प्रचण्ड प्रवीर की कहानी 'पितृ दोष'

 

प्रचण्ड प्रवीर 


हर धर्म का आधार उसके धर्मशास्त्र होते हैं। ये धर्म अपने इन धर्म शास्त्रों द्वारा संचालित होते हैं। धर्म भीरू लोग इन शास्त्रों में लिखी हर बात को अकाट्य मानते हैं। ऐसे लोगों के लिए इस बात का कोई मतलब ही नहीं कि इन शास्त्रों का प्रणयन कब हुआ? किन परिस्थितियों में और क्यों हुआ? लेकिन एक धारा ऐसी भी रही जो तर्क के बिना किसी भी बात को स्वीकार नहीं करती। ऐसे लोगों के लिए तर्क ही सर्वोपरि होता था। आज भी एक बड़ा तबका किसी घटना के लिए शास्त्र विहित पितृ दोष, कालसर्प दोष, भद्रा आदि आदि को ही जिम्मेदार ठहराता है। प्रचण्ड प्रवीर ने अपनी कहानी पितृ दोष के माध्यम से उस मानसिकता को उद्घाटित करने का प्रयास किया है जो शास्त्रों की बात को अकाट्य मानते रहे हैं। कहानी के एक पात्र के माध्यम से कहानीकार कहते हैं 'मैँ शास्त्र वचनोँ को अन्तिम सत्य नहीँ मानता। मुझे लगता है शास्त्र हमारी समझ को बढ़ाने के लिए लिखे हैँ। बिना अहसमति और बिना अपने विचार के शास्त्र का कोई मतलब नहीँ।' पहली बार पर प्रस्तुत है कल की बात के अंतर्गत प्रचण्ड प्रवीर की कहानी 'पितृ दोष'।



कल की बात – २६३


'पितृ दोष'



प्रचण्ड प्रवीर 


कल की बात है। जैसे ही मैँने बृजेश के घर मेँ कदम रखा, ज्योतिषाचार्य अश्विनी ने मुझसे कहा, “आपकी कुण्डली भी देख ली है। आपक शक सही है। आपकी नौकरी जा सकती है।आपकी कुण्डली मेँ पितृदोष है।“ अपने घर की बैठक मेँ बैठा बृजेश सामने गली मेँ आते-जाते लोग को देखने मेँ खोया हुआ था। मेरे आने से भी उस पर कोई फर्क नहीँ पड़ा। लोग कहते हैँ कि बृजेश भी ज्योतिष का अच्छा जानकार है। मुझे बेरोजगारी का खतरा नज़र आया तो मैँने अश्विनी और बृजेश दोनोँ की राय लेनी चाही। अश्विनी पारम्परिक ब्राह्मण परिवार से है और अब अपना ‘त्रिकाल ज्योतिष केन्द्र’ चलाता है। बृजेश ने बहुत सी किताबेँ पढ़ ली हैँ और वह भी इस विषय मेँ कुछ दखल रखता है। ज्योतिष के मामले मेँ बृजेश अश्विनी को मूर्ख समझता है और लगभग ऐसी ही राय अश्विनी की बृजेश के सम्बन्ध मेँ है।

            

मैँने पूछा, “पितृदोष से क्या समझा जाए?” अश्विनी जी बिगड़ गए और बोले, “आप तो खुद भी ज्योतिष जानते हैँ। इतना तो सबको पता होता है। चूँकि आपने अज्ञानी बन के पूछा है तो बताना मेरा कर्त्तव्य है। पितृदोष का मतलब यह समझना चाहिए कि आपके पूर्वज ठीक से श्राद्ध-तर्पण नहीँ होने के कारण आपसे रुष्ट हैँ। कालसर्प दोष के बाद पितृदोष कुण्डली का प्रमुख दोष माना जाता है।“           


बृजेश ने कुछ तल्खी से कहा, “तुमने वसुधा की कुण्डली देखी थी न! उसमेँ भी पितृदोष था।“ यह सुनते ही अश्विनी चिढ़ गया और बोला, “बृजेश बाबू, आप विषयान्तर कर रहे हैँ। हाँ, वसुधा की कुण्डली मेँ पितृदोष था। आप कहना क्या चाहते हैँ?” बृजेश ने कहा, “हमने भी बृहत् पराशर होराशास्त्र पढ़ा है। पितृदोष का यह भी अर्थ होता है कि पूर्वजोँ के किए कुकर्मोँ का फल उनकी संतानोँ को भोगना।“ ज्योतिषाचार्य अश्विनी को अपनी दुकान हिलती हुई नज़र आने लगी होगी इसलिए उसने प्रतिवाद किया, “इंटरनेट से किताब डाउनलोड कर के पढ़ लेने से कोई शास्र का ज्ञाता नहीँ होता है। आप श्रीमान पल्लवग्राही हैँ। आपका शास्त्रज्ञान से कुछ लेना-देना नहीँ है।“

            

मैँने बीच-बचाव करते हुए कहा, “असली पल्लवग्राही तो मैँ हूँ। ज्यादा ज्योतिष जानता-समझता नहीँ हूँ। मेरी तो बहुत सी जिज्ञासाएँ हैँ, जिसका मुझे उत्तर नहीँ मिलता। लेकिन यह वसुधा कौन थी? उसकी कुण्डली मेँ क्या था?”           


वसुधा का नाम दुबारा आते ही कमरे मेँ जैसी मुर्दानगी छा गई। अश्विनी का चेहरा स्याह पड़ गया। बृजेश अश्विनी को एकटक घूरने लगा। अश्विनी ने कहा, “मेरे चचेरे भाई कारु याद हैँ आपको?” मैँने पूछा, “जरत्कारु?” अश्विनी ने हाँ मेँ सिर हिलाते हुए कहा, “गलत सङ्गति मेँ पड़ कर ब्राह्मण कुल का लड़का बरबाद हो गया। उसकी मौत के बाद उसकी लड़की वसुधा अनाथ हो गई। बाप ने ब्याह किया था एक नीची जाति की कन्या से। कारु के मरने के बाद उस औरत ने झट से दूसरा बियाह कर लिया। उसके नए पति ने छह साल की वसुधा को अपनाने से मना कर दिया। सो कारु की बीवी, वसुधा को उसकी दादी के पास छोड़ कर चली गई। दादी बेचारी बुढापे मेँ कितना सँभालती बच्ची को। वे बिचारी अकेली रहती थी। उसने कारु के बड़े भाई को कहा कि वसुधा को अपने पास रख ले। कारु के बड़े भाई कार्तिक ने वसुधा को अपने पास रख लिया। उसकी कुण्डली मुझसे दिखाई गयी। वसुधा की कुण्डली मेँ पितृदोष था।“

            

“उसका निराकरण आपने क्या किया?” बृजेश ने पूछा।            


“जिसका बाप दुराचारी हो, जिसकी माँ नीचे कुल की हो, जिसकी माँ ने उसे छोड़ दिया हो- उसे दुख ही भोगना होगा न! यह सब किस कारण हुआ? पितृदोष के कारण। कार्तिक भैया ने मुझसे सलाह माँगी। मैँने वसुधा को मन्दिर मेँ पूजा करने को कहा। पण्डित से पूजा करवाना उतना फल कहाँ देगा जितना स्वयं भगवान की शरण मेँ जाने से होता है। कार्तिक भैया ने वसुधा को अपने ससुराल मेँ रख दिया। वहाँ पास के किसी मन्दिर मेँ वह पूजा किया करती थी। कुछ साल पहले एक चैत की रात मेँ शीत के कारण दस साल की अवस्था मेँ उसने मृत्युलोक त्याग दिया।“

             




मैँने ज्योतिषाचार्य अश्विनी से पूछा, “आपने वसुधा को अपने पास नहीँ रखा।“ अश्विनी जी सकपका गए और कहने लगे, “उसकी दादी और चाचा उसकी देखभाल कर ही रहे थे।“ बात बदल कर उसने कहा, “पितृदोष बहुत बुरा दोष है। आपके जीवन भर का दुर्भाग्य का कारण पितृदोष ही है कि आपके कर्मोँ का फल आपको नहीँ मिल रहा। मेरी मानिए अगले पितृपक्ष मेँ गया जा कर फल्गु मेँ तर्पण कर आइए।“ ज्योतिषाचार्य अश्विनी उठ कर अपना झोला सँभालने लगे। जाते-जाते उन्होँने बृजेश से कहा, “अब आपकी बुद्धि मेँ जो आता है वह इनसे चर्चा कीजिए। मैँ फिर कहता हूँ केवल किताब पढ़ लेने से ज्ञान नहीँ आता है।“           


अश्विनी के जाने के बाद बृजेश ने मुझसे पूछा, “तुम कारु को जानते थे?” मैँने कहा, “जानना क्या होता है? मैँ दस साल से कम का रहा होऊँगा। कारु के नाम का आतङ्क था। सुनने मेँ आया था कि वह गाँजा का नशा करता है।  आवारा था, घर पर कम ही रहता था। सुना था शराब पी कर पड़ोस के किसी आदमी की बेरहमी से पिटाई कर दी थी। एक बार नशे मेँ किसी के बगीचे के चारदीवारी गिरा दी थी। तब मैँने पहली बार उसे देखा था। उस समय वह बीस साल का रहा होगा। उसके बारे मेँ लोग ने बहुत कुछ फैला रखा था। एक बार हम बच्चे खेल रहे थे कि उस समय कारु आ गया। मैँने डरते-डरते वही पूछा जो मुझे औरोँ ने बताया था कि क्या उसने साठ लोग को जान से मारा है? मैँ यह सोचता था कि कारु बहुत बड़ा डकैत है और उसने सौ-दौ सौ लोग को मारा है। यही सुना था कि एक बार उसने मशीनगन से साठ लोग को एक बार मेँ भून दिया था। उस समय कारु ने सँजीदगी से कहा साठ को नहीँ, बस एक ही आदमी को जान से मारा है। मेरे मन मेँ उसकी वीरता के लिए प्रशंसा जो थी, कुछ कम गई। यही बात जब मैँने घर मेँ बतायी। पहले डाँट पड़ी कि कारु दिखे तो घर आ जाया करो। दूसरी, मेरी खिल्ली उड़ी। कोई आदमी किसी दूसरे की जान ले ले तो पुलिस पकड़ लेगी। साठ आदमी की हत्या करने वाला ऐसे खुलेआम नशे मेँ मारा-मारा नहीँ फिरेगा। मुझे बड़ा अचरज हुआ कि जिसे मैँ वीर समझ के डरता हूँ, प्रशंसा करता हूँ वह बहुतोँ की नज़र मेँ मामूली और बेकार है। इस घटना के दस साल बाद मुझे याद आता है कि सुनने मेँ आया कि उसने किसी भंगी की लड़की से बियाह कर लिया है। उसकी औरत मोहल्ले की दूसरी औरतोँ को गन्दी-गन्दी गालियाँ दिया करती है। वह क्योँ गालियाँ देती थी और क्या कहती थी मुझे नहीँ पता। लेकिन दोनोँ पति-पत्नी को भारी सामाजिक  दबाव के कारण मोहल्ला छोड़ना पड़ा था। एक बार मेँने गली मेँ उसे देखा जब वह  किसी विद्यालय मेँ चपरासी की नौकरी के लिए सिफारिश माँग रहा था। वही आखिरी बार मेँने उसे देखा होगा। इससे अधिक मुझे उसके बारे मेँ कुछ नहीँ पता।“           


बृजेश ने कहा, “मैँने कारु का नाम कभी सुना नहीँ। तुम कहते हो तो रहा होगा तुम्हारी तरफ रहने वाला एक गुण्डा। मैँने यही सुना कि बहुत नशा करने के कारण भरी जवानी मेँ वह चल बसा। उसकी बीवी ने दूसरी शादी कर ली। कुछ साल पहले वसुधा की कुण्डली की चर्चा अश्विनी ने मुझसे की थी। मैँ शास्त्र वचनोँ को अन्तिम सत्य नहीँ मानता। मुझे लगता है शास्त्र हमारी समझ को बढ़ाने के लिए लिखे हैँ। बिना अहसमति और बिना अपने विचार के शास्त्र का कोई मतलब नहीँ। शास्त्र की बात रहने दो। अश्विनी के पास मौका था कि वह वसुधा की जान बचा लेता।“            


“तुमने वसुधा को देखा था?” मेरे सवाल पर बृजेश ने कहा, “हाँ। छोटी बच्ची थी। माँ छोड़ कर चली गई थी। उसके साथ ही उसका बचपन चला गया था। वह किससे क्या कहती और किससे क्या माँगती? जो मिलता होगा, वही खा लेती होगी। अश्विनी को वसुधा की कुण्डली पर विश्वास नहीँ था। उसे संदेह था कि जन्मतिथि, समय और जन्मस्थान मेँ कुछ गड़बड़ है। चीजेँ सही बन नहीँ रही हैँ। इसलिए मेरे पास वसुधा का हाथ दिखाने लाया था। मैँ बारह साल से कम उम्र के बच्चोँ का हाथ नहीँ देखता। अपने सिद्धान्त के कारण मेँने वसुधा का भी हाथ नहीँ देखा। पर जो देखा वह इतना दर्दनाक था कि उसकी छवि आज भी भूली नहीँ जाती। हरी रङ्ग की फटी फ्रॉक पहनी उस नन्हीँ सी बच्ची आँखेँ गहरे भँवर जैसी लगती थी। उसके गाल फूले और फटे थे। बाल मैले थे। हाथ रूखे और बेजान जैसे वह बर्तन माँजा करती हो। पाँव मेँ चप्पल नहीँ। वह भयभीत नहीँ, बहुत उदास थी। मेरे जी मेँ आया कि अश्विनी से कहूँ कि इस बच्ची को मेरे पास रहने दो, पर किस तरह कहता? मैँ वसुधा का कुछ नहीँ लगता था। कम से कम अश्विनी उसका दूर का चाचा लगता था। वसुधा अपने सगे चाचा के साथ रह ही रही थी। चैत की रात मेँ कोई बच्ची शीत से मर सकती है क्या? मैँ बताता हूँ कि उसके साथ क्या हुआ था। कार्तिक का ससुराल मेरी मामी के गाँव मेँ है। वे बताती हैँ कि कार्तिक के ससुराल वाले को मँगनी की नौकरानी मिल गयी। सबके पौ बारह! घर का सारा काम कराना और खाने को नहीँ देना। मन्दिर मेँ सोया करती थी। सर्दी के दिनोँ मेँ बथान मेँ बोरा डाल के सोया करती थी। चैत मेँ फिर से मन्दिर मेँ रहने को कहा गया। दस साल की अकेली लड़की को क्या आजकल के भेड़िए छोड़ते हैँ? मामी का कहना है कि बच्ची की लाश खून से लथपथ थी। किसने दुष्कर्म किया और किसने हत्या की, यह कार्तिक के ससुराल वाले भी शायद जानते होँगे। पर अनाथ बच्ची के लिए कौन पुलिस-कचहरी करेगा? बात दबा दी गई। मैँ कभी वसुधा से दुबारा नहीँ मिला लेकिन उसका मुरझाया चेहरा मैँ भुला नहीँ पाया। भगवान ने बाप के किए की सजा मासूम बच्ची को दी। यही होता है शायद पितृदोष।“

            

मैँने बृजेश से कहा, “मैँ पितृदोष का एक और ही मतलब समझता हूँ।“ बृजेश मेरा मुँह देखने लगा। मैँने कहा, “शायद अश्विनी की बात ठीक है कि पल्लवग्राही कुछ किताबेँ पढ़ कर अर्थ का अनर्थ करते हैँ। मैँ तो यही समझता हूँ कि पिता का असमय निधन हो जाना भी पितृदोष है। असहाय वसुधा ने भय मेँ, चिन्ता मेँ, शीत मेँ, भयङ्कर पीड़ा मेँ, उत्पीड़न मेँ लड़ाके पिता को याद करते हुए मदद की गुहार लगायी होगी, छोड़ कर चली जाने वाली माँ को नहीँ  याद किया होगा।“           


बृजेश ने कड़वी आवाज़ मेँ कहा, “मुझे लगता है कि जरत्कारु की आत्मा तब भी अपनी सन्तान से रुष्ट ही होगी कि वसुधा ने उसे गाँजा और शराब का भोग नहीँ चढाया और असमय मर गई। जरत्कारु के पितर, जो अधकटी जड़ के सहारे गड्ढे मेँ लटके थे, वसुधा के मरने के बाद जरत्कारु समेत महापाताल मेँ गिर पड़े होँगे।“  

            


ये थी कल की बात!


दिनाङ्क : १९/११/२०२४


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग कवि विजेन्द्र जी की है।)

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