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संजय शांडिल्य |
परिचय
जन्म : 15 अगस्त, 1970
स्थान : स्थान : जढ़ुआ बाजार, हाजीपुर
शिक्षा : स्नातकोत्तर (प्राणिशास्त्र)
वृत्ति : अध्यापन
प्रकाशन : कविताएँ 'आलोचना', 'आजकल', 'हंस', 'समकालीन भारतीय साहित्य', 'वागर्थ', 'वसुधा', 'बहुवचन', 'कथादेश', 'बनास जन, 'पाखी', 'दोआबा' एवं 'नया प्रस्थान', दैनिक 'हिंदुस्तान', 'अमर उजाला', 'आज', 'दैनिक भास्कर', 'प्रभात खबर' तथा 'दैनिक जागरण'-समेत हिंदी की प्रायः सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं तथा 'आँच', 'रचनाकार' तथा 'इ-पत्रिकाओं में प्रकाशित एवं ‘अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले‘ (सारांश प्रकाशन, दिल्ली), ‘जनपद : विशिष्ट कवि’ (प्रकाशन संस्थान, दिल्ली), 'इश्क एक : रंग अनेक' (साची प्रकाशन, दिल्ली), 'काव्योदय' (काव्या प्रकाशन, दिल्ली), 'प्रभाती' (सन्मति प्रकाशन, हापुड़), 'सुहानी बरसात' (नोशन प्रेस, चेन्नई), 'आकाश की सीढ़ी है बारिश' (सर्वभाषा ट्रस्ट, दिल्ली), 'मेरे पिता' (सृजनलोक प्रकाशन, दिल्ली), 'गीत-कबीर' (जानकी दानी प्रकाशन, दिल्ली) एवं 'पल-पल दिल के पास' (सर्वप्रिय प्रकाशन, रायपुर और दिल्ली) में संकलित।
कविता-संकलन 'उदय वेला' (प्रकाशन संस्थान, दिल्ली) एवं 'समय का पुल' (सेतु प्रकाशन, दिल्ली) प्रकाशित | तीन कविता-संकलन 'लौटते हुए का होना', 'जाते हुए प्यार की उदासी से' (प्रेम-कविताओं का संकलन) एवं 'नदी मुस्कुराई' (नदी और पानी-केंद्रित कविताओं का संकलन) शीघ्र प्रकाश्य |
'हिन्दवी' एवं 'कविताकोश'-सहित सभी ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म्स पर कविताएँ उपलब्ध।
संपादन : ‘संधि-वेला’ (वाणी प्रकाशन, दिल्ली), ‘पदचिह्न’ (दानिश बुक्स, दिल्ली), ‘जनपद : विशिष्ट कवि’ (प्रकाशन संस्थान, दिल्ली), ‘प्रस्तुत प्रश्न’ (दानिश बुक्स, दिल्ली), 'चाँद यह सोने नहीं देता' (नंदकिशोर नवल की संपूर्ण कविताएँ), 'बेदर-ओ-दीवार सा इक घर' (उर्दू की प्रतिनिधि ग़ज़लों का चयन एवं संपादन), ‘कसौटी’ (विशेष संपादन-सहयोगी के रूप में ), ‘जनपद’ (हिंदी कविता का अर्धवार्षिक बुलेटिन), ‘रंग-वर्ष’ एवं ‘रंग-पर्व’ (रंगकर्म पर आधारित स्मारिकाएँ), 'जीना यहाँ मरना यहाँ' (गायक मुकेश के जीवन और कलात्मक अवदान पर केंद्रित स्मारिका)। फिलहाल अर्धवार्षिक पत्रिका 'उन्मेष' का संपादन एवं इसी नाम से एक साहित्यिक ब्लॉग का संचालन।
सुप्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेताओं, रंगकर्मियों एवं अध्यापकों द्वारा समय-समय पर कविताओं की प्रस्तुति।
भारतीय फ़िल्म और टेलीविज़न संस्थान (FTII), पुणे, महाराष्ट्र द्वारा साहित्य अकादेमी की बहुचर्चित पत्रिका 'समकालीन भारतीय साहित्य' में प्रकाशित कविता 'जो आदमी लौट आया है' पर लघु फ़िल्म का निर्माण।
रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। बचपन और किशोरावस्था में कई नाटकों में अभिनय। हिंदी की प्रमुख कविताओं और काव्य पंक्तियों पर पोस्टर्स का निर्माण एवं उनकी प्रस्तुति। हिंदी की बहुचर्चित कविताओं का काव्यात्मक गायन।
जैसे जैसे मनुष्य का तकनीकी विकास हुआ है वैसे वैसे उसकी दिक्कतें भी लगातार बढ़ती गई हैं। काम काज के सिलसिले में प्रायः हरेक को घर के बाहर जाना पड़ता है। और बाहर की दुनिया इतनी अनिश्चित होती है कि कोई ठीक ठीक यह नहीं बता सकता कि वह शाम को सकुशल घर परिवार के बीच वापस लौट जाएगा। हादसे लगातार बढ़ते जा रहे हैं। अब घर लौट आना किसी उपलब्धि से कम नहीं लगता। संजय शांडिल्य हमारे समय के महत्त्वपूर्ण कवि हैं। इन्होंने हादसे को अपनी कविताओं में दर्ज किया है। हादसे में मरना उनकी एक उम्दा कविता है। 'मैं तिरपन का हो गया' शीर्षक कविता में भी हादसों से बच जाने की प्रतिध्वनि स्पष्ट सुनी जा सकती है। अपनी इस कविता में वे लिखते हैं 'बच गया/ और बचते-बचते तिरपन का हो गया/ हालाँकि यह वाक्य लिखे जाने से पहले/ कभी भी कोई ख़तरा हो सकता था/ पर हुआ नहीं और तिरपन का हो गया'। निजी अनुभूतियों को सार्वजनिक प्रतीति से जोड़ने में संजय बेजोड़ हैं। उनकी कविता में सहज प्रवाह है जो पाठक को अन्त तक अपने साथ जोड़े रखती है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं संजय शांडिल्य की कविताएँ।
संजय शांडिल्य की कविताएँ
मैं कुछ भी हो सकता था
मैं कुछ भी हो सकता था
हो सकता था फूल
नहीं हुआ
क्योंकि तुम्हें तितली नहीं होना था
हो सकता था पेड़
नहीं हुआ
क्योंकि चिड़िया तुम्हें होना नहीं था
हो ही सकता था बादल
यह भी न हो सका
क्योंकि तुम्हें भी नदी कहाँ होना था
कुछ भी हो सकता था मैं
पर हुआ मनुष्य ही
–तुम्हारा मनुष्य
प्यार करता हुआ
इंतज़ार करता हुआ
तुम्हारा मनुष्य...
फूल कहने से फूल ही कहना नहीं होता
फूल कहने से
फूल ही कहना नहीं होता
कहना होता है तितली
भौंरा और चिड़िया भी कहना होता है
फूल कहने से
कहना होता है पेड़ भी
बादल और नदी भी कहना होता है
बुद्ध भी कहना होता है
फूल कहने से
युद्ध के विरुद्ध कहना होता है
कहना होता है प्रेम भी
कहना होता है स्वप्न
उसकी धरती
और आकाश भी कहना होता है
एक फूल कह देने से
कुछ बचता है कहने को !
हादसे में मरना
अव्वल तो
किसी हादसे में मैं मरना नहीं चाहता
जैसे स्वाद लिया है जीवन का
वैसे ही पूरा स्वाद लेना है मृत्यु का
मरते हुए स्वयं को देखना है समय-दर्पण में
जैसे जीते हुए समयारण्य में विचरता रहा सदैव
देखना है
हर क्षण क़रीब आ रही मृत्यु
कितना क्षरण कर सकती है जीवन का
इसका चेहरा कितना बिगाड़ सकती है
कितनी ताक़त छीन सकती है लौटती हुई एक काया की
चीज़ें किस तेज़ी से छूटती हैं हाथ से
कितनी तेज़ आवाज़ मरते हुए कानों को चाहिए
कितनी साफ़ रौशनी आँखों को
ज़बान को कितना लगाम चाहिए
स्मृति पर कितना भरोसा
–देखना है सब
जानना है
उम्र बढ़ते जाने पर
पाँव बढ़ाने में कितनी सावधानी चाहिए
बारिश होने पर सीधे निकलना है या छाता निकालना है
महसूसना है
प्रेम पर मेरे नज़रिए में कितना फ़र्क़ आया है
कितना फ़र्क़ आया है मेरे वसंतों के दरम्यान
आया भी है या आया हुआ बस दीखता है
मुझे तोलनी है अपनी वह शक्ति
जिससे दूर ही से जान जाता था
कि पक क्या रहा है चूल्हे पर
पक रहा है तो कितना पका है
नमक पड़ा है या नहीं
पड़ा है तो कम है या ज़्यादा
और हाँ, दाँतों के टूटते जाने पर
कितना खलल पड़ता है भोजनानंद में
समझना है ख़ुद से
अव्वल तो
किसी हादसे में मैं मरना नहीं चाहता
पर तय ही होगा
तो डूब कर मरना चाहूँगा नदी में
हालाँकि डूबता तो रहा हूँ
बार-बार डूबता रहा हूँ
कि नया प्रेम नया समुद्र रचता रहा हर बार
डूबता तो रहा हूँ
पर वैसे नहीं जैसे बेसहारा कोई डूब जाता है नदी में
नदी में डूबने का कोई तजर्बा नहीं मेरे पास
अव्वल तो
हादसे में मैं मरना नहीं चाहता
पर तय ही होगा
तो डूब कर मरना चाहूँगा नदी में
ताकि नदी का ही हो कर रह जाऊँ
नदी ही हो कर रह जाऊँ...
मैं तिरपन का हो गया
मैं तिरपन का हो गया
मरा नहीं तिरपन से पहले
किसी अंग ने बड़ा धोखा नहीं दिया
हादसे में नहीं गई जान
छिपे हुए...सहरते हुए विषैले साँप ने नहीं काटा
दुःसह दुखों में भी आत्महत्या नहीं की
यहाँ तक कि महामारी में
जब अपनों के जाने का सिलसिला थम नहीं रहा था
किसी तरह बचा सका स्वयं को या कहिए बच गया
बच गया
और बचते-बचते तिरपन का हो गया
हालाँकि यह वाक्य लिखे जाने से पहले
कभी भी कोई ख़तरा हो सकता था
पर हुआ नहीं और तिरपन का हो गया
लेकिन लगता है
जितना जिया, जी नहीं पाऊँगा
और जैसे जिया, जी नहीं पाऊँगा
लगता यह भी है
जैसे कह सका तिरपन का हो गया
वैसे, ठीक वैसे
कह नहीं पाऊँगा चौवन का हो गया...
भूमिकाएँ
अभी-अभी
मंगलेश डबराल की
पिता पर लिखी कविता पढ़ते हुए
मुझे माँ पर लिखी अपनी कविता याद आ गई
याद आया
काफ़ी चीज़ें बदलनी हैं उसमें
उसमें थोड़ी और नमी बिखेर देनी है
पिता का प्लॉट पूरा नहीं हटाना है
भाई की भूमिका बढ़ा देनी है
बहनों की सबसे ज़्यादा कर देनी है
घर की स्त्रियों को भी सही जगह रख देना है
बच्चे और कुटुंब और आस-पड़ोस
–सब उसमें हूबहू आ जाने चाहिए
और यह भी कि मेरी भूमिका
पानी की तरह रहे बनी रहे
अभी-अभी
जो कविता पढ़नी शुरू की थी पिता पर
बीच ही में कहीं छूट गई...
सर्जक
बादल
बरसते हैं उनके लिए
जो बनाते हैं बादल
पानी
ग़ैरों को भी
मिल जाता है...
जहाँ बारिश से ज़्यादा बारिश की आवाज़ होती है
यहाँ
बारिश से ज़्यादा
बारिश की आवाज़ है
संभव है
कहीं आवाज़ से ज़्यादा
हो रही होगी बारिश
जहाँ बारिश से ज़्यादा
बारिश की आवाज़ होती है
वहाँ बारिश का थोड़ा भ्रम भी होता है
जहाँ आवाज़ से ज़्यादा होती है बारिश
वहाँ कुछ यथार्थ भी होता है बारिश का...
तुम्हारे बग़ैर
तुम्हारे बग़ैर
तुम्हारी ही राह से गुज़रना
कितना तकलीफ़देह!
तुम्हारे ही ख़यालात में पड़े रहना
नुक़सानदेह कितना!
तुम्हारे बग़ैर
तुम्हारा ही हो कर रह जाना
कैसा पागलपन!
नदी से यदि शहर को देखो
नदी से
यदि शहर को देखो
तो शहर वैसा नहीं दीखता
जैसा दीखता है शहर में रहते हुए
वह दीखता है वैसा
जैसा सुनते रहे पुरखों से...पुश्तों से...
वे
एक व्याख्यान के बाद
उन्होंने यह नहीं कहा–
आपका व्याख्यान अधूरा था
बड़े सलीक़े से कहा–
हम आपको और सुनना चाहते थे
हमारी रिसेप्शन-पार्टी में
यह नहीं कहा–
आप कम सुंदर हैं अपनी पत्नी से
देखते ही गर्मजोशी से हाथ मिलाया और बोले–
बधाई, आपको सुंदर पत्नी मिली है
यह भी नहीं कहा कभी–
अपने भाई से आप बेहतर नहीं लिखते
जब भी दोनों की बात चलती
बड़े प्रेम और सम्मान से कहते–
कविता में तो बड़ा भाई वही है
उन्होंने कभी मेरा मज़ाक़ नहीं उड़ाया
कभी मज़ाक़ बनाया भी नहीं
पर निर्णय सदा देते रहे
एक आदमी ने उनसे पूछ ही लिया
हर बात को बोलना ज़रूरी है?
वे बोल उठे–
बोलना भी क्रांति में शामिल होना है
जब लगे यह बोलने का नहीं, चुप रहने का समय है
वही समय होता है बोलने का
और हाँ, सही बात राष्ट्रपति को भी कही जा सकती है
और प्रेमिका को भी
जाते-जाते वे बोलते गए–
सुनो, आदमी को निर्णायक होना चाहिए…
D
अच्छी कविताएं चुपके से लिखी जाती हैं. जैसे संजय की कविता. मैं तिरपन का हो गया हूँ. जहां बारिश से ज्यादा बारिश की आवाज होती है. कवि को बधाई. पहली बार को साधुवाद.
जवाब देंहटाएंस्वप्निल श्रीवास्तव
फैज़ाबाद
"आदमी को निर्णायक होना चाहिए"। अद्भुत ।
जवाब देंहटाएंसारी कविताएं कमाल की हैं।यह सहजता कम पढ़ने को मिलती है।
संजय जी को बधाई 🌹
विनीता बाडमेरा
अजमेर, राजस्थान