी कराई जाती है, और यह भी कि यहाँ प्रेम के इस उदात्त रूप को प्रोत्साहन दिया जाता है। सुधीर से मैंने एडजस्टमेंट की बात पूछी। उसने बताया घर में झगड़े औरों की तरह ही होते रहते हैं। उसे ही झुकना पड़ता है। उसने कहा कि लड़कियाँ पुरूषों से ज्यादा क्षमतावान होती हैं। वे घर-बाहर दोनों संभालती हैं, इसलिए नाराज़ भी ज्यादा होती हैं।
सुधीर से इस छोटी सी मुलाकात के बाद मैं मिला प्रभात जी से। तकरीबन पचास वर्षो के प्रभात जी मोटे लेंस का चश्मा लगाये, सर पर टोपी पहने बड़े ख़ूबसूरत लग रहे थे। प्रभात जी गैर शादीशुदा हैं। वे यहाँ आने से पहले शराब पीने के आदी थे। प्रभात जी के दोनों पैर काम नहीं करते। हाथ भी काँपते हैं। लेकिन प्रभात जी ख़ुशमिजाज लगे। उनके दिल में उमंगों की कोई कमी नहीं। प्रभात इन दिनों मेस इंचार्ज हैं। एक कोने से दूसरे कोने घूमते रहते हैं अपनी ट्रायसायकिल पर जो वे मुम्बई से अपने साथ ही ले कर आये थे। जिसे वहाँ के किसी ट्रस्ट ने उन्हें दिया था। उन्होंने मुझे बाबा आमटे से मिलवाने का वचन दिया। प्रभात तम्बाखू खाते हैं। मैंने उनसे कहा यह गलत है। पैसे का दुरूपयोग है। यहाँ सब आपकी भलाई के लिए हो रहा है। आपको स्वस्थ रखने के लिए हो रहा है। फिर यह क्यों? प्रभात यहाँ मिले कुुछ युवाओं जिनमें कुछ दृष्टिहीन हैं- बंडु, तुुषार आदि, कुछ पोलियोग्रस्त हैं कुछ कुष्टरोग से पीड़ित हैं, वे हमसे ज्यादा गतिशील और उर्जा से भरे लगे। प्रभात मेरे साथ काफी देर रहे। कल मिलने का वादा कर वे चले गये शायद मेस की जिम्मेदारियाँ पूरी करने...।
प्रभात जी से दो मुलाकातों के बीच मैं चला गया लड़कों के हाॅस्टल संधि निकेतन। यहाँ मेरी भेंट हुई स्वप्निल से। मुश्किल से ढाई .... फुट के स्वप्निल दस-बारह किलो के रहे होंगे। यानी मेरी साढ़े तीन साल की बेटी से भी हल्के। स्वप्निल को मैंने बच्चा कह कर आवाज दिया तो उसके साथियों ने तुरन्त टोका वह बच्चा नहीं अठारह साल का लड़का है। मैं चौंका और मुझे मेरी भूल पर पछतावा हुआ। थोड़ी सी झिझक के बाद स्वप्निल ने बहुत जोश के साथ गीत सुनाया-नन्हा-मुन्ना राही हूँ....... स्वप्निल की आवाज में मुझे एक मंजे हुए कलाकार का स्वर सुनाई दिया। अमोल होठों और दाँतों की मदद से बिना बाँसुरी के बाँसुरी बजाते हैं। वे बहुत विनम्र इन्सान लगे। वे अच्छा गाते हैं। नरेश ने गा कर सुनाया। नरेश के दोनों पैर खराब हैं। अमोल की आँखों में रौशनी नहीं है। नरेश के छोटे भाई मुकेश कांगो बजाते हैं। दोनों भाइयों में गहरी छनती है। छोटा बड़े की थाली में खाना खाता है अकसर। बंडु और तुषार दोनों दृष्टिहीन हैं पूरी तरह से। बंडु बहुत ही दिलचस्प लड़का है। आर्केस्ट्रा में तबला बजाता है। उसने मुझे बाहों से पकड़ा और हाॅस्टल से मेस तक मेरे साथ ही आया। शाम के छः बजे हम लोगों ने साथ खाना खाया। भोजन में सारी चीजें आनंदवन के खेतोें की, आनंदवन मैं तैयार। बंडु ने बार-बार आग्रह किया अगली सुबह आर्केस्ट्रा में आने के लिए। तुषार थोड़े खिन्न से लगे। बातचीत में तुषार अंग्रेजी के शब्द बख़ूब बोलते हैं। तुषार ब्रेल लिपि जानते हैं। उन्होंने शेक्सपियर की प्रेम कविताएँ पढ़ी है। वे खैरागढ़ जाना चाहते हैं। संगीत साधना करना चाहते हैं। उनकी आवाज में गहरी खामोशी है, लम्बे अन्धेरेपन से उपजी तल्खी और विवशता है। किरण का चेहरा और होंठ थोड़े तिरछे हैं दोनों हाथ और पैर बेकार हैं। छोटे से ट्रायसायकिल पर बंडल की तरह बड़े सिर वाले और बड़े बालों वाले किरण ऐसे देखते हैं जैसे व्यंग्य कर रहे हों। किरण के लिए दुनिया बेवकूफियों से भरी हो जैसे। पचास साल के प्रदीप ने किसी मराठी कवि का बेेेहद गहरी अनुभूतियों वाला भजन गाया। उनके भजन में दुनिया से बुराइयों को हटाने देवताओं से आवाहन था। प्रदीप भी देख नहीं पाते। वे सदा मुस्कुराते रहते हैं...।
आनंदवन में साँझ उतर रही है। पक्षियों के घोसलों पर लौटने का गान ऊँचाई पर है। आसमान में लालिमा छाई है। अपने वादे के मुताबिक एक बार फिर प्रकट हुए प्रभात जी। वे मुझे ले कर आनंदवन की सड़कों पर चले। हम एक बिक्री केन्द्र गए। यहाँ मैंने बगल में लटकाने वाला हैडलूम का बैग और एक चादर खरीदा। बाबा आमटे और उनकी पत्नी पर लिखी दो किताबें खरीदनी चाही पर ध्यान आया कि जेब में पैसे कम हैं। अंत में मैंने आनंदवन में बनाये चार ग्रीटिंग कार्ड्स और बाबा आमटे पर लिखी किताब भी खरीद ली। ऐसा लगा जैसे सारी चीजें ले जाऊँ। विभिन्न कलाकृतियाँ जिनमें बाबा को उपहार में मिली कलाकृतियाँ भी शामिल थीं। खरीदने की ख्वाहिश मन में रख बहुत सारी चीजें अनायास ही छूता रहा। शाम ढल रही थी। मुझे प्रभात जी की सलाह के अनुसार जल्दी बाहर आना था ताकि बाबा से भेंट हो सके...। बिक्री भवन से कुछ ही दूर गए होंगे कि बाबा आमटे दिखाई दिये। आनंदवन के घने वनों में से एक के बीच वाले रास्ते पर एक विशेष चार पहियों वाली ठेला गाड़ी पर लेटे हुए थे बाबा। गाड़ी में बड़ी गाड़ियों वाले हार्न लगा हुआ था। सफेद चादर पर लेटे बाबा की पीट पर कमर के ठीक उपर एक चौड़ी, भारी पट्टी बंधी हुई थी। लगभग तिरानबे वर्ष के बाबा बहुत तकलीफ में रहे होंगे। मैंने उन्हे नमस्ते कहा तो उन्होनें हाथ उठाया मेरी ओर देख कर। मैं ठेले के साथ हो लिया और एक व्यक्ति जो शायद बाबा के नजदीकियों में से एक थे उन्हें थोड़ा हटने को कहा। उन्होंने मेरे लिये बाबा की गाड़ी का सामने वाला हत्था छोड़ दिया। मैं भी अन्य लोगों के साथ गाड़ी को ठेलते हुए आगे बढ़ने लगा। बाबा ने पूछा कहाँ से आये हो किसलिए..........? उन्हें ऊँचा सुनाई देता है किसी तरह बोल रहे बाबा की आवाज में अब भी वही युवा दिनों की बुलन्दी और खनक है। हम कुछ और भी बातें करते रहे लेकिन यह संवाद ज्यादा देर तक कायम न रह सका। बाबा अपने घर के बरामदे तक पहुँच कर उठे और अंदर चले गए। उनके पीछे-पीछे कुछ और लोग भी अन्दर गए। मैं थोड़ी देर उन्हें जाते हुए देखता रहा और अपनी इस मुलाकात को फिल्म की रील की तरह अपने अंदर हमेशा के लिए जज़्ब करता रहा। मैंने सोचा ये वही बाबा आमटे हैं जिन्हें महात्मा गांधी ने ‘अभय साधक' नाम दिया था। वहाँ से लौट कर मैंने बाबा की तीसरी पीढ़ी के युवा कार्यकर्ता कौस्तुब जी से आनंदवन से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर ढेर सारे प्रश्न पूछे। कौस्तुब जी डॉक्टर विकास आमटे के पुत्र और बाबा के पोते हैं। उन्होंने सी. ए. किया है और वे भी परिवार के अन्य सदस्यों की तरह समर्पित प्रबन्धक एवं कार्यकर्ता हैं। दरअसल आनंदवन साढ़े पाँच सौ एकड़ में फैला हुआ एक ऐसा वन आच्छादित क्षेत्र है जहाँ मनुष्य का सुन्दरतम रूप देखने को मिलता है। यह वह स्थान है जहाँ शीशम के अनगिनत वृक्षों से ले कर संतरे के पेड़ नीम, बबूल, आँवला, इमली से ले कर हरेक फूल-पत्ती, तितली, कुत्ते, बिल्ली, गिलहरी, बतख, बन्दर और और भी असंख्य जीव जन्तु पशु-पक्षी मनुष्य के साथ जीवन को सुन्दर बनाने में जुटे हुए हैं। यहाँ हर व्यक्ति, हर प्राणी स्वावलम्बी है। सबके पास करने को उसकी पसन्द के काम हैं। आत्मसम्मान और आत्मबल प्रत्येक के पास सुरक्षित है। यहाँ बच्चे से ले कर बूढ़े तक सभी एक-दूसरे से बेहद प्यार करते हैं। यहाँ सभी अपने होने की अहमियत को बखूबी समझते हैं। यहाँ प्रेम करने की आजादी है। यहाँ श्रम का कोई विकल्प नहीं है। यहाँ पैसा प्राइमरी या मुख्य नहीं है। लोग अपनी जरूरतों के मुताबिक पैसा उगाते हैं, वास्तव में यहाँ हर प्राणियों की जरूरतें सीमित या कम हैं। लेकिन इसका मतलब नहीं कि यहाँ लोकतन्त्र अपने सर्वोत्तम रूप में विद्यमान नहीं है यह देखा समझा जा सकता है, अनुभव किया जा सकता है। यहाँ अनुशासन लादना नहीं पड़ता वह स्वतः ही लोगों में आ जाता है एक दूसरे में प्रेरित (induce) हो जाता है। यहाँ दिखावे की कोई जगह नहीं। आनंदवन में लोगों को अपना बना लेने की गजब की ताकत है, क्षमता है। मैंने महसूस किया कि आनंदवन चुम्बक की तरह है। एक बार आने वाले व्यक्ति यहाँ से वापस जाना नहीं चाहता। वह यदि जाता भी है तो चंद दिनों के लिए और फिर लौट-लौट आता है।
अगली सुबह मैं जल्दी ही आनंदवन की सड़कों पर आ गया। मैंने देखा गौशाला में कुछ बुजुर्ग गोबर सकेल रहे हैं। कुछ दूध दुहने के काम में लगे हुए हैं। व्यक्ति गायों को चरने के लिए बाहर मैदान में ले जाने की तैयारी कर रहे हैं। मैंने देखा दूर-दूर कुछ महिलाएँ अपने बनाये हुए झाडुओं से रास्ता साफ कर रही हैं वे सूखी हुई टहनियों पत्तियों को सड़क के किनारे इकट्ठा कर रही हैं। आनंदवन के मुख्य रास्ते को छोड़ जब मैं दूसरे रास्तों पर निकला तो वहाँ देखा मानव निर्मित तालाब और उनके किनारे बतखों के झुंड। और उनकी देखभाल के लिए एक अधेड़ उम्र का आदमी जुटा हुआ था। वह बतखों को रहने की जगह को साफ कर रहा था। कुछ महिलाएँ और पुरूष 'ग्रीन हाउस' में काम कर रहे थे तो कुछ खेत कोड़ रहे थे। पौधों को बड़े जतन से पानी पटा रहे थे कहीं मैंने देखा एक व्यक्ति श्रम के बाद पसीना सुखा रहा है। थोड़ी देर बाद उसने पास ही कुएँ से पानी निकाल कर नहाना आरम्भ कर दिया।
आनंदवन की छवि एक बेहद उन्नत गाँव की बनती है प्रत्येक गाँव वाले के पास अपने-अपने अधिकार, रुचियाँ हैं और रुचियों के अनुसार काम करने की आजादी है। हाँ एक बात का उल्लेख करना तो मैं भूल ही गया यहाँ शाम सात बजे से रात ग्यारह बजे तक स्वतः ही लोग बिजली कम से कम खर्च करते हैं। पंखों का इस्तेमाल कम से कम करते हैं कूलर ए. सी. आदि तो चलाते ही नहीं। इस तरह काफी बिजली बचा लेते हैं।
आठ बजे के करीब मेरी मुलाकात साठे जी से हुई। तकरीबन सत्तर साल के साठे जी पर शायद सुरक्षा का भार है। गजब की तल्खी के साथ उन्होंने मुझे डाँटा। मैंने आनंदवन आने की पूर्व आज्ञा न लेने को अपनी छोटी सी चूक बताया तो उन्होंने इसे बड़ी भूल कहा। वे मुझे पाँच मिनट तक डाँटते रहे। मेरी बातों का करारा जवाब देते रहे। उन्होंने अपना परिचय बताने से भी इंकार किया। मैंने अनुशासन का गहरा पाठ पढ़ा।
नाश्ते के बाद लगभग साढ़े आठ बजे मैं एक बार फिर आनंदवन से परिचय पाने चला। इस बार बंडु और उसके साथियों को किये वायदे के अनुसार ‘स्वरानंदनवन’ यानी आनंदवन की आर्केस्ट्रा मंडली के खूबसूरत ऑडिटोरियम की ओर जाना था मुझे। दूर से ही सुनाई पड़ रही बेहद सुरीली स्वरलहरियों ने मुझे जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाने को मजबूर कर दिया। ऑडिटोरियम में प्रवेश करते ही मैं भौंचक रह गया। बंडु नरेश, मुकेश, किरण, सुधीर, प्रतिमा, स्वप्निल, आशा और उनके ढेर सारे साथी जिनसे मेरा परिचय होना बाकी था खूबसूरत स्टेज पर कई वाद्ययंत्रों के साथ गा-बजा रहे थे। उनके साथ थे उनके युवा संगीत शिक्षक निशिकांत देशमुख। मुझे देशमुख जी बड़े ही सरल इंसान लगे। उनमें सबको साथ ले कर चलने का जज़्बा है, धैर्य है। यहाँ का मंजर किसी के हृदय को आन्दोलित करने और हाथ-पाँव में थिरकन पैदा करने के लिए काफी था। मैं भी अपने आप को रोक न सका। अंत में निशिकांत जी ने मुझे माइक थमाया। मैंने उन्हें कुछ कविताएँ सुनाई। मुझे लगा यहाँ कविताओं की समझ ज्यादा है। मैं उनके आग्रह को महसूस करता रहा। यहीं मैं अपने साथ लाये रजत के खेतों की मूंगफल्लियाँ जिन्हें मैंने नरेश को दे दिया था उसके और दोस्तों के लिए प्रतिमा और उसकी सहेलियाँ को उनके हिस्से की मूंगफल्ल्यिाँ टूँगते देखता रहा और वे भी मेरी उपस्थिति महसूस कर मुस्कुरा रहे थे।
स्वरानंदनवन से निकलते-निकलते एक बार फिर चौंकने की बारी मेरी थी इस बार मेरी नज़र पड़ी आडिटोरियम से सटे एक कमरे के भीतर जहाँ ऊपर लिखा था ग्रीटिंग कार्ड्स। एक लड़की जिसके दोनों हाथ बाजुओं से नहीं थे अपने पैरों से टीकवुड की चम्मचों से कोई गुलदस्ता की तरह का कुछ बना रही थी। मैं वहीं एक तख्त पर बैठ गया जहाँ कुछ अधूरे ग्रीटिंग कार्ड्स, सुई और रंग बिरंगे धागे पड़े हुए थे। मैंने उसका नाम जानना चाहा, बदले में वह मुस्कुरा दी। दरअसल उसकी मुस्कुराहट में ही उसका उत्तर छिपा था। मेरी उपस्थिति के बावजूद बनाती रही वह गुलदस्ता। वह दायें पैरों के बीच की उंगलियों की जगह से रखती रही एक बाद एक चम्मच एक सुनिश्चित जगह पर और साथ ही फेवीकॅाल की मदद से बायें पैर से चिपकाती रही। यह काम वह बेहद नपे-तुले अंदाज से गजब के धैर्य और संतुलन के साथ करती रही।
यहाँ से निकल कर मैंने रुख किया विभिन्न कार्यशालाओं की ओर। सबसे पहले देखा हेन्डलूम वर्कशॉप जहाँ कुछ महिलायें चरखें पर विभिन्न रंगों के सूत के गोले बनाने में लगी हुई थीं तो वहीं दूसरे हॉलनुमा कमरे में दो बुजुर्ग जिनकी उम्र साठ-पैंसठ साल की होगी हथकरघा सेट पर एक के बाद एक धागे जमा रहे थे और इस तरह बुन रहे थे एक सुदंर शतरंज के खानों की तरह गुलाबी और सफेद रंगों में डिजाईन वाले कपड़े। शायद कई मीटर लम्बे थान के रूप में ये कपड़े ओढ़ने बिछाने की चादरों के लिए हैं। मैंने महसूस किया कि यह बड़ा ही श्रमसाध्य कार्य है। दोनों बुजुर्ग जिस लगन और एकाग्रता से यह काम कर रहे थे वह कपड़ों में साफ झलक रहा था। काम में सफाई थी और रंगों में ताज़गी। मैंने यहाँ किसी व्यक्ति को फालतू समय गँवाते नहीं देखा और न ही इधर-उधर की बातों में काम के परिणाम से समझौता करते। दरअसल वहाँ बातचीत तो हो रही थी और संवाद-परिसंवाद का दौर भी चल रहा था लेकिन संवाद करने वाले कारीगर और उनके काम यानी साधक और साध्य के बीच संवाद चल रहा था। जिसमें हास-परिहास, संगीत सब कुछ था। द्वेष और घृणा की वहाँ कोई जगह नहीं था। यहाँ से चल कर ठीक बगल वाले बड़े से कमरे में दाखिल हुआ जहाँ पावर हैंडलूम का काम चल रहा है। जहाँ एक ही व्यक्ति दो-दो मशीनों पर नजर रखे हुए हैं। यहाँ तेजी से बुनने का काम जारी है। यहाँ हाथकरघे की लकड़ियों की खट-खट और मशीन के मोटरों, चेन और घिरनियों की अनोखी आवाज एक तरह का फ्यूजन पैदा कर रही थी जिसमें परम्परा और आधुनिकता का गहरा मेलमिलाप और तालमेल दोनों दिखाई पड़ते हैं। हेंडलूम की कार्यशालाओं से लगे हुए हैं विद्युत एवं यांत्रिकी कार्यशालों और उससे सटा है काश्तकारी विभाग। दोनों जगहों पर अद्भुत रफ्तार और सफाई से काम चल रहा हैं। ट्रायसायकिल के ढांचे, छात्रों के बैठने के लिए डेस्क-बेंच, दुकानों के काउटंर टेबल और, और भी बहुत कुछ बनाये जा रहे हैं यहाँ। मैंने देखा पके बालों वाले एक साठ-सत्तर बरस के, दुबले-पतले कारीगर लोहे को पीट रहे हैं, हथोड़े से पूरी ताकत लगा कर। मैनें देखा दो उगलियों वाले कामगार को रोटी बनाने वाले चकते को घिसते, चिकना करते। मैनें देखा आँखों पर ऐनक चढ़ाये एक युवा को जो बड़ी सफाई और मेहनत से गैसकटर से लोहे के एंगल काट रहा था, उसके दोनों पैरों की उंगलियाँ नहीं थी। वहाँ पट्टियाँ बंधी थी। इस तरह कार्यशाला दर कार्यशाला आगे बढ़ते हुए मैं कुष्ट रोग से निजात पा रहे परिवारों के साथ रहने वाले लोगों के लिए निर्मित निकेतन की ओर बढ़ चला। कल यहीं दोपहर को मैंने लता मंगेशकर की आवाज में ट्रांजिस्टर पर कोई गीत बजते सुना था। उसे सुनने वाले बुजुर्ग से मेरी फिर भेंट हुई उनके दोनों पैर कुष्ट रोग से ग्रस्त हैं। उनका इलाज चल रहा है। उन्होंने मुझे देखा और पहचान लिया। हम दोनों मुस्कुराते रहे। कहा कुछ भी नहीं। केवल खुश होते रहे। यहाँ अलग-अलग कॉटेज में कुछ न कुछ चल रहा था। कहीं कोई नहा रहा था। कहीं कोई कपड़े सुखा रहा था तो कहीं बच्चों को नहलाया जा रहा था। कई कॉटेज खाली थे। मैंने पता लगाया कि वे छुट्टियों में घर घूमने गये हैं और कुछ यहाँ से सौ किलोमीटर दूर सोमनाथ कैम्प में ट्रेनिंग पाने। कोई नई चीज सीखने गए हैं। मैं एक खुले कॉटेज में घुस गया। वहाँ दो जन चॉक बनाने में लगे हुए थे। उनसे पता चला कि वे दूसरा काम करते हैं मसलन कुर्सियों की बुनाई करना और यह कि वे इन दिनों छुट्टियों का लाभ उठा रहे हैं। उन्होंने मुझे बताया कि क्यों प्लास्टर ऑफ पेरिस के साथ मिट्टी का तेल और अरन्डी का तेल उपयोग करते हैं वे। उनमें से एक बीस वर्षों से आनंदवन के इस विशाल और अनूठे परिवार का अहम हिस्सा हैं। उन्होंने बताया कि यहाँ सबकी अहमियत एक सरीखी है। सभी आनंदवन के जरूरी अंग हैं।
आनंदवन में देवी-देवता की मूर्ति नहीं है। यहाँ अलग से कोई प्रार्थना नहीं होती। कोई यज्ञ या हवन नहीं होते। कहीं घन्टियाँ नही बजतीं। आनंदवन में कोई किसी का धर्म नहीं पूछता न उसकी जाति और गोत्र का ही पता लगाया जाता, फिर भी आनंदवन की फिजां में खुशबू है रिश्तों की, मिठास है मनुष्यता की। आनंदवन की मिट्टी में आनंद का दिन-प्रतिदिन फैलता विस्तार है।
जाते-जाते स्वरानंदवन के एक सदस्य से फिर एक बार भेंट हुई। वह सुनील था, वही सुनील जो इलेक्ट्रिक गिटार बजाते हैं, प्रतिमा से सोमनाथ कैम्प में इसी 19 तारीख को उनकी शादी होनी है। उसने शादी का निमंत्रण पत्र दिया और वहाँ पहुँचने का आत्मीय अनुरोध किया। इस कार्ड में कहीं नहीं लिखा था कि सुनील दृष्टिहीन है और प्रतिमा मूक-बधिर...
दिन के डेढ़ बज रहे हैं और मैं आनंदवन के वृक्षों की लम्बी कतारों से, जो मेरे रास्ते के दोनों ओर खड़े हैं, विदा ले रहा हूँ। विदा ले रहा हूँ उन दोस्तों से जो मैंने पिछले चौबीस घंटों में बनाये हैं और जिनकी अमिट छाप मेरे दिल में ताउम्र रहेगी। मैं विदा ले रहा हूँ उन पत्थरों से, कलाकृतियों से, तालाबों से, आम-संतरों के बगीचों से, बतखों के झुंड से जो आनंदवन की धड़कन हैं उसे सदैव जीवंत बनाये हुए हैं। मैं विदा ले रहा हूँ फिर-फिर लौटने के लिए। गीतकार शैलेंद्र की दो पंक्तियाँ याद आ रही हैं ..।
कि तू ज़िंदा है तो ज़िंदगी की जीत पर यकीं कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीं पर..................।।
बहुत अच्छा वृत्तांत लिखा है भास्कर ने। बाबा आमटे के कार्यों और आनंदवन के बारे में पढ़ना अच्छा लगा।
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