सेवाराम त्रिपाठी का व्यंग्य आलेख 'अपने समय से मुठभेड़'
सेवाराम त्रिपाठी |
आमतौर पर लेखन को जितना आसान समझा जाता है उतना आसान वह होता नहीं। अनुभूतियों को ज्यों का त्यों शब्दबद्ध करना किसी भी लेखक के लिए एक बड़ी चुनौती होती है। और बात जब व्यंग्य की हो, तो यह चुनौती और बढ़ जाती है। प्रख्यात व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का कथन है - “मेरे जैसे लेखक की एक और गर्दिश है। भीतर जितना बवंडर महसूस कर रहे हैं, उतना शब्दों में नहीं आ रहा है, तो रात-दिन बेचैन हैं। यह बड़ी गर्दिश का वक्त होता है, जिसे सर्जक ही समझ सकता है।” आजकल पहली बार पर हम हर महीने आलोचक सेवाराम त्रिपाठी का व्यंग्यपरक आलेख पढ़ रहे हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सेवाराम त्रिपाठी का व्यंग्य आलेख 'अपने समय से मुठभेड़'।
अपने समय से मुठभेड़
सेवाराम त्रिपाठी
“मेरा हमराह हो नहीं सकता
जिसने गर्दन कहीं झुका ली है
ज़िंदगी, खुल के वही जीता है
मौत जिसने निकट बसा ली है”
(नरेश निशांत)
लेखन कोई ऐसा-वैसा काम नहीं है। ज़ाहिर तथ्य है कि ज़िम्मेदारी नहीं तो लेखन नहीं। बिना ज़मीर और सरोकारों के वह कनकौआ उड़ाने वाली दुनिया ज़रूर हो सकती है, इसके अलावा और कुछ नहीं। लेखन तो एक विशिष्ट ढंग की साधना है या कोई कठिन तपस्या। लेखन हो या व्यंग्य, सभी को अपने समय से मुठभेड़ करनी ही पड़ती है। समय के सवालों से मुठभेड़ किए बगैर किसी लेखन की सार्थकता संभव नहीं है। लेखन कोई फैशन परेड नहीं है। वह विश्वसुंदरी बनने का कंपटीशन भी नहीं है। वह हंसी- मज़ाक की चीज़ भी नहीं है। जीवन की तमाम चुनौतियों के बीच से ही उसे आम आदमी के जीवन स्तर को स्पष्टता के साथ देखना भालना और लिखना होता है। बेचैनी और गहरी छटपटाहट के बिना व्यंग्य लेखन संभव नहीं होता। व्यंग्य लेखन के बारे में बात करने के पूर्व हरिशंकर परसाई का एक कथन स्मरण आ रहा है कि- “मैं लेखक छोटा हूं मगर संकट बड़ा हूं।” इसके निहितार्थ समझने की आवश्यकता है। ये बात किसी भी सूरत में हंसी में उड़ाई नहीं जा सकती। हमारी लेखकीय बिरादरी आज भी इससे मुक्त नहीं हो पा रही है। इसे गंभीरता से नहीं ले रही है। इसके यथार्थ को पीठ दिखा रही है। इसके बरक्स हम देख रहे हैं या लगातार देखते जा रहे हैं कि लेखक बहुत बड़े-बड़े हैं। बड़े-बड़े नामधारी हैं। लेकिन उनके द्वारा सत्ता व्यवस्था को कोई न तो संकट है और न खास कोई दिक्कत। वहां एकदम शून्य बटा सन्नाटा पसरा हुआ है। इसी से लेखकों की हैसियत का, उनकी रचनात्मकता, भूमिका और सक्रियता का ही नहीं बल्कि उसकी अस्मिता का मूल्यांकन भी विधिवत किया जा सकता है।
इस दौर में हम सभी व्यंग्य को खोज रहे हैं और व्यंग्य हमें ख़ोज रहा है। व्यंग्य लेखन भागा चला जा रहा है और व्यंग्य लेखन के उस्ताद उसको पकड़ने के लिए तरह-तरह की हिकमतें भिड़ा रहे हैं। किसी को भी व्यंग्य में घसीट देते हैं। उसके पीछे तेज़ी से भाग रहे हैं। कुछ दमदार होगा तो पढ़ा जाएगा अन्यथा वहीं केवल वन्देमातरम होता रहेगा। चापलूसी की दुनिया सजाई जाती रहेगी। हम देख रहे हैं कि प्रशंसा के बड़े-बड़े प्रखंड खुल गए हैं और पोथे के पोथे सरकाए जा रहे हैं। प्रशंसा पुराण की फाइलें सजाई जा रही हैं। सत्ता की तरह केवल जय श्री राम ही होना है।पता नहीं है कि आखिर पाठक क्या पाना चाहता है? जो लोग पाठकों को दोष देते हैं। उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि अच्छे पाठक अच्छी खासी रचनाएं खोजते हैं। अच्छी रचनाएं खोजते हैं। नहीं मिलती तो निराश होते हैं। व्यंग्यकार अपने लिखे को किससे जोड़ना चाहता है। कभी पंजाबी कवि अवतार सिंह पाश ने लिखा था संदर्भ दूसरा है लेकिन उसकी स्परिट वही है। उस पर हमारा ध्यान भी हो और गहरी नज़र भी-
“यदि देश की सुरक्षा यही होती है
कि बिना ज़मीर होना ज़िंदगी के लिए
शर्त बन जाए
आँख की पुतली में हां के सिवाय
कोई भी शब्द अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने
दंडवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है”
और सचमुच यदि यह स्पिरिट व्यंग्य में नहीं है तो हमें उससे भी खतरा है। यह ठीक तरीके से हमें समझ लेना चाहिए। ज़ाहिर है कि जीवन का सबसे बड़ा सच है मनुष्य की जिजीविषा, जद्दोजहद, सपने और उसकी कर्मशीलता के साथ उसका अजेय संघर्ष भी। जब तक जीवित हैं जीवन के लिए मुठभेड करनी है।
परसाई जी कहा करते थे- “जो अपने युग के प्रति ईमानदार नहीं होता, वह अनंत काल के प्रति कैसे हो लेता है, मेरी समझ से परे है, मुझ पर शिष्ट हास्य का रिमार्क चिपक रहा है। यह मुझे हास्यास्पद लगता है। महज़ हँसाने के लिए मैंने शायद ही कभी कुछ लिखा हो और शिष्ट तो मैं हूं ही नहीं।” व्यंग्य लेखन करने वालों को इस मुद्दे पर गंभीरता से सोचना होगा। लेखक इस चिंता से मुक्त हैं कि उनका क्या होगा? और हो भी कैसे सकता है? अब लेखक इस ज़िम्मेदारी से कई योजन दूर आ गए हैं। यह दूरी निरंतर बढ़ती ही जा रही है, लंबे-चौड़े फासले होते जा रहे हैं। जैसे राजनीतिबाज मूल्यों, सिद्धांतों और ज़मीर से लाखों योजन दूर हो कर आवाजाही कर रहे हैं। कोई मंत्री का डौल जमा कर जिस दल में बीसियों वर्षों तक जी रहा था। उसके मूल्यों में पगा था। उसको अचानक लात मार कर सत्ता-व्यवस्था के चरणों में समर्पित हो जाता है। और आरती भजन में डूब जाता है। इसके लिए उसे न किसी प्रकार लज्जा लगती, न ग्लानि और न कोई हिचक होती है। वे केचुए की तरह अपनी रीढ ख़त्म कर चुके होते हैं। देखा यह जा रहा है कि अधिकांश व्यंग्य लेखन करने वाले अपने लिए पद-पदवी, पुरस्कार-सम्मान और प्रतिष्ठा के लिए ठेके से लगे हुए हैं। वे न जाने क्या-क्या हासिल कर लेना चाहते हैं? अब हवाएं झटका-झटकी की बहने लगी हैं। ये बातें मैं किसी उपालंभ में नहीं बल्कि ज़िंदा हक़ीक़त के रूप में कह रहा हूं।किसी को चिढ़ाने के लिए भी नहीं। व्यंग्य लेखन गया चूल्हे में,। अपने आप को बनाओ।
मेरी समझ में व्यंग्य किसी लेखक के लिए किसी भी सूरत में कोई संतुष्टि प्राप्त करने की चीज़ नहीं है। और न हो सकती है। हां, वह लिखने वाले का संजीदा सुख ज़रूर हो सकता है। व्यंग्य के लिए बहुत बड़े विजन, जीवन का व्यापक परिप्रेक्ष्य, जीवन विवेक और एक बहुत बड़े कैनवास के विस्तार को समझने का माद्दा होना चाहिए। निराला जी कहा करते थे -
अभी न होगा मेरा अंत।
और कबीर आवाज़ लगाते थे-
“हम न मरब, मरिहै संसारा
हमही मिला जियावन हारा”
व्यंग्य लेखन के अनेक सूरमा पहले ही अपने जीवन मूल्यों का सार्वजनिक अंत किए हुए जी रहे हैं। पद, पुरस्कार और सम्मान में रमे हैं। व्यंग्य लेखन केंचुआ मनोविज्ञान या बिना रीढ़ की हड्डी वालों के बस का है भी नहीं। साहित्य-संस्कृति और कलाओं की दुनिया में प्रतिरोध और हस्तक्षेप लगभग-लगभग बचा है। और ज़ाहिर है कि लगभग-लगभग से व्यंग्य लेखन की चौखट तक नहीं किसी भी सूरत में नहीं जाया जा सकता। परसाई जी की एक उक्ति पुनः याद आ रही है - “आज देश की हवा में ज़हर है, यह आकस्मिक और कुछ समय का आवेश-उन्माद नहीं है। यह ठंडे दिमागों से बनाई गई एक योजना है, जिसका उद्देश्य सांप्रदायिक नफ़रत, टकराव और विभाजन के द्वारा देश की सत्ता पर कब्ज़ा करना है।” (आवारा भीड़ के खतरे)
एक विशेष बात रेखांकन करने योग्य है कि कोई भी व्यक्ति व्यंग्य लिखे कोई हर्ज नहीं। यदि उसे समय की हक़ीक़त और उसकी असलियत को नहीं बताया जाएगा और उसको ठीक ठिकाने से विश्लेषित नहीं किया जाएगा तो इसी प्रकार की परिपाटी या परंपरा विकसित हो जाएगी और कालांतर में वह लाइलाज़ भी हो जाएगा। आलोचना के अवसान की वेला में और ठेके से प्रशंसा पुराण में फंसे समय में सभी प्रकार की वास्तविकताएं धाराधार ही बह जाएंगी। गै भैंस पानी की स्टाइल में। बचेगा तो केवल भक्ति-भाव और भजन-कीर्तन, जो इस दौर में भयानक तारीके से राजनीति, समाजनीति और व्यंग्य लेखन की दुनिया में विराट पैमाने पर तारी हो रहा है। क्या वजह है कि कि गलत प्रशंसा में ही लोग टनटना रहे हैं। पता नहीं क्यों मुझे हर हक़ीक़त में परसाई क्यों स्मरण आते हैं - “राजनीति में, साहित्य में, कला में, धर्म में, शिक्षा में अंधे बैठे हैं और आँख वाले उन्हें ढो रहे हैं।” (कंधे श्रवण कुमार के) न जाने ढोने की यह परंपरा कब विराम लेगी।
लेखन पर उसकी मनमानी पर और उसके क्रिया-कलापों पर सोचता हूं तो रोना आता है। इस अथाह दुःख को आख़िर किससे कहा जाए या किससे शेयर किया जाए। रहीम ने यूं ही नहीं सुझाया था -
“रहिमन निज मन की व्यथा मन ही राख्यो गोय
सुनि इठलैहें लोग सब, बांट न लैहें कोय”
लेखन कोई फैशन शो नहीं है कि आओ यहां शब्दों को क्लिक करते जाओ और बिना प्रतिमानों के जो जी में आए चिपकाते जाओ। लेखक होना कठिन काम है और जेनुअन लेखक होना तो और भी ज्यादा मुश्किल काम है। व्यंग्य लेखक होना तो चार बांस चौबीस गज है। व्यंग्य बिना बैचैनी के आंतरिक तड़प के संभव ही नहीं है। लेखक अपने आप से लड़ता है और अपने भीतर भी झांकता है। अपना आत्मविसर्जन भी करता है और बाहर निरंतर लड़ता है। ज़ाहिर है कि व्यंग्य लेखन हा-हा, हू-हू नहीं है। हरिशंकर परसाई के शब्द हैं - “लेखक हर व्यवस्था से असंतुष्ट होता है क्योंकि कोई भी व्यवस्था अंतिम नहीं है।” संतुष्ट तो सुअर ही हो सकते हैं। इधर मैं देख रहा हूं कि प्रायः जिसे देखो वो व्यंग्य में चाहे अनचाहे हास्य, मज़ाक, विनोद-मसखरी और स्वांग घुसेड़ने में लगा है। उन्हें न जीवन का फटापन बैचेन करता और न दिन-रात का बेजा संघर्ष, न अन्याय-अत्याचार। उनके भीतर का ताप व्यंग्य लेखन से प्रायः कम ही आता है। लेखक का समूचा ताप सुविधाएं ले गई। वे महाशय बिना किसी ताप के व्यंग्य भांजने में लगे हैं। और थोक में प्रोडक्शन कर रहे हैं। नाम कमाने की स्पृहा ने ऐसे हाल कर दिए हैं। व्यंग्यकार केवल अपने समय भर में नहीं बंधा है, बल्कि वो अतीत वर्तमान और आगत भविष्य को चलचित्र की तरह और उसके सभी पार्श्वों को देखता परखता है। तभी वह अपनी समकालीनता को गहराई से पहचान सकता है। उसके संकटों को रख सकता है। जूझ सकता है और मूल्यों के लिए मर भी सकता है। व्यंग्य लेखन की दुनिया चोंचलेबाज़ी की दुनिया नहीं है। वह लेखक के लिए जोखम की दुनिया है।
इधर हो यह रहा है कि राष्ट्रीय स्तर पर झूठ महाझूठ का भारी भरकम पहाड़ खड़ा कर दिया गया है। क्या व्यंग्य लेखन भी उसी कैटेगरी में आ कर झूठ में बिला जायेगा? मुक्तिबोध ने बहुत सख़्त लहजे में कविता में दर्ज़ किया था -
“समाज में जितने भी निंदा प्रस्ताव हैं
सब हमें याद हैं
हर एक चेहरा व जीवन रहस्य हम जानते
कौन किस उल्लू का कितना बड़ा पट्ठा है
सब हमें मालूम”
लेखक की लड़ाई उसकी स्वयं से हुआ करती है।
हरिशंकर परसाई की संवेदनशीलता, दृष्टि सम्पन्नता, अपार क्षमता की खूबी यह रही है कि वो अपने समय, समाज की संरचना को, उसकी विकृतियों, विरूपताओं, विसंगतियों-अंतर्विरोधों, पाखंडों-द्वंद्वों और बिडंबनाओं को ले कर बहुत सावधान, सचेत और बैचेन भी होते रहे हैं। दुःखद पक्ष है कि ज़्यादातर व्यंग्य लेखन भाषा और उसके शिल्प शैली को ले कर खुश होते आ रहे हैं। वे गड़गड़ा रहे हैं और ठठ्ठा मार कर हंसते जा रहे हैं। वे जीवन के विविध हाहाकारों को उतनी गंभीरता से शायद नहीं लेते। वह वाग्विलास में सरपट दौड़ने लगते हैं। व्यंग्य की असलियत प्रायः उससे छूट जाती है। इसे सबर समेटा न समझें बल्कि कुछ अपवाद भी हैं। इसे किसी भी सूरत में हमें भूलना नहीं चाहिए।
हमारे जीवन और समय के सवालों से मुठभेड़ किए बगैर और जनता से जुड़े बगैर सही ढंग का लेखन नहीं किया जा सकता। व्यंग्य लेखन में मूल्यों के विघटन के सवाल की चिंताएं नदारत होती जा रही हैं। लेखक का जीवन गर्दिशविहीन होता जा रहा है। वह प्रायः आर्थिक बेचैनियाें से मुक्त है। उसका सिर लगभग गायब होने की कगार पर है केवल कबंध लड़ रहा है हवा में। जिससे किसी का बाल बांका नहीं होने वाला है। ज़ाहिर है कि साहसहीन हो कर व्यंग्य नहीं लिखा जा सकता। बेचैन हुए बिना लेखन संभव हो सकता है क्या? परसाई जी का कथन है - “मेरे जैसे लेखक की एक और गर्दिश है। भीतर जितना बवंडर महसूस कर रहे हैं, उतना शब्दों में नहीं आ रहा है, तो रात-दिन बेचैन हैं। यह बड़ी गर्दिश का वक्त होता है, जिसे सर्जक ही समझ सकता है।”
परसाई के समय से हमारे जीवन संघर्ष अलहदा हैं और इस समय की नज़ाकत, जद्दोजहद और मुश्किलात भी थोड़ा भिन्न हैं। व्यंग्य लेखन की स्थितियां हज़ार गुना ज्यादा बढ़ चुकी हैं। लेकिन लेखन में ताप दिन-ब-दिन कम होता जा रहा है। प्रश्न है कि क्या हम परसाई जी के नाम का जाप कर रहे हैं या उनसे कुछ सीख भी रहे हैं। यह प्रश्न व्यंग्य लिखने वाले व्यंग्यकार को ख़ुद से करना होगा। तभी उसे सही संदर्भ और रास्ता मिल सकता है अन्यथा वह ढोल के पोल में ही फंसा रहेगा। मुझे लगता है कि ईमानदारी हमें चिढ़ा रही है और हम केवल सन्नाये हुए हैं। फिर भी असफलता से पार जाने की सोच रहे हैं और कोशिश भी कर रहे हैं।
अंत में अष्टभुजा शुक्ल के शब्दों में कहना है कि -
“यह जीवन हमने भी ढोया
गूँथ-गूंथ कर कच्ची मिट्टी, मोटी रोटी पोया
उसमें नमक लगा कर चाटा, झूठे ही मुंह धोया
बालू जितना पानी पी कर, पाटी पकड़े सोया
रोते - रोते हंसा बीच में, हँसते-हँसते रोया
शत्रु मित्र को परख न पाया, पूरी हांडी टोया
बना रहा किरकिरी आंख की, सोने दिया न सोया
क ख ग इस अदा में लिक्खा, वेद लिख रहा गोया”
इस पूरे प्रकरण में अपनी ओर से कुछ बातें ही जोड़ रहा हूं। लेखक शाश्वत लेखन करने में जुटे हैं और इसी में अपनी मुक्ति मानते और तलाशते हैं। यह बड़े विचित्र किस्म की अंतहीन मुक्ति है। जो व्यंग्य लेखक अपने चमकने के लिए लड़ेगा और समूची सुविधाएं कबाड़ने के लिए तीया-पांचा करेगा। अमरत्व की ख़ोज करेगा और अपनी पोथियों को छपाने में बेशर्मी ढिठाई से रीढ़हीन होकर सरपट दौड़ता रहेगा, वो एक विशेष प्रकार का घोंचू ही होगा।
अंत में हरिशंकर परसाई की एक बात कहना चाहूंगा - “मुझे ज्ञानियों ने लगातार सलाह दी कि कुछ शाश्वत लिखो। ऐसा लिखो, जो अमर रहे। ऐसी सलाह देने वाली कब के मर गए। मैं ज़िंदा हूं क्योंकि, जो मैं आज लिखता हूं कल मर जाता है। लेखकों को मेरी सलाह है कि ऐसा सोच कर कभी मत लिखो कि मैं शाश्वत लिख रहा हूं। शाश्वत लिखने वाले तुरंत मृत्यु को प्राप्त होते हैं। अपना लिखा जो रोज़ मरता देखते हैं वही अमर होते हैं।”
आज हमारे बीच हरिशंकर परसाई शरीर रूप में नहीं है। वे तो 1995 में हमसे विदा हो गए थे लेकिन वे अपनी छवियों में, रचनात्मकता में दिन-ब-दिन प्रासंगिक और महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। उनके लिखे हुए सूत्र वाक्य किसी अमिट शिलालेख की तरह। उनके लिखे व्यंग्य का इस्तेमाल चर्वण के रूप में नहीं कर सकते।उनका लिखा हुआ हमें एक लंबे कालखंड तक याद आता रहेगा। परसाई जी के संघर्ष को स्मरण कराता रहेगा और उनकी भूमिका को भी। मैं यहां परसाई जी की जिम्मेदारी और लेखकीय भूमिका को ही स्मरण करने की कोशिश कर रहा हूं।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेंद्र जी की हैं।)
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