यतीश कुमार की किताब पर चितरंजन भारती की समीक्षा

 




हमारा यह जीवन आम तौर पर स्मृतियों का खजाना होता है। इस खजाने में तमाम खट्टे मीठे पल संचित होते हैं। संस्मरण लिखना, और वह भी खुद अपने अतीत के बारे में, बहुत कठिन होता है। घटनाएं इतने सिलसिलेवार तरीके से जुड़ी होती हैं कि अपनी इन स्मृतियों से किन पन्नों को अलग कर दिया जाए, किनको जोड़ दिया जाए, यानी कि 'क्या छोड़े, क्या जोड़े', यह निर्णय ले पाना कठिन होता है। आमतौर पर लेखक अपने जीवन के उन पक्षों पर बात करने से बचते हैं जो तल्ख सच्चाईयों से जुड़े होते हैं। कवि यतीश कुमार के संस्मरण की किताब 'बोरसी भर आंच' लीक से अलग हट कर है, जिसमें उन्होंने अपने जीवन के स्याह पन्नों को भी बेबाकी से सामने रखा है। इस किताब को पढ़ते हुए आम आदमी के जीवन के उन मुश्किलों से हम सहज ही अवगत होते हैं जो प्रायः अदृश्य से होते हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं यतीश कुमार की किताब पर चितरंजन भारती की समीक्षा 'जीवन की जद्दोजहद : बोरसी भर आंच'।



जीवन की जद्दोजहद : बोरसी भर आँच


चितरंजन भारती


कभी-कभी कुछ अद्भुत घट जाता है जीवन में, जिससे विस्मय स्वाभाविक है। विगत दिनों पटना में लाला प्रसाद आर्य के यहाँ कुछ कार्यवश जाना हुआ। बातचीत के उपरांत वह बोले कि चलिए, आपको एक विशेष व्यक्ति से मिलवाता हूँ। और इस प्रकार वह अपने पड़ोस में रहने वाले श्री रबीन्द्र बरनवाल, एडवोकेट के यहाँ मुझे साथ ले कर आ गये। लगभग अस्सी वर्ष के वय वाले वरिष्ठ वकील श्री रबिन्द्र अपने विशेष कक्ष में, जो उनके मछुआ टोली के बाँस कोठी में बने उनके आवास में ही है, बैठे मिले। आमतौर पर हम वकील, डॉक्टर, दारोगा आदि के नाम से ही संकुचित हो जाते हैं। लेकिन बिलकुल सहज, सरल वकील साहब को देख बिलकुल ऐसा नहीं लगा कि उन्हें देख डरने की कोई जरूरत है। नाम तो कई बार सुना था, मगर आमने-सामने मुलाकात का यह पहला अवसर था। लाला बाबू भी उन्हीं के हमउम्र और पड़ोसी ठहरे। सो बिलकुल अनौपचारिक लहजे में वह उनसे बोले- “देखिए, मैं आपके पास किसको ले कर आया हूँ। यह हैं...”


“मेरा नाम सुनते ही उनकी आँखों में जैसे चमक आ गई। फिर भी कुछ संशय में भर कर बोले- “वही चितरंजन भारती, जिनकी रचनाएँ हम नियमित बरन संकल्प में पढ़ते रहे हैं। साहित्यिक चितरंजन भारती को तो मैं लंबे समय से पढ़ता रहा हूँ। वही हैं क्या?”


“हाँ-हाँ, वही हैं। आपके दर्शन के अभिलाषी हैं।”


और फिर तो बातों का क्रम चल निकला। मैंने कुछ औपचारिक जानकारी दी और ससंकोच कहा कि वैसे तो मैं अनेक पत्र-पत्रिकाओं में छपता ही रहता हूँ। लेकिन दिल्ली प्रेस की पत्रिकाओं, यथा- सरिता, गृहशोभा, सरस सलिल में नियमित छपता हूँ।”


मेरा इतना भर कहना था कि उन्होंने सरिता के कुछ नवीन अंक निकाल कर मेरे सामने रख दिए और एक आलमारी की ओर इशारा किया, जिनमें सरिता और कुछ पुस्तकें थीं।  


अब चौंकने की मेरी बारी थी। हर पत्र-पत्रिकाओं के कुछ नीति-नियम होते हैं, जो उसे पढ़-देख कर ही समझा जा सकता है। मतलब वकील साहब दिल्ली प्रेस की नीतियों के प्रति सकारात्मक हैं। और इसी के साथ बातों का सिलसिला चल निकला। मैंने उन पुराने अंकों में से वे अंक, जिनमें मेरी कहानियाँ थीं, उनको अलग कर उनके सामने कर दिया। वह उन्होंने अपने विशाल वर्किंग टेबल पर सजाते हुए बोले- “हाँलाकि मैं इन्हें पूर्व में पढ़ चुका हूँ। लेकिन मैं इन्हें कल ही इसमें छपी कहानियों को अब विशेष दृष्टि से पढ़ कर अपनी सम्मति दूँगा।”


तब तक लाला बाबू मेरे बारे में अतिशयोक्ति अलंकारों से सजाते-सँवारते बखान करने लग गये, तो मैं संकुचित होने लगा। ऐसी कोई खास प्रतिभा तो नहीं मुझमें। बस एक शौक है, जिसे पूरा करता हूँ। और ऐसा तो कुछ है नहीं मुझमें। कि उन्होंने मेरे कहानी संग्रह “गुड़ का ढेला” के मिठास की बखान शुरू कर दी। कोरोना काल को आधार बना मैंने कुछ कहानियाँ लिखी थीं, जो “कर्तव्यबोध एवं कोरोना काल की अन्य कहानियाँ” शीर्षक से छपी हैं। पूर्वोत्तर पर तो खैर चार किताबें हैं और वह धाराप्रवाह जानकारी दे रहे थे कि मैं कितना-कितना मैदान मार चुका हूँ, कि मुझे और बहुत कुछ लिखना है।


कुछ इस तरह दो बुजुर्ग व्यक्तियों का मेरे प्रति प्रशंसित होना मुझे अपने बोझ से दबा डालने के समान लग रहा था। मैंने अपनी प्रकाशित किताबें पटना में सैकड़ों लोगों को दी। मगर शायद ही किसी ने धन्यवाद का एक शब्द तक कहा हो। और मुझे लगता रहा कि मेरा अपनी किताबों का यूँ निःशुल्क वितरण करना गलत तो नहीं हो गया। कि रबिन्द्र बाबू बोले, “आप मुझे अपनी सारी किताबों की एक प्रति मुझे उपलब्ध करायें। और हाँ, सभी मुझे सशुल्क ही चाहिए। क्योंकि मुझे पता है कि किताबों के प्रकाशन में भी खर्च होते हैं। और यदि आप सक्षम हैं, तो उसका भुगतान करना चाहिए।”


अब उन्होंने अपने दराज से कुछ किताबें निकालीं, जिन्हें देख कर मैं दंग रह गया। वह तीन किताबें यतीश कुमार की थीं, जिन्होंने अपने लेखन के बल पर कम समय में ही अपनी विशिष्ट पहचान बना ली है। दरअसल रबिन्द्र जी ने यतीश के जीवन-संघर्ष को देखा और महसूस किया है, क्योंकि वह उनके मौसा हैं। बस फिर क्या था, बातों के क्रम में उन्होंने महत्वपूर्ण जानकारी दी। साथ ही उन्होंने संस्मरण पुस्तक “बोरसी भर आँच” भी पढ़ने को दी, जो साहित्य-जगत में काफी चर्चित रही है।


इधर कथेतर साहित्य का प्रचलन बढ़ा है, जिसमें एक विधा संस्मरण का भी है। संस्मरण भी कहानी, उपन्यास की तरह पाश्चात्य विधा ही है। वैसे तो पूर्व से ही हिन्दी साहित्य में संस्मरण लिखे जाते रहे हैं। मगर दलित साहित्य के अंतर्गत संस्मरणों की जो लोकप्रिय किताबें आईं, उनसे इस विधा की तरफ विगत दो दशकों में विशेष ध्यान गया है। दरअसल यह जीवन कल्पना से भी कुछ अधिक ही आश्चर्यजनक अथवा विस्मयजनक हो सकता है, इन संस्मरणों को पढ़ कर पता चलता है। खासकर कुछ के जीवन के पूर्वार्ध में, तो कुछ के जीवन के उत्तरार्ध में विषम परिस्थितियाँ आती हैं। परिस्थितियों के हिसाब से यह जीवन के मध्य में भी आ सकता है। यह किसी के लिए लघु, तो किसी के लिए दीर्घ स्वरूप लिये भी हो सकता है। दलित साहित्य के अंतर्गत जितने भी संस्मरण हैं, वह जीवन के पूर्वार्ध से ही संबंधित हैं। और “बोरसी भर आँच” भी इसी प्रकार जीवन के पूर्वार्ध अर्थात् 1980-2020 तक के लेखक यतीश के संस्मरणों को समेटे हुए है, जिनसे हम इस किताब के माध्यम से रू-ब-रू होते हैं। यतीश यहाँ कहते हैं- “कविता लिखने के लिए कवि दूसरों के दुख में किस कदर घुल-मिल जाता है और फिर किस कलात्मक ढंग से उस अनुभव को अभिव्यक्त करता है कि वह लोगों के अवचेतन में बैठ जाती है। पर जो बरसों-बरस स्मृतियों में अक्षुण्ण रह जाता है, ताउम्र कचोटता रहता है और उससे हल्का होने के लिए उसी अक्षुण्णता से रूबरू होने के लिए जन्म लेता है संस्मरण।”


यहाँ जे. कृष्णमूर्ति के विचारों को जानना जरूरी है, ताकि इस संस्मरण-पुस्तक को समझने में मदद मिले।  जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार- 

“हम सब अतीत के परिणाम हैं। हमारे विचार बीते कल और हजारों बीते दिनों पर आधारित हैं। हमारे प्रत्युत्तर व वर्तमान तौर-तरीके हजारों क्षणों, घटनाओं और अनुभवों का संचयी परिणाम हैं। अतः हममें से अधिकांश के लिए  अतीत ही वर्तमान है। और यह एक ऐसा तथ्य है, जिससे इंकार नहीं किया जा सकता।


“सबसे पहले यह जानिए कि अतीत से हमारा क्या तात्पर्य है? निस्संदेह, उससे हमारा तात्पर्य क्रमागत, ऐतिहासिक अतीत से नहीं, अपितु संचित अनुभवों, स्मृतियों, परंपरा और ज्ञान से है; अगणित विचारों, भावनाओं, प्रभावों और प्रतिक्रियाओं के  अवचेतन भंडार से है। अतीत की इस पृष्ठभूमि के रहते यथार्थ को समझना संभव नहीं है, क्योंकि यथार्थ का समय से क्या  संबंध ! वह तो कालातीत है, समय से परे है। मन जो स्वयं काल की उपज है, उससे हम कालातीत को नहीं समझ सकते। 


“मन ही तो पृष्ठभूमि है, मन ही काल का परिणाम है। मन ही अतीत है, मन भविष्य नहीं है। अतः मन जो कुछ भी करता है, जो भी उसकी गतिविधियां होती हैं, चाहे वे भविष्य की हों, वर्तमान की हों या अतीत की, होती वे काल के जाल में ही हैं । क्या मन के लिए यह संभव है कि उसका पूर्ण अवसान हो जाए?


“बिलकुल सरल ढंग से कहें, तो जब आप किसी को समझना चाहते हैं, तब आपके मन की क्या स्थिति होती है? उस समय वह व्यक्ति जो कह रहा है, उसका आप विश्लेषण नहीं कर रहे होते, आप उसे सुन भर रहे होते हैं। आपका मन एक ऐसी स्थिति में होता है, जिसमें विचार-प्रक्रिया सक्रिय तो नहीं, पर बहुत सतर्क है। यह सतर्कता समय के दायरे में नहीं होती। आप बस सतर्क होते हैं, निष्क्रिय रूप से ग्रहणशील, फिर भी पूर्णतया जागरूक होते हैं, और समझना केवल इसी अवस्था में हो पाता है।


“जब मन उद्वेलित हो, प्रश्नाकुल हो, विच्छेदन और विश्लेषण में लगा हो, तब समझना नहीं हो पाता। चेतना को रिक्त तभी किया जा सकता है, जब आप मिथ्या को मिथ्या के रूप में देख लेते हैं, तब आप सत्य को देखना आरंभ करते हैं। और मात्र सत्य ही आपको आपकी पृष्ठभूमि से मुक्त करता है।”


जे. कृष्णमूर्ति के इन विचारों को पढ़ने के उपरांत इस किताब से हो कर गुजरने में दिक्कत नहीं होती। हम अपने  जीवन के सफेद पक्ष को याद रखते हैं। लेकिन कुछ स्याह पन्ने ऐसे होते हैं, जो भुलाए नहीं भूलते। हमें अपना जीवन बहुत दुःखद लगता है। किंतु जब अन्य के जीवन-वृत्त पढ़ते वक्त पता चलता है कि अरे, हमारा दुःख तो कितना छोटा सा था! स्वाधीनता संग्राम के सेनानियों से ले कर अपराधियों तक के जीवन-वृत्त अथवा संस्मरण-पुस्तक हैं। हमें लगता है कि वे तो विशेष थे। चलो, मान लिया। लेकिन “बोरसी भर आँच” के लेखक तो हमारे बीच के हैं और उन्हें जानना-पढ़ना जरूरी तो है ही। और इस लिहाज से इसे पढ़ना शुरू किया, तो जैसे रंगमंच के नेपथ्य के दृश्य सामने घूमते से लगे। और इस कारण एक ही बैठक में पढ़ना संभव हो पाया।  


बिहार का मुंगेर जिला कई कारणों में से एक अपने बंदूक कारखाने के कारण प्रसिद्ध है। इसी मुंगेर जिले का एक सबडिविजन था जमुई, जो अब स्वतंत्र जिले के रूप में है। और यहीं से इस किताब का आरंभ होता है। 


अध्याय “परिदृश्य की अकुलाहट” के अंतर्गत किऊल नदी का वर्णन है, जो आम पहाड़ी नदियों की तरह दो-चार महीने भले ही बाढ़ का कारण बनें, शेष समय सूखी ही रहती है। नदी के रेत से ले कर मिट्टी तक के लिए खूनी संघर्ष यहाँ हैं, तो नदी को अतिक्रमण करते बनते मकान भी हैं। बिना यह जाने कि प्रकृति का दोहन हमारे विनाश का कारण बन सकते हैं, वह सब कुछ हो रहा है। और इसी के पीछे राजनीति है, दल हैं और जातीय संघर्ष हैं। और यह जातीय संघर्ष भी कैसे! जैसे ही स्वार्थ आड़े आता है, यह जातीय संघर्ष व्यक्तिगत स्वार्थ-साधने का संघर्ष बन जाता है। इन सभी चीजों को चलताऊ शैली में लेखक ने कुछ इस प्रकार रेखांकित किया है कि परिदृश्य साफ-साफ समझ में आने लगता है। जैसे कि एक पहाड़ी के दोनो ओर दो गाँव जयनगर और हसनपुर हैं। यहाँ लेखक ने स्पष्ट कर दिया है कि जयनगर मिली-जुली अकुलीन जातीय बहुलता का गाँव है, जबकि हसनपुर भूमिहार-बाभनों का! सपाट शब्दों में कहें, तो यह बैकवर्ड-फारवर्ड का मामला है। और इन दोनों गाँवों के बीच है वह सरकारी अस्पताल, जिससे सटे एक घरौंदे में कथानायक अपनी माँ-बहन के साथ रहता है। और आगे की सारी कहानी यहीं से हो कर आगे बढ़ती है कि किस प्रकार घटनाएँ घटित होती हैं। कि किस प्रकार परिस्थितियाँ बनती और बिगड़ती हैं। लेखक यहाँ स्पष्ट करता है- “औपनिवेशिक शक्तियाँ जब अपने मकड़जाल बुनती हैं तब शुरू होता है उत्कर्ष और अपकर्ष के बीच का खूनी खेल।” 


और इस खूनी खेल की बानगी एक बच्चा अस्पताल के इर्द-गिर्द चाहे-अनचाहे देख रहा है, जो आर्थिक अपराध की राह से चल कर जातीय रूप में चले आते हैं। इसमें सनी है राजनीतिक दलों का कुचक्र, जो व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को परवान देता है। हथियार और गोलियाँ चलती हैं और अंततः घायल अस्पतालों की शरण लेते हैं। यहाँ कौन कितना नैतिक अथवा अपराधी है, सवाल नहीं है। बस सबको अच्छा होना है किसी तरह, ताकि ठीक होते ही वह पुनः उस कुचक्र में शामिल हो सके। कथानायक की माँ निस्पृह भाव से इलाज करती है, जिसमें वह अपने बच्चों का भी कैसे सहयोग लेती है, इस संस्मरण में उसका दिलचस्प, मगर कारूणिक वर्णन है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि टॉर्च दिखाने के क्रम में चीरफाड़ देख रहे बच्चे की मनोदशा कैसी हो रही होगी! कड़े से कड़े दिल वाले कद्दावर व्यक्तित्व के स्वामी भी सर्जिकल चीरफाड़ को देख बेहोश हो जाते हैं। और एक बच्चा उसे मजबूरन देख रहा है, तो उसके व्यक्तित्व में कैसी हलचल मचती होगी, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। लेखक के अनुसार- “तब मल्टीस्किलिंग का नाम इतना आम नहीं था। पर माँ ऑल इन वन थीं। इसलिए उनको हर जगह किसी के भी रिप्लेसमेंट के लिए उपयुक्त और जिम्मेदार मान लिया जाता था। कम्पाउंडर नहीं आया है, दवाइयाँ बाँटनी हो या सर्जन का सहयोगी नहीं आया तो ऑपरेशन थियेटर में काम करना हो या फिर किसी गाँव में कैम्प के लिए जाना हो, मतलब कहीं भी, कभी भी। एक ही पंक्ति में कहना हो तो माँ कभी न थकने वाली चींटियों की तरह अपनी जिम्मेदारी निभाती रहती थीं।”


अध्याय “भागता बचपन” के अंतर्गत लेखक ने ब्रजेन्द्र त्रिपाठी को उद्धृत किया है- ‘स्मृति एक टाइम मशीन है, जिसके माध्यम से आप अतीत में जा सकते हैं और एक बार पुनः जी सकते हैं।” और इस प्रकार जैसे यतीश ने पुनः जीवन के लिए जैसे अपने अतीत का खुलासा करते हैं। 


लेखक के पिता एक खास वाम-विचारधारा के हैं। स्वाभाविक ही ऐसे व्यक्तित्व के संबंध में एक धारणा बना ली जाती है। निम्न-मध्य वर्गीय परिवार में अर्थ-संकट स्वाभाविक है। पिता के असामयिक मौत के बाद माँ ने कुछ विशेष निर्णय लिया, जो तत्संबंधी समाज में बने रहने के लिए जरूरी थे। यहाँ परिवार असमंजस में है कि कितना और कैसे सहयोग और समर्थन किया जाए! ऐसी बात नहीं कि सहयोग नहीं मिलता। मगर आधे-अधूरे मन से किये गये सहयोग कितने लाभप्रद हो पाते। एक माँ का निर्णय कि वह नर्स की ट्रेनिंग लेगी और उसने लिया, ताकि वह अपने बच्चों के साथ किसी पर बोझ न बने। स्त्री-सशक्तीकरण की बात आज चल रही है। उन्हें आत्मनिर्भर होने के लिए नसीहत आज दी जा रही है। जबकि अस्सी के दशक में यतीश की मां ने उसे व्यावहारिक रूप दिया था। 


अंततः एक महिला अपने तीन बच्चों का बोझ लिए आगे बढ़ती है। जब देखी कि कहीं वह टूट अथवा तोड़ न दी जाए, उसने वैवाहिक जीवन की दूसरी पारी आरंभ करना बेहतर समझा। हाँलाकि इस अंतर्जातीय विवाह से सुख के बजाय, दुःख ही मिला। यह दुःख भ्रष्टाचार के दलदल में धकेलने के लिए बने कुचक्र का है, जिससे उसे दूसरी बार भी वैधव्य का सामना करना पड़ा। बतौर एक छोटा बच्चा, लेखक उस संघर्ष को समझ नहीं पाता। मगर बड़े होने पर उसे पता चलता है कि आखिर इसके लिए कैसी कुर्बानी देनी पड़ी, तो वह उनकी महानता को समझने लगता है। 


सरकारी अस्पतालों की महिमा जग-जाहिर है। उसमें भी यदि वह असामाजिक तत्वों से भरा इलाका हो, तो वहाँ के खतरनाक हालातों का अनुमान भर किया जा सकता है। यहाँ लेखक ने टुकड़े-टुकड़े में हालातों की जानकारी दी है।  इन हालातों के बीच खुद को बचा कर आगे बढ़ना वैसा ही है, जैसे कोई नट तनी हुई रस्सी पर सँभल कर चलता है। और ऐसे में एक अबोध बच्चा जब काँटों भरे रास्ते पर चले, तो कैसा होगा वह सफर। मार्ग-दर्शन के लिए कोई नहीं। एक भाई है, जो सैनिक स्कूल में नामांकन करा निकल चुका है। माँ है, तो उसे भी कोई न कोई काम के बहाने उलझाए रखा जाता है। 


किऊल नदी के किनारे स्थित लखीसराय के एक सरकारी अस्पताल, जहाँ एक विधवा नर्स है,  के इर्द-गिर्द के संस्मरण हैं यह, जो आगे मुंगेर तक भी जाती है। इस संघर्ष में एक तरफ माँ है, तो दूसरी तरफ बहन है। बिन बाप का एक बच्चा, जिसे हमेशा अपने अकेलेपन का अहसास होता है। यहाँ सरकारी अस्पतालों का हाल किसी से छिपा नहीं है। मगर यहाँ तो जैसे उसका कच्चा चिट्ठा ही रख दिया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी विद्यालयों का भी वही हाल है, तो उसका भी वर्णन है। ऐसे में एक बच्चा जी-जी कर मर रहा है, कि मर-मर कर जी रहा है, यह देखने वाला कोई है, तो उसकी एकमात्र बहन है, जो खुद अपने संघर्षों से जूझ रही है कि कैसे उनसे बचा जाए। फिर भी यह भागता बचपन है, जो अगले अध्याय “दिदियाः मेरे कोमल मन की पक्की ढाल” के रूप में सामने आती है।


इस अध्याय को यतीश कुमार ने हिन्दी के सम्मानित लेखक उदय प्रकाश के काव्यांश से चिन्हित किया है- 


“जलती रही तुम

तुम्हारा धुआँ सोखती रहीं

घर की गूँगी दीवारें

छप्पर के तिनके-तिनके

धुँधले होते गए

और तुम्हारी

थोड़ी सी कठिन रोशनी में

हम बड़े होते रहे।” 


लेखक का मन अपनी बहन के प्रति कुछ अधिक ही आभारी और संवेदनशील है। भाई-बहन का प्रेम अप्रतिम तो है ही। मगर अभावों के बीच यह प्रेम कुछ अधिक ही चुनौतीपूर्ण हो जाता है, जिसे बहन सफलतापूर्वक पार करती है। तभी तो भाई के मन में वह आजीवन एक ज्योति के रूप में विद्यमान रहती है। इसे हम इस किताब को पढ़ते हुए महसूस कर सकते हैं, जो मर्मस्पर्शी तो है ही। 


वैसे भाई भी कोई कम नहीं, जो सिमेंट के झाड़न बटोर और उसे बेच कर उसके लिए कुछ रूपये जुटा देता है। खासकर स्थानीय शब्दों से युक्त भाषा को पढ़ कर हम और अधिक करीब महसूस करते हैं। जैसे कि एक जगह लिखा है- “खाने के लिए रोजाना डीबीसी (दाल-भात-चोखा) और चारो ओर बीबीसी (बुद्धिवर्धक चूर्ण खैनी) वाले लोगों से घिरे हुए दिन थे।” यहाँ ‘डीबीसी’ और ‘बीबीसी’ कोई हास्य-दृश्य उपस्थित नहीं करते, बल्कि इसकी जगह मन में एक करूणा जगाते हैं, अभावों का दृश्य उपस्थित करते हैं, जिसमें माहौल कितना खतरनाक हो सकता है, एक पाठक सहज ही अनुमान लगा लेता है। जैसा कि लेखक ने लिखा है- “भद्दे विचारों का कड़वा धुआँ चारों ओर ऐसा फैला था कि भविष्य की रोशनी तारीख के गलियारों में गुम होते दिखती।”






अस्पताल परिसर से चल कर ऐसे ही नायाब दृश्य स्कूल की ओर मुड़ते हैं, जहाँ की दशा और विचित्र है। जब अनुमंडल शहर के पास के स्कूल में पीने के पानी की व्यवस्था न हो, तो सुदूर गाँव के स्कूलों में क्या होगा, अनुमान लगाया जा सकता है। वैसे लेखक कोई सवाल नहीं करता। वह तो बस अपने आस-पास की घटनाओं के क्रम में हालातों का आँखों देखी बयान सा करता चलता है। अब पाठक चाहे, तो उनमें गूँथे सवालों को निकाले। यहाँ बच्चों की बाल-सुलभ कुटिल आदतें हैं, तो बड़ों का काईँयापन भी है। यहाँ सवर्णों की दबंगई तो है ही। और अब अवर्णों की दबंगई भी परवान चढ़ने लगा है। और इन्हें पढ़ते हुए बिहार की तथाकथित पॉलिटिक्स का अंदाजा लगाया जा सकता है। बकौल लेखक, “बहरहाल बिहार की पृष्ठभूमि का जातीय समीकरण बदल रहा था और इस बदलते समीकरण में अस्पताल की पॉलिटिक्स भी अपनी करवट ले रही थी। अस्पताल में कुर्मी क्लर्क की तूती बोलती थी। डॉक्टर में भी भूमिहार और कुर्मी, परंतु स्टाफ में ज्यादातर निचली जात के। खाना बनाने वाले पंडित मदन कांत झा पर उनके हेल्पर जमना महतो। अस्पताल जैसे समाज के जातीय समीकरण का प्रतिबिंब था। काम में पूरी फाँकी, फर्जी अटेंडेंस और घर बैठे तनख्वाह मिलने का कल्चर अब पूरी तरह व्याप्त हो चुका था।”


और ऐसे में जब एक गाय मरी, तो सारा दोष इस परिवार पर लगा दिया गया। बात यहाँ गो-हत्या का नहीं, मुआवजे के रूप में भारी रकम ऐंठने का था, सो “अस्पताल के सवर्ण डॉक्टर हों या हसनपुर का पूरा गोतिया परिवार, सब एकजुट हो गए। उनके गाँव वाले तो ऐसी-ऐसी गालियाँ निकालने लगे, जिसका जिक्र यहाँ किया भी नहीं जा सकता। हर्जाना से ले कर सूद समेत वसूली, गो-हत्या का आरोप और कोर्ट की धमकी तक।”


ग्रामीण परिवेश वाले लोग ऐसी बातों को बेहतर समझ सकते हैं।


अब हम डाकिया को नहीं, पोस्टमैन को जानते हैं। वह भी अब परिदृश्य से लगभग गायब ही हो रहे हैं। मगर अस्सी के दशक में डाकिया समाज के महत्वपूर्ण बिन्दु थे। उन्हें देख लोगों की धड़कनें बढ़ जाती थीं। अगला अध्याय इसी ‘बैरन डाकिया’ का है, जिसका आरंभ प्रख्यात् कवि विष्णु खरे के काव्यांश से है- 


“एक जिंदगी की तमाम कुरूपताएँ

गोया तुम्हारी समूची जीवनी 

और तुम पूरे लौट आते हो

और बचाव का कोई रास्ता नहीं सूझता

किसी घिरे हुए जानवर की तरह।” 


रचनाकार यहाँ एक घिरे हुए जानवर की तरह ही तो था। एक बच्चे के लिए हर वह व्यक्ति महत्वपूर्ण बन जाता है, जो उसकी छोटी-मोटी जरूरतें पूरी कर दे। मगर यह जो नया डाकिया आया, वह तो खिलाड़ी ही ठहरा। उसके प्रलोभन के जाल में एक बच्चे के फँसने और फिर उसे उबर कर निकलने की व्यथा-कथा है- यह अध्याय। बाल-शोषण की ऐसी बानगी इस समाज में भद्दे दाग की तरह हैं, जिससे बच्चों को बचाया जाना चाहिए। यही कारण है कि अपने अनुभवों को लेखक ने यहाँ यथावत् साझा कर दिया है। 


अगला अध्याय “अस्पतालः स्नेह, ममता और प्रेम” का है। मगर इस स्नेह, ममता और प्रेम की कीमत कैसे चुकानी होती है, इसका यहाँ लेखा-जोखा है। एक अकेली लड़की के पीछे असामान्य व्यक्ति कैसे पीछे लगते हैं और उससे कैसे पीछा छुड़ाया जाता है! पीछा छूट भले ही जाए, मगर बाद में वह कैसे जीवन में अवरोधक बन जाते हैं, इसे भी प्रदर्शित किया गया है। जैसा कि लेखक ने आरंभ में विष्णु खरे का विचार दिया- “अतीत-वर्तमान-भविष्य के अहसास से अपरिचित कभी-कभी तुम्हें खुद को और अपने आस-पास को पहचानने में देर लगती है।” देर से तो नहीं, बल्कि समय से ही रचनाकार ने इसे पहचाना तो दुनिया ही बदल गई। 


हाँलाकि इसके लिए उसने कैसी-कैसी दुनिया देखी। अगला अध्याय “कसैला पानीफल” इसी का है। पानीफल सिंघाड़ा बिहार का लोकप्रिय फल है, जो दलदली पोखरों में होता है। अब फल है, तो बच्चों की शरारतें भी होंगी। वैसे भी बचपन में चुराये गये कच्चे-पके आम-अमरूदों को साथियों संग खाने में रस है, वह तो अमृत फल में भी नहीं हो। सिंघाड़ों की चोरी में चौकीदार द्वारा एक बच्चे को पोखर में ही बाँध कर छोड़ना और उन्हें बच्चों द्वारा मरणासन्न अवस्था से बाहर लाना, एक रोमांचक संस्मरण है। जैसा कि जोश मलीहाबादी के अनुसार-


मेरे रोने का जिसमें किस्सा है। 

उम्र का बेहतरीन हिस्सा है।


अब संस्मरण हों, और उसमें होली-दिवाली नहीं आये, यह हो नहीं सकता। “स्मृति के रंग में होली” ऐसा ही कुछ अध्याय है। और उत्सवों का मजा, दोस्तों के बिन कहाँ? बकौल लेखक- “जीवन के हर पड़ाव पर दोस्तों की महफिल सजती रही है, लेकिन बचपन की दोस्ती इतनी खास और खालिस होती है कि कभी-कभी तो खून के रिश्तों पर भी भारी पड़ जाता है।” होली के बहाने एक अभिन्न मित्र को याद किया गया है। वह उसे छोड़ कर चला गया। वर्तमान में जब वह खड़े होते हैं, तो लेखक का यह मंतव्य स्पष्ट होता है- “प्रेम हो या दोस्ती, अगर हम एक-दूसरे की श्वास-नली को अवरूद्ध करेंगे, तो यह दम तोड़ देगी।” 


और इस बात से कौन इन्कार कर सकता है! यहाँ इब्ने इंशा का शेर है-


कब लौटा है बहता पानी बिछड़ा साजन रूठा दोस्त।

हमने उसको अपना जाना जब तक हाथ में दामां था।


अतीत में भारत में संयुक्त परिवार की परंपरा रही है। अब भी है। खासकर कृषक और वणिक परिवारों की मजबूरी और जरूरत भी है - संयुक्त परिवार। लेकिन जैसे-जैसे शहरों की संरचना बढ़ती गई, लोगों का नौकरी में प्रतिशत बढ़ता गया, अब एकल परिवार का दौर बढ़ता गया है। एकल परिवार क्यों बढ़ते जाते हैं, इसको जानने के लिए इस पुस्तक का अध्याय “बड़की अम्माँ” पढ़नी चाहिए। आमतौर पर हर परिवार-रिश्तेदार में ऐसे बड़े-बुजुर्ग होते हैं, जो अपने ही भाई-बहनों के प्रगति के दौड़ में लगे बच्चों को फूटी आँख नहीं देख पाते। तथाकथित बड़की अम्माँ उन्हीं में से एक रहीं, तो क्या आश्चर्य! दरअसल लेखक का ननिहाल मुंगेर के एक मुहल्ले माधोपुर में है, जहाँ नाना का संयुक्त परिवार है। यहाँ मुंगेर के इस मुहल्ले का लेखक ने जैसे शब्द-चित्र ही प्रस्तुत कर दिया है। खट्टे-मीठे अनुभवों के बीच एक बच्चा बड़ा होता है। इस बड़े होने के बीच बड़की अम्माँ अर्थात् बड़ी नानी अपने पोतों से उसकी तुलना करतीं और खीझतीं। उनके व्यंग्य-वाणों से बाल-मन आहत और घायल होता। मगर जीवन में ऐसे मौके अनेक आते हैं, जब सुविधा-संपन्न वहीं का वहीं रह जाता है और अभावग्रस्त कहीं किसी सर्वोच्च शिखर पर होता है। रचनाकार को प्रथम श्रेणी के नौकरी में देख कर बड़की अम्माँ हतप्रभ हैं, तो क्या आश्चर्य! लेकिन भुक्तभोगी यहाँ बशीर बद्र के स्वर में कहता है-


ये फूल  मुझे कोई  विरासत में  मिले हैं।

तुमने मेरा काँटों भरा बिस्तर नहीं देखा। 


इस किताब के अध्यायों के शीर्षक देख भ्रम होता है कि कहीं  ये अलग-अलग कहानी तो नहीं! मगर पढ़ने के क्रम में ये सभी संगुफित ही दिखते हैं, जैसा कि अगला अध्याय “ड्राइविंग का डर” है। लगभग हर बच्चे को अपना ननिहाल प्यारा लगता है, क्योंकि वहाँ सिर्फ प्यार और आजादी रहती है। इस पुस्तक लेखक को इसलिए लखीसराय से मुंगेर स्थित अपने ननिहाल भागना प्रिय रहा, तो क्या आश्चर्य! अब यह पचास मील की दूरी चाहे ट्रेन से तय हो अथवा ट्रक-बस से, मायने नहीं रखता, क्योंकि आमतौर पर जेब में पैसे जो नहीं होते। और खाली जेब यदि कहीं विशेष ध्यान जाता है, तो गियर-हैंडल सँभाले ड्राईवर की तरफ ही जाता है। इस बेखौफ यात्राओं का खौफजदा संस्मरण इस किताब में रोचक ढंग से है। और इसलिए वह हस्तीमल हस्ती को अंत में गुनगुनाते हैं-


कुछ और सबक हमको जमाने ने सिखाए।

कुछ और सबक हमने किताबों में पढ़े थे।


संस्मरण की यह गाड़ी “भैयाः अनजाना सम्बल” पर जब आती है, तो थोड़ा आश्चर्य इस कारण होता है कि भाई तो मिलेटरी स्कूल में चला गया। फिर यह कहाँ से आ टपका। मगर ठहरिये, यह भाई शुरूआत के वर्षों में तो साथ था ही। जब माँ नर्स की ट्रेनिंग के लिए पटना गई, तब तीनों भाई-बहन मुंगेर में ही प्रवासी समान रह रहे थे। स्वाभाविक ही यहाँ उनका साझा संसार था, और था कटु-मधुर अनुभव। बिन बाप के बच्चों के अनुभव मधुर तो क्या ही होंगे, मगर जो कटु अनुभव थे, वह  शूल समान थे, जो रह-रह कर स्मृतियों में आ ही जाते हैं। और यही कारण है कि लेखक ने इन्हें लिपिबद्ध किया है। 


एक पाँच वर्ष का बालक, जिसके हाथों बाप की कपाल क्रिया हुई, उसकी मनोदशा का अंदाजा लग सकता है। एक तरफ पैतृक जायदाद छिन गई, तो दूसरी तरफ ननिहाल में उपेक्षा का दंश चुभने लगा था।  तिस पर माँ द्वारा दूसरे विवाह के उपरांत जब उपेक्षा असह्य हुई, तो वे लखीसराय आ गये। यहाँ का जीवन भी कोई खास सुखमय तो होना नहीं था, सो नहीं हुआ। और इन्हीं जद्दोजहद के बीच भाई का चयन सैनिक स्कूल, तिलैया में हो गया था। इस नामांकन को ले कर भी कैसे-कैसे तिकड़में लगा अड़ंगे लगाये जाते हैं, इनका वर्णन इस किताब में है।  वैसे  इसके आगे लेखक के अपने भाई के साथ के मार्मिक प्रसंग हैं, जो हृदयस्पर्शी तो हैं ही।  खासकर एक शिशु के माथे में किशोर द्वारा  उसके घने जटाजूट समान उलझे बालों में गर्म तेल लगाने की, जिसे पढ़ते ही अपना ही माथा हौल-हौल करने लगता है। लेखक का भाई उस घटना को आज तक भूल नहीं पाया, तो आश्चर्य की क्या बात! भातृ-प्रेम कुछ ऐसा ही होता है, जो नेह के ऐसे ही डोर से उन्हें बाँधे रखता है। 


इसके आगे की कथा रचनाकार के आगे पढ़ने की है। लखीसराय में तो नहीं ही पढ़ना था और मुंगेर में कोई रखने को तैयार नहीं। ऐसे में भाई ने ही उसे सहारा दिया, जो स्वयं पटना में रह कर पढ़ाई कर रहा था। वहाँ से जब भाई जमशेदपुर के इंजीनियरिंग कॉलेज में पहुँचा, तो लेखक भी वहीं अपनी पढ़ाई के लिए पहुँच गया। इस मामले में देखा जाए, तो लेखक भाग्यशाली रहा, जो उसे केयरिंग नेचर वाला भाई मिला और आगे चल कर हमेशा उसे संरक्षण देता रहा। हाँलाकि लेखक ने अपनी बहन को अपने रखरखाव के लिए पूरा श्रेय दिया है। 


दरअसल जीवन एक रेख में नहीं चलता। जीवन में अनेक मोड़ आते हैं। और उनके रास्तों में कुछ अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर जाते हैं। लेखक के शैशवावस्था में बहन ने अपनी जिम्मेदारी निभाई, तो किशोरावस्था में भाई ने अपना दायित्व निभाया। चूँकि वह उन दर्दों से गुजर चुके थे, जो बिन बाप के बच्चों को उठाना पड़ता है। भले अपने अनुज को उस नरक में वह उसे कैसे जाने देते? व्यक्ति को परिस्थितियाँ अक्सर ही प्रौढ़ बना ही जाती हैं। और यही कारण है कि लेखक पढ़ाई के प्रति गंभीर हुआ। नतीजा उसका चयन साइंस कॉलेज, पटना में हुआ। 


दरअसल हमारा यह जीवन एक पहाड़ी झरने के समान है। आरंभ में अपने उद्गम से निकल कर कठोर चट्टानों से टकराते जल-धार समान जीवन आगे बढ़ता चलता है। पहाड़ से नीचे उतरती नदी की गति कितनी तीव्रतर होती है! मगर मैदानी इलाके में आती ही उसकी गति सम पर आ जाती है। रचनाकार यतीश के समान कुछ लोगों के जीवन में बाल्यावस्था से युवावस्था के बीच की स्थिति भी पहाड़ से गिरने वाले झरने जैसा ही कुछ है। बल्कि कुछ के जीवन में यह तीव्रता भयंकर होती है। उसे अवरोध भी उसी अनुरूप पर्वत समान मिलते हैं। कुछ इनसे समझौते कर लेते हैं, तो कुछ इन्हें चुनौती के रूप में लेते हैं। जो चुनौती के रूप में लेते हैं, वह इतिहास भी रचते हैं। फिर भी उनके मन का कोई कोना विदग्ध रहता है। जीवन के कुछ कठोर संस्मरण आजीवन बने रहते हैं, जो उसे बेचैन किये रहते हैं। अंततः किसी से कह कर उनका मन हल्का होता है। ईसाई धर्म में आत्म-स्वीकृति (Confession) जैसा कुछ कर्मकांड है। इसमें व्यक्ति चर्च में पादरी के पास जा कर अपने किये गये पापों को स्वीकार करता है। उसके इस स्वीकृति से यह मान लिया जाता है कि वह व्यक्ति अपने तथाकथित पापों से मुक्त हो गया है।


मगर कुछ बातें पाप-विमोचन से भी अधिक तीव्र होती हैं। और यही कारण है कि वह संस्मरण के रूप में जब तक सामने आ नहीं जाता, व्यक्ति को चैन नहीं मिलता। यह संस्मरण-लेखन भी ऐसा ही कुछ है। हमारे जीवन में घटित बहुत कुछ ऐसा है, जिसे हम जाने-अनजाने दूसरे से छिपाते हैं। फिर भी मन में एक कचोट उठती है कि काश कुछ लोग उन तथ्यों को जानते, जिनसे उनका पाला पड़ा था और उनके प्रति कोई विशिष्ट दृष्टिकोण रखते। ये तथ्य उसके साथ की गईं अमानवीय, असामाजिक, अवांछित घटनाएँ हो सकती हैं, जो उसके भुलाए नहीं भूलते, जो आमतौर पर अपने ही लोगों द्वारा दी जाती हैं। इसमें उसकी की गई गलतियाँ, अपराध आदि भी हो सकती हैं, जो परिस्थितिजन्य भी होती हैं। जीवन की कुछ कमियाँ ऐसी भी होती हैं, जिनसे उसका कोई लेना-देना नहीं होता। फिर भी उन घटनाओं से उसे जोड़ कर उसका उपहास किया जाता है, उपेक्षा की जाती है। और यहीं मनुष्य-मन में कुछ टूटता-दरकता है। जैसा कि इस पुस्तक के लेखक यतीश के साथ हुआ है।


अंतिम अध्याय “और कितने करीब” में कुछ सवाल जैसे स्वयं से हैं, तो कुछ समाधान भी हैं। यह भारतीय साहित्य की परंपरा है कि उसका अंत सुखांत ही होना है। सो यहाँ लेखक ने अपने किशोरावस्था के उन क्षणों को अपने संस्मरण के भंडार से बाहर किया है, जो सुखद और आनंददायक थे। मुंगेर एक पुराना शहर ठहरा। यहाँ लेखक के ननिहाल का संयुक्त परिवार। वैसे भी यह वह दौर था, जब किसी के आधेक दर्जन बच्चे होना अजूबा नहीं समझा जाता था। और जहाँ डेढ़-दो दर्जन बच्चे हों, तो गुल-गपाड़े का कहना ही क्या! बनिया परिवारों में दीपावली की विशेष अहमियत ठहरी। सो उन दिनों का विस्तृत वर्णन है। लगे हाथ दुर्गा-पूजा और उसके विसर्जन के समय का संस्मरण है। 


लेखक के कथनानुसार, “स्मृति बढ़ते समय के साथ अपनी परिमिति घटाती रहती है और फिर याद करते ही या फिर यथार्थ की धूप पड़ते ही अचानक केंचुए सी फैल जाती है।” यह संस्मरण सिकुड़ते हुए कभी किशोरावस्था के पटना के गंगा नदी के महेन्द्रू घाट पर पहुँचती है, तो कभी युवावस्था में भाँग का नशा कर होली के हुड़दंग करते जमालपुर के रेल कारखाने के अधिकारी को याद करती है कि ‘सब माया है, सब छाया है, सब मिथ्या है’। इस मिथ्या माया के बीच ही तो कहीं यथार्थ है, जिसकी खोज रचनाकार कर रहा है। तभी समय व्यतीत होते गये और वह अब प्रथम श्रेणी अधिकारी होने के बावजूद होली में  बच्चों सी हरकत करना चाह रहा है। और उसके बच्चे ही उनसे सवाल किये जा रहे हैं। यही जीवन है शायद, कभी हम सवाल करते हैं, तो कभी हमीं से सवाल पूछे जाने लगते हैं। इन सवालों के बीच ही तो कहीं सत्य छिपा है, जिसके शोध की आकाँक्षा लिये हम घूम रहे हैं। इस सत्य की खोज में एक प्रयास है- यह संस्मरण पुस्तक, जो रोचक और रोमांचक है। और इसलिए यह पठनीय है। यही कारण है कि इस पुस्तक के तीन-तीन संस्करण निकल चुके हैं, जो स्वयं में एक उपलब्धि है। विश्वास है कि पाठक इसे पढ़कर अपने संस्मरणों से इसकी तुलना करें। और तब उन्हें पता चले कि यह संघर्षमय जीवन आनंददायक भी है। 



पुस्तक का नाम - “बोरसी भर आँच” (संस्मरण)  

लेखक  - यतीश कुमार   

प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली 

मूल्य   -  रूपये 350/



चितरंजन भारती 



सम्पर्क 

चितरंजन भारती


मोबाइल - 7002637813, 

9401374744

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