कँवल भारती का आलेख 'भारतीय चिंतन परम्परा में निर्गुणवाद : बौद्ध क्रान्ति के बाद की सबसे बड़ी क्रांति'
कबीर जयंती पर विशेष
'भारतीय चिंतन परम्परा में निर्गुणवाद : बौद्ध क्रान्ति के बाद की सबसे बड़ी क्रांति'
कँवल भारती
निर्गुणवाद न वेदों से आया और न वेदान्त से। वेदों में बहुदेववाद है और वेदांत में ब्रह्मवाद; और दोनों का कोई सम्बन्ध निर्गुणवाद से नहीं है। वेदान्त में एक ईश्वर की धारणा हो सकती है, पर उसका सम्बन्ध भी ब्राह्मण-भक्ति से होने के कारण उसे ब्रह्म माना गया है। वेदान्त का ब्रह्मवाद शास्त्रवाद में विश्वास करता है और जगत को मिथ्या मानता है। ‘ब्रह्म सत्यम जगन्मिथ्या’ शंकराचार्य ने भी कहा है और उनके दादा गुरु गौडपाद ने भी। ईशावास्योपनिषद कहता है, यह जगत ब्रह्म से बना है और वही इस जगत का पोषक है। (1,15) श्वेताश्वर उपनिषद में एक वाक्य है—‘तमेवं विदित्वाति मृत्युमेति नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाम’ (3/18), अर्थात, परमेश्वर को जानकार लोग मृत्यु के बंधन से छूट जाते हैं। किन्तु ऐसी कोई अवधारणा निर्गुणवाद में नहीं है। हालाँकि वेदान्त वेदों के ज्ञान के विरुद्ध और ब्राह्मण-दर्शन के खंडन में क्षत्रियों का दर्शन था। लेकिन बाद में ब्राह्मणों ने इसमें घुसकर उसे भी अपने दर्शन के अनुकूल बना दिया।
निर्गुणवाद भारतीय चिंतन-परम्परा में एक अवैदिक धारा है। इस पर आजीवकों, लोकायतों, बौद्धों, सिद्धों और नाथों का प्रभाव तो देखा जा सकता है, लेकिन वैदिक और ब्राह्मण-दर्शन की धारा का प्रभाव नहीं है। फिर भी हम निर्गुणवाद को पूरी तरह आजीवक और बौद्ध-दर्शन से विकसित दर्शन-धारा नहीं कह सकते। क्योंकि इसमें जो ईश्वरवाद है, वह इसे आजीवक और बौद्ध-दर्शन से अलग करता है, और यही ब्राह्मणों को ब्रह्मवाद और मुसलमानों को तौहीद की छाया के भ्रम का अहसास कराता है।
निर्गुणवाद 14वीं और 15वीं सदी का दर्शन है। इसलिए इसके उद्भव को उस दौर की राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक परिस्थितियों के साथ ही समझना होगा। यह वह दौर था, जब भारत में इस्लाम आ गया था और उसके साथ ही एक नए धर्म-दर्शन ने जनता में पैर पसार लिए थे। 650 ईस्वी में अरब व्यापार के लिए भारत आए और साठ साल के भीतर ही मुहम्मद क़ासिम ने सिंध पर कब्जा कर लिया। हिन्दुओं और बौद्धों ने इस शर्त के साथ समर्पण कर दिया कि वह उनके धार्मिक मामलों में बाधा नहीं डालेगा। इसके तीन सौ साल बाद दिल्ली में पहली मुस्लिम सल्तनत क़ायम हुई, जिसमें 14वीं शताब्दी में फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ हुए। फ़िरोज़ ने कई हिन्दू ग़ुलामों को आज़ाद कराया, जिसमें एक अफ्रीकी मूल का ग़ुलाम भी था, जिसने जौनपुर में शरक़ी साम्राज्य की स्थापना की थी। यह सल्तनत 1526 ईस्वी में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना होने तक बनी रही।
मुस्लिम शासकों ने महत्वपूर्ण काम यह किया कि उन्होंने शिक्षा को सबके लिए सुलभ किया, जिसे ब्राह्मणों ने निम्न जातियों के लिए प्रतिबंधित करके रखा था। किन्तु उन्होंने अपनी सल्तनत और इस्लाम के हित में ब्राह्मणों और उनकी धर्म-व्यवस्था के साथ विरोध का रुख अख्तयार नहीं किया। इसलिए ब्राह्मणों का ‘ब्रह्म-जाल’ भी बना रहा और उसके समानान्तर इस्लाम भी फैलता रहा। इस तरह समाज में धार्मिक सत्ता के दो केंद्र हो गए थे—एक ब्राह्मणवाद, जो पहले से ही था, और दूसरा, क़ाज़ी-मुल्लावाद, जिसे इस्लाम ने पैदा किया था। और ये दोनों ‘धर्म-सत्ताएं’ निम्न जातियों के सामाजिक और आर्थिक शोषण की मुख्य केंद्र थीं। ब्राह्मणों के लिए इस्लाम एक चुनौती ज़रूर था, क्योंकि इस्लाम का एक ईश्वर और समानता का सिद्धांत, निम्न जातियों को प्रभावित करता था, जिससे वे मुसलमान बन रहे थे। लेकिन इसके बावजूद, ब्राह्मण अपनी धर्म व्यवस्था—मूर्ति-पूजा, अवतारवाद, जातिपात, परलोकवाद, पुनर्जन्म, बैकुंठ, तीर्थ, स्नान वगैरा को न केवल कसकर अपनाए हुए थे, बल्कि उसके सबसे बड़े प्रचारक भी थे। इस्लाम में समानता ज़रूर थी, मगर आख़िरत, नमाज़, हज, रोज़ा, दोज़ख़ वगैरा के नाम पर धार्मिक शोषण का जाल भी था।
निर्गुणवाद का जन्म इन्हीं परिस्थितियों के अंतर्गत हुआ। भारतीय चिंतन-परम्परा में निर्गुणवाद दूसरी बड़ी क्रान्ति थी, जो भारत में हुई थी। पहली बौद्ध क्रान्ति थी, जिसके बारे में डा. आंबेडकर का मत है कि वह उतनी ही बड़ी क्रांन्ति थी, जितनी बड़ी फ्रांस की क्रान्ति थी। हालाँकि उसकी शुरुआत एक धार्मिक क्रान्ति के रूप में हुई थी, परन्तु वह धार्मिक क्रान्ति से भी ज़्यादा सामाजिक और राजनीतिक क्रान्ति बन गई थी। वह कितनी बड़ी क्रान्ति थी, इसका अनुभव कोई बौद्ध-क्रान्ति से पूर्व की सामाजिक स्थिति का अध्ययन करके ही कर सकता है। उसी तरह, बौद्ध-क्रान्ति के दो हज़ार साल बाद हुई निर्गुणवाद की क्रान्ति का अर्थ और महत्व भी कोई इस क्रान्ति से पहले की सामाजिक और धार्मिक स्थिति को जानकार ही समझ सकता है। यहाँ यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि भारत में निर्गुणवाद की क्रान्ति निम्न जातियों के चिंतकों ने की थी। इसलिए इसमें एक कल्पित समाजवाद और वास्तविक भौतिकवाद स्वत: आया है। यही कारण है कि इसकी उपेक्षा हिन्दू-मुस्लिम दोनों इतिहासकारों ने की।
क्या निर्गुणवाद एक आध्यात्मिक दर्शन है? इस प्रश्न पर विचार करना बहुत ज़रूरी है। इसे जानने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि अध्यात्मवाद क्या है? आम भाषा में अध्यात्म का अर्थ है, आत्माओं में विश्वास करना। दूसरे शब्दों में, अध्यात्मवाद आत्मा को जगत का मूल तत्व मानने वाला एक प्रत्ययवादी विचार है। अध्यात्मवाद के प्रतिपादक मानते हैं कि आत्मा का शरीर से स्वतंत्र अस्तित्व होता है। इसलिए वे प्रेतात्माओं तथा दैवी-विधान में विश्वास करते हैं। संक्षेप में अध्यात्मवाद एक ऐसे अस्तित्व को स्वीकार करता है, जो मृतात्माओं का है, और जिसे भौतिक रूप से नहीं देखा जा सकता।
इस परिभाषा के आधार पर निर्गुणवाद को अध्यात्मवादी दर्शन नहीं कहा जा सकता, क्योंकि निर्गुणवाद परलोक में विश्वास नहीं करता। इस सम्बन्ध में कबीर का एक बहुत ही महत्वपूर्ण शब्द है
अवधू छाड़हू मन विस्तारा।
सो पद गहो जाहि ते सदगति, पारब्रह्म सो न्यारा।।
नहीं महादेव, नहीं महम्मद, हरि, हज़रत कछू नाहीं।
आदम, ब्रह्मा, नहिं तब होते, नहीं धूप, नहिं छाहीं।।
अस्सी सहस पैग़म्बर नाहीं, सहस अठासी मूनी।
चन्द्र, सूर्य, तारागण नाहीं, मच्छ, कच्छ नहिं दूनी।।
वेद, कितेब, सुमृत नहिं संजम, नहिं जीवन परिछाईं।
बांग, निमाज़, कलमा नहिं होते, रामहु नाहिं ख़ुदाई।।
आदि, अंत अरु मध्य न होते, आतश, पवन न पानी।
लख चौरासी जीव जन्तु नहिं, साखी, सबद न बानी।।
कहहिं कबीर सुनो हो अवधू, आगे करहु विचारा।
पूरण ब्रह्म कहाँ ते प्रगटे, कृत्रिम किन्ह उपजारा।।
इससे अधिक निर्गुण दर्शन की और क्या व्याख्या हो सकती है? जिस परलोक पर ब्राह्मण और मुल्ला-क़ाज़ी धर्म का व्यापार करते हैं, उसके बारे में कबीर कहते हैं कि वहाँ आत्माएं तो छोड़िए, कुछ भी नहीं है, जीव-जन्तु, आग, पानी, पवन, ऋषि-मुनि, पैग़म्बर, यहाँ तक कि जीवन की परछाईं तक नहीं है।
निर्गुणवाद को अध्यात्मवादी बनाने का कार्य उसके ईश्वरवादी होने के कारण ब्राह्मण आलोचकों ने किया। इसलिए ईश्वरवाद को समझना ज़रूरी है। डा. आंबेडकर ने धर्म शब्द का प्रयोग ‘थिओलोजी’ के अर्थ में किया है, अर्थात एक ऐसा धर्म, जिसके पास अपना एक ईश्वरीय शास्त्र या विधान होता है। थिओलोजी के अनुसार धर्म के तीन सिद्धांत हैं, (1) ईश्वर का अस्तित्व है, और वह प्रकृति या ब्रह्माण्ड का रचयिता है; (2) ईश्वर प्रकृति की समस्त घटनाओं का नियंता है, और (3) ईश्वर अपने संप्रभु नैतिक कानून के अनुसार मानव जाति का संचालन करता है। इस थिओलोजी को अनीश्वरवादी धर्मों को छोड़कर सभी स्वीकार करते हैं। किन्तु निर्गुणवाद या निर्गुण धर्म इस थिओलोजी को स्वीकार नहीं करता। इस अर्थ में निर्गुणवाद एक अजीब दर्शन लग सकता है, जो ईश्वरवादी भी हो, और उसकी कोई थिओलोजी भी न हो। किन्तु यह सच है, क्योंकि वह वेद, कितेब (कुरआन), पुराण, पोथी-पत्रा आदि किसी भी धर्मशास्त्र को अपने दर्शन का आधार नहीं बनाता। उसके अनुसार सारे शास्त्र मन को भ्रमित करते हैं। यथा—
वेद-कितेब छोड़ देऊ पांडे, ई सब मन के भरमा।
जिन्ह कलमा कलि माहिं पढ़ाया, क़ुदरत खोज तिनहु नहिं पाया।
यहाँ कबीर ने क़ुदरत का ज़िक्र किया है, जिस पर हम आगे विचार करेंगे। थिओलोजी के संसार में निर्गुणवाद एक बड़ी क्रान्तिकारी घटना थी, जिसने ईश्वर को मानते हुए भी ईश्वरवादी धर्मों के लिए एक बड़ी चुनौती खड़ी कर दी थी। डा. आंबेडकर ने लिखा है कि ‘असभ्य समाज के धर्म में ईश्वर के विचार की कोई अवधारणा नहीं थी। दूसरी बात यह कि असभ्य समाज के धर्म में नैतिकता और धर्म के बीच कोई बंधन नहीं था। असभ्य समाज में कोई धर्म था, तो वह ईश्वर के बिना था। और उस समाज में जो नैतिकता थी, वह धर्म से स्वतंत्र थी। किन्तु यह बताना असंभव है कि ईश्वर का विचार धर्म में कैसे और कब समाहित हुआ?’ असभ्य समाज का मतलब कोई ख़ास समाज या समुदाय नहीं है, अपितु इसका मतलब सभ्यता-पूर्व का आदिम समाज है। सभ्यता के विकास के साथ जब धर्म आया, तो उसमें ईश्वर एक योजना के साथ आया। यह योजना एक ऐसे सर्वशक्तिमान ईश्वर को गढ़ने की थी, जो संसार का निर्माता है; यानी वह पहाड़, समुद्र, नदियां, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, आकाश, हवा, अग्नि, जीव-जन्तु सब का रचयिता, नियामक और संचालक है। इसी योजना में परलोक, अवतार, पैग़म्बर, आवागमन, स्वर्ग-नर्क, पुनर्जन्म की अवधारणाएं गढ़ी गईं। इसी योजना ने सांप्रदायिक धर्मों की बुनियाद डाली, और एक-दूसरे सम्प्रदाय के विरुद्ध घृणा और हिंसा की भी। फिर धीरे-धीरे जड़वाद, राष्ट्रवाद, भाववाद, मायावाद, जातिवाद, नस्लवाद, तन्त्र-मन्त्र सब इस योजना में विस्तार पाते गए।
लेकिन निर्गुणवाद में ईश्वरवाद किसी योजना के तहत नहीं आया। वह निर्गुणवादियों के भौतिकवादी चिंतन के कारण आया। भौतिकवादी चिंतन अर्थात जगत के वस्तुनिष्ठ परीक्षण, प्रत्यक्ष ज्ञान, और तर्क के आधार पर आया। किन्तु भौतिकवाद के साथ निर्गुणवाद में एक भेद विद्यमान है। भौतिकवादी चार्वाक पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु : चार तत्वों को मानते हैं, जबकि निर्गुणवादी पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु के साथ पांचवां तत्व गगन को मानते हैं। यह उनकी विवशता भी थी और आवश्यकता भी, क्योंकि वे गगन या आकाश को माने बगैर निर्गुण ईश्वर को स्थापित नहीं कर सकते थे। यथा—‘पांच तत्व का पूतरा, मानुष धरिया नांव’/ या— ‘पांच तत्व के भीतरे, गुप्त वस्तु अस्थान।’ लेकिन इसके बावजूद निर्गुणवाद यह विश्वास नहीं करता कि जीव की मृत्यु के उपरान्त तत्वों के बिछड़ने पर गगन तत्व गगन में जाता है, क्योंकि ऐसा मानते ही परलोक खड़ा हो जायेगा। यह भी दिलचस्प है कि निर्गुण दर्शन में गगन का प्रयोग शून्य के लिए हुआ है। और शून्य में परलोक का भवन खड़ा ही नहीं हो सकता। कबीर का बहुत ही प्यारा पद है—
पंचतत अविगत थैं उत्पनाँ, एकै किया निवासा।
बिछुरे तत फिरि सहजि समाँनाँ, रेख रही नहीं आसा।।
आदै गगना, अन्तै गगना, मधे गगना भाई।
कहै कबीर करम किस लागै, झूठी संक उपाई।।
निर्गुण-वाणी में सुन्न महल, गगन मंडल और सहज सुन्न सारे शब्द शून्य के अर्थ में ही आए हैं। रैदास साहेब का पद है—‘सुन्न महल में दोऊ त्यागे, राम न कहूं ख़ुदाई।’ संत दरिया साहेब कहते हैं—
बेला फूला गगन में, बंक नाल गहि मूल।
नहिं उपजै, नहिं वीनसै, सदा फूल को फूल।
गगन मध्य जो पदुम है, नि:अक्षर ता पार।
यही भेद जाने बिना, डूबा सब संसार।
डा. आंबेडकर का लिखा है कि ‘विज्ञान के विकास ने धीरे-धीरे ही सही, धर्म के साम्राज्य को ध्वस्त करने में बड़ी भूमिका निभाई। कोपरनिकस की क्रांति ने खगोल विज्ञान को धर्म के वर्चस्व से मुक्त किया, और डार्विनवादी क्रांति ने जीव विज्ञान और भूविज्ञान को धर्म के बंधनों से मुक्त किया। किन्तु फिर भी विज्ञान के मामले में धर्म का प्रभाव और दख़ल पूरी तरह खत्म नहीं हुआ, और अभी भी बना हुआ है। आंबेडकर ने आगे लिखा है कि विज्ञान की क्रान्ति ने वैचारिक स्वतन्त्रता स्थापित की, जिसने लोगों को अंधविश्वासों के विरूद्ध जागरूक करने का काम किया।
यही क्रान्ति 14वीं-15वीं शताब्दी में निर्गुणवादी विचारकों ने की थी। उन्होंने ईश्वरवाद की स्थापना लोगों के भीतर से ईश्वर के उस डर को निकालने के लिए की थी, जो ब्राह्मणों और मुल्लाओं ने ईश्वर के नाम से उनमें भर रखा था। यह डर मुक्ति और मोक्ष का था, भव-सागर से तरने, कर्मों के अनुसार स्वर्ग-नर्क भोगने और पुनर्जन्म का था। निर्गुणवाद ने पुनर्जन्म का बहुत ही तार्किक खंडन किया। कबीर ने कहा, ‘कौन मरे कौन जन्मे भाई/ सुरग नरक कौन गति पाई।’ ब्राह्मण कहते हैं कि जीव के मरने पर आत्मा तुरंत नए शरीर में जन्म ले लेती है, तो फिर मरा कौन? जब आत्मा तुरंत नए शरीर में प्रवेश कर गई, तो कौन परलोक गया, और कौन स्वर्ग और कौन नरक कौन गया?
उन्होंने निर्गुण ईश्वर को कोई एक नाम नहीं दिया। उन्होंने अपने ईश्वर को उन सारे नामों से पुकारा, जो हिन्दू-मुसलमानों में आम थे, जैसे राम, कृष्ण, हरि, माधव, रहमान, अल्लाह, ख़ुदा, रहीम, करीम, ख़ालिक़ इत्यादि। वस्तुत: निर्गुणवाद में ईश्वर का स्वरूप प्रकृति या क़ुदरत के रूप में था। प्रकृति की सभी वस्तुएं भौतिक तत्वों के मिश्रण से ही उत्पन्न होती हैं, जिनमें वास्तव में चार तत्व ही क्रियाशील हैं। इसलिए गगन तत्व निर्गुणवाद में शून्य के रूप में क्रियाहीन है। इस प्रकृतिवाद में जगत का निर्माण नहीं, विकास हुआ है। यह निर्गुणवाद की एक बड़ी भौतिकवादी क्रान्ति थी, जिसने ब्राह्मणों और मुल्लाओं के इस धर्मशास्त्रीय विधान और विश्वास को तोड़ा कि ईश्वर जगत का निर्माता है। कबीर ने जगत-निर्माता के सिद्धांत का उपहास उड़ाते हुए पूछा कि क्या पंडित अपना पतरा और क़ाज़ी अपनी क़ुरान देखकर वह तारीख़ बता सकता है, कब धरती और आसमान नहीं थे? और अगर जगत का निर्माण वास्तव में ईश्वर ने किया है, तो वह कौन सा मुहूर्त था, जब उसने धरती, आकाश, सूरज और चाँद स्थापित किए? यथा—
पंडित तो बोरो पतरा, क़ाज़ी छाड़ि क़ुरान।
वह तारीख़ बताइ दे, हता न जमी आसमान।।
धरती अम्बर न हतो, कौन था पंडित पास?
कौन महूरत थापिया, चाँद सूर आकास?
प्रकृति किसी को मुक्त नहीं करती। उसमें मुक्ति या मोक्ष का विधान ही नहीं है। सभी प्राकृतिक घटनाएँ भौतिक तत्वों के सम्मिश्रण से घटती हैं, जो किसी परम सत्ता या ईश्वर के अधीन नहीं हैं। समस्त ऋतु-चक्र, आंधी, बाढ़, भूकम्प, जन्म-मृत्यु, विनाश सब तत्वों की भौतिक क्रियाएं हैं। इसी विज्ञान को निर्गुण-दर्शन ने अपना आधार बनाया था। यथा—
जो नहीं उपज्या धरनि सरीरा, ताकै पथि न सीच्या नीरा।
जा नहीं लागे सूरजि के बाँना, सो मोहि आँनि देहु को दांनां।
जब नहीं होते पवन नहीं पानी, तब नहीं होती सिष्टी उपाना।
जब नहीं होते प्यंड न बासा, तब नहीं होते धरनि अकासा।
जब नहीं होते गर्भ न मूला, तब नहीं होते कली न फूला।
जब नहीं होते सबद न स्वादं, तब नहीं होते विद्या न वादं।
कबीर के इस पद में हम बुद्ध के प्रतीत्यसमुत्पाद की भी छाया देख सकते हैं। यही प्रकृतिवाद है, और यही विज्ञान है। ब्राह्मणी धर्म-दर्शन में तीन अप्रामाणित मान्यताएं हैं मोक्ष का सिद्धांत, कर्मफल का सिद्धांत और पुनर्जन्म का सिद्धांत। इस्लामिक दर्शन में पुनर्जन्म का सिद्धांत नहीं है, पर कर्मफल का सिद्धांत है। मोक्ष क्या है? इसे हिन्दू-मुस्लिम कोई भी व्याख्या अभी तक स्पष्ट नहीं कर सकी है। यह एक अस्पष्ट, मिथ्या, किन्तु कर्मकांडी सिद्धांत है, जो सबसे अधिक अप्रामाणिक है। सारे हिन्दू तीर्थ, गंगा-स्नान, व्रत, उपवास, मृतक-श्राद्ध और दान-पुण्य बगैरा इसी एक सिद्धांत के सहारे खड़े किए गए हैं। इस्लाम में भी निज़ात की धारणा है। पर सवाल यह है कि किससे निज़ात? मृत्यु के उपरांत मोक्ष, मुक्ति या निज़ात कैसे मिलेगी, कब मिलेगी, यह मृतक के घर वालों को कैसे मालूम होगा? निर्गुण संतों ने इसी सवाल के प्रति जनता को जागरूक किया। कबीर ने पूछा, मोक्ष कैसे प्राप्त होता है, मुझे भी तो समझाओ। वह मोक्ष देने वाला पुरुष, या ईश्वर कौन है? उसका नाम-गाँव तो बताओ। यथा—
पढ़ि-पढ़ि पंडित करु चतुराई, निज मुक्ति मोहि कहो समुझाई।
कहाँ बसै पुरुष कौन सा गाऊँ, सो पंडित मोहि सुनावहु नाऊँ।
निर्गुणवाद में मुक्ति या मोक्ष की अवधारणा इसलिए नहीं है, क्योंकि वह प्रकृति में नहीं है। यथा—‘प्यंड मुकति कहाँ ले कीजै, जो पद मुकति न होई।’ प्रकृति धर्मशास्त्र से नहीं चलती है, वह किसी वेद, कुरान या बाइबिल के अधीन नहीं है, किसी मुल्ला, पंडित या पादरी से निर्देश नहीं लेती है। वह अपने स्वाभाव के अधीन है। कोई मन्त्र, पूजा, नमाज़, यज्ञ-उपवास अग्नि या पानी के स्वभाव को नहीं बदल सकता। फिर मोक्ष का आडम्बर क्यों? रैदास ने कहा, ‘जगन्नाथ मथुरा काशी यहाँ मुक्ति न होय।’
इसीलिए निर्गुणवाद में ईश्वर अविनाशी है, क्योंकि प्रकृति भी अविनाशी है। इसलिए निर्गुणवादियों ने ईश्वर के रूप में अविनाशी शब्द का प्रयोग वास्तव में प्रकृति के लिए किया है। रैदास साहेब का पद है—
जो अबिनासी सबका करता, व्यापि रहिउ सब ठौर रे।
पंच तत्त जिनि कीया पसारा, सो यों ही किछु और रे।।
यहाँ अगर अविनाशी का अर्थ ईश्वर किया जायेगा, तो पूरा निर्गुण-दर्शन ही निरर्थक हो जायेगा, क्योंकि कर्ता ईश्वर नहीं, प्रकृति है। प्रकृति ही पालनहार है, वही अन्न, जल, अग्नि, हवा और जीने का पर्यावरण देती है। इस सत्य को सिर्फ निर्गुण संतों ने पकड़ा था। उन्होंने प्रकृति के रहस्य और महत्व को जानकर ही एक निर्गुण ईश्वर की स्थापना की। वे जानते थे कि प्रकृति निर्गुण नहीं है, सगुण है। लेकिन सारा धर्मशास्त्रीय विधान और परलोक आदि की अप्रामाणिक मान्यताएं और आडम्बर ईश्वर के साथ जुड़े हुए थे, जिनका खंडन निर्गुण प्रकृति के आधार पर नहीं किया जा सकता था। इसलिए उन्होंने प्रकृति को एक निर्गुण ईश्वर का रूप दिया, जो अदेह है, इसलिए वह न खाता है, न पीता है; वह लामकाँ है, अनिवासी है, इसलिए उसे मंदिर, मस्जिद, काबा, शिवालय, गिरजा आदि गृह-निवास की ज़रूरत नहीं; वह अलख है, उसे देखा नहीं जा सकता; वह निर्जाप है, इसलिए उसके नाम का जाप, कीर्तन, पूजा-नमाज़, माला-तस्बीह सब व्यर्थ है; वह अरूप और अवर्ण है, इसलिए उसके जब हाथ ही नहीं, तो उसने शास्त्र कैसे लिख दिया, जब मुंह ही नहीं, तो उसकी कोई वाणी भी कैसे हो सकती है—कहो हो निरंजन कौने बानी/ हाथ पाँव मुख श्रवण जिभ्या नहिं/ का कहि जपहु प्रानी।’ प्रकृति बहुरंगी है, उसका कोई एक रंग नहीं है, उसका कोई कुल-गोत्र नहीं है, उसकी जाति नहीं है। इसलिए निर्गुण ईश्वर भी निवर्ण, निगोत्र और जातिविहीन है। निर्गुण ईश्वर की सबसे सुंदर व्याख्या कबीर साहेब ने की है। यथा—
प्रथम एक जो आपै आप, निराकार निर्गुण निर्जाप।
परम पुरुष तहँ आप ही, अगम अगोचर माहिं।
कहै कबीर विचारि कै, तब कछु किरपा नाहिं।
कछु खावै नहिं पीवै, करता कबहूँ मरै न जीवै।
करता के कछु रूप न रेखा, करता के कछु वरन न भेखा।
जाके जोत-गोत कछु नाहिं, महिमा बरनि न जाए मो पाहीं।
रूप-अरूप नहीं तेरा नाँव, बरन-अबरन नहीं तेहि ठांव।
ऐसी ही सुंदर व्याख्या संत रैदास साहेब ने भी की है। यथा—
पंडत, अखिल खिलै नहीं, का कहि गांऊ, कोई न कहै समुझाई।
अबरन बरन रूप नहिं जाके, सो कहाँ लयो लायि समाई।
चंद सूर नहिं, राति दिवस नहिं, धरनि आकास न भाई।
करम अकरम नहीं, सुभ असुभ नहीं, का कहि देहु बड़ाई।
सीत न ऊसन, वायु नहीं सरवत, काम कुटिल नहीं होई।
जोग न भोग, रोग नहीं जाके, कहाँ नांव सति सोई।
निरंजन निराकार निर्लेपहि निरबिकार निरासी।
काम कुटिलता ता ही कहि, गावै हर हर आवै हांसी।
गगन धूर धूप नहिं जाके, पवन पूर नहीं पानी।
गुन बिगुन कहियत नहीं जाके, कहो तुम बात सयानी।
याही सो तुम जोग कहत हो, जब लग आस की पासी।
छूटे तभी जब मिलै एक ही, भने रविदास उदासी।
गुरु नानक की वाणी का तो आरम्भ ही इस पद से होता है—
एक ओंकार सतिनामु पुरखु निरभउ निरवैरु
अकालमूरति अजूनी सैभं गुरुप्रसादि।
गुरु नानक ने निर्गुण ईश्वर का वही चित्र प्रस्तुत किया, जो कबीर और रैदास ने किया। यथा—
अलख अपार अगम अगोचर ना तिसु कालु न करमा।
जाति-अजाति अजोनी संभउ न तिसु भाउ न भरमा।
साचे सचिआर विटहु कुरबाणु।
ना तिसु रूप वरनु नही रेखिआ साचै सबदि नीसाणु।
ना तिसु मात पिता सुत बंधप ना तिसु कामु न भारी।
कबीर जयंती पर विशेष (आगे का शेष)
भारतीय चिंतन परम्परा में निर्गुणवाद :
बौद्ध क्रान्ति के बाद की सबसे बड़ी क्रांति
(कँवल भारती)
यहाँ यह बताना आवश्यक है कि निर्गुण क्रान्ति किसी ख़ास सांप्रदायिक धर्म के विरुद्ध नहीं हुई थी, बल्कि थिओलोजी अर्थात धर्म-शास्त्र के विधान और उसकी अप्रामाणिक स्थापनाओं के विरुद्ध हुई थी। लेकिन यह सच है कि ब्राह्मणवाद या हिन्दूधर्म उस क्रान्ति की आग में सबसे ज्यादा झुलसा। इसका कारण था कि ईश्वर और परलोक के नाम पर सर्वाधिक अप्रामाणिक स्थापनाएं और व्यवस्थाएं ब्राह्मणों ने ही खड़ी की थीं, जो दुर्भाग्य से आज भी क़ायम हैं। ब्राह्मणों का मायाजाल बहुत व्यापक था और जनता अशिक्षित होने के कारण उसमें फंसकर उनके शोषण और दमन की चक्की में पिस रही थी। यह भी उल्लेखनीय है कि यह अशिक्षित और शोषित जनता निम्न जातीय थी, जिनमें अधिकांश अछूत और शिल्पकार जातियां थीं। निर्गुण क्रान्ति इन्हीं अछूत और शिल्पकार जातियों, जो हिन्दूधर्म की व्यवस्था में शूद्र वर्ग था, के बीच से उभरी थी। गुरु नानक ने तो यहाँ तक कहा कि परमात्मा का ठिकाना अत्यंत निम्न श्रेणी के लोगों में ही होता है।
निर्गुण क्रान्ति का सबसे महत्वपूर्ण भाग उसका एथिक्स यानी नैतिक दर्शन है। कोई भी धार्मिक क्रान्ति, जो समाज को नहीं बदलती, या दूसरे शब्दों में एक वैज्ञानिक सोच वाले आधुनिक समाज का निर्माण नहीं करती, वह क्रान्ति कोई मायने नहीं रखती। निर्गुण क्रान्ति ने अछूत और शिल्पकार जातियों के बीच एक निर्गुण राम को ही स्थापित नहीं किया, जिसके कारण शूद्रों में अपने नाम के आगे राम जोड़ने की एक बड़ी नामांतर क्रान्ति हुई, और वे हिन्दू फोल्ड से बाहर निकले, बल्कि उसने समाज को बदलने और एक वैज्ञानिक समतावादी समाज बनाने की लड़ाई भी लड़ी। चूँकि निर्गुणवादी विचारक निम्न सामाजिक पृष्ठभूमि से आए थे, इसलिए सामाजिक परिवर्तन के लिए अलख जगाना निर्गुण क्रान्ति का ध्येय ही नहीं, मिशन भी था। पंडित और मुल्ला किसी भी स्थिति में अपने नैतिक विधान और मूल्यों का परीक्षण करने के लिए तैयार नहीं थे, क्योंकि उसे उन्होंने दैवीय रूप देकर अपरिवर्तनीय घोषित कर दिया था। इसलिए उनके धर्मों पर कोई सवाल उठाना उनकी धार्मिक भावनाओं के विरुद्ध था। पंडित-मुल्ला भी अपने-अपने धर्म के हित में एक-दूसरे के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझते थे। ‘सर्व-धर्म-समभाव’ का सिद्धांत भी इसी कारण से आया, जिसने यह धारणा बनाई कि सारे धर्म सच्चे हैं, उनकी निंदा न की जाए। लेकिन यह धारणा पूरी तरह ग़लत है, और निर्गुण विचारकों ने इस धारणा को न केवल ग़लत साबित किया, बल्कि अपने वैज्ञानिक चिंतन से पंडित-मुल्ला के इन दावों और अहंकार, दोनों को तोड़ दिया कि उनके धर्म सच्चे और दैवीय हैं।
डा. आंबेडकर ने अपने ग्रन्थ ‘फिलोसोफी ऑफ़ हिन्दुइज़्म’ में धर्म की एक कसौटी दी है। वह कसौटी न्याय और उपयोगिता के परीक्षण की है। उन्होंने न्याय के सिद्धांत को स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व का नाम दिया है। अगर कोई धर्म न्याय की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है, अर्थात वह सबके लिए स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व के सिद्धांत को स्वीकार नहीं करता है, तो वह कुछ और भले हो, धर्म नहीं हो सकता। निर्गुण धर्म ने मुख्य रूप से सामाजिक न्याय के सिद्धांत को ही अपनी वैचारिकी बनाया। सबसे पहले उन्होंने सामाजिक विषमता पर सवाल खड़े किए, जो पंडित-मुल्ला दोनों को निरुत्तर करने वाले थे। उन्होंने पूछा—
जो तू करता वर्ण बिचारा, जन्मत तीनि दंड अनुसारा।
जन्मत शूद्र मुए पुनि शूद्रा, कृतम जनेऊ घालि जग धन्दा।
जो तू ब्राह्मण ब्राह्मणी का जाया, और राह से काहे न आया।
जो तू तुरुक तुरुकनि को जाया, पेटहि काहे न सुन्नति कराया।
रैदास साहेब ने जन्म के आधार पर किए जाने वाले छोटे-बड़े और ऊंच-नीच के भेदभाव का विरोध किया। उन्होंने ओछे कर्म करने वालों को ही नीच कहा। यह निर्गुणवाद ही था, जिसने समाज को देखने का एक नया सौन्दर्यबोध दिया। पहली बार निर्गुण विचारकों ने ही ब्राह्मण की उच्चता और श्रेष्ठता को अस्वीकार किया और उसे सामान्य मनुष्य की तरह देखा। उन्होंने एक अयोग्य-गुणहीन ब्राह्मण को कोई महत्व नहीं दिया, बल्कि एक योग्य-गुणवान चंडाल को महत्व दिया। उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच प्रेम पर जोर दिया, जो सामाजिक न्याय का मुख्य आधार है। यथा—
मुसलमान सों दोस्ती, हिंदुअन से कर प्रीत।
रविदास जोति सभ राम की, सभ हैं अपने मीत।
यह कहना कदाचित ग़लत न होगा कि निर्गुण विचारकों ने समानता और स्वतंत्रता पर सबसे ज्यादा जोर दिया था, न सिर्फ सामाजिक, बल्कि आर्थिक समानता पर भी। ग़रीबी और अमीरी को पूर्वजन्म का कर्मफल बताने वाले ब्राह्मणों को कबीर ने कड़ा जवाब देते हुए कहा था कि ग़रीबी-अमीरी पूर्वजन्म के कर्मफल के नहीं, बल्कि साधनों के अधीन है। जब सारे साधन धनिकों के हाथों में रहेंगे, तो ग़रीबी स्वत: ही बढ़ेगी। यथा—‘दीन गरीबी बन्दगी साधन सों आधीन/’ और, ‘दुर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय।’ कबीर का कहना था कि यह अन्याय ईश्वर का नहीं, राज-व्यवस्था का है कि एक वर्ग ऐश्वर्य भोग रहा है, और दूसरा दारुण दुःख। यथा—‘एकनि में मुक्ताहल मोती, एकनि व्याधि लगाई/ एकनि दीना गरै गुदरी, एकनि सेज पियारा।’
स्वतन्त्रता के बिना समानता का कोई अर्थ नहीं है। अगर एक व्यक्ति को अपने समान अधिकार का उपभोग करने के लिए अपने पसंद के व्यवसाय या क्षेत्र में प्रवेश करने की स्वतन्त्रता नहीं होगी, तो उस समानता का कोई मूल्य नहीं है। अगर किसी व्यक्ति के लिए ज्ञान के सभी साधन उपलब्ध नहीं होंगें, तो ऐसी समानता का वह क्या करेगा? निर्गुणवाद की आंधी ने विषमता और पराधीनता की सारी बांस-बल्लियाँ उड़ा दीं। निम्न वर्गों में पहली बार समानता और स्वतन्त्रता के भाव का न केवल संचार हुआ, बल्कि उसका उन्होंने उपभोग भी किया। यह आकस्मिक नहीं है कि इसी निर्गुण ज्ञान ने मीराबाई को, जिसे काशी के ब्राह्मणों ने तिरस्कार और बहिष्कार किया था, स्वतन्त्रता की ऐसी अनुभूति कराई कि उसने अपने गिरधर नागर (कृष्ण नहीं) का प्यार पाने के लिए सारे बंधन तोड़ दिए। वह निर्द्वन्द्व सड़कों पर गाने लगी—‘अपने घर का पर्दा कर लो, मैं अबला बौराणी।’ यह स्त्री-स्वातंत्रय की नई आवाज़ थी, जो निर्गुण क्रान्ति की देन थी।
निर्गुणवाद कोरा भक्तिवाद नहीं है, जैसाकि ब्राह्मणवादी इतिहासकार और आलोचक हमें बताते हैं। वह उनका प्रतिक्रान्तिवादी षड्यंत्र है। वे नहीं सोचते कि निर्गुण संत क्यों भक्ति करेंगे और किसकी भक्ति करेंगे? कबीर और रैदास दोनों ने भक्ति का खंडन किया है। भक्ति का आडंबर गुरु नानक के बाद शुरू हुआ, जब एक साम्प्रदायिक धर्म के रूप में सिख धर्म की स्थापना करने के उद्देश्य से गुरुग्रंथ साहेब का संकलन किया गया। इसी ग्रन्थ में पहली बार निर्गुण संतों को ‘भगत’ लिखा गया। किन्तु वास्तव में निर्गुणवाद और भक्ति दोनों परस्पर विरोधी धारणाएं हैं।
निर्गुणवाद और भक्तिवाद में बड़ा अंतर यह है कि भक्तिवाद एक ऐसा विचार है, जो संसार से पलायन सिखाता है, और संसार की भौतिक सच्चाइयों से आँखें मूंदे रहता है। लेकिन निर्गुणवाद ने संसार से पलायन नहीं किया। सभी निर्गुण चिंतक-कवि संसार की कठोर वास्तविकताओं के साथ जीते थे। वे अपनी बस्तियों में अपने बीवी-बच्चों के साथ रहते थे। वे सुख-दुःख, गरीबी, अभाव को अनुभव करते थे, और गहरी सामाजिक विषमता, पराधीनता और शोषण के चक्र में पिस रही जनता के बीच रहकर चिंतन करते थे। वह मार्क्स और लेनिन के समाजवाद का दौर नहीं था, परन्तु एक काल्पनिक समाजवाद या समतावाद उनके चिंतन में था, जिसे उन्होंने बेगमपुर, अमरदेश, अमृतदेस, निर्वानी देस कहा है। कबीर ने ऐसे देश की कल्पना की, जहाँ वेद-कुरान का शासन न हो, जाति-वर्ण के भेदभाव न हों—
महरम होइ सो जाने साधो, ऐसा देसहमारा।
वेद-कितेब पार नहिं पावै, कहन-सुनन से न्यारा।
जाति बरन कुल किरिया नाहीं, संध्या न नेम अचारा।
रैदास साहेब ने बेगमपुर शहर की कल्पना की, जहाँ कोई ग़म नहीं है, कोई दुःख, कोई चिंता, कोई अपराध नहीं है, जहाँ सब नागरिक समान हैं, कोई पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे दर्जे का नहीं है। वह यह भी कहते हैं कि जो इस बेगमपुर के साथ है, वही हमारा सच्चा साथी और मित्र है।
यह कल्पित समाजवाद की अवधारणा निर्गुणवाद की धार्मिक चेतना नहीं है, बल्कि राजनीतिक चेतना है। शोषित वर्ग का कोई भी व्यक्ति ऐसे ही राज्य की कल्पना करेगा, जहाँ कोई अन्याय न हो, समानता और स्वतन्त्रता हो। इसलिए रैदास साहेब के चिन्तन में हमें राज्य की अवधारणा भी मिलती है, जो बताता है कि कैसा राज्य होना चाहिए। यथा—
ऐसा चाहूँ राज मैं, जहाँ मिलै सबन को अन्न।
छोट-बड़ो सभ सम बसैं, रविदास रहे प्रसन्न।
ऐसा समाजवादी या समतावादी चिंतन ब्राह्मणों के सगुणवाद में नहीं आया। वह आ भी नहीं सकता था। कबीर ने इसका कारण बताया है—‘सूद्र मलेछ बसै मन मांही, आतमराम सु चीन्हा नाहीं।’वे अपनी आत्मा की आवाज़ कैसे सुन सकते हैं, जब मन में शूद्र-म्लेच्छ बसे हुए हैं?
(20/6/2024)
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