अनामिका अनु की कविताएं

 

अनामिका अनु



परिचय :


1 जनवरी 1982 को मुज़फ़्फ़रपुर में जन्मी और केरल में रह रही  डाॅ. अनामिका अनु को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार (2020), राजस्थान पत्रिका वार्षिक सृजनात्मक पुरस्कार (सर्वश्रेष्ठ कवि, प्रथम पुरस्कार, 2021) और रज़ा फेलोशिप (2022) प्राप्त है। इन्हें 2023 का 'महेश अंजुम युवा कविता सम्मान' (केदार न्यास) मिल चुका है। उनके प्रकाशित काव्य संग्रह का नाम है 'इंजीकरी' (वाणी प्रकाशन, रज़ा फाउंडेशन) है। उन्होंने 'यारेख : प्रेमपत्रों का संकलन' (पेंगुइन रैंडम हाउस, हिन्द पॉकेट बुक्स) का सम्पादन करने के अलावा 'केरल से अनामिका अनु : केरल के कवि और उनकी कविताएँ 'का भी सम्पादन किया है। इनकी किताब 'सिद्धार्थ और गिलहरी' को राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया है जिसमें के. सच्चिदानंदन की इक्यावन कविताओं का अनुवाद है।

उनकी रचनाओं का अनुवाद पंजाबी, मलयालम, तेलुगू मराठी, नेपाली, उड़िया, गुजराती, असमिया, अंग्रेज़ी, कन्नड़ और बांग्ला में हो चुका है।

वह एम. एससी. (विश्वविद्यालय स्वर्ण पदक) और पी-एच. डी. (इंस्पायर अवॉर्ड, डीएसटी) भी हैं। अनामिका अनु की रचनाएँ देश भर के सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और मीडिया में देखने, पढ़ने और सुनने को मिलती हैं।



मनुष्य के जीवन में खाने पीने की एक अहम भूमिका है। खाने के स्वाद ने मनुष्य को अपनी तरह से जोड़ने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पहले पहल मनुष्य ने खाना बनाना कब और कहां आरंभ किया, यह ठीक-ठीक कह पाना मुश्किल है। लेकिन एक अनुमान के अनुसार लगभग 20 लाख वर्ष पूर्व पहली बार मनुष्य ने चाहे अनचाहे तौर पर पके हुए खाने का स्वाद चखा था। चूंकि शिकार को पकड़ने में और उसे पकाने में सामूहिक भूमिका होती थी अतः मनुष्य खाना पकाने, बनाने से ले कर खाने तक की प्रक्रिया में सामूहिकता से जुड़ा। आज भी मानव समाज में सामूहिक तौर पर खाने का चलन प्रचलित है। दोपहर या शाम का भोजन आज भी परिवार जनों के साथ खाने का चलन वैश्विक तौर पर है। कई एक नगरों का नाम लेते ही वहां के प्रमुख फल या उसे शहर से जुड़े खाने का नाम सहज ही सामने आ जाता है। मुजफ्फरपुर की लीची, हिमाचल और कश्मीर का सेब, नागपुर का संतरा, लखनऊ का दशहरी आम और इलाहाबाद के अमरूद से भला कौन होगा जो परिचित नहीं है। मनुष्य का यह खाद्य व्यवहार साहित्य में भी प्रमुखता से रेखांकित किया गया है। अनामिका अनु भले ही केरल में रहती हैं लेकिन उनका जुड़ाव बिहार के उसे शहर से है जिसे हम आमतौर पर लीची शहर के नाम से जानते पहचानते हैं। वह अपनी एक छोटी सी कविता में उस लीची को मानवीय संबंधों से जोड़ते हुए कविता को एक अलग मानवीय आयाम प्रदान करती हैं। खाद्य व्यवहार से जुड़ कर कविता और प्रभावी बन जाती है। अनामिका अनु एक प्रतिभाशाली कवयित्री हैं। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं अनामिका अनु की कुछ नई कविताएं।



अनामिका अनु की कविताएँ 



मैंने उसे शब्द माना


मैंने स्वयं को पंक्ति माना 

और उसे शब्द

मेरे अनुशासन में वह कभी अर्थहीन नहीं हुआ



बिड़वा


जब भी जरूरत से ज्यादा भार ढोया

तुम ही बिड़वा बनी


पुआल सी नरम तुम

मैं काठ से भी कठिन



तुम मिलना मुझसे


मैं अगली बार बुख़ार का बहाना नहीं करूंगी 

तुम लीची शहर आ कर मिलना मुझसे

धूप में देखेंगे एक दूसरे का चेहरा

और सदा के लिए

हो जाएंगे बीमार

दो लोग इस पृथ्वी पर






तुम्हारी फुसफुसाहटों की नन्ही-नन्ही पोटलियाँ


देह की सबसे महीन ध्वनियों को 

उंगलियों पर चढ़ा कर

तुमने सुख बुना है


तुम्हारी फुसफुसाहटों की नन्हीं-नन्हीं पोटलियों को

बुद्धि ने अभी-अभी खोला है

यह मेरे हिस्से का सुंदरतम ध्वनिकोश है

मैं बज रही हूँ



तुम्हारी आवाज़ 


हाँ! तुम्हारी आवाज़ से जाग गयीं थी भीतर में लंबे समय से सोई सभी बिल्लियाँ

हाँ! तुम्हारी आवाज़ से उगने लगे थे वर्षों पहले डूब गये दो कंधे



मिटा दी गयीं पंक्तियां


आशंका में वह मिटा देता है उन पंक्तियों को जो

उसके कलेजे की हूक से निकलती हैं

उन पंक्तियों को तो बिल्कुल ही नहीं छोड़ता

जिसमें होती हैं निछछ कामनाएं

अलंकाररहित सीधी तीर-सी पंक्तियां

जो सीधे कलेजे में धंसती हैं 


उन पंक्तियों में कोई अलंकार नहीं होता है

उनमें सब कुछ अभिधा में होता है


लक्षणा हमेशा बच जाने का सुख पाती  रही है 

अभिधा को रगड़-पटक-नोंच कर खा जाती है हमारी नैतिकता


जो पंक्तियां भाव स्पष्ट करने के बावजूद

मिटा दी जाती हैं

उन्हीं पंक्तियों में मनुष्य सबसे अधिक व्यक्त होता है

वही पंक्तियां हमारी भीतर के पशु-धन, पशु-मन को

सत्यापित करती हैं

पशु-पक्षी होने की चाह वहीं से आती है

और आजादी की उत्कट आकांक्षा भी


आदमी दो पैरों पर चलता पूरा जंगल है

इसमें सब कुछ है

जंगल को सामाजिक बस्ती बनाने की सभ्यतापरक कोशिशों ने कई तरह के युद्ध खड़े किये हैं





पिछड़ों के देश में 


तुम हर मजलिस में जा कर गिनना पुरूषों और स्त्रियों की संख्या

जो बराबर न हो 

तो लिखना

यह पिछड़े और जाहिलों की मजलिस है

भले ही उस मजलिस में किताब कविता देश साम्यवाद या लोकतंत्र पर ही क्यों न हो रही हो चर्चा


तुम नाटक, सिनेमाघर, स्कूल, विश्वविद्यालय, दफ़्तर, 

बाज़ार, पुस्तकालय 

हर जगह जाना और गिनना स्त्री और पुरूषों की

संख्या

जो बराबर न हो

तो लिखना यह पिछड़ों की कला

पिछड़ों का बाज़ार 

पिछड़ों का दफ़्तर

और पिछड़ों की प्रयोगशाला है


तुम किसी दुपहरिये जाना घर आंगन दालान खेत पर

गिनना स्त्री और पुरूषों की संख्या

जो बराबर न हो

तो लिखना

यह पिछड़ों का घर

पिछड़ों की बस्ती

पिछड़ों का खेत

पिछड़ों का समाज है


किसी रात सड़क पर

दवा की दुकान पर 

अस्पताल में और

पुलिस स्टेशन पर गिनना

स्त्री और पुरूषों की संख्या

जो बराबर न हो

तो समझना यह पिछड़ों की सड़क

उनका ही अस्पताल

उनकी ही पुलिस है


तुम जाना न्यायालय, संसद, न्यूज़ रूम, प्रेस

गिनना स्त्री और पुरूषों की संख्या

जो बराबर न हो

तो समझ जाना

यह पिछड़ों का न्यायालय

पिछड़ों की संसद

और फिसली हुई ख़बर है



राधाकृष्णन


राधाकृष्णन अठ्ठावन साल का है

भरे हुए गैस सिलिंडर को कंधे पर लाद कर लाता है

और आहिस्ता से रखता है रसोई की फर्श पर


उसकी आंखें बड़ी-बड़ी  हैं

मगर उसने अब तक कोई बड़ा शहर और

किसी बड़े आदमी को नहीं देखा है


उसे चालीस रुपये दो या पचास रुपये

वह तीस ही लेगा

तुम्हें लौटा देगा शेष वापस


उसके बाल और दाढ़ी पके हुए हैं

वह पसीने से तर बतर रहता है

वह थका है मगर रुका नहीं है


आ जाता है महीने दो महीने में एक बार 

ईंधन का खत्म होना

उसका धूप में पकना साथ साथ होता है


उसकी लाल कमीज का रंग फीका हो गया है

सिलिंडर का अब भी टुह टुह लाल 

सिलिंडर और उसके भीतर आग है

जिसे बाजार और समाज ने ईंधन बना दिया है


कई बदल चुकी सरकारों और बदल चुकी कीमतों के साथ

वह चालीस साल से सिलिंडर ढो रहा है

एक बुझा आदमी ईंधन ढ़ो रहा है


सिलिंडर उठाते वक्त चिंगारी-सा सुलगता है

टूटती टहनी-सी कड़कड़ाती हैं हाथें उसकी

वह राख-सा आदमी आग हो जाने का सामान बांटता है

पीला पड़ चुका राधाकृष्णन हर रोज लाल सिलिंडर बांटता है





बस्ती का उखड़ना


उसके भीतर से कोई ऐसे

निकला था पूरी बस्ती उखाड़ कर

कि वह उम्र भर उसी विराने में मरता रहा



वह कोई सामान नहीं था


वह कोई सामान नहीं था

जो उसके खोने का दुःख नहीं होता


यह एक ऐसी जगह का खोना था

जहाँ फूल और दीया एक साथ रख कर

हम प्रतीक्षा कर सकते थे

कुछ अलौकिक घट जाने की


यह वह जगह थी

जहाँ हम अपने फूल खोलते थे

यह वह जगह थी जहाँ हम बारिश

की कई कहानियाँ कहते थे


यह वह जगह थी

जहाँ काठ के भीतर की चाह बाँचते थे हम

यह वह ज़गह थी

जिसे हम अपना  चाँद और सूरज देना चाहते थे


यह वह जगह थी

जहाँ नदी को संबोधन नहीं मिलता था

आकाश की स्वीकार्यता थी


उन तमाम जगहों को मौन जीत ले गया

हार कर कभी इतना अधिक दुख नहीं हुआ मुझे


हार कर जो मैंने पाया है

उसे भी प्रतीक्षा रहेगी उदात्त और कोमल शब्दों की



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क 


ई-मेल : 

resistmuchobeylittle181220@gmail.com

anamikabiology248@gmail.com

************************************************

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं