चंद्रेश्वर का आलेख 'सनातन पर बहस क्यों?'

 

चन्द्रेश्वर 


आजकल पूरे भारत में सनातन शब्द चर्चा में बना हुआ है। सनातन का सामान्य अर्थ सातत्य होता है लेकिन इसे उस हिन्दू धर्म, संस्कृति एवम परम्परा से लिया जाता है जो अपनी सातत्यता में आज भी प्रवहमान है। लेकिन समय सतत परिवर्तनशील होता है। सवाल यह है कि समय के साथ जो खुद को न बदल पाए उसे हम कैसे व्याख्यायित कर सकते हैं। सनातन धर्म में वर्ण और जाति व्यवस्था की जो व्यवस्थाएं की गईं उसने अन्ततः समाज में असमानता को बढ़ावा दिया। अस्पृश्यता और छुआछूत जैसी अमानवीय और घृणित परंपराएं इस सनातन के अन्तर्गत ही विकसित हुईं जिस मानसिकता से हम आज तक अपना पीछा नहीं छुड़ा पाए हैं। सनातन को देखने का एक पहलू यह भी हो सकता है कि इसे उस समाज के नजरिए से भी देखा परखा जाए जो दलित, दमित और शोषित रहा है। कवि आलोचक चंद्रेश्वर ने सनातन के विविध आयामों को ध्यान में रखते हुए एक आलेख लिखा है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं चंद्रेश्वर का आलेख 'सनातन पर बहस क्यों?'



'सनातन पर बहस क्यों?'

                        


चंद्रेश्वर 


इधर सनातन, सनातन संस्कृति, सनातन धर्म अथवा पंथ पर कई तरह से, कई पहलुओं और कोणों से बातचीत हो रही है। इन पर बहस और विमर्श ज़ारी है, न सिर्फ़ बौद्धिक जगत में, बल्कि राजनीतिक जगत में भी। दरअसल किसी भी देश की अपनी पुरातन संस्कृति होती है। वह समय के परिवर्तित होने के साथ-साथ अपना चेहरा भी बदलती रहती है। भारत वर्ष की जो पुरातन संस्कृति है, उसे ही सनातन के रूप में जाना-माना जाता रहा है। हिन्दू धर्म इसी का पर्याय बन गया है। सनातन के शाब्दिक अर्थ को ले कर भी जो पाठ किया जाता रहा है, उसमें कहा जाता रहा है कि सनातन वह है जिसका आदि है, न अंत है। अर्थात् वह जो शाश्वत है। जो पहले भी था, सभ्यता के आरंभ में और अब भी है। जो बदलता नहीं है। कुछ लोग मानते हैं कि सनातन की नींव वैदिक काल में रखी गई थी। बहरहाल, इस लेख में मेरा मुख्य मकसद सनातन का इतिहास प्रस्तुत करना नहीं है। हमें उसके विस्तार में भी नहीं जाना है। जो हो, मेरा मानना है कि भारत वर्ष में सनातन सिर्फ़ धर्म का ही पर्याय नहीं रहा है;  बल्कि वह एक जीवन पद्धति भी रहा है। उसी में यहां की सामाजिक संरचना भी शामिल रही है। सनातन पर पहले इस तरह की बहस कभी न छिड़ी है जो अब देखने को मिल रही है। सनातन का जो पुरातन चेहरा है, उसमें वर्ण व्यवस्था भी शामिल है। ज़ाहिर-सी बात है कि वर्ण व्यवस्था को आरंभ में समाज को एक दिशा और गति देने के लिए बनाया गया था। कालांतर में इसमें रूढ़ियां जुड़ती गईं और समाज का चेहरा विकृत होता गया। सनातन को कुछ लोग परंपरा के सातत्य के रूप में भी देखते रहे हैं। अभी हाल ही में संगत की ओर से अंजुम शर्मा ने वरिष्ठ जनवादी -मार्क्सवादी आलोचक और दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफ़ेसर रहे डॉ. अजय तिवारी का एक लंबा साक्षात्कार लिया है। उसमें बातचीत के दौरान अजय तिवारी ने स्पष्ट किया कि सनातन को वे एक परंपरा के रूप में देखते हैं। उनका कहना है कि ''सनातन की निरंतरता में टूट होती रहती है और टूट में निरंतरता भी बनी रही है।'' इस मत पर अपना विचार व्यक्त करते हुए वरिष्ठ कथाकार एवं लेखक-आलोचक कर्मेंदु शिशिर का कहना है कि अजय तिवारी की जो दृष्टि है सनातन के बारे में वह सम्यक् है। वे अपनी एक फेसबुक की त्वरित टिप्पणी में लिखते हैं -  


"इस इंटरव्यू में सबसे महत्वपूर्ण बात सनातन को ले कर अजय जी का विस्तार से विवेचन लगा । इसे वे निरंतरता में टूट और टूट में निरंतरता के परिवर्तन के रूप में देखते हैं। यहाँ वे एक खतरे को भी स्पष्ट करते चलते हैं। कमअक्ली दक्षिणपंथी सोच वाले इसे रूढ़िवाद में बदल देते हैं और जो समझदार हैं इसे परंपरा के रूप में मान कर भविष्य की गति पर ध्यान देते हैं। अजय जी ठीक यही पर इस प्रक्रिया में ही भविष्य की गति का संबंध ऐतिहासिकता से स्थापित कर देते हैं। सनातन, परंपरा, भविष्य और ऐतिहासिकता का यह संबंध पूरी अवधारणा को साफ पानी की तरह स्पष्ट कर देता है ।"


एक ओर हिन्दी में प्रगतिशील-जनवादी लेखकों का एक तबका सनातन को परंपरा के रूप में व्याख्यायित कर रहा है तो दूसरी ओर दक्षिण भारत में द्रमुक के नेता एम के स्टालिन के पुत्र और राज्य सरकार में युवा कल्याण मंत्री उदय निधि ने सनातन का विरोध करते हुए उसके संपूर्ण उन्मूलन की बात कही थी। उनका कहना है कि सनातन में वर्ण और जाति व्यवस्था है जो हिन्दू धर्म में समतामूलक विचारों के मार्ग में बाधा है। यह मलेरिया ,डेंगू और कोरोना की तरह है जिसका सिर्फ़ विरोध नहीं, बल्कि उन्मूलन ज़रूरी है। यह हर तरह से समानता और न्यायपूर्ण समाज को बनाने में बाधा की तरह है। दरअसल दक्षिण भारत में समाज सुधारक ई. वी. स्वामी पेरियार ने सन् 1925 में ही तर्क और विवेक की बात करते हुए एक जाति व वर्ण विहीन समाज के लिए आंदोलन खड़ा किया था। सनातन भी आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में निरंतर बदलता रहा है।


आगे चल कर अंबेडकर ने भी सनातन पंथ के विरोध में अपने विचार व्यक्त किये। अंबेडकर ने भी सनातन पंथ में स्थापित वर्ण व्यवस्था व जाति व्यवस्था को समानता के मार्ग में बाधा माना है। 

इधर सनातन फिर से चर्चा में है जब से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद अपने उठान पर है और दक्षिणपंथी शक्तियां पिछले एक दशक से ज्यादा समय से सत्ता में हैं। उनका मानना है कि सनातन वह है जो बदलता नहीं है। शाश्वत है।  ऐसे मत को ही वर्चस्वशाली माना जाता है।  इससे उन जातियों को कठिनाई नहीं होती है जो ऊपरी वर्णों में हैं। कठिनाई उनको है जो नीचे के वर्ण में हैं। सनातन की इस वर्ण-जाति की रूढ़ियों के खिलाफ ही हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में दलित विमर्श हुए एवं हो रहे हैं। इन विमर्शों के केन्द्र में समाज में समता और सामाजिक न्याय की लड़ाई ही मुख्य है। मेरा मानना है कि सनातन को परंपरा के रूप में ही देखना चाहिए। परंपरा एक सतत प्रवाह की तरह है। जैसे एक नदी का प्रवाह होता है, उसी तरह परंपरा भी है। इस प्रवाह और गति में जड़ता, रूढ़ियों और सड़ांध के लिए कोई जगह नहीं है। आधुनिक वैज्ञानिक विचारों और उनके दबाव और प्रभाव में वर्ण-जाति की रूढ़ियां भी ढीली व कमजोर पड़ रही हैं। हिन्दू समाज में भी अंतर्जातीय विवाह होने लगे हैं। पुरातन और अधुनातन संस्कृतियों के आपसी टकराव और संघर्ष से एक नए समाज की संरचना उभर रही है। आने वाले समय में भी यह वास्तविकता दिखाई देगी और एक हद तक समकालीन समय में भी इसे देखा जा रहा है कि श्रेष्ठता की कसौटी ज्ञान ही बन रहा है, न कि वर्ण और जाति। दरअसल पुरातन और अधुनातन संस्कृतियों के बीच टकराव तो संभव है, कोई अधुनातन संस्कृति पूरी तरह से एकबारगी पुरातन संस्कृति को विस्थापित नहीं करती है। पुरातन और सनातन में बहुत कुछ नया जुड़ता रहता है और पुराने रूढ़ विचार उसी तरह से झड़ते रहते हैं। यहां हिन्दी कवि सुमित्रा नंदन पंत की काव्य पंक्ति स्मरण में आ रही है -- 


"द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र!

हे स्रस्त-ध्वस्त हे शुष्क शीर्ण !" 


जैसे वृक्ष की शाखों से पुराने पीले पत्ते झड़ जाते हैं और उनमें नए पत्ते निकल आते हैं, वैसे ही संस्कृति में नया-पुराना का अबाध क्रम चलता रहता है। मूल वृक्ष का अस्तित्व बना रहता है। संस्कृति में शुद्धता का महत्व नहीं होता है। जो संस्कृति कई बाहरी संस्कृतियों के घात-प्रतिघात से आगे बढ़ती है, वहीं लचीली और टिकाऊ भी होती है। बहरहाल, वास्तविकता यह भी है कि विश्व की तमाम संस्कृतियों और समाजों में सनातन पंथ में ज़्यादा लचीलापन रहा है। इसमें समय के साथ परिवर्तित होते रहने की जो सामर्थ्य और क्षमता रही है, यह एक विरल वैश्विक परिघटना है। सनातन की इस विशेषता को ध्यान में रखते हुए ही शायर इक़बाल ने कहा होगा -


"यूनानो मिश्र और रोमा सब मिट गए जहां से 

पर बाक़ी है अब तक नामोनिशां हमारा। 

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। 

सदियों रहा है दुश्मन दौरे ज़मां हमारा। 

सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तां हमारा।"

                           



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टिप्पणियाँ

  1. शिवम् मिश्रा4 दिसंबर 2024 को 3:42 pm बजे

    बहुत बहुत आभार सर आपका सनातन पर व्याख्या करने के लिए क्योकि वर्तमान मे सनातन शब्द परम्परा में रूढ़िवादी विचारों के लिए प्रयुक्त होने लगा था

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