अवन्तिका राय की कविताएं

 

अवंतिका राय


लोकतन्त्र को दुनिया की सबसे बेहतर शासन प्रणाली स्वीकार किया गया है। और हो भी क्यों न, जब जनता को अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार प्राप्त हो तो उसकी बात ही कुछ और होती है । ऐसी स्थिति में शासक वर्ग जनता से जुड़ने के लिए बाध्य होता है और जनहितकारी कार्यों को सम्पन्न करता है। लेकिन लोकतंत्र के साथ एक बड़ी त्रासदी यह भी है कि इसमें नेता वर्ग भी सत्ता प्राप्त कर अक्सर अनियंत्रित हो जाता है। वह बेहिसाब संपत्ति जुटाने में तल्लीन हो जाता है। कभी-कभी तो वह इतना अनियंत्रित हो जाता है कि वह तानाशाह बन जाता है और तब उसके रंग ढंग और चाल चलन बादशाहों जैसे ही हो जाते हैं। नेता गण अक्सर चुनाव के समय ही अपने दर्शन देते हैं। चुनाव के समय लक्जरी गाड़ियों का रेला लोकतन्त्र को मुंह चिढ़ाता नजर आता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था होने के बावजूद लोक प्रायः उपेक्षित ही रहता है जबकि तन्त्र अपनी जड़ें और कमाता चला जाता है। कवि लोकतन्त्र की इस त्रासदी से भला बेखबर कैसे रह सकता है। हमारे आज के कवि अवंतिका राय ने अपनी एक कविता लोकतन्त्र और चुनाव में लोकतन्त्र और इसके पहरूओ की अच्छी खासी खबर ली है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अवंतिका राय की कुछ नई कविताएं।



अवन्तिका राय की कविताएं



जिनका लिखित इतिहास नहीं होता


जब खूब उदास हो जाना

मेरे लिए

तब खतरे उठाना

लाम पर जाना


लड़ना

सच के लिए

छोटी बड़ी लड़ाइयां

जिनका लिखित

इतिहास नहीं होता


हर लड़ाई से पहले

मेरा चेहरा

याद कर लेना,

लड़ाई 

अंदर की हो

चाहे हो बाहर की

पाओगे

कि तुम धुल रहे हो

और साफ होते जा रहे हो

निरन्तर


संघर्ष

मांजता है,

हर चुनौती

बनाती है

थोड़ी  और विवेकशील


मैं मिलूंगा

हर झंझावात में

ललकारता

और मुस्कुराता


सुनो

इतिहास पढ़ लेना

सिर्फ़ योद्धा ही हैं

जिनमें

बची रह जाती है 

चमक,

बाकी सब

हो जाते हैं निस्तेज !



लोकतन्त्र और चुनाव...


लोकतन्त्र और चुनाव सज गईं दुकानें

पूछती है धनिया इसका अपने लिये माने


झका-झक्क कुरता है, लका-लक्क पैजामा

धार बीच हरिया है, रुनझुन क्या जाने


बडी-बडी कारें हैं, नकली पुकारें हैं

नेता के पीछे है पुदिनवा बंदूक ताने


अस्पताल ही बीमार है, शिक्षा बेहाल है

जाति औ धरम बीच ललका क्या ठाने.


लक्ष्मी का जोर है, सुरसतिया किनारे है

कैसे रचें रामलाल, हैं चित्त चारों खाने


पीला चांद दाल लगे, खाली छिपा रोटी भांति

कहती रूबीना चलो खरपतवार ही चबाने


लोकतन्त्र औ चुनाव सज गईं दुकानें

पूछती है धनिया इसका अपने लिये माने



ऐसे ही होता है पतन


ऐसे ही होता है

हमारा पतन

जब हम

अमावस की

काली रात में

दिया जलाना

छोड़ देते हैं,


जब हम

जंगल के

जुगनुओं से

मुंह मोड़ लेते हैं,


जब हम

अपनी

खुशफहमी के लिये

कुत्तों को

मांस खिलाना

शुरू कर देते हैं,


जब हम

पुचकारने पर

गीले और ढीले

होने लगते हैं,


जब हम

अपने खुद के चद्दर को

मुंह तक

तान लेते हैं,


जब हम

नहीं हो पाते

शामिल

बच्चे की 

मुस्कान में,


जब हम

अपनी रूह से

रुखसत होने लगते हैं

और

खुलेआम

सच को सच

झूठ को झूठ

कहना छोड़ देते हैं


ऐसे ही होता है

हमारा पतन

जब

हमारी धार में

लग जाती है

सीले-सीले

मौसम की

जंग





राजनीति का खेल 


खेल ही होता है

सब कुछ,

अच्छे खिलाड़ी

और बुरे खिलाड़ी

फर्क सिर्फ इतना ही 


तुम कितनी धूप लोगे

कितनी हवा

और कितना पानी

कहने का मतलब

तुम्हारे हिस्से

कितना मुक्त आकाश आएगा

यह राजनीति के खेल से

तय होता है


तय होता है कि

हम उद्दाम जिएंगे

या घुट-घुट कर मरेंगे

राजनीति के खेल से


कभी इस खेल में थे

नेहरू, जी.बी. पंत, नरेन्द्रदेव और अम्बेडकर

जैसे खिलाड़ी

तब खेल में शुचिता के नियम थे 


अब बन गया है यह

खूनी खेल

नियम बदल दिए गये हैं

और आ गए हैं

इस खेल को खेलने

भेंडिए और हत्यारे

जन की जिन्दगी से खेलते

ये कैसे-कैसे सितारे ! 



मेधा पाटेकर


वह शान्त लड़ाकू

सपनीली गुड़िया सी

बचे रहें खोते-डेरे सब

फुदक-फुदक हर नदी किनारे

अनशन करती बूढ़ी चिड़िया सी.


वह राह बनाती

मरु में भी विश्वास जगाती

दिखती कभी शेरनी सी वह

बचे रहें जंगल चौबारे

न्यायालय के पट खटकाती

दौड़ रही है हिरनी सी वह


वह तर्क-प्रवण-उत्तप्त-मानुसी

झंकृत करती युग की वीणा

वह नेक श्यामली

टेर रही

हरने आदिवासियों की पीड़ा


वह गगन-चन्द्रिका

शीतल करती अपने प्रकाश से

वह रजनीगन्धा

घेर रही

अपने सुवास से



संसारी हूं मैं!


धधकती हुई अग्नि है

अन्तस में

चिटकती, धू-धू करती वासनायें

एक निर्मल मन पाने की तैयारी

संसार समिधा मुहैया करायेगा

फिर फिर चिपकूंगा

फिर फिर तडकूंगा

राख किनारे होगी

जिससे लीपा जायेगा बासन

एक छोटी अवधि के लिये प्रशान्त

फिर फिर तडकूंगा

आखिर संसारी हूं मैं!







नालन्दा जला दिया गया


आज भोर में नालन्दा की याद आयी

क्या नालन्दा का सारा ज्ञान भी जल पाया?

आज भोर में देख रहा था समाचार पत्र

खालिस्तान का संदर्भ

हटाया जाएगा

इतिहास पुस्तकों से


शासकों

तुमने सुना है आल्हा, बंगाल का बाउल और 

पूरब का बिरहा

कहते हैं

बनारस में कबीर को तब इक्के दुक्के कबीरपंथी गाते थे

एक दिन, एक बाउल वादक मस्त हो गा रहा था कबीर को बंगाल की किसी गली में, वह गली गुजरती थी टैगोर की कुटिया से। टैगोर ने समझा गीत का मर्म और पूछ बैठे बाउल वादक से की यह किसका गीत है। नाम आया बनारस के कबीर का। फिर तो कवींद्र, कबीर में डूबते और डूबते चले गए।


'सत्य स्वयं प्रकाशित होता है'

बुद्ध का यह ज्ञान, नालन्दा के जला दिए जाने से जल गया?


लोकस्मृतियों से कुछ भी नहीं जलाया जा सकता

खर भर का एहसास भी नहीं

आतातायी, आतातायी की तरह ही दर्ज होते हैं और

विदूषक, विदूषक की तरह ही

क्या  1857 से कुँवर सिंह की स्मृतियों का लोप हो सकता है?

क्या गाजीपुर के मोहम्मदाबाद में शेरपुर के अष्टशहीदों की स्मृतियों को गन्दलाया जा सकता है?


क्या एक लंबे डार्क पीरियड से 

यूरोप की महानताओं को नष्ट किया जा सका

आए नहीं डेकार्ट, स्पिनोजा, लाइबनितज, लॉक, बर्कले ह्यूम और कांट


क्या  सोवियत संघ के विघटन से

वह स्पिरिट मिट सकी

जो हर शोषण और जुल्म के खिलाफ

दुनिया भर में बलवती हो जाती है


मानव सभ्यता के हर मोड़ पर

छोड़ी गई निशानियां

कभी खत्म नही होतीं

वे और बलवती हो

और ऊर्जस्वित हो

आ जाती हैं

भिन्न भिन्न रूपों में

पन्ने हटा देने से

इतिहास कभी खण्डित हुआ है?



वे


वे

हर परिस्थिति का

विज्ञापन बना देने में

माहिर हैं

बीमारी और मृत्यु तक को

वे नहीं बख्शते


वे

विज्ञापन की

प्रतिमूर्ति हैं!

विज्ञापन के लिए

आजकल बढ़ गयी है उनकी दाढ़ी

और अनगिन बालों के पीछे छिपा है

उनका अंधेरा संसार! 


वे

किसी महामारी से नहीं डरते

डरते हैं सिर्फ़

अपने मालिकों की झिड़की से,

मालिकों के ब्राण्ड के

वे सबसे बड़े रक्षक हैं

और सबसे बड़े विज्ञापनकर्ता !

तोहफ़े में मिला है

उन्हें अमानुसों का जत्था ! 


उनकी सारी संवेदना दुबक कर

उनके तलवों के नीचे

आ गयी है

जिससे वे

नापते रहते हैं

यह भूमण्डल 

और पृथ्वी को करते हैं कृतकृत्य!


वे

चक्रवर्ती हैं

उन्हें अथाह प्यास है रक्त की !

और

उनका भोजन है

वंचितों की अस्थिमज्जा !


वे

गर्व महसूस करते हैं

अपनी पीठ पर

सेठों की गदोलियों से

और इसके लिए

वे छोड़ सकते हैं

अपनी पालतू सेना

देश के हर संवेदनशील आदमी के पीछे!


वे 

अपने ख़िलाफ़

लोगों के क्रोध को

लोगों के बीच के छोटे हिस्से के माथे

फोड़ देने में माहिर

अंग्रेजों के सच्चे वारिस हैं!

वे 

अपने शुरुआती दिनों से ही

करते रहे हैं इसका सफ़ल प्रयोग!


और आजकल साहब

वे ही अदालत हैं

वे ही गवाह हैं

वे ही मुंसिफ़ हैं

वे ही सहाफी हैं

वे ही हैं दर्शक

वे ही हैं श्रोता!



बोलना


जब आप बोलते हैं

लाख कोशिश करें

शब्द, आपकी पोल खोलते हैं


दो शब्दों के बीच

छिपी होती है आपकी वृत्ति


विस्तार दूँ तो

सब कुछ छलछलाता है

आपके शब्दों और उनके विन्यास में

मसलन

प्रेम, करूणा, वासना, हिंसा, निर्लज्जता, शांति आदि आदि।

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शबनम


दो बच्चियां बची रह गयीं हैं कुंवारी, शबनम की, एक छोटा बच्चा


यही कोई पांच साल पहले जब हम मिंया बीबी

ढूंढने गए काम वाली पास के गांव में, वह मिली, तब वे छः थे

इस जमाने में भी खुद्दारी बची रह गयी थी शबनम और उसके परिवार में; श्रम से ज्यादा कभी कुछ भी नहीं चाहा, और जो देने की कोशिश हुई, मना कर दिया, तब हम शर्माए


पति मजूरी करता; बाद में दूसरे नम्बर की बेटी

हमारे यहां काम पर लग गई

कुछ यूं घुल मिल गयी कि अपनापा आ गया

यह बन गया उसका दूसरा घर


जिंदगी चलती रही हम सबकी ख़रामा ख़रामा


फिर पति संगत में दारू पीने लग गया, फिर चरस, फिर हेरोइन

बिटिया जो भी कमाती, उड़ा जाता नशे में

शबनम सुखिया से दुखिया हो गयी,

दो बड़ी बेटियाँ शादी कर फुर्र हुईं

ये उजड़ गए और फुफआने चले गए


आज इतने दिनों बाद शबनम इस घर आई

काम की आस में

बीबी ने बताया, पहले से ही है एक काम वाली

कैसे झट छुड़ाऊं, दिल लग गया है उसका भी

कुछ भी नहीं बोली शबनम

फिर बीबी बोली, कहीं और क्यूँ नहीं पकड़ लेती काम

शबनम बोली, कहीं दूसरी जगह बेटी को कैसे भेजूँ


फिर बीबी ने उसके बच्चों को खिलाया पिलाया और कुछ रूपिए उसके हाथ पर रखा

शबनम कुछ भी न खा सकी

बच्चों का मुंह देखती रही टुकुर टुकुर


आज पहली बार बिना कुछ किए उसे रुपिया पकड़ते देखा

और पता नहीं हम सब हारे या वो हार गयी।




सम्पर्क 


मोबाइल : 7985325004

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