सुनील कुमार शर्मा का आलेख 'परंपरा और आधुनिकता के बीच एक सार्थक संवाद'
केशव तिवारी |
'परंपरा और आधुनिकता के बीच एक सार्थक संवाद'
सुनील कुमार शर्मा
“यह वक़्त ही
एक अजीब अजनबीपन में जीने
पहचान खोने का है
पर ऐसा भी तो हुआ है
जब-जब अपनी पहचान को खड़ी हुई हैं कौमें
दुनिया को बदलना पड़ा है
अपना खेल”
केशव तिवारी की कविताएँ मानवीय संवेदनाओं और सामाजिक यथार्थ का ऐसा ताना-बाना बुनती हैं, जो गहन वैचारिकता और संवेदनशीलता को अभिव्यक्त करता है। उनकी कविताओं में जीवन की जटिलताओं, हार-जीत के द्वंद्व, और मनुष्य के संघर्षों की ध्वनियाँ स्पष्ट सुनाई देती हैं। वे लोक जीवन की टूटन, हाशिये पर धकेली जा रही संवेदनशीलता, और मानवीय करुणा के क्षरण को गहरे स्तर पर पहचानते और उद्घाटित करते हैं। उनकी कविताएँ न केवल संवेदनाओं के क्षरण पर सवाल उठाती हैं, बल्कि सामूहिकता और प्रेम के मूल्यों को बचाए रखने की कोशिश भी करती हैं। यह संघर्षशील लोकचेतना के वैज्ञानिक आत्मविश्लेषण और जनपक्षधरता का एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं। उनकी कविताओं में सामुदायिकता का स्वर तो है, लेकिन यह किसी भी प्रकार की संकीर्णता या गिरोहबंदी से परे है। केशव तिवारी की रचनाएँ, एकतरफा कलात्मकता या भावबोध की सीमाओं में बंधी नहीं हैं। उनकी भाषा और शैली मौलिक हैं, और वे किसी भी प्रकार की आयातित प्रवृत्तियों से प्रभावित नहीं होतीं। उनकी कविता में व्यक्ति और वर्ग के सत्य का संतुलित रेखांकन मिलता है। यह रचनाएँ परंपरा और आधुनिकता के बीच एक सार्थक संवाद स्थापित करती हैं, जो उन्हें साहित्यिक और सामाजिक दृष्टि से प्रासंगिक बनाता है। केशव तिवारी की कविताएँ मानवीय जीवन के गहन अनुभवों और समाज की जटिलताओं के बीच से गुजरते हुए, अभिव्यक्ति के हर पाखंड और अवसरवाद को चुनौती देती हैं।
केशव तिवारी की कविताएँ पढ़ते हुए ऐसा महसूस होता है, जैसे आप सूखी या कम पानी वाली नदियों के बीच खड़े हो कर उनके भीतर छिपे दर्द, संघर्ष और प्रकृति की आवाज़ को शब्दों में व्यक्त कर रहे हों। उनकी कविताओं में कवि कभी नदियों से क्षमा मांगता है, कभी अपने अनुभव उनके साथ साझा करता है, और कभी उन्हें प्रेरित करता है कि वे अपनी व्यथा व्यक्त करें, जिसे कवि अपनी कविता का हिस्सा बना सके। इन कविताओं में नदियाँ केवल जल का स्रोत नहीं हैं, बल्कि वे समाज के उन तबकों की प्रतीक हैं, जो हाशिये पर धकेल दिए गए हैं। नदियों की दुर्दशा पूंजीवादी लालच और संसाधनों के अति-उपयोग का परिणाम है।
रेत माफिया के उल्लेख के माध्यम से कवि यह स्पष्ट करता है कि कैसे प्राकृतिक संपदाओं का शोषण हो रहा है। यह वर्गीय संघर्ष की कहानी बयान करता है, जहाँ पूंजीपति वर्ग अपने लाभ के लिए नदियों को बर्बाद करता है, जबकि मजदूर और किसान वर्ग सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। उनकी कविताओं में नदियों का सूखना और ग्रामीण स्त्रियों का संघर्ष आपस में गहराई से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है।
"सूखी हुई नदी से पूछो
उसने कितने गाँव देखे हैं
बाढ़ में डूबते हुए,
कितने घरों का आँगन बहाया है।"
केशव तिवारी की रचनाएँ केवल प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन नहीं करतीं, बल्कि सामाजिक असमानता और संघर्ष पर भी सवाल उठाती हैं। "हवा में हस्ताक्षर" में कवि ने सामाजिक और राजनीतिक विडंबनाओं को उभारा है। वे पूंजीवाद और प्रशासनिक तंत्र की आलोचना करते हैं, जो गरीबों और हाशिए पर खड़े लोगों के अधिकारों को कुचलता है। उनकी कविताएँ श्रमिकों, किसानों और स्त्रियों के संघर्ष को मानवता के व्यापक सवालों से जोड़ती हैं।
"मिट्टी की छाती में सुराख किसने किया?
किसने छीनी हरियाली की साड़ी?"
कवि की नजर में प्रकृति और समाज एक दूसरे के पूरक हैं। प्रकृति का विनाश केवल पर्यावरणीय संकट नहीं है, बल्कि यह मानव समाज की गहरी संरचनात्मक समस्याओं को भी सामने लाता है। नदियों का सूखना उनके लिए पूंजीवादी विकास मॉडल की विफलता का प्रतीक है। कवि यह सवाल उठाते हैं कि नदियों और मानव जीवन के बीच सामंजस्य क्यों नहीं रह पाया। नदियाँ केवल जलधाराएँ नहीं हैं; वे उन समुदायों की स्मृतियाँ हैं, जो उनके किनारे बसे थे। कवि का नदियों से क्षमा मांगना इस बात का प्रतीक है कि आधुनिक समाज ने प्रकृति के साथ अपने रिश्तों को सहेजने में चूक की है।
केशव तिवारी की कविताएँ हस्तक्षेप और प्रतिरोध की ताकतवर अभिव्यक्तियाँ हैं, जो जीवन के वास्तविक संघर्षों और सामाजिक असमानताओं को सामने लाती हैं। उनकी कविताओं का भूगोल सीमित क्लास-रूम के प्रतीकात्मक प्रतिरोधों से बाहर निकलकर उस ज़मीन पर खड़ा होता है, जहाँ मेहनतकश वर्ग अपने हक के लिए संघर्षरत है। ये कविताएँ केवल आक्रोश का बयान नहीं हैं, बल्कि सहमे, हाशिये पर धकेले गए जीवन के दुस्साहसी अनुभवों को भी उजागर करती हैं। केशव तिवारी की कविताएँ एक खबरदार लोकधर्म का निर्माण करती हैं। उनकी रचना "तुमने कितने खेत जोते" में यह स्वर स्पष्ट है, जहाँ वे मेहनतकश किसान और खेतिहर मज़दूरों के श्रम का जिक्र करते हुए उन पर हो रहे अन्याय को उजागर करते हैं। यह कविता केवल एक वर्ग की व्यथा नहीं है, बल्कि उस व्यापक सामाजिक अन्याय का दस्तावेज है, जिसमें मेहनतकशों की आवाज़ें अक्सर दबा दी जाती हैं। उनकी कविताओं का असहिष्णु और अधीर स्वर इसे ताकतवर बनाता है, जो सहानुभूति से अधिक साहस और बदलाव की माँग करता है।
उनकी कविताएँ श्रम के महत्व और उससे जुड़े संघर्षों को भी रेखांकित करती हैं। नदी किनारे की जीवन शैली पूरी तरह श्रम पर आधारित है। लेकिन जब नदियाँ सूखती हैं, तो यह श्रम भी संकट में पड़ जाता है। रेत माफिया और श्रमिक वर्ग के बीच का टकराव इस बात को उजागर करता है कि कैसे श्रमिकों की मेहनत को पूंजीवादी शक्तियाँ छीन रही हैं। उनकी कविताओं में स्त्रियों और श्रमिक वर्ग की पीड़ा गहराई से चित्रित होती है।
"फटी हुई बिवाई में
जो दर्द है, वह मिट्टी का नहीं,
उन हाथों का है,
जो हरियाली के लिए
खुद बंजर हुए।"
नदियाँ स्मृतियों और सांस्कृतिक धरोहरों की वाहक होती हैं। केशव तिवारी की कविताओं में यह प्रश्न उठता है कि आधुनिकता और पूंजीवाद ने इन स्मृतियों और सांस्कृतिक जड़ों को कैसे नष्ट कर दिया है। नदियों के सवाल केवल पर्यावरण से जुड़े नहीं हैं; वे सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण हैं। कवि यह भी दर्शाते हैं कि स्मृतियाँ धीरे-धीरे कैसे धुंधली होती जा रही हैं। उनकी कविताएँ सांस्कृतिक धरोहरों को सहेजने का एक प्रयास हैं।
"स्मृतियाँ वैसी नहीं
जैसी कभी थीं
जल की तरह।"
केशव तिवारी अपनी कविताओं के माध्यम से न केवल नदियों और प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता दिखाते हैं, बल्कि समाज के हाशिये पर खड़े लोगों के संघर्ष और उनकी आवाज़ को भी प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त करते हैं। केशव तिवारी की कविताएँ न केवल नदियों और प्रकृति के प्रति गहरी संवेदनशीलता व्यक्त करती हैं, बल्कि समाज के उन वर्गों के संघर्षों और पीड़ा को भी स्वर देती हैं, जो हाशिये पर खड़े हैं। उनकी कविताओं में केवल दुख या शोक ही नहीं है, बल्कि एक परिवर्तनकारी चेतना और संघर्ष का आह्वान भी है। कवि नदियों से आग्रह करता है कि वे अपनी व्यथा को अभिव्यक्त करें, और यह कवि का कर्तव्य बन जाता है कि उन सवालों को समाज के समक्ष प्रस्तुत करे। यह दृष्टिकोण साहित्य के प्रगतिशील स्वरूप को दर्शाता है, जो समाज को जागरूक और प्रेरित करने का कार्य करता है।
केशव की कविताएँ उन जटिलताओं को चित्रित करती हैं, जहाँ सामाजिक असंगतियाँ और हाशिये पर पड़े जीवन के अनुभव एक-दूसरे से टकराते हैं। "घर छूटने का गीत" कविता में यह संवेदनशीलता उभरती है, जहाँ कवि घरों और आँगनों के छिन जाने की पीड़ा को उस सामाजिक संरचना से जोड़ते हैं, जिसने मेहनतकशों को निर्वासित और अलग-थलग कर दिया है। यह निर्वासन केवल भौतिक नहीं, बल्कि भावनात्मक और सांस्कृतिक भी है, जिसे कवि गहराई से समझते हैं। केशव तिवारी की कविताओं में प्रतिरोध जितना स्पष्ट है, उतना ही सांकेतिक भी। वे बिना किसी भड़काऊ प्रतीक या भाषिक चमत्कार का सहारा लिए, साधारण शब्दों में असाधारण गहराई प्रकट करते हैं। "श्रम का गीत" जैसी कविताएँ इस बात का प्रमाण हैं, जहाँ श्रम को पूँजीवादी संरचना के खिलाफ एक साधन के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
केशव तिवारी की कविताएँ केवल व्यक्तिगत या वर्गीय अनुभवों तक सीमित नहीं हैं। वे सामाजिक संरचना की विसंगतियों को भी बेनकाब करती हैं। उनकी कविताओं में एक "आत्मनिर्वासित सामाजिकता" की अनुभूति होती है, जो समाज के हाशिये पर पड़े जीवन के अनुभवों को आवाज़ देती है। केशव तिवारी की कविताएँ प्रतिरोध, करुणा और बदलाव की कविताएँ हैं। ये मेहनतकशों के संघर्ष, उनके सपनों और उनके अधिकारों के लिए खड़ी होती हैं। उनकी रचनाएँ न केवल साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि समाज के बदलाव का एक साधन भी हैं।
केशव तिवारी की कविताएँ स्थानीय संदर्भों के माध्यम से वैश्विक समस्याओं को संबोधित करती हैं। जलवायु परिवर्तन, पर्यावरणीय क्षरण, और मानवीय अस्तित्व पर मंडराते खतरों जैसे मुद्दे उनकी कविताओं में प्रमुखता से उभरते हैं। वे इन विषयों को इस तरह प्रस्तुत करते हैं कि स्थानीय संदर्भ वैश्विक स्तर पर भी प्रासंगिक हो जाते हैं। उनकी कविताएँ पाठकों को केवल समस्याओं से परिचित नहीं करातीं, बल्कि उन्हें आत्मचिंतन और बदलाव के लिए प्रेरित भी करती हैं। कवि यह संदेश देते हैं कि मनुष्य को प्रकृति, श्रम, और सांस्कृतिक विरासत के प्रति अधिक संवेदनशील और जिम्मेदार बनना चाहिए।
उनकी कविताओं की भाषा सरल, प्रवाहपूर्ण और सहज है, जो ग्रामीण जीवन की सादगी और गहराई दोनों को प्रतिबिंबित करती है। प्रतीकों और बिंबों का प्रभावी उपयोग उनकी कविताओं की गहराई को और बढ़ाता है। केशव तिवारी की कविताएँ भाषा और शैली की सादगी में अपनी गहराई को बनाए रखती हैं। वे किसी भी तरह की भाषिक कृत्रिमता या "भाषिक इंजीनियरिंग या कलाबाज़ी" से बचते हैं। उनकी कविताएँ सीधे पाठक के मन में उतरती हैं, क्योंकि वे सच्चे अनुभवों और संघर्षों की अभिव्यक्ति हैं। "मेहनत का दिन" कविता में यह सादगी और प्रभावशीलता दिखती है, जहाँ वे श्रमिक वर्ग की दयनीय स्थिति और उनकी अदम्य जिजीविषा को चित्रित करते हैं।
"रेत में दबे बीज
कुछ कहने की कोशिश में
बार-बार उभर आते हैं।"
उनकी कविताओं में नदियाँ केवल जलस्रोत नहीं हैं, बल्कि वे समाज के उत्पीड़ित वर्गों और सांस्कृतिक स्मृतियों की प्रतीक हैं। इन रचनाओं के माध्यम से केशव तिवारी आधुनिक पूंजीवादी समाज की आलोचना करते हैं, जो लालच और शोषण के कारण पर्यावरण और सामाजिक ताने-बाने को नष्ट कर रहा है। कवि की रचनाएँ न केवल संवेदनशीलता को प्रकट करती हैं, बल्कि संघर्ष की भावना को भी उजागर करती हैं।
केशव तिवारी के काव्य संग्रह साहित्यिक रचनाएँ होने के साथ-साथ समाज, संस्कृति, और पर्यावरण पर गहरे विमर्श का माध्यम हैं। उनकी कविताएँ पाठकों को अपने परिवेश और सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति जागरूक बनाती हैं। कवि का विश्वास है कि नदियों का सूखना केवल पर्यावरणीय संकट नहीं है, बल्कि यह समाज और सभ्यता के बदलते स्वरूप का प्रतीक भी है। कवि स्मृति और वर्तमान के बीच की कड़ी को पकड़ने की कोशिश करता है। वह पूछता है कि नदियों की स्मृतियाँ अब किसके पास बची हैं। क्या वे स्मृतियाँ उन स्त्रियों के पास हैं, जिन्होंने अपने श्रम और जीवन को नदी के साथ जोड़ा है, या केवल कवि के शब्दों में सहेजी गई हैं? यह पड़ताल केवल नदियों तक सीमित नहीं रहती, बल्कि समाज, पर्यावरण, और संस्कृति के व्यापक संकट का चित्रण करती है। केशव तिवारी की कविताएँ पाठकों को यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि इन सवालों के जवाब कौन देगा और हमारी सांस्कृतिक और पर्यावरणीय स्मृतियों को संरक्षित करने की जिम्मेदारी कौन उठाएगा। उनकी कविताएँ मानवीय संवेदनाओं, सामाजिक यथार्थ और प्रकृति के प्रति जागरूकता का ऐसा मिश्रण प्रस्तुत करती हैं, जो साहित्य को बदलाव का माध्यम बनाती हैं।
सम्पर्क
मोबाइल : 08902060051
लोक जीवन के सहज कवि केशव तिवारी के बारे में सटीक और सारगर्भित लेख लिखा है सुनिल जी ने। बहुत उम्दा। आपको साधुवाद और केशव जी को बधाई।
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