पंकज मित्र की कहानी ‘सामंतो बाबू का रेडियो’।


पंकज मित्र



किसी भी देश काल का साहित्य अपने समय के युग सत्य को उद्घाटित करता है। इतिहास जिन वाकयों को बताने में अक्सर चूक जाता है साहित्य उसे बेबाकी से रेखांकित करता है। दरअसल इतिहास के सामने साक्ष्यों की समस्या होती है। इतिहासकार साक्ष्य के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता जबकि साहित्यकार साक्ष्यों की लक्ष्मण रेखा से घिरा नहीं होता। वह अपने कल्पनात्मक उड़ान के जरिए अपनी बातें कहने के लिए स्वतंत्र होता है। नक्सलवाड़ी आन्दोलन ऐसा आन्दोलन था जिसकी शुरुआत के मूल में समान भूमि वितरण का लक्ष्य था। अपना लक्ष्य पाने के लिए इस आन्दोलन ने हिंसा की राह पर चलने से भी गुरेज नहीं किया। इसी क्रम में कई बार यह भटकाव का भी शिकार हुआ। सत्ता के लिए यह आन्दोलन हमेशा एक चुनौती की तरह रहा। सत्ता ने इसके दमन के लिए हर सम्भव प्रयास किए। यही वजह थी कि जिस पर थोड़ा भी इस आंदोलन से जुड़ने का सन्देह होता उसे सत्ता के कोप का शिकार बनना पड़ता। पंकज मित्र हमारे समय के प्रतिष्ठित कथाकार हैं। सामंतो बाबू का रेडियो जैसी सशक्त कहानी के जरिए पंकज इस आन्दोलन के उन स्थितियों को रेखांकित करते हैं जिसमें निर्दोष कोका और शांति भी पुलिस के निर्मम शिकार बन जाते हैं। रेडियो को ले कर पुलिस वालों के विश्लेषण उस कारुणिक हास्य को उद्घाटित करता है जो सत्ता के लिए आम बात है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है पंकज मित्र की कहानी सामंतो बाबू का रेडियो



सामंतो बाबू का रेडियो

           

पंकज मित्र




वैसे तो मोहब्बत के लिए जान कुर्बान कर देने का इतिहास बहुत पुराना है पर जिस चीज से उतनी मोहब्बत करता था कोका वही एक दिन उसकी जान जाने की वजह बन जायेगी यह नहीं सोचा था। वैसे लोग तो मानते थे कि कोका क्या सोचेगा, और सोच भी लिया तो बोलेगा कैसे, और बोल भी दिया तो लोग समझेंगे कैसे। कोका जिस भाषा में बोलता था वह लोग समझते नहीं। शब्दों की जगह ऐ-ऐ-ई-ई-ए 3-3 जैसे स्वर वर्ण और भाव-भंगिमा, हाथों के इशारे, चेहरे पर उत्तेजना। और हँसी की उजास - यही सब मिला कर समझ पाये तो ठीक नहीं तो कोका यह जा वह जा। कोका नाम तो लोगों ने रख दिया था यह मान कर कि वह सुन भी नहीं पाता लेकिन जिस तन्मयता से वह सामंतो बाबू के बजते ट्रांजिस्टर को सुनता था और सामंतो बाबू के नाब पर घूमती उँगलियों के साथ-साथ उसकी मुखमुद्राएँ बदलती थी उससे इस धारणा की पुष्टि नहीं होती थी  - मसलन समाचारों के आते ही एक निराशा और चिढ़ का भाव और गाने आते ही खुशी और सिर का हिलाना। पर ज्यादातर समय सामंतो बाबू उसे खुश होने का मौका नहीं देते थे और कोका सोचता कि वहीं चिढ़ और निराशा तो सामंतो बाबू को समाचारों को सुनने से होती है - बल्कि वह तो बड़बड़ाते भी है - सिर्फ बड़बड़ाते नहीं अंगे्रजी में कुछ बोलते भी है जिसका मतलब कोका नहीं समझता पर मुखमुद्रा और आवाज की गुर्राहट बताती है कि निश्चित रूप से वे अंग्रेजी में गालियाँ बकते है। अब इतने मोतबर आदमी हिन्दी में या देसी भाषा में गाली थोड़े ही देंगे। कोका समझ नहीं पाता कि जब इतनी चिढ़ होती है तो समाचार सुनते ही क्यों है। गाने सुना करें और खुश रहा करें जैसे वह रहता है। जब रेडियो बजना बंद हो जाता है तो कोका अपने स्वरवर्णी गानों को गुनगुना कर खुश रहा करता है ओर सामंतो बाबू के घर का कामकाज निबटाता है। पूरे गाँव के लोग कोका के बारे में नहीं जानते कि वह कहाँ से आया था। पर अब उस बात को कई बरस हो गये थे। और अब तो कोका इस गाँव का स्थायी निवासी हो चुका था - बाकायदा - बड़ों के लिए रे कोकवा! और छोटों के लिए- कोका भैया! लोग तो सामंतो बाबू के बारे में भी बहुत कुछ नहीं जानते थे अलबत्ता उनके बाबू जी के बारे में जरूर जानते थे। इसी गाँव में उनकी कामत थी। रहते वे शहर की एक आलीशान कोठी में थे तब जूनियर सामंतो बाबू भी दाढ़ी काली थी और पैर भी ठीक था मतलब अभी भी तरह भचक कर नहीं चलते थे जिनके चलने की नकल कोका छोटे बच्चों के सामने करता था जब छोटे बच्चे उसे लालच देते थे - ऐ कोका भैया! बुढ़वा कैसे चलो हो देखाउ न एक बार। लेमचूस देबो। पहले तो कोका प्रबल वेग से सिर हिलाता था और हाथों को भी नहीं-नहीं के अंदाज में। पर बच्चे जब लेमचूस सचमुच दिखाते तो लालच से पार नहीं पाता और यह सुनिश्चित करने के बाद कि इस जगह पर सामंतो बाबू की नजर नहीं पड़ेगी, वह ठीक सामंतो बाबू की तरह भचक कर चलता और बच्चे पीछे-पीछे ताली बजाते। इस जुलूस का विसर्जन तब होता जब सामंतो बाबू के रेडियो की आवाज गूंजने लगती - दिस इज आल इंडिया रेडियो। द न्यूज रेड बाय...... बस काका दौड़ कर सामंतो बाबू के कमरे के दरवाजे पर खड़ा हो जाता मंत्रबिद्ध सा। रेडियो की आवाज के साथ उसे वह दृश्य भी देखना रहता था जब समाचारों के उतार-चढ़ाव के साथ-साथ सामंतो बाबू घायल शेर की तरह तेज-तेज चहलकदमी करते थे पीछे हाथ बाँधे और अंगे्रजी में कुछ-कुछ बिड़-बिड़ करते हुए - कुछ तो था जो सामंतो बाबू को पसंद नहीं आ रहा था - या- तो रेडियो की आवाज या फिर उस पर बोली जा रही बात। यह दृश्य तब तक चलता जब तक लोक गीत आने नहीं लगते। सामंतो बाबू एकदम शांत हो कर झूलने वाली आराम कुर्सी पर बैठ जाते थे और आँखें बंद कर गीत सुनते- चेहरे पर अपूर्व शांति का भाव लिए ओर इस बीच कब शांति आ कर तिपाई पर रखे चाय के पाट को भर कर रख देती वह देखते भी नहीं आँख खोल कर। दरवाजे पर खड़े कोका को शांति वहाँ से जाने का इशारा करती - अपनी सफेद दंत पंक्तियाँ दिखाती हुई और झाड़ू देने लगती बेआवाज। रेडियो पर आती लोक गीत की यह आवाज सामंतो बाबू और कोका दोनों पर जादू सा असर करती थी। सामंतो बाबू आँखें मूंद कर बल्कि कभी-कभी तो आँखों की कोर से निःशब्द ढुलकते आँसुओं की बूँद भी देखी थी कोका ने और कोका सिर हिला-हिला कर उस गीत के दर्द को और सांद्र कर देता था। दर्द की एक ऐसी चिलक थी इस आवाज में कि गीत के बोल नहीं समझते हुए भी कोका का कंठ रूँध जाता था जो आवाज निकलने के मामले में तो पहले से ही रूँधा हुआ था। कल सुबहे जब शांति आयेगी तो इस गीत को गुनगुनाने को कहेगा कोका बल्कि इसका अर्थ भी बताने को कहेगा। शांति जरूर समझती है यह भाषा क्योंकि कोका ने सुना है गुनगुनाते हुए उसे कई बार यह गीत, पर यह भी मालूम है उसे कि वह सफेद दंत पक्तियाँ दिखाते हुए वह टाल देगी बतायेगी नहीं। ऐसा दिखावा करेगी कि कोका की बात वह समझ ही नहीं रही है। शाम को शांति अपने घर चली जाती है। सामंतो बाबू और कोका के लिए खाना पका कर रख देती है और शाम के बाद भी सारी जिम्मेदारी कोका की - छ बजे के समाचारों के साथ ही धूप-लोबान का धुआँ पूरे घर में करना, ताकि मच्छर भाग जाये, साढ़े सात बजे पानी का जग गिलास ला कर रखना और वह शानदार बोतल भी जिसे कोका हसरत की निगाहों से देखता है, एकाधबार सूंघा भी है ढक्कन हटा कर, बस इससे आगे नहीं। उसे बहुत अच्छा लगता है जब आठ से पौने नौ बजे के बीच फिल्मी गानों के बीच आमतौर पर गुरू-गंभीर रहने वाले सामंतो बाबू काफी प्रगल्भ हो जाते है और कोका से बहुत सारी बाते करते हैं जिसमें ज्यादातर बातें उसकी समझ से परे होती है और वह अपनी तरफ से तो खैर -
           




हिन्दी-अंग्रेजी समाचारों के बाद कोका का काम है खाना गर्म कर परोस देना और सामंतो बाबू को तेज-तेज खाते देखना जैसे कोई बोझ सर से हटा रहे हो। बर्तन वगैरह समेट कर मच्छरदानी लगा देना जिसके अंदर टेबल लैंप जला कर देर रात तक सामंतो बाबू पढ़ते रहते थे उन किताबों को जो उनके बिस्तर का अधिकांश हिस्सा घेरे रहती। रेडियों थोड़ा धीमा हो जाता और इसी वक्त गाने आते थे जिन्हें सुनने के लिए कोका को बड़ी मशक्कत करनी पड़ती थी। जरा से खटके से ही सामंतों बाबू की जोरदार - कौन है़? चंदू-चंदू!  गूंजती थी जो कोका के दिल को दहला देती और सहला भी देती क्योंकि इसी वक्त कोका को अपने होने का, अपना भी एक नाम होने का अहसास होता और यह अहसास उसे शांति से भर देता था। शांति हमेशा उसके सम्पूर्ण नाम से बुलाती थी, वह नाम जो शांति ने ही उसे दिया था - चंदन! सुनते ही बघवा नदी के पास बने मंदिर के पुजारी जी की टुन-टुन बजती पूजा की घंटियाँ बजने लगती थी जैसे। कहते हैं कि बघवा नदी इसका नाम इसलिए पड़ गया था कि कभी बाघ इसमें पानी पीने आते थे तब चारों तरफ जंगल था। अब इस तरफ तो जंगल रहा नहीं। उस तरफ भले अभी भी है जंगल जिधर से सियारों के हुआँ-हुआँ की आवाजें आती थी रात को और कभी-कभी भूतों की आँखे के जलने-बुझने के दृश्य भी दिखते थे। बाहर बरामदे पर सोया कोका चादर को आपादमस्तक ओढ़ कर गुड़ी-मुड़ी हो कर सो जाता था। खटाक की आवाज के साथ टेबल लैंप और रेडियो एक साथ बंद हो जाते थे जिसका मतलब था सामंतो बाबू सोने की तेयारी करेंगे। हाँ! तैयारी ही करनी पड़ती थी क्योंकि वह कब सोते यह न कोका जान पाता न खुद सामंतो बाबू। कोका प्रार्थना करता कि उसकी खुद की नींद न टूटे अधबीच रात और वह भूतखेला के दृश्य देखना नहीं चाहता। लेकिन उस दिन तो देख ही लिया था - ओह रे बाप! - बघवा नदी की तरफ से कई भूतों की जलती बुझती आँखे और इधर से भी एक बड़ी सी जलती आँख, फिर नदी के पास सबका मिलना-जुलना। डर गया था कोका। जब उसने भूत के इस महारास का जिक्र शांति से किया- बड़ी मुसीबत से समझा पाया अपनी बात... - ऐ-उ-भू करके तो शांति ने उड़ा दी बात - दुर! भूत का करेगा तुम तो अपने बड़का भूत के साथ रहता है। खाली टोकना मत रात बेरात - कह कर सफेद दंत पंक्तियाँ दिखलाती चली गई शांति। श्यामवर्णा शांति की उज्जवल दंत पंक्तियाँ कोका के रूधिर में एक झनझनाहट भर देती थी। निष्पलक ताकता रह जाता था कोका शांति के चेहरे की ओर। ऐसा नहीं था कि शांति समझती नहीं थी पर खिलखिलाती पहाड़ी नदी का क्या तो समझना और क्या बूझना।





सात बजे शाम जग-गिलास और नमकीन पनीर भुने जीरे के पाउडर के साथ वाले कार्यक्रम के दोरान जब रेडियो बज रहा था और उसी कलाकार की सोज भरी आवाज जब गूंज रही थी और सामंतो बाबू का जिरह बख्तर कुछ पिघल चुका था तो कोका को चैका दिया सामंतो बाबू ने एकतरफा वार्तालाप में - अच्छा चंदू! तुमको शांति कैसी लगती है? कोका के दोनों कान सुन्न हो गये। तो क्या सामंतो बाबू ने वह हड़प्पा लिपि पढ़ ली जिसे बड़े जतन से कोका ने गोपन रखा था। वह सिर झुकाये खड़ा रहा।


- अरे! शर्माओ मत। अच्छी लड़की है शांति। जानता है चंदू! - सामंतो बाबू की जीभ की अर्गला खुल चुकी थी पूरी की पूरी। - इस्पात पिघल-पिघल कर अगल-बगल बह गया था और एक निष्पाप शिशु की तरह मुँह खोले कोका की तरफ देख रहे थे वे।


- शांति मुझे किसी की याद दिलाती है। इसलिए इसको काम पर रखने में एक मिनट देर नहीं किया। गुनगुंनाते हुए सुना है तुमने कभी शांति को? एकदम अविकल कंठस्वर .....


रेडियो पर समाचारों की उद्घोषणा के साथ ही फिर जिरह दख्तर चढ़ गया। सामंतो बाबू का चेहरा तनावपूर्ण..... ध्यान से सुन रहे थे और हर बार शासन के जिक्र के साथ ही मुखमुद्रा ओर कठोर होती जा रही थी। तभी कोका को याद आया कि अरे जा! आज मच्छर भगाने का उपक्रम तो किया ही नहीं उसने और न बाबू ने याद दिलाया। दौड़ कर लोबान सुलगाकर ले आया। सामंतो बाबू बरस पड़े कोका पर और दाँत पीस का बोले - ये खून चूसने वाले ऐसे मरने वाले नहीं है। इन्हें घर बंद कर, धुआँ देख कर दम घोंट कर मारने की जरूरत है, समझा!



कोका कुछ नहीं समझा। सिर्फ इतना कि बाबू उस पर नाराज है और कल से वह ऐसी गलती कभी नहीं करेगा। दूसरे दिन शांति के सामने बाकायदा कान पकड़ कर जीभ भी निकाली उसने। माजरा समझ कर शांति खिलखिला कर हँस पड़ी ओर कोका के बालों पर हाथ से कंघी कर दी उसे - पागल कहीं का। सामंतो बाबू खाना खा चुके थे और बिछावन पर लेट कर दिवानिद्रा का सुख ले रहे थे और शांति अपनी गुईया के साथ बघवा नदी की ओर जा रही थी। अब दोनों मिल कर मछलियों की तरह छप-छप करेगी छिछले पानी में। चमकता जल और रोशनी की चिलक मारते बालू में अभ्रक के कण..... सर्र से छोटी सी मछली निकल जाती थी पास से। कभी-कभार कोका गमछे में मछली पकड़ लाता था और शांति और वह मछली को शाल के पत्ते में लपेट कर आग में भून कर खाते। सामंतो बाबू का रेडियो दोपहर में ही शुरू हो जाता उनकी दिवानिद्रम खत्म होते ही। शांति को उनके जगने से पहले ही खाना-वाना खा कर, बरतन वगैरह धो कर, चाय का पानी तैयार रखना पड़ता था। आज फिर उसी गायिका का वह गीत आ रहा था जिसे आराम कुर्सी पर बैठ कर आँखें मूंद कर सुनते थे सामंतो बाबू - अम्बा मंजरे मधु मातलय रे/ तइसने पिया मातल जाय/ नाग-नागिन काँचूर छोड़लय रे/ तइसने पिया छोड़ल जाय (आम्र मंजरियाँ मधु से मताये हैं वैसे ही पिया माताल है। जैसे नाग-नागिन केंचुली छोड़ते है। वैसे ही पिया छोड़ कर जा रहे)


वही दर्द की चिलक-पिया के जाने की कसक -
- बाबू! चाय !
- अँ-हाँ - ओ, शांति...... रख दो, पी लूँगा
- पी लीजिये - ठंडा जायेगा - अधिकार के दर्प से भरी आवाज।
- सुना तुमने शांति - वही आवाज - तुम्हारे से मिलती


- केतना बार बतायें बाबू - उ हमारी आयो (माँ) नहीं थी। हमारे बाबा बताये थे कि आपके जेल जाने के बाद वह एकदम बौरा गई थी और कभी हाट में, कभी बाजार में गीत-नाद करले चलती थी - तभी रेडियो वाला लोग उसको ले गया था - बोला था, गाना रेडिया पर देगा - तो बात रखा न उ लोग।
           




दरवाजे के बाहर खड़े कोका का माथा बन्न-बन्न घूम रहा था - बाबू क्यों मानते है कि इस आवाज की स्वामिनी ही शांति की मां थी? और बाबू जेल क्यों गए थे? इन सारे लटकते-झटकते सवालों का जवाब सिर्फ शांति दे सकती थी पर वह देगी नहीं हर बार की तरह। किसी और से पूछने का कोई लाभ नहीं। एक बार कोशिश की थी उसने गोविन्द साव की चाय दुकान पर बड़ी मशक्कत से बाबू का इशारा समझा पाया था और लोग जब तक समझे और गाँव के सबसे बुजुर्ग आदमी सोमरा महतो ने जब समझा कि वह सामंतो बाबू के बारे में जानकारी चाह रहा है तो सब को जैसे सांप सूँघ गया। सबकी आँखों में एक डर सा महसूस किया कोका ने - और सोमरा महतो लाठी टेकते उठ खड़ा हुआ- चलते हैं आलू देख ले जरा। रमेसर भी खेनी मलता हुआ बघवा नदी की तरफ। गोविन्द साव कोका की तरफ जलती निगाहों से देखने लगा कि सारे संभावित ग्राहकों को भगा दिया उसने। कोका माथा खुजलाता रहा कि बाबू का जिक्र आते ही सब के चेहरे पर आशंका और भय क्यों दिखने लगा। जवाब मिला खुद सामंतो बाबू से सात बजे के बाद वाले उस सत्र में जब बापू के चेहरे का इस्पात पिघल जाता था - क्या रे चंदू! बहूत पूछता रहता है मेरे बारे में - काफी नरम हो कर कहा था लेकिन कोका डर गया कि बाबू को कैसे पता चला इस पूछताछ के बारे में।
           


- आंख-कान खोल कर रखना पड़ता है रे, नहीं तो तब बचता कैसे आपरेशन स्टीपलचेजमें? खाली टाँग में गोली लग गया गलती से। गलती से था कि जान बूझ कर पता नहीं - कोलकाता प्रेसीडेंसी में था तब। रोज छुप कर मीटिंग करता - एक दिन पता लग गया इस्पेक्टर घोष को। मेरे बाबा का दोस्त था। टाँग में गोली मार के हास्पीटल में भर्ती कर दिया। बाबा आया था हास्पीटल में ..... दूर से देख कर चला गया। ठीक होते ही यहाँ भेज दिया.... जबर्दस्ती।



पूरी तरह नहीं समझने के बावजूद कोका को लग रहा था सुनता ही रहे बाबू की कहानी उन्हीं की जुबानी। लेकिन तभी वही... समाचार शुरू हो गये रेडियो पर और बाबू के चेहरे पर फिर से इस्पात की चादर चढ़ गई। इसी पृथ्वी के इसी देश के इसी राज्य के इसी कोने के लिए कोई समाचार था जिसे सुन कर सामंतो बाबू का चेहरा ऐंठ कर विकृत हो गया था और गुर्राहट निकलने लगी। कोका निकल आया कमरे से और खाना गरम करने में लग गया। दूसरे दिन दोपहर में जब बाबू दिवानिद्रा में थे तभी शांति बघवा नदी की तरफ जाती दिखी – अकेली - आज गुईंया नहीं थी - कोका ने इशारे से पूछा। शांति ने इशारे में जवाब दिया - गुईंया को बुखार है। इशारे से पूछा - मैं साथ चलूँ? इशारे में जवाब मिला - मार खायेगा। स्नान के बाद गीले तन और गीले मन के साथ बालू पर बैठी शांति बाल सुखा रही तो कोका पीछे-पीछे आ गया और औचक सामने आ गया - डर गयी शांति और कोका हँसते-हँसते लोट-पोट। जैसे शांति को डरा देना उसकी एक बड़ी उपलब्धि हो - एकदम भोले शिशु सा - हँस रहा था जोर-जोर से। शांति हँसती हुई मारने दौड़ी - गिर गया कोका पास ही। लड़खड़ा कर गिर पड़ी शांति - दोनों की सम्मिलित हँसी और बघवा नदी की छपक-छपक मिल कर एक आनंद संगीत रच रही थी - अलस भाव से जब वे उठे तो नदी के बालू पर सोहराई चित्रकला उकेर दी थी उनके पाँवों ने - लता गुल्मों की, उन पर बैठे पखेरूओं के, मोरों का नर्तन था तो इंद्रधनुष की छटा थी। बघवा नदी साक्षी बनी इस महामिलन की।
- चंदन!
- हूँ!
- तू मुझे गाने कहता है न - तो सुन आज -
- हम नहीं जानली/ पीरिति जोड़ोली/ भरल नदिया में झाँप जे देली/ (मुझे नहीं मालूम/ प्रीत जोड़ा मैंने/ भरी नदियां में कूद गई जैसे)



बाबू ठीक कहते हैं, एकदम अविकल कंठ स्वर उसी लोक गायिका का। बालू पर रेडियो का चित्र उकेर कर समझाया - शांति समझ गई।


- बाबू जब आये और यहाँ रहने लगे तभी प्र्रेम हो गया। बड़े बाबू कहां अंग्रेजी गाना सुनने वाला आदमी और उनका बेटा देस वाली गायिका को चाहने लगा। बड़े बाबू आये एक बार बंदूक ले कर - बाप-बेटा में खूब झगड़ा हुआ। बड़े बाबू के जाते ही दूसरे दिन कलकत्ता से पुलिस आई और बाबू को पकड़ कर ले गई जेल। कहते हैं बड़े बाबू ने खुद फोन पर पुलिस को बताया था। क्या तो बाबू आमार-बाड़ी तोमार-बाड़ी नक्सलबाड़ी में थे। वही चार्ज लगा कर दे दिया जेल। कमजोर वाला धारा लगाया तो दो साल में बेल हो गया। फिर आये और खूब खोजा उसे। कहाँ-कहाँ नहीं खोजा, रेडियो स्टेशन भी गये लेकिन कोई बता नहीं पाया उसका पता। थक-हार कर लौट आये।


कोका चुपचाप उसका मुँह ताक रहा था जैसे एक-एक शब्द पी रहा हो चुपचाप। इशारे से पूछा - तुम्हारी आयो (माँ)?


- नहीं रे - बोला न मेरी माँ नहीं थी वह - सिर घुमा कर आँखों में ढुलक आये आँसू की बूंद को पोंछ डाला।



           

सुबह खबर जंगल की आग की तरह फैल गई। सामंतो बाबू निःखोज थे - गायब थे - कोका तो बरामदे पर ही सोया था। रात में भूतों की जलती आँखों का खेल भी देखा था उसने। फिर देर तक नींद नहीं आई थी उसे। सुबह जब ठंडी ठंडी हवा चली तो रात्रि जागरण की खुमारी ने घेर लिया और वह बेसुध हो कर सो गया था। नींद खुली थी पुलिस के बूट की ठोकर से।

- रे मादर - उठ। कहाँ है सामंतो उर्फ राजो दा उर्फ जितू दा।
           

कोका फटी-फटी आँखों से देखने लगा। पूरा गाँव जमा था। शांति को भी दो-तीन जवानों ने घेर रखा था और गालियों के साथ-साथ थप्पड़ भी लगा रहे थे। वह भी जैसे जड़ हो गई थी।

- लगता है हुजूर! इन्फार्मेशन मिल गया था। मुँह अँधेरे भाग गया। इन दोनों को ले चलो।

फिर एक छोटे पुलिस वाले ने मँझले से बात की मँझले ने बड़े से फिर तीनों से सिर हिलाया।



- सुनो - दोनों से मुखातिब थे। कुछ खबर मिले तो चौकीदार को बताना, ठीक है नहीं तो दोनों के पिछवाड़े इ वाला डाल देंगे। - हाथ में पकड़ा एसाल्ट राइफल दिखाया। शांति जड़ थी पर उसने कोका की ओर इशारा कर हाथ जोड़े पुलिस अधिकारियों के सामने -
- क्या बोल रही है? - गरजा मँझला वाला।
- हुजूर! बोल रही है कि उसे छोड़ दिया जाय वह तो कोका है।
- मतलब?
- मतलब बोल-सुन नहीं सकता। गाँव के किसी ने डरते हुए कहा।


- जब डंडा डालेंगे तब बोलने-सुनने लगेगा - यह सी. आर. पी. एफ. वाला था और तुम लोग सालों किसी को पता नहीं था कि एक इतना खतरनाक आदमी तुम्हारे बीच रह रहा है - सब साले मिले हुए हैं मादर .................... चलो फिर आयेंगे हम। बीच-बीच में दबिश देनी होगी। जब से पावर प्लांट आने की बात हुई है इन लोगों का मूवमेंट काफी बढ़ गया है।
- हजोर! - एड़ियाँ चटकी थी।
           


फिर से आने के लिए ज्यादा इंतजार भी नहीं करना पड़ा। पूरे गांव की नींद उस खबर से खुली कि बघवा नदी के किनारे एक महिला की लाश पड़ी है जो पट हो कर पड़ी है इसलिए चेहरा देखना संभव नहीं है पर हुलिया और कपड़ो से लगता है शांति की है। यह खबर गांव में फैलते ही सारे मर्द किसी न किसी बहाने गाँव छोड़ कर दो-तीन दिनों के लिए निकल पड़े - किसी को शादी में जाना, पड़ा, किसी को मुकदमे के सिलसिले में। कोई अस्पताल में भरती हो गया तो कोई रिश्तेदारी में निकल पड़ा।



गोविन्द साव की दुकान की पटिया गिरा दी गई थी और जैसी कि आशंका थी पुलिस और सी. आर. पी. एफ. की एक संयुक्त टुकड़ी हाँय-हाँय साइरन बजाते हुए धमक पड़ी। लाश को कब्जे में ले लिया गया। दो-तीन गोलियां मारी गई थी और एक गोली तो बिल्कुल ऐसी जगह मारी थी कि पता भी नहीं लग पा रहा था कि मारने से पहले क्या कुछ घटा था उसके साथ। सायरन की आवाज सुनते ही कोका जो तब तक शांति के शव को देख कर लगातार रोये जा रहा था, अचानक भाग कर सामंतो बाबू के बरामदे पर गया गुदड़ी के नीचे से रेडियो निकाला जो एक लोभनीय वस्तु थी, जिसको पाना उसके लिए स्वर्ग पाने जैसा था और बाड़ी के पीछे जहाँ घूरा था, कबाड़ फेंका जाता था वहीं छुप गया। वहाँ से वह घर में हो रही गतिविधियों पर नजर रख सकता था और पुलिस की निगाहों से बचा भी रह सकता था।



- व्हाट डू यू थिंक मि. सिंह?
- हमको लगता है सर कि नदी के पास वाले जंगल से लोग आये होंगे।
- बट मोटिव क्या रहा होगा?
- इंफार्मर का शक रहा होगा सर।
           

तभी भय से या असावधानी से छिपे हुए कोका के हाथ से रेडियो का नाब घूम गया और बड़े जोर से रेडियो बजने लगा। आसपास खड़े सी. आर. पी. एफ. जवानों की राइफलें एकाएक घूम गयी उस ओर जिधर से आवाज आई थी।

- देखो, कौन है उधर।
           

रीढ की हड्डी तक में डर की एक ठंडी लकीर दौड़ गई थी कोका के। सफेद कफन में लिपटा शांति का शव पड़ा था पुलिस वालों के आगे बालू पर। कोका पसीने-पसीने हो गया। बूटों की धमक पास आती जा रही थी। वह रेडियो लिए हुए भागा।
- गेट दैट बास्टर्ड।
           

कोका बगटुट भागा जा रहा था। रेडियो को दोनों हांथों से सिर के ऊपर उठाये जैसे कोई विजय का स्मृति चिन्ह हो।
- देखो, नदी पार न करने पाये, उधर चला गया तो जंगल में घुस जायेगा। हाथ में क्या है उसके? सावधान!
- वायरलेस जैसा कुछ है सर।
- कोई मैसेज पास कर रहा है लगता है -
            मैसेज के नाम पर कोका घबराहट में ऐ-ऐ ऊ-ऊ की आवाजें निकाल रहा था।
- शूट हिम। - आदेश था तो पालन होना ही था।
           


धाँय! तीन बार लुड़क गया कोका। एक हृदय विदारक चीख निकली अंतिम बार और शायद पहली बार भी। बालू पर जहाँ शांति और उसके पाँवों ने चित्र कला उकेरी थी कभी, उसमें उसके और शांति के रक्त ने रंग भर दिये थे। कोका का गाढ़ा लाल रक्त और शांति का धीरे-धीरे सूख कर काला पड़ गया रक्त।


- इ क्या है। देखो चेक करो! बी केयरफुल। ट्रांजिस्टर बम भी हो सकता है।
- सर! इ तो रेडियो हैं। बस... जवान ने नाब घुमाई।
गीत आ रहा था -
           

हम नहीं जानली/ पीरिति जोड़ोली/ भरल नदिया में झाँप जे देली।


(गीत-पारंपरिक एवं डा राम दयाल मुंडा की रचनाओं से साभार)



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं।)  



सम्पर्क 


मोबाईल : 9470956032

ई मेल : pankajmitro@gmail.com



टिप्पणियाँ

  1. अद्भुत कहानी...कोका के जरिये उस दौर को एकदम सामने लाकर रख दिया है लेखक ने। वैसे भी पंकज मित्र की कहानियों की जितनी प्रशंसा की जाए, कम होगी।

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