रुचि बहुगुणा उनियाल की कविताएं

 

रुचि बहुगुणा उनियाल



रात का जिक्र आते ही खुद ब खुद हमारे मन मस्तिष्क में एक अमूर्त से भय का संचार होने लगता है। यह रात अंधेरा लाती है। अंधेरे को ले कर दुनिया भर के कवियों ने तमाम यादगार कविताएं लिखी हैं। अंधेरे के साथ जुड़ कर रात उस बुराई का प्रतिनिधित्व करने लगती है जिससे हम बचना चाहते हैं। रात को देखने की यह रूढ़ दृष्टि है। रात प्राकृतिक है। और इस प्रकृति में कुछ भी अतिरिक्त या दोषपूर्ण नहीं। इसे तो हम गढ़ लेते हैं। रुचि बहुगुणा उनियाल दृष्टिसम्पन्न कवयित्री हैं। रात को देखने का उनका नजरिया अलग ही है। रात का जिक्र करते हुए वे लिखती हैं - 'रातों ने दिया समय/ बंद फूलों को/ ताकि भर सकें मकरंद/ और जीवन फल-फूल सके।' रात अगले दिन की सम्भावना से भरी होती है। रात हमें नींद के रूप में वह सुकून देती है, जो अब जिन्दगी से गायब हो चला है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रुचि बहुगुणा उनियाल की कुछ नई कविताएं।



रुचि बहुगुणा उनियाल की कविताएं



काश----


अगर जीवन में काश शब्द न होता

तो जीवन कितना सुन्दर होता 


हर पल प्यार शब्द अगर लोग रेवड़ी की तरह न बांटते

तो इस शब्द का मर्म कितना गहन होता

न छला जाता अगर किसी के निष्कपट हृदय को

तो बद्दुआ शब्द कितना महत्वहीन हो सकता था।


किंतु हाय!


यह धरती का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा 

कि उसने विश्वास पर घात लगते सबसे ज़्यादा बार देखा 

और मौन रही, काँप नहीं उठ्ठी, अपनी धुरी पर घूमना बंद नहीं किया और बनी रही अपराधिनी!


निष्कपट, उजले, प्रेमिल हृदयों की 

बिखरी, टूटी किरिचनें संभालने 

ढोने के कारण ही 

झुकी हुई है अपने अक्ष पर तेईस दशमलव पाँच अंश


इतनी झुकी है, 

कि बदलाव आते हैं मौसमों में 

यह ऋतु परिवर्तन भी धरती को दोषमुक्त नहीं कर पाते!



उम्र गिरती है 


उम्र गिरती है 

जैसे गिरते हैं फल पकने के बाद


उम्र के गिरने पर

गिरता है स्मृति का मज़बूत स्तम्भ

कितनी ही बातें, कितने ही आँकड़े

जो पहले चुटकी बजाते ही

हो जाते थे उपस्थित कर बाँधे सामने

अब गिरती वय का उपहास उड़ाते निकल पड़ते हैं चपलता से यहाँ-वहाँ


नींद भी गिरती है उम्र के साथ-साथ

और गिरते हैं सतरंगी स्वप्न भी


देह की शिथिलता में गिर जाता है स्पर्श भी

गिरता है बेचैनी का स्तर भी 

किन्तु बढ़ जाती हैं व्यथाएँ 


कपूर की तरह उड़ जाते हैं दिवस

मद्धम होती जाती है गति

देह राख की तरह झर के गिरती है वक़्त की मुठ्ठी से।



फिर-फिर हारूँगी


तुम्हारी बतकहियाँ लगाती आँखें

वह विस्तृत अम्बुधि छूता व्यक्तित्व 

घनी मूँछों के पीछे से तांक-झांक करते हल्के गुलाबी होंठ

और उन होंठों का पहरा कभी-कभार ही सही

तोड़ कर बाहर झांकती तुम्हारी दाड़िम सी दंतपंक्ति


हज़ारों चेहरे देखने के बाद भी

मेरी ये निगोड़ी आँखें

केवल तुम्हारी ही छवि को ढूँढती हैं चहुँओर


ये जन्ममाह बीतेगा

और लौट आएगा तुमसे बिछोह का मुआ नवंबर वापस

लौट आएगी हरियाली सूख चुके एक पुराने घाव की

फिर से उठ्ठेगा अंतहीन विलाप अंतर्मन में

और क़ायदे से बाँधी हुई पीड़ा की नदी

तोड़ देगी तटबंध

आएगी फिर से बाढ़, बिना बरखा के ही ऐसे निष्ठुर और शुष्क मौसम में

जो कहीं किसी को नज़र नहीं आएगी


पूरा समय वापस घूम कर पहुँचेगा वहीं जहाँ से छूट गई थी मैं

तुम्हारे विरह में असहाय और निपट अकेली


फिर से भर जाएगी स्मृति वीथिका तुम्हारी गंध से

वक़्त अपनी नाक पर चश्मा चढ़ा कर तुम्हें ठीक से चीन्ह लेगा


तुम देखोगे वैसे ही अपनी गहरी काली झील सी बड़ी-बड़ी आँखों से मुझे पलट कर 

और मैं एक बार फिर हार जाऊँगी ख़ुद को।






मृदुल स्पर्श 


तुम्हारी दृष्टि में

है मृत्यु का रूप विकराल 

किन्तु पीड़ाओं के विसर्जन के लिए

उसी का वरण होता है श्रेष्ठ 

जब न बचे कोई उपाय शेष

तो उसी के आँचल में मिलती है आश्वस्ति


सोचती हूँ कितना मृदुल होगा उसका स्पर्श

ले जाएगा एक गहन शान्ति की छाया में


जैसे माँ की थपकी से आ जाती थी मीठी नींद

वैसे ही मृत्यु का स्नेहिल स्पर्श मुझे देगा

एक प्रेमिल गहरी नींद


वह नहीं करेगी अट्ठाहस मेरी पीड़ाओं को देख

नहीं देगी झूठा आश्वासन, 

कि सब ठीक हो जाएगा एक दिन

वह नहीं देगी मुझे एक दिन तो क्या

एक निमिष भी पीड़ाओं के समीप रहने। 


मेरे दुःख का नहीं करेगी उपहास

अपितु गले लगा कर छुड़ा ले जाएगी दुःख के क्रूर पंजे से मुझे दूर


हाँ, 

तुम रोओगे, मुझे याद करोगे, मेरे लिए शोक मनाओगे

लेकिन यक़ीन जानो, 

मुझे नहीं होगा पछतावा

मुझे नहीं होगी इच्छा थोड़ी और जी लेने की

मैं पा जाऊँगी मुक्ति

समस्त पीड़ाओं, दुःखों, निराशाओं और नकार से।



क्या होगा 


क्या हो जाएगा चले जाने से?

एक सांस कम होगी,

एक पग कम होगा अवनी की छाती पर,

एक धड़क कम धड़केगी सृष्टि के वृहद् आलय में, 

कम होगी एक चुप,

एक खीझ भी तो कम होगी न,

शायद एक आकृति भी कम हो,

एक सुर कम होगा, होगा शोर भी थोड़ा कम ही,

धुनों की लंबी कतार में कम होगी एक धुन श्वासों की, 

एक के चले जाने से नहीं बदलता कुछ भी विशेष

न निर्वात होता है उस स्थान पर

न हवा कम होती है

न पानी छोड़ता है बहना

बस स्मृतियों की वीथिका में बढ़ोतरी होती जाएगी

आएगी स्मृतियों में एक अंतहीन वृद्धि 

बढ़ेगा मन का बोझ न सुन पाने का आख़िरी पुकार

थोड़ा बढ़ जाएगा दर्द न पहुँचा पाने का मन की बात उस तक

इसी घट-बढ़ से रहेगा मन विचलित, कभी शांत भी

चलता रहेगा जीवन, बदलता रहेगा समय।





जुड़वा 


वह मेरी जुड़वा थी

मुझसे बस एक क्षण पूर्व आ गई थी 

इसीलिए बड़ी बहन थी मृत्यु मेरी 

मेरे हारने.... मेरे उदास होने पर

बूँद-बूँद पिघलती.. रोती बेतरह 

उसकी रोमावलियों में चिंदी-चिंदी उतरती थी तड़प

अक़्सर मैंने उसे रोते देखा

जब मैं निरूपाय होती 

विवशता से उसका मुख म्लान पड़ जाता


जब मैं सो जाती.... ख़ुश होती थी वो अक्सर ही

मेरी सुकून भरी नींद उसे सुस्ताने का अवसर देती थी


प्रायः हार

दुःख और क्षोभ से भरी होने पर

जब भी उसे गले लगाने का मन होता

तब मुझसे कहीं अधिक वह असहाय हो निःशब्द हो जाती

हम दोनों नियति की क्रूरता के हाथों छले जाने पर खीझ से भर उठते तब।



क्षमा करना


रात के बीतने के साथ

बीत गई एक चिंता

बीत गई कुछ निराशाएँ

बीत गया एक इंतज़ार


रात के माथे पर लिख दिया गया

निचट काली डरावनी हो तुम


क्यों नहीं उकेर सका कोई? 

काली रात का उजलापन!

कि रात केवल बीतने के लिए नहीं बीतती

बल्कि इसलिए भी बीत जाती है कि

नयी आशाओं से लबरेज़

सूरज उगे तुम्हारे आँगन

कि धो सको तुम

दुःखों के रिसते हुए घाव

रात के अंधेरे में चुपचाप.... 

कि आँखों में नींद के साथ

सजा सको आने वाले दिन का स्वप्न!


क्यों रचा गया रात के अंधकार को

एक तिलिस्म की तरह

जबकि रातों ने दी उम्मीद

दूर उड़ चले पाखियों के

घोंसलों में लौट आने की!

बिछोह में आँसुओं से द्वार देहरी

धोती प्रेमिका की आँखों में

प्रेम का सतरंगी दीप बालने का

श्रेय मिलना था रात को...

पर रात के भाग्य में लिख दिया गया

रहस्य और भय का रूप!


रातों ने दिया समय

बंद फूलों को

ताकि भर सकें मकरंद

और जीवन फल-फूल सके


आने वाले समय की बढ़त देख

हो सकें हम खुश

इसका अवसर देने वाली रात

मैं तुमसे क्षमा चाहती हूँ

कि तुम्हें दोषी करार दिए जाने का

मैं विरोध नहीं कर सकी

कि दिन के उजले रूप के पीछे

तुम्हारे मौन सच का पक्ष न रख सकी कभी॥



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)

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